LAGAN IN HINDI (PART 4) NIKAH KE BAAD

https://www.novelkistories786.com/


वह एक बेहद शानदार और प्रभावशाली औरत थीं।
भारी-भरकम शरीर, बेदाग़ सफ़ेद रंगत, मुग़लिया दौर के नफ़ीस नख़्श।
बड़ी-बड़ी और साफ़ आँखें।

सादे सूट के ऊपर उन्होंने एक कश्मीरी शाल लपेट रखी थी।
उनके चेहरे पर एक गहरा रौब और एक अलग ही तरह की गरिमा थी।

"वाह! ऐसी शानदार माँ तो उसने पहले कभी देखी ही नहीं थी।"

अब तक जो माएँ उसने देखी थीं, वे बिल्कुल अलग थीं।
वे महिलाएँ थीं, जो हर शाम क्लब जाती थीं।
स्लीवलेस ब्लाउज़ पहनती थीं, अंदाज़ से सिगरेट थामती थीं।
सुबह कॉफ़ी पार्टियों में जातीं, शाम को ब्रिज (ताश का खेल) खेलतीं।
उनके खुले कंधे और गर्दन कभी उनकी उम्र की चुग़ली नहीं करते थे।

वे अपने पतियों को "यार" कहकर बुलाती थीं और उनके दोस्तों के कंधों पर ठहाके लगाते हुए हाथ मारकर बातें करती थीं।
बच्चों को छोड़कर दुनिया के हर विषय पर बोल सकती थीं।
बच्चे उनके लिए एक साइड बिज़नेस की तरह थे, जिनकी देखभाल गवर्नेस या आया करती थी।
कम बच्चे और ज़्यादा नौकर-चाकर – यह उनका स्टेटस सिंबल था।

रात को पार्टियों में वे डांस करतीं,
मन करता तो शराब भी पी लेतीं,
लेकिन किचन और खाना बनाने से उन्हें बेहद घिन आती थी।

खाने से ज़्यादा उन्हें अपने खूबसूरत नाखून प्यारे थे।
वे ज़्यादातर डाइट कंट्रोल करती थीं और अपनी काया की हिफ़ाज़त अपने बच्चे से भी ज़्यादा करती थीं।

उनके पति उनके ग़ुलाम होते थे।
बड़ी-बड़ी गाड़ियों और ईरानी क़ालीनों की तरह उनके आगे-पीछे घूमते रहते थे।

हाँ, इन औरतों की एक ख़ूबी थी, जो फ़लक को बहुत ज़्यादा पसंद थी...

इसे भी पढ़े बेस्ट नावेल अब हिंदी में :

वह एक खुले दिल और खुले विचारों वाली माँ थीं।
उन्होंने बच्चों को पूरी आज़ादी दे रखी थी। वह कहती थीं, "इन बेचारों को भी जीवन का पूरा आनंद लेने का अधिकार होना चाहिए।"
दोस्त बनाने, पार्टियों में जाने और अपनी पसंद के काम करने की अनुमति मिलनी चाहिए।

इसीलिए फ़लक को अपनी माँ बहुत पसंद थी।
माँ ने कभी उसकी ज़िन्दगी में दखल नहीं दिया था, और न ही चाहती थीं कि कोई उनकी ज़िन्दगी के मामलों में दखल दे।

लेकिन आफ़ाक़ की माँ तो बिल्कुल अलग थीं।
वह एक ऐसी माँ थीं, जिनका ज़िक्र सिर्फ़ कहानियों में ही होता था।

कुछ समय के लिए, उसके दिल में अजीब सा अहसास उठा। फिर उसे आफ़ाक़ की माँ से एक गहरा रिश्ता महसूस हुआ।

लेकिन उसने अपने दिल को समझाया, "कहाँ पाकिस्तान में रहना है, वह तो अमेरिका चली जाएगी, और फिर वह आफ़ाक़ की पूरी ज़िन्दगी पर अपना हक़ जता लेगी।"

एक तरफ़ से माँ ने उसका हाथ पकड़ा हुआ था और दूसरी तरफ़ से आफ़ाक़ की माँ ने।
वह मोड़ के करीब पहुँच गई।

पता नहीं किसकी किस्मत थी, लेकिन वह फूलों और सोने की तारों से सजी हुई थी।
बाकी लोग भी पास आ गए।

किसी ने आफ़ाक़ का हाथ पकड़कर उसे उसके पास खड़ा कर दिया।
उसका दिल धड़कने लगा।

वह थोड़े से घूंघट के पीछे से आफ़ाक़ को ध्यान से देख रही थी।

हिंदी,उर्दू,इंग्लिश में बेस्ट नावेल अब इस वेबसाइट https://www.novelkistories786.com/ पर पढ़े : 

वह बहुत खूबसूरत लग रहा था और उसके होंठों पर एक दिलकश मुस्कान निरंतर झूम रही थी। उसकी आँखों में एक शरारत सी थी।
ऐसा लगता था जैसे आफ़ाक़ आज बहुत खुश है। उसके चेहरे पर चाँद-तारे देख कर फ़लक के मन में सचमुच शहनाइयाँ बजने लगीं।
अचानक उसे आफ़ाक़ से प्यार करने का मन करने लगा।

उसने महसूस किया, जैसे वह दोनों जहान उससे दिल खोल कर प्यार कर सकती है।

तभी किसी ने दरवाज़ा खोला। वह पीछे बैठ गई। फिर उसे बिलकुल पास, आफ़ाक़ को बैठा दिया गया।
दूसरी ओर उसकी माँ आकर बैठ गई।
वह बीच में थी।
एक ओर आफ़ाक़ का इतना पास होना, और दूसरी ओर आफ़ाक़।

किसने क्या किया, कितने फूल कार से गिराए गए और कितने पंखुड़ियाँ उछाली गईं, उसने कुछ नहीं देखा।
वह सिर्फ आफ़ाक़ के उस सुंदर, भरे-भरे चमकदार हाथ को देख रही थी, जो सामने उसके घुटने पर रखा था।
उसमें एक सुनहरी और सफेद अंगूठी चमक रही थी।
दूसरे हाथ से वह सिगरेट पी रहा था।

वह कितना करीब था, वह चाहती थी कि उसका हाथ छूकर देखे, लेकिन फिर उसे आफ़ाक़ की माँ 

गुस्सा आने लगा।
अच्छा क्या था उन्हें साथ बैठाने की?
अगर वह अकेली होती तो क्या वह आफ़ाक़ के हाथ को छूने की हिम्मत कर पाती?
शायद, उसने दिल में सोचा। मगर नहीं। आफ़ाक़ और तरह का आदमी था। जो काम खुद उसे करना चाहिए था,
शायद वह अपनी दुल्हन से ऐसी उम्मीद न रखता हो।

अच्छा हुआ कि उसकी माँ साथ आकर बैठ गईं, वरना शायद वह कोई ओछी हरकत कर ही बैठती।
उत्साह में आदमी अंधा हो जाता है।

"बस थोड़ा और सब्र!"
वह अपने आप से कहने लगी।
फासला अब थोड़ा कम हो चुका था। थोड़ी देर में ही सब कुछ बदलने वाला था।

फिर वह आयी और उसका आफ़ाक़ घर आ चुका था।
लोग उसे कार से उतार रहे थे।

यहां उसने अपनी नजरें झुका लीं और धीरे-धीरे दुल्हन बन कर अपनी सास के साथ कदम से कदम मिला कर चलने लगी।

यहां भी बहुत शानदार इंतज़ाम था।
एक बड़े हॉल में उसके लिए एक ऊंचा पलंग लगा दिया गया था।
वह वहां बिठाई गई।

सभी लोग दुल्हन की अगवानी और फिर मार्गदर्शन के लिए दौड़े जा रहे थे।

थोड़ी देर में ही हलचल थी, तो उसने घड़ी पर समय देखा। रात के ग्यारह बज चुके थे।

वह थकान महसूस कर रही थी।
पता नहीं कब उसे छुटकारा मिलेगा।
लेकिन शुक्र है, मेहमानों से जल्दी ही छुटकारा मिल गया। एक महिला ने उसे उसके बेडरूम में ले जाकर छोड़ा।

वाह!
यह शयनकक्ष तो बिल्कुल एक ख्वाबों की दुनिया जैसा नजर आ रहा था।
फूल और रोशनियाँ एक साथ लहरा रहे थे।
फूलों के बिछाए बिस्तर पर सफेद चमकदार चादर नई कहानियों की दावत दे रही थी।
एक तरफ़ हल्की सी संगीत बज रही थी।
सामने एक बड़ा आईना था। हलके रंग की सिल्क की चादरें वातावरण को और भी आकर्षक बना रही थीं।
हीटर ने कड़ाके की ठंड में कमरे को गरम कर दिया था। इस कमरे में आते ही उसकी सारी थकावट दूर हो गई।

एक महिला ने उसका जरूरी सामान ड्रेसिंग रूम में छोड़ दिया था। जाते हुए, उसने कुछ मजाक भी किया, जिसे उसने जरूरी नहीं समझा।
वह खड़ी सोच रही थी कि अब क्या करना चाहिए।

अभी वह कुछ फैसला नहीं कर पाई थी कि उसकी सास अंदर आ गईं।
वह सच में एक बहुत शानदार महिला थीं।
उनके चेहरे पर स्नेह के साथ एक गहरी गरिमा थी।
पता नहीं क्यों, उन्हें देख कर फ़लक का दिल डर से कांपने लगता था।
वह घबराकर सोफ़े पर बैठ गई।

"तवायफ" नावेल हिंदी में पढ़े :

उसने फ़लक के माथे को चूमा और एक हीरे की अंगूठी उसके हाथ में डालते हुए बोलीं:
"मैं सुबह तक नहीं रुक सकती। मेरी दुआ है तुम दोनों खुश रहो। आफ़ाक़ से कहना कि वह तुम्हें अमेरिका लेकर आए। वहां बहुत लोग तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं। जब तुम वहाँ आओगी तो मैं एक शानदार दावत का इंतजाम करूंगी।"
फिर उन्होंने कुछ और बातें कीं और बाहर निकल गईं।

उसका दिल चाह रहा था कि उनसे कुछ बात करे। वह कोई शर्मीली भी नहीं थी, लेकिन उनका रौबदार चेहरा देखकर उसकी जुबान जैसे बंध सी गई थी। वह पूछना चाहती थी कि वे क्यों जा रही हैं। सुबह ही तो वलीमा है, और वे वलीमे की दावत में क्यों नहीं शामिल हो सकतीं?
आखिर ऐसी कौन सी मजबूरी है?

लेकिन वह पूछ नहीं सकी। फिर भी उसके अवचेतन में कहीं एक खुशी की हलचल थी।
ऐसी माँ अगर घर में रहती, तो उसका शांति से जीवन जीना मुश्किल हो जाता। अच्छा हुआ, उन्हें दूर ही रहना चाहिए।
वह वैसे भी सास के अस्तित्व से खुश नहीं थी। वह अक्सर कहती थी कि... वह किसी ऐसे आदमी से शादी करेगी, जिसकी माँ मर चुकी हो।

आफ़ाक़ का मामला तो कुछ और था, जिसमें उसने सब कुछ स्वीकार कर लिया था।
लेकिन अब उसे खुशी हो रही थी कि यह कांटा अपने आप हट गया।
इतनी बड़ी कोठी में, इतने आलीशान घर में वह अकेले अपनी मनमानी करेगी, और अमेरिका जाने से पहले ही आफ़ाक़ को इस तरह अपनी मुट्ठी में कर लेगी कि वह उसकी मौजूदगी में अपनी माँ की तरफ़ नज़र भी नहीं उठा सके।

आफ़ाक़ का ख्याल आते ही वह खड़ी हो गई।
वह उठ कर आईने के पास गई। थोड़ा सा मेकअप ठीक किया। बाल संवारने लगी।

ज़ेवरात ठीक किए। एक भरपूर अंगड़ाई ली और आकर छपरखट पर बैठ गई।
उसे किस तरह बैठना चाहिए? वह कोई बहुत ही खूबसूरत और दिल चुराने वाला पोज़ सोचने लगी।

आख़िरकार उसने अपने आपको ठीक से सजाया। ग़रारे को अच्छे से चारों ओर फैलाया, दुपट्टे को सिर पर सलीके से रखा और अपने आसपास फैला लिया। बहुत हल्का सा घूंघट निकाला और पलंग की चौखट के सहारे टिककर बैठ गई।

"हाँ, यह पोज़ वाकई अच्छा था।"

शायद उसने किसी फ़िल्म में देखा था या वैसे ही उसके ज़ेहन में आ गया था।

उसका चेहरा दरवाज़े की तरफ़ था।
बाहर जब किसी के क़दमों की आहट आती, उसका दिल तेज़ी से धड़क उठता।
उसने घड़ी देखी—इस वक्त रात के बारह बज रहे थे।

"हाय, अभी तक इस घर में किसी को नींद नहीं आ रही!"
"सारे मेहमान जब टलेंगे, तभी तो आफ़ाक अंदर आएगा।"

आधी रात तो यूँ ही बीत गई, और बची हुई रात सारी बातें करते हुए निकल जाएगी।

वह दिल ही दिल में मीठे लहज़े में मेहमानों को कोस रही थी कि तभी दरवाज़े के बिल्कुल क़रीब से क़दमों की आहट उभरी।

इस बार उसका दिल एक अजीब अंदाज़ में धड़का। उसने नज़ाकत से अपनी गर्दन झुकाई और अपनी लंबी पलकों को झुका लिया।

कोई अंदर आया था।

लेकिन उसने ज़रा भी देखने की कोशिश नहीं की। अपनी बेपरवाही बनाए रखते हुए… वह आफ़ाक पर वह साफ़ तौर पर जताना चाहती थी, और फिर आज पहली बार पहल करना, घूंघट उठाना और उसे ऊपर देखने पर मजबूर करना—यह तो आफ़ाक़ के फ़र्ज़ थे। वह ख़ुद क्यों देखती?

उसने लगभग अपनी आँखें मूँद लीं।

कोई बिल्कुल क़रीब आ गया था।

भावनाओं की तीव्रता से उसका चेहरा लाल हो गया और हाथ काँपने लगे।

"आब... अब... अब..."

"भाभी !"

एक पतली-सी आवाज़ ने उसे चौंका दिया।

उसकी बेख़ुदी कुछ इस तरह टूटी जैसे काँच का पूरा सेट मेज़ से गिरकर टुकड़े-टुकड़े हो गया हो।

हैरान होकर उसने नज़र उठाई। वहाँ आफ़ाक़ नहीं था, बल्कि उसकी कोई कज़िन खड़ी थी, जिसके चेहरे पर हल्की-सी व्यंग्यात्मक मुस्कान थी।

फलक़ी शर्मिंदा हो गई।

अपनी तंज़ भरी मुस्कान को खुशमिज़ाजी में बदलते हुए वह कज़िन बोली—

"भाभी, मैं आपको यह बताने आई थी कि आफ़ाक़ भैया अपनी अम्मी को एयरपोर्ट छोड़ने गए हैं। ज़रा देर से आएंगे। आप तब तक आराम कर लें… अच्छा, मैं चलती हूँ।"

वह उसके जवाब का इंतज़ार किए बिना चली गई।

और फलक़ी हक्का-बक्का कमरे में अकेली रह गई।

"यह क्या हुआ?"

"आख़िर हुआ क्या?"

कोई इस तरह भी करता है?
आज की रात से ज़्यादा अहम कोई काम हो सकता है क्या?
घर में इतने ड्राइवर हैं, रिश्तेदार हैं—कोई भी उनकी अम्मी को छोड़ने जा सकता था।

आफ़ाक़ ने ऐसी हरकत क्यों की?
क्या वह मुझे यह जताना चाहता है कि उसकी नज़रों में मेरी कोई अहमियत नहीं?

तो मैं उसे मज़ा चखा दूँगी!
कमीनाः कमबख़्त!
समझता क्या है अपने आपको? क्या मैं निकाह के दो बोल से डर जाऊँगी?

मैं अभी उठकर अपने डैडी के घर चली जाऊँगी!
फिर ज़िंदगीभर उसका मुँह नहीं देखूँगी! मुझे किसी की परवाह नहीं!

वह ग़ुस्से में उठकर खड़ी हो गई और कमरे में तेज़ी से इधर-उधर टहलने लगी।
उसका दुपट्टा ज़मीन पर गिर गया, मगर उसे इसका होश भी न था।

"क्या वह अपनी माँ को मुझसे ज़्यादा अज़ीज़ समझता है?"
"ऐसी की तैसी उसकी माँ की!"

"बुढ़िया को सबक़ सिखा दूँगी!"
"कुछ होगी तो अपने घर होगी, इस घर में क़दम रखने की हिम्मत करे तो सही!"

"नीच!"

हाँ, मगर...
बुढ़िया का इसमें क्या क़सूर?
अगर आफ़ाक़ चाहता, तो वह कोई बहाना बना सकता था, कोई माफ़ी माँग सकता था, कोई और इंतज़ाम कर सकता था।

और अगर जाना बहुत ज़रूरी था, तो मुझे भी साथ ले जाता!
कम से कम मुझसे कहकर तो जाता, अंदर आकर मुझसे इजाज़त तो लेता!

कोई इस तरह चंद लम्हों की ब्याही दुल्हन को छोड़कर जाता है?
वह तो है ही सनकी…
पागल… अहमक़!

ऐसी बेइज़्ज़ती करूंगी आज कि उसे पता चल जाएगा कि फ़लक़ नाज़ किस चीज़ का नाम है!

वह कभी गुस्से में बड़बड़ाती, कभी उठती, कभी बैठ जाती।
कभी आईने के सामने खड़ी होकर गहने नोच-नोचकर उतारने लगती।

उसे इतना ग़ुस्सा आ रहा था कि बार-बार ठंडा पानी पी रही थी।
इतनी कड़कड़ाती ठंड के बावजूद माथे पर पसीना आ रहा था।

कमरे में टंगी घड़ी टिक-टिक कर रही थी—
"एक बज रहा था,"
जैसे उसकी बेबसी का मज़ाक उड़ा रही हो।

"फ़लक़ी... फ़लक़ी... फ़लक़ी..."

"बेवकूफ़ लड़की!"

उसका दिल किया कि घड़ी उठाकर पटक दे।
हर चीज़ को तहस-नहस कर दे!

घर में कभी किसी ने उसकी बात नहीं टाली थी।
जो चाहा, वो पाया।
और आज...?
हर चीज़ उसका मज़ाक उड़ा रही थी!

उसे ऐसा लग रहा था कि दीवारों से सिर टकरा दे,
या इस पूरे खूबसूरत कमरे को आग लगा दे!

काफ़ी देर तक ख़ुद को कोसने के बाद, वह थक-हारकर सोफ़े पर बैठ गई।

घड़ी अब भी एक बजा रही थी।

"जाने आफ़ाक़ किस वक़्त आएगा?"

"बहरहाल, अब जो होना था, हो गया!"

ग़ुस्सा करने से क्या फ़ायदा?
ग़ुस्सा करने से कोई मसला हल नहीं होगा।
हो सकता है, हालात और बिगड़ जाएँ!

यह भी मुमकिन है कि आफ़ाक़ किसी मजबूरी में फँस गया हो।
ये लोग बड़े रिवायती (परंपरागत) से लगते हैं, हमारी तरह एडवांस नहीं हैं।
ऊपर से बहुत सलीकेदार बनते हैं, लेकिन अंदर से वही पुराने खयालात के लोग हैं।

हो सकता है, माँ के आगे बोल न सका हो…
जाना मजबूरी बन गया हो।

शायद लौटकर ख़ुद ही माफ़ी माँगेगा।
आख़िर मैंने उसका क्या बिगाड़ा है जो वह मुझसे बदला ले रहा होगा?
दुल्हन से मिलने की जल्दी तो हर किसी को होती है!

शायद उसकी माँ कोई बहुत ज़बरदस्त और हावी रहने वाली औरत हो।
होगी ही, तभी तो वलीमे को छोड़कर जा रही है और बेटे की पहली रात ख़राब कर दी!

"अच्छा हुआ, वह चली गई!"
"ऐसी माँ को यहाँ नहीं रहना चाहिए!"
यहाँ रहकर न जाने और कितने काम बिगाड़ती!

"ख़ुदा करे अब वह उसे जहाज़ पर चढ़ाकर ही लौटे!"
"कहीं ऐसा न हो कि वापस उसे साथ ही ले आए!"

"ख़ुदा न करे, अगर मेरी भी उसके आगे न चली, तो फिर क्या होगा?"

ख़ैर, मेरी तो उससे कभी बनी ही नहीं सकती—इसका तो मुझे पूरा यक़ीन है!

अब बहुत नींद आ रही थी…

बल्कि ग़ुस्सा करके वह इतनी थक चुकी थी कि हिलकान हो गई थी।

वह उठी, बाथरूम गई, चेहरा धोया।

अगर अब वह फिर से तैयार न होती, तो उसका "मिशन" नाकाम हो जाता।

अब ताज़ा दम होकर आई, तो पहले से भी ज़्यादा ख़ूबसूरत लग रही थी!

आईने में देखा तो दिल बाग़-बाग़ हो गया।

फिर से जाकर छपरखट (पलंग) पर बैठ गई।
वक़्त देखा—"रात के दो बज रहे थे!"

न जाने किस वक़्त जहाज़ उड़ा होगा…
दो घंटे में तो उसे आ जाना चाहिए था!
ख़ैर, अब आता ही होगा।

"अच्छा हुआ, मैं वक़्त पर संभल गई!"

पहले तो बिल्कुल नहीं बोलूँगी!
सो बार मिन्नत करेगा…
पैर पकड़ लेगा…
क़समें खाएगा…
मैं यूँ ही बेरुख़ी से बैठी रहूँगी।

"फिर कहीं जाकर बोलूँगी!"

आहट होती या न होती, उसका दिल फिर भी तेज़ी से धड़क उठता।
घर में गहरा सन्नाटा था।

"पता नहीं, घर में कौन-कौन होगा…"
"मुझे क्या! बस वो 'दुश्मन-ए-जहाँ' (आफ़ाक़) आ जाए, तो मैं सब कुछ भूल जाऊँ!"

"टिक... टॉक... टिक... टॉक..."

घड़ी की आवाज़ उसकी धड़कनों के साथ मिलकर एक अजीब-सा साज़ बजा रही थी।
कोई मैगज़ीन भी पास नहीं थी, जो वह पढ़ लेती।

यूँ ही पलंग पर अधलेटी हो गई।

सोचते-सोचते जाने कब नींद पलकों में उतर आई।
कई रातों से जागी हुई थी, थकान थी,
और फिर… जवानी की मीठी नींद!

ग़ुस्सा, नाराज़गी—सब ताक़ पर रख दिया!

जब आफ़ाक़ कमरे में दाख़िल हुआ, तो उसने देखा—
वह इस तरह सो रही थी, जैसे हज़ार क़यामतें उसके पहलू में ठहरी हों!

"ख़ूबसूरती नींद में हो… और सुहागरात का जादू हो…
तो आदमी अपने दिल पर काबू कैसे रख सकता है?"

वाक़ई, उसे अपने हुस्न पर जितना नाज़ होता, कम था!

आफ़ाक़ ने एक क़दम पलंग पर रखा…
और उस पर झुक गया…

तभी वह करवट लेकर जाग उठी…

"ओह..."
"ओह..."

उसके सारे "प्लान" धरे के धरे रह गए!
"अफ़सोस! इस वक़्त आँख लग गई!"

पर शुक्र है, जल्दी खुल भी गई…
वरना पता नहीं क्या हो जाता!

वह चौंककर उठ बैठी और जल्दी से खुद को सँभालकर एक तरफ़ हो गई।
लेकिन उसने अपना चेहरा इस तरह फेर लिया, जैसे नाराज़ हो!

आफ़ाक़ भी सीधा खड़ा हो गया।
उसने अपनी अचकन उतारकर दूर सोफ़े पर फेंक दी…
एक गिलास पानी पिया…
और फिर उसके सामने आकर खड़ा हो गया!

फ़लक़ी का दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा…
आख़िर वह घड़ी आ ही गई थी…
जब उसका रूँआ-रूँआ चौकस हो गया!

तभी आफ़ाक़ ने अपनी गहरी, मगर सधी हुई आवाज़ में कहा—

"मोहतरमा!
आप यह समझती हैं कि मर्द बेवकूफ़ होता है, या उसे बेवकूफ़ बनाया जा सकता है?"

फ़लक़ी ने हैरानी से सिर उठाया!

"आपको लगता है कि हुस्न बहुत बड़ी ताक़त है… और मर्द को अपने क़दमों में झुका लेता है?"

उसने सख़्त हैरत से आँखें फैला दीं!

"आपका ख़याल है कि 'सेक्स' मर्द की सबसे बड़ी कमज़ोरी है?"

"इसीलिए…""औरत मर्द को अपनी उंगलियों पर नचा सकती है—यही सोचती हैं आप?"

"तो मोहतरमा…"
"आज की रात मैं आपको सिर्फ़ यह बताऊँगा कि मर्द के बारे में आपका हर फ़लसफ़ा और हर ख़याल बिल्कुल ग़लत है!"

"आपके नज़रिए एक गुमराह करने वाले माहौल की पैदावार हैं!"
"आप एक भटकी हुई लड़की हैं!"

"मर्द क्या चीज़ है?"
"आप आज तक जान ही नहीं सकीं!"

"अब, मेरे निकाह में आने के बाद, पहली बार आपको अंदाज़ा होगा कि मर्द क्या होता है!"

"और मुझे उम्मीद है कि बेवक़ूफ़ियों में वक़्त ज़ाया करने के बजाय, आप कुछ सीखने की कोशिश करेंगी!"
"इसी में आपकी और आपके हुस्न की बहुतरी है!"

वह अभी उसकी सारी बातें समझने और फिर कोई नई चाल चलने का सोच ही रही थी…

कि तभी आफ़ाक़ ने अपना लहज़ा बदल लिया!

"उठिए! कपड़े बदल लीजिए!"

"मुझे इस तरह बनी-सँवरी, बनावटी औरतें पसंद नहीं!"

"ज़ेवर और श्रृंगार औरत का हथियार होते हैं…"
"मगर औरत को हथियार से तब लैस होना चाहिए, जब वह जंग के इरादे से मैदान में उतरे!"

"अगर वह एक बेहतरीन हमसफ़र बनकर रहना चाहती है…"
"तो उसकी सादगी और शराफ़त ही उसके सबसे बेहतरीन हथियार होते हैं!"

"कपड़े बदलकर, मुँह-हाथ धोकर सो जाइए!"

वह जाने के लिए मुड़ा…

फिर अचानक रुका…

उसकी तरफ़ मुँह करके बोला—

"मुझे मालूम है, इस रात की आपके लिए कोई अहमियत नहीं होगी…""शादी की पहली रात…"

"उन लड़कियों के लिए बेहद अहम होती है, जिन्होंने अपनी निस्वानियत (स्त्रीत्व) के असली गहनों को काँच की तरह सँभाल कर रखा होता है!"

"मगर जो लड़कियाँ 'इज़्ज़त' के तसव्वुर (अवधारणा) को एक पुरानी सोच समझकर उसके साथ खेलती हैं…"
"वे सुहागरात की हक़दार नहीं होतीं!"

वह इतनी शर्म से पानी-पानी हो गई कि उसका सिर ख़ुद-ब-ख़ुद घुटनों से जा लगा!

"मैं तुम्हारे बारे में सब कुछ जानता हूँ!"

अब आफ़ाक़ की आवाज़ और भी गहरी और सख़्त हो गई थी!

"और उन लोगों को भी जानता हूँ, जिनसे तुम्हारे ताल्लुक़ थे!"

"और फिर… तुमने मुझसे शादी सिर्फ़ अपनी 'लाइफ एंजॉय' करने के लिए की!"
"तुम्हें कोई 'शौहर' नहीं चाहिए था!"

"और वैसे भी, तुम्हारे शहर में तुम्हारे 'आशिक़' कोई कम तो नहीं…"
"तो फिर यह ड्रामा सिर्फ़ मेरे साथ ही क्यों?"

"लीजिए, बिस्मिल्लाह कीजिए…"

"मैं हाज़िर हूँ!"

"वैसे, मैं वह नहीं हूँ जो तुमने समझा था…"
"और न ही वह बनूँगा, जो तुम मुझे बनाना चाहती हो!"

"और हाँ…"

"मेरी तरफ़ से इस रात का सबक़ सिर्फ़ इतना है कि आज से ही 'नेक औरत' बनने की रिहर्सल शुरू कर दीजिए!"

"शब-ए-ख़ैर!"
और वह दरवाज़ा खोलकर कमरे से बाहर चला गया…