INS WA JAAN PART 3



आवाज़ दूसरी तरफ की ढलान से आ रही थी। इतने में वही लड़की उधर से आती दिखाई दी। आज उसने काला लिबास पहना था, और उसकी चाँदी जैसी रंगत उसमें इतनी दमक रही थी कि आँखें चौंधिया गईं। वह धीरे-धीरे क़दम बढ़ा रही थी। वह उसे देखता ही रहा। नज़र हटने का नाम नहीं ले रही थी।

"मैं आपसे बात करना चाहता हूँ।" जब वह करीब आई तो अब्दुल्लाह की डर-डर कर आवाज़ निकली। "क्यों?" "आप रोज़ मेरी आवाज़ सुनते ही इस पहाड़ी पर आ जाती हैं, अगर मैं पूछूँ क्यों?" "मुझे तुम्हारी आवाज़ बहुत पसंद है। मैं खुद को यहाँ आने से रोक नहीं पाती।" उसने आसानी से स्वीकार कर लिया। "और मुझे आप बहुत अच्छी लगती हैं।" उसके स्वीकार करने से उसे भी हौसला मिल गया।

वह हँसी, "अच्छा, सोच लो... वापसी का रास्ता नहीं मिलेगा।" "सोच लिया। इतने दिनों से और क्या किया है, बस यही सोचा है... आप को... और आप के बारे में... और कुछ सूझता ही नहीं।" "तुम तो काफी गंभीर लगते हो।" वह हँसते हुए बोली।

वह ढलान पर बैठ गई और सोचती नज़रों से सामने खड़ी नीली पहाड़ी को देखने लगी। "हाँ, मैं बहुत गंभीर हो गया हूँ... मुझे आप से... मुझे..." वह हिचकिचाया। उसने नीली आँखें उठाकर उसे सवालिया नज़रों से देखा। "तुम्हें मुझ से...?" "मैं... समझ नहीं आ रहा क्या कहूँ..." उसने नज़रें झुका लीं और जूते से नीचे पड़े पत्थर को कुचलने लगा। वह उठकर उसके सामने आ खड़ी हुई और सीधा उसकी शहद जैसी आँखों में देखने लगी। वह बिना पलक झपकाए उसकी नीली आँखों में देखता रहा।

"तुम्हें... मुझ से..." "मोहब्बत हो गई है... यही कहना चाहते हो न?" उसने हैरानी में सिर हिलाया। "मैं तुम्हें कुछ दिन देती हूँ, अच्छी तरह सोच लो, क्योंकि तुमने एक गलत जगह दिल लगाया है।" यह कहकर वह रुकी नहीं और बिजली की तेज़ी से चलती हुई पहाड़ी के दूसरी ओर उतरती चली गई। वह वहीं खड़ा रह गया, हैरान और परेशान। अगले कई दिनों तक वह उसे नहीं दिखी। उसकी आवाज़ सुनकर भी वह नहीं आई। वह पागलों की तरह रोज़ जाकर वहाँ बैठा रहता। आखिरकार, उसका घर ढूँढने के इरादे से वह पहाड़ी पर चढ़ने लगा तो उसकी आवाज़ सुनाई दी।

"अब्दुल्लाह।" उसने देखा, वह सफेद लिबास पहने उसके पीछे खड़ी थी। "आपको मेरा नाम कैसे पता चला?" वह खुलकर हँसी। "बताऊँगी, पर अभी नहीं।" "मैं तुम्हें आज़मा रही थी और तुम इस आज़माइश में कामयाब हो गए।"

उसने चेहरे से नक़ाब हटा दिया। उसके गुलाबी होंठ, चाँदी सा चमकता चेहरा, गहरी नीलम जैसी आँखें और दिलकश हुस्न देखकर वह साँस लेना ही भूल गया।

"नज़र लगा दोगे क्या?" "आप इतनी खूबसूरत क्यों हैं?" वह दीवानगी में बोला। "हाहाहा।" उसकी हँसी में भी एक सुर था।

"आपका नाम क्या है?" "जो तुम रख दो।" वह बेख़याली में बोली। "परी।" उसके मुँह से झट से निकला। "ठीक है, आज से मैं तुम्हारी परी।" वह ऐसे कह रही थी जैसे वे सदियों से एक-दूसरे को जानते हों।

अब्दुल्लाह अपनी क़िस्मत पर नाज़ कर रहा था। वह अपने काम से काम रखने वाला इंसान था। उसकी तबीयत में लापरवाही या बचपने की कोई बात नहीं थी। कॉलेज में उसकी क्लास की लड़कियाँ एक से बढ़कर एक थीं, लेकिन आज तक कोई भी उसे प्रभावित नहीं कर पाई थी। पर यह लड़की सीधा उसके दिल में उतर गई थी।

स्कूल का रिजल्ट डे और दादी का ग़ुस्सा

दादी सफ़िया सुबह के वक़्त ज़िक्र में मशगूल थीं। बाहर निकलीं तो देखा कि बच्चे मज़े से टीवी देख रहे थे। "अरे बहू, नौ बज गए हैं, आज बच्चों को स्कूल नहीं जाना?" शज़ा ने झट से चैनल बदल दिया। जाने क्या चल रहा था, जो दादी के देखने में हरज था।

"दादू, आज हमारा रिजल्ट डे है, देर से जाना है।" "अच्छा, हाँ, तुमने बताया था, मैं भूल गई। तुम्हारी माँ किधर है?" "मामा तो पार्लर में दुल्हन बना रही हैं।"

"हैं? दुल्हन बना रही है?" "अरे दादू, किसी लड़की का मेकअप कर रही हैं, उसे दुल्हन बना रही हैं।" शज़ा ने माथा पीटा।

थोड़ी देर बाद, सफ़िया स्कूल पहुँचीं। वहाँ उन्होंने शज़ा को स्टेज पर देखा, जहाँ वह किसी हीरो के साथ भारतीय गाने पर डांस कर रही थी। उनका गुस्सा सातवें आसमान पर था। स्टेज से उतरते ही उन्होंने शज़ा को ज़ोरदार थप्पड़ लगाया। "शर्म नहीं आती तुझे?"

"दादू, मैंने क्या किया?" "अगर अब तूने यह सब किया तो मैं तुझे स्कूल से हटा लूँगी।"

घर लौटने पर सफ़िया ने अपने बेटे इब्राहीम को सारी बात बताई। "बेटा, अगर अभी से बच्चों को सही-गलत नहीं सिखाया तो बड़े होकर क्या समझेंगे?" इब्राहीम ने गंभीरता से सुना और कहा, "माँ जी, आप ठीक कह रही हैं। मैं शमा से इस बारे में बात करूँगा।"

सफ़िया ने समझाया, "लेकिन बहू से लड़ाई मत करना, प्यार से समझाना।" "आप बेफिक्र रहें माँ जी, और अपनी परवरिश पर भरोसा रखें।"

इब्राहीम ने माँ को तसल्ली दी और अपने कमरे की तरफ चला गया।