INS WA JAAN PART 4
परी सर्दी बहुत ज़्यादा हो गयी है। हमें कॉलेज से छुट्टियाँ हो रही हैं और...
अब मैं... वह झिझका।
वह अपनी नीलगूं आँखों से गौर से उसके चेहरे के उतार-चढ़ाव देख रही थी।
"अब मैं रोज़ नहीं आ पाऊँगा। दादाजी कहीं जाने नहीं देंगे। सर्दी बहुत ज्यादा है, हम सब घर में ही रहते हैं।"
"ठीक है, मर्जी है तुम्हारी!" वह नाराज़ लहज़े में बोली।
वे पहाड़ी की ढलान पर बैठे थे। सामने सड़क बिल्कुल ख़ामोश थी और पहाड़ों पर बर्फ़ जमनी शुरू हो गई थी।
"देखो, मेरी मजबूरी है! तुम फोन भी तो नहीं लेती, मैं क्या करूँ? मेरी तो तुम कोई बात नहीं मानती, बस अपनी मनवाती हो!"
"तुम रोज़ नहीं आ सकते, लेकिन मैं तो आ सकती हूँ।" वह मुस्कुराती आँखों से उसे देखते हुए बोली।
"क्या मतलब?" उसने नासमझी से उसे देखा।
"मतलब यह कि मैं तुम्हारे गाँव आया करूँगी, रोज़ तुमसे मिलने।"
"तुम पागल हो गई हो?"
वह अपनी जगह से उछला।
"वह तो मैं हूँ!" वह मुस्कुराई।
"तुम कैसे आओगी इतनी दूर और इतनी बर्फबारी में? और तुम्हारे घरवाले? अगर उन्हें पता चल गया... तो? मेरे घरवालों ने हमें देख लिया... तो?"
"कुछ भी नहीं होगा। न तुम्हारे घरवाले देखेंगे, न मेरे घरवाले कुछ कहेंगे। तुम उनकी फ़िक्र मत करो।"
"तुम वहाँ नहीं आओगी, मैंने कह दिया बस!"
"तुम मुझे नहीं रोक सकते! हिम्मत है तो रोक कर दिखाओ!" वह ज़िद्दी लहज़े में बोली।
"तुम्हारा दिमाग़ ख़राब हो गया है, प्री! कैसी दीवानों वाली बातें कर रही हो?"
"तुमने ही दीवाना किया है, अब भुगतो!" वह मज़े से कह रही थी।
अब्दुल्ला अपना सिर पीटकर रह गया।
आसपास हल्की-हल्की बर्फ गिरनी शुरू हो गई थी। मरी का आसमान अपने तेवर बदल रहा था और उन दोनों को इस सुनसान वादी में बैठे देखकर हैरान था।
"कल शाम चार बजे मैं आऊँगी, तुम अपने घर के पीछे वाले पहाड़ पर आ जाना।" वह कहकर जाने लगी।
"तुम ऐसा कुछ नहीं करोगी! रुको... प्री... मेरी बात सुनो!"
अब्दुल्ला ने उसका लहराता दुपट्टा थामना चाहा, पर वह उसके हाथ से फिसलता हुआ निकल गया।
और वह खुद भी बिजली की रफ्तार से पहाड़ी के दूसरी तरफ उतरने लगी और उसकी निगाहों से ओझल हो गई।
"क्या चीज़ है ये लड़की!" वह सोचकर रह गया।
तुझे शर्म नहीं आई ऐसी हरकत करते हुए? न तेरा बाप ऐसा है, न दादा, न भाई!"
ज़ैनत ने अपने बेटे हातिम को झिंझोड़ा, जो सिर झुकाए मार खा रहा था।
"अम्मी जान, क्या हुआ?"
अब्दुल्ला अभी वापस आया था। उसने भाई को मार खाते देख पूछा।
"इस बेशर्म से पूछ, क्या हुआ है?"
वह अब भी ख़ामोश था और ज़ैनत थक-हारकर बैठ गई थी।
"हाय मेरी क़िस्मत! पता नहीं ये क्यों ऐसा निकल आया? किसका मनहूस साया पड़ गया इस पर?" वह शिकवे करने लगी।
"ओए, बोल ना! क्या किया है तूने?"
अब्दुल्ला ने उसे बाज़ू से पकड़ा और उसकी ठोड़ी उठाकर उसका चेहरा ऊपर किया।
"कुछ नहीं।" उसने नज़रें चुराईं और बाज़ू छुड़ाकर बाहर भागा।
"बेग़ैरत! एक तो बदमाशी करता है, फिर झूठ भी बोलता है! आने दे तेरे दादा और बाप को, चमड़ी उतरवाती हूँ तेरी!"
ज़ैनत ने खींचकर उसे जूता दे मारा, जो ठीक निशाने पर लगा।
वह दरवाज़े से अंदर आते अपने दादा, मास्टर अय्यूब से टकरा गया।
"रुक जा, लड़के!"
वह उनसे लिपट गया।
"क्या हुआ है बहू? क्यों चिल्ला रही हो इतना? देखो, मार-मार के बेचारे का मुँह लाल कर दिया। पता नहीं तुम औरतें बच्चों को क्यों मारती हो?" वे अफ़सोस भरे लहज़े में बोले।
"अब्बा जी, आपको अपने लाडले के करतूत पता चलेंगी ना, तो आप भी उसके साथ यही सुलूक करेंगे!"
"ऐसा क्या कर दिया इसने?"
वह अब तक उनसे चिपका खड़ा था, जैसे कोई महफूज़ ठिकाना मिल गया हो।
"वह जो इसके साथ बच्ची पढ़ती है ना स्कूल में, उसको ख़त लिखता है ये... 'लव लेटर'! आज उसकी माँ ने उसके बैग से बरामद किए हैं ख़त, और मुझे इतनी बातें सुनाकर गई है कि मेरा दिल चाह रहा था कि डूब मरूँ!"
वह ग़ुस्से में ऊँची आवाज़ में बोली।
"अरे, मेरा पोता ऐसा नहीं है! जरूर उस औरत को ग़लतफ़हमी हुई है।"
अब्दुल्ला मुजरिम सा एक तरफ खड़ा था। अगर कभी उसका भांडा फूट गया, तो बड़े बेटे होने के नाते उसके माँ-बाप उसे कभी माफ़ नहीं करेंगे। कितनी उम्मीदें उससे वाबस्ता थीं। उसकी शराफ़त की मिसालें दी जाती थीं। और अगर सबको पता चल जाता कि वह प्री से छुप-छुपकर मिलता है, तो उसकी सारी इज़्ज़त ख़ाक में मिल जाती।
"हाँ जी, मैं भी यही समझती थी! अब आँख खुल गई है मेरी। लिखावट मिला के देख लो, कोई फ़र्क़ नहीं!"
दादा जी ने हातिम का चेहरा ग़ौर से देखा। उसने चोर नज़रें झुका लीं।
"अच्छा चलो, मैं पूछता हूँ इससे। बहू, तुम ग़ुस्सा ख़त्म करो।"
वे उसे अपने साथ कमरे में ले आए।
"बैठो इधर।"
उन्होंने उसे सोफ़े पर बिठाया और खुद सामने बैठ गए।
"यह लो, पानी पियो।"
वह एक ही साँस में सारा पानी पी गया।
वे उसे गौर से देख रहे थे। उसके लाल-सफेद चेहरे पर शर्मिंदगी और उलझन के मिले-जुले भाव थे।
तेरह साल की उम्र में ही वह काफ़ी बड़ा दिखता था। कद भी अच्छा-खासा था और बाकी भाइयों की तरह वह भी स्वस्थ और सुंदर था। घने काले बाल माथे पर बिखरे हुए थे।
"क्या हुआ था? असल मामला क्या है?"
जब वह थोड़ा शांत हुआ तो उन्होंने बात की शुरुआत की।
"वह मुझे अच्छी लगती है।"
उसने सिर झुकाए ही तुरंत स्वीकार कर लिया।
"और तुम्हें वह कैसी लगती है?"
"अच्छा लगता हूँ।"
"वह खत तुमने लिखे थे?"
उसने हामी में सिर हिलाया।
"उसने भी तुम्हें जवाब दिया?"
"जी..."
वह सिर झुकाए जूते से कालीन को रगड़ रहा था। मास्टर अय्यूब को अपना तेरह साल का यह पोता एकदम बड़ा लगा। वह अपने ताया इस्माइल से बहुत मिलता-जुलता था।
"क्या तुम्हें उससे मोहब्बत हो गई है?"
उसने हाँ में सिर हिलाया।
"अभी उम्र कम नहीं है? शादी भी नहीं हो सकती। बच्चे हो अभी तुम। अब क्या करें?"
दादा जी की नज़रें उसी पर टिकी थीं।
उसने कोई जवाब नहीं दिया। वह अभी भी सिर झुकाए बैठा था।
अब्दुल्ला अंदर आकर चुपचाप दूसरे सोफे पर बैठ गया।
"इधर देखो, मेरी तरफ।"
हातिम ने सिर उठाकर अपने दादा को देखा। उनकी भूरी आँखों में कुछ खो देने की कसक थी और उसकी अपनी शहद-रंगी आँखें विनती करती सी लग रही थीं। वह वैसे ही उन्हें देखता रहा।
"जानते हो मोहब्बत होती क्या है? जिससे मोहब्बत हो, उसकी खातिर क्या कुछ करना पड़ता है?"
उन्होंने एक ठंडी आह भरी। बाहर बर्फ गिरने की आवाज़ थी। खिड़कियों से बर्फ के नन्हे-नन्हे गोले टकराकर ढेर होते जा रहे थे और रास्ते बंद कर रहे थे।
"काश तुम आज से सत्तर साल पहले पैदा होते, तब तुम मोहब्बत को अपनी आँखों से देखते।"
उनकी आँखों में टूटन थी।
"मैंने मोहब्बत को अपनी इन आँखों से देखा है। वह आज भी ज़िंदा है। मोहब्बत करने वाले मर जाते हैं, पर मोहब्बत नहीं मरती। यह मिलन का नाम नहीं है, यह कुर्बानी माँगती है।"
"जब पाकिस्तान बना था, तब मैं आठ साल का था। दंगाइयों ने हमारे गाँव पर हमला किया। मेरे दादा के दोस्त का घर था। मर्द सारे बाहर थे या शायद मार दिए गए थे। घर में सिर्फ़ बूढ़े दादा और दर्जन भर औरतें थीं - बेटियाँ, बहुएँ, पोतियाँ और भतीजियाँ।"
"दादा रोने लगे - मैं तुम्हें कहाँ छुपाऊँ? मेरी तो ज़िंदगी पूरी हो चुकी है, लेकिन मेरी बेटियाँ..."
"बेटियों ने कहा - अब्बा जी, आप चिंता न करें, हमें आपकी सीख याद है।"
"और फिर दंगाइयों ने देखा कि दर्जन भर औरतों ने 'अल्लाह-हु-अकबर' का नारा लगाया और एक-एक करके आँगन में बने कुएँ में कूद गईं। वे गुस्से से पागल हो गए। उस घर से मुसलमानों की एक भी औरत उनके हाथ नहीं आई।"
"मैं बच्चा था, उनके घर खेलने जाता था। मैं अंदर छुपा यह सब देख रहा था। उन्होंने बूढ़े दादा को किन-किन यातनाओं से मार डाला, मैं बयान नहीं कर सकता।"
उनकी आँखें छलकने को तैयार थीं, जैसे वे अब भी उसी दृश्य का हिस्सा हों।
"वे एक पल में पूरा घर उजाड़ गए। उनके जाने के बाद मैं रोता-बिलखता घर को भागा। घर वाले भरा-पूरा घर छोड़कर जा रहे थे। मेरी माँ मुझे ढूँढ रही थी। मुझसे छोटे तीन भाई-बहन थे। हम उन्हें उठाकर वहाँ से बचते-बचाते निकल गए।"
"रास्ते में हमने कितनी लाशें देखीं - बच्चे, बूढ़े, औरतें, मर्द - गाजर-मूली की तरह कटे पड़े थे। उन्हें भी एक तरतीब से काटा जाता था, यह नहीं कि जहाँ मन आया, छुरी फेर दी।"
वे सांस लेने को रुके, आवाज़ भारी हो गई थी।
"इतना खून देखकर मैं गुमसुम हो गया था। बस मुझे जो बात याद रही थी वह यह थी कि हम अपने वतन जा रहे हैं। हमें अपने वतन और अपने दीन से इतनी मोहब्बत थी कि हमने अपनी हर चीज़ उस पर कुर्बान कर दी।"
"क्या इतनी मोहब्बत भी कोई करता है? कि सिर न झुकाए गुलामी स्वीकार न करे और तड़प-तड़प कर जान दे दे?"
कमरे में उनकी सिसकियाँ गूँज रही थीं।
"यह होती है मोहब्बत।"
"या उन फ़ौजियों की मोहब्बत के जैसी जो जान हथेली पर लिए फिरते हैं। तुम्हारे ताया को देखा होता, तो तुम्हें पता होता मोहब्बत क्या होती है।"
"मेरा पहला बेटा था इस्माइल, और पहली औलाद कितनी अज़ीज़ होती है, तुम जब बाप बनोगे तो समझोगे।"
"अट्ठारह साल का था जब मैंने उसे फौज में भर्ती कराया था। कहता था - अब्बा, आप शहीद के बाप कहलाएँगे।"
"मोर्चे पर गया, बर्फ़ीले पहाड़ों पर उसकी ड्यूटी थी। दुश्मन ने हमला किया, उसने डटकर मुकाबला किया और उन्हें मार भगाया। बड़ा जिगर वाला था।"
"जंग ख़त्म होने के बाद सब शहीदों के शव मिल गए थे, वह न ज़िंदा मिला, न शहीदों में।"
"एक साल हमने इंतज़ार किया। उसकी माँ के तो आँसू सूखते नहीं थे।"
"आख़िर एक दिन खबर आई - आपका बेटा मिल गया है।"
"शहादत के बाद वह पहाड़ी से नीचे खाई में गिर गया था। लेकिन एक साल बाद भी उसके जख़्मों से खून रिस रहा था। उसकी एक टांग कटी हुई थी, बहुत ढूंढ़ी, पर नहीं मिली।"
"मुझे आज भी अपने शहीद बेटे पर फख्र है।"
"यह होती है मोहब्बत। मैं अपनी आँखों से देख चुका हूँ।"
"क्या ऐसी मोहब्बत करते हो तुम उससे? सब कुछ छोड़ सकते हो? अपना शरीर कुर्बान कर सकते हो?"
हातिम ने तुरंत ना में सिर हिला दिया।
"तो जाओ मेरे बच्चे, खाओ-पीओ और पढ़ाई करो। जब मोहब्बत को अपनी आँखों से देख लेना, फिर मुझे बताना मोहब्बत कैसी होती है।"
फिर मैं तेरी शादी इस बच्ची से करवा दूँगा- तब तक उसे भूल जा-
वह किसी की बेटी है, अपनी शैतानी और गुमराही में उसे बेवकूफ न बना- और न ही उसे बदनाम कर- लड़कियाँ तो वैसे ही कमजोर दिल की होती हैं- बड़ी जल्दी झूठी बातों और तारीफों पर विश्वास कर लेती हैं- प्यार नाम की तितली हमेशा उन्हें अपने पीछे भगाते-भगाते थका देती है। और हासिल कुछ नहीं होता।
लड़कियाँ काँच से ज़्यादा नाज़ुक होती हैं- अगर इस काँच में दरार पड़ गई न- तो मैं तुझे मुजरिम ठहराऊँगा हातिम-
तू लड़का है- कल को मर्द बनेगा- अगर तेरा दिल किसी और पर आ गया तो तू इस बेचारी को छोड़ने में देर नहीं लगाएगा-
वह जो पागल तेरी बातों में आकर विश्वास किए बैठी है फिर उसका क्या होगा? कच्ची उम्र का प्यार अज़ाब होता है, औरत की जान नहीं छोड़ता- नादानी की उम्र का पहला अनुभव मार डालता है- जब कोई चीज़ पहली बार चखी जाए न तो वह बड़ी स्वाद लगती है। यह प्यार का जज़्बा जब पहली बार जन्म लेता है न तो बड़ा अनोखा लगता है और इंसान इसके ख्याल से बाहर नहीं निकल पाता।
मैं तो तुझे अब तक बच्चा ही समझता था, पर तू इतना बड़ा हो गया है कि मेरी बातें तुझे समझ आ रही होंगी-
आगे से तूने इसको न तो कोई ख़त लिखना है और न उससे लेना है-
समझ गया या नहीं?
समझ गया दादाजी- उसके चेहरे का اضطرाब कम हो गया था- और वह शांत लग रहा था- शायद दादाजी की बातें उसके दिल पर असर कर गई थीं-
अकल कुछ बड़ी हो गई थी पर उम्र अभी बच्ची थी- और बच्चा हर नई चीज़ की तरफ भागता है- दुनिया के हर नए अनुभव को करना चाहता है- हर जज़्बा उसके लिए नया होता है- जिनमें से एक प्यार और सख्स-ए-मुखालिफ़ भी है- यह एक फितरी खींच है।
अब्दुल्ला रात भर दादाजी की बातें सोचता रहा था- और रह-रह के इस दीवानी का ख्याल उसे आता था-
मुझे दादाजी से बात करनी चाहिए- मैं बीस साल का हो गया हूँ और तीन-चार साल में MBBS करके अपने पैरों पर खड़ा हो जाऊँगा-
इस रिश्ते को कोई नाम देना चाहिए- लेकिन पहले परी से बात करनी होगी- उसके तो घर का भी मुझे नहीं पता-
अब आएगी तो पूछूंगा- वह अपनी तरफ से संतुष्ट होकर सो गया था-
पर उसे नहीं पता था कि यह इतना आसान नहीं था जितना वह समझ रहा था- परी के साथ उम्र भर का रिश्ता बनाना किसी जंग के बराबर था- क़िस्मत उसके साथ क्या खेल खेल रही है, वह एकदम बेखबर था।