INS WA JAAN PART 5

                                       


 उसने खिड़की से बाहर झांका।

बाहर तेज बर्फबारी हो रही थी। मरी का आकाश हर ओर सफेदी बिखेर रहा था। उसके कमरे की खिड़की बाहर की ओर खुलती थी। हालांकि आगे एक छज्जा बना हुआ था, फिर भी बर्फ के गोले तेज तूफानी हवा के असर से कांच से टकरा रहे थे। कभी-कभी उनके टकराने से एक मधुर सी ध्वनि पैदा होती थी, जो उसके कानों में किसी परी की सुरीली आवाज़ घोल देती थी।

वह खिड़की से सिर टिकाए बाहर गिरती सफेदी को देख रहा था। हर चीज़ इतनी सफेद थी कि आंखें चुंधिया जाती थीं।
उसे लगा, वह उसके पीछे खड़ी हंस रही है। उसने मुड़कर देखा, लेकिन वहां कोई नहीं था।
"मैं भी पागल हो गया हूँ, हर जगह वही दिखाई देने लगी है।" वह धीमे से मुस्कुराया।
अभी दोपहर थी। उसे याद आया कि परी ने उसे चार बजे मिलने को कहा था। इतनी तेज़ बर्फबारी में वह कैसे आ सकती है?
उसने सोचा और पर्दा ठीक कर के रॉकिंग चेयर पर बैठ गया। वह आंखें मूंदे धीरे-धीरे कुर्सी हिला रहा था। उसकी कल्पना में वही अप्सरा बार-बार उभर रही थी, जैसे ही वह आंखें खोलेगा, वह सामने खड़ी मुस्कुरा रही होगी।
वह वहां थी भी और नहीं भी।

"तुम मेरे पास होते हो गोया, जब कोई दूसरा नहीं होता।"


मौसम इतना खराब था कि आज कोई ग्राहक भी नहीं आने वाला था। सास-बहू हीटर के सामने बैठी थीं।
सफिया बेगम तो अपने लिए कोई न कोई व्यस्तता ढूंढ ही लेती थीं। अभी भी वह बच्चों के लिए ऊनी जुराबें बुन रही थीं और शमा अपने पार्लर के अस्थायी रूप से बंद होने का अफसोस मना रही थी।
सर्दियों में टीवी लॉन्ज से बच्चों का कमरा ही उनका मनोरंजन स्थल बन जाता था, और वे तीनों अब मज़े से बिस्तर में दुबके हुए टीवी देखते हुए मूंगफली और चिलगोजे खा रहे थे।

माँ को थोड़ी राहत मिली थी कि बच्चे किसी काम में व्यस्त थे।
"बहू, सामान पैक कर लो। जैसे ही मौसम ठीक होगा, हम निकल जाएंगे।"

"खाला जी, इस बार रहने दीजिए, गाँव नहीं जाते। यहीं छुट्टियाँ बिता लेते हैं।"

"अरे, क्यों भई? यहाँ क्या करेंगे?"

"ना कोई रिश्तेदार, ना कोई व्यस्तता। मेरा तो दिल नहीं लगेगा। मैं तो तुम लोगों की वजह से यहाँ ठहरती हूँ। उधर भरा-पूरा घर है, मैं अपने पोतों से भी मिल लूँगी। सफूरा तो बहुत याद आती है मुझे। देखो, उसके लिए जुराबें बनाई हैं, जब उसे दूँगी, तो बहुत खुश हो जाएगी।" उन्होंने अपनी दूसरी पोती का नाम लिया।

मास्टर अय्यूब और सफिया बेगम की सिर्फ दो ही पोतियाँ थीं – एक शज़ा और दूसरी सफूरा, जो पाँच भाइयों के बाद बड़ी दुआओं के बाद मिली थी। वह शज़ा से एक साल बड़ी थी और अपने ददिहाल की पहली लड़की होने के नाते सबकी लाड़ली थी।

"और तुम्हें अपनी माँ के घर भी तो जाना है। मुझे भी अपनी बेटियों से मिलना है। बस, तुम तैयारी रखो। मुझे लगता है, जल्द ही मौसम ठीक हो जाएगा।" वे फिर से बुनाई में लग गईं।

"अच्छा, जाती हूँ।"
शमा अनमने मन से सामान पैक करने के लिए उठ खड़ी हुई।


शाम के चार बजने वाले थे। अब्दुल्ला ने खिड़की से बाहर झांका। बर्फबारी लगभग थम चुकी थी, बस हल्की-हल्की बर्फ के फाहे उड़ रहे थे।
वह इसी उधेड़बुन में था कि वह आएगी या नहीं। बर्फ ने रास्तों को ढक दिया था। वह नाज़ुक सी लड़की इतना लंबा सफर तय करके कैसे आ सकती है?
उसने खुद ही अंदाज़ा लगाया।

"छत पर जाकर देखना चाहिए। उसने कहा था कि तुम्हारे घर के पीछे जो पहाड़ी है, वहाँ आ जाना।"
वह कमरे से निकलकर छत की ओर बढ़ा। पहाड़ी के आस-पास कई पेड़ थे, जिनकी शाखाएँ बर्फ के बोझ से झुक गई थीं।

उसके दोनों तरफ दो छोटी-छोटी सड़कें थीं। एक सड़क शहर की ओर जाती थी, जिससे होकर वह रोज़ अपने कॉलेज जाता था। दूसरी सड़क गाँव के उस हिस्से की ओर जाती थी, जहाँ ज़्यादातर खेत, बाग़ और कुछ खंडहर थे।

दोनों सड़कें बिल्कुल खामोश थीं। उन पर कोई हलचल नहीं थी। अभी चार बजने में थोड़ा समय बाकी था।
उसने रुख बदलकर दूसरी ओर देखा, जहाँ घर थे। ठंड के कारण सभी अपने-अपने घरों में दुबके हुए थे।

मरी के लोग बर्फबारी का मौसम शुरू होने से पहले ही राशन और ईंधन का पर्याप्त भंडारण कर लेते थे और फिर मौसम के सुधरने तक घरों में ही रहते थे। बर्फबारी खत्म होने के बाद रास्तों को भी साफ़ करना पड़ता था।

यह सिर्फ़ अत्यधिक बर्फबारी के दौरान होता था। वरना हल्की बारिश या हल्की-फुल्की बर्फबारी में रोज़मर्रा की ज़िंदगी चलती रहती थी। गाँवों में तो यह परंपरा थी, लेकिन शहरों में ज़िंदगी कुछ अलग थी। वहाँ जीवन ठहरता नहीं था। बाज़ारों और सड़कों पर थोड़ी बहुत हलचल बनी रहती थी।

मास्टर अय्यूब के घर के सभी लोग इस मौसम में सूखे मेवे, हलवे और तरह-तरह के पकवान खाकर और किताबें पढ़कर समय बिताते थे।

बच्चों के लिए मासिक पत्रिकाएँ आती थीं और इसके अलावा, मास्टर अय्यूब के घर में बच्चों और बड़ों के लिए एक छोटी सी लाइब्रेरी भी थी। उनके घर में पले-बढ़े सारे बच्चे पढ़ने के शौकीन थे।

उस इलाके में केबल नहीं थी, बस दो-एक चैनल ही टीवी पर आते थे। इसलिए बच्चे टीवी के सामने ज़्यादा समय नहीं बिताते थे। लेकिन सर्दियों की छुट्टियों में वे बिल्कुल भी बोर नहीं होते थे। बल्कि वे इनका बेसब्री से इंतजार करते थे, क्योंकि उनके पास खुद को व्यस्त रखने के कई बहाने थे।

वह फिर से पहाड़ी की ओर देखने लगा। उसे गाँव के अंदर से आने वाली सड़क पर कोई लाल सी चीज़ नजर आई।

अभी वह इतनी दूर थी कि यह साफ़ नहीं था कि वह क्या है।

वह लगातार उसी दिशा में देखता रहा। उसने देखा कि वह चीज़ तेज़ी से करीब आ रही थी।

उसके सिर पर लाल हुड वाला कोट था और उसमें से कुछ लटें निकलकर लहरा रही थीं।

"ओह, परी! यह तो सच में आ गई!"

उसके मुँह से अनायास निकला।

"पर यह इस तरफ से क्यों आई?"
वह उलझन में पड़ गया और जल्दी से नीचे उतरने लगा।

उसने सावधानी से इधर-उधर देखा—दादा जी शायद अपने कमरे में सो रहे थे। वह धीरे-धीरे गेट खोलकर बाहर निकल आया, क्योंकि अगर वे देख लेते, तो ज़रूर उससे सवाल-जवाब करते।

बाहर निकलकर वह बर्फ पर छलांग लगाता हुआ पहाड़ी की ओर बढ़ा।

"तुम्हें मना भी किया था कि यहाँ मत आना। इतनी ठंड में कैसे आई हो?"
वह दस्ताने भूल आया था, अब हाथों को रगड़कर गर्म कर रहा था।

"तुम्हारी मोहब्बत खींच लाई।"

"अच्छा, चलो, यहाँ खड़ा होना ठीक नहीं, कहीं और चलते हैं।"
वह उसके साथ-साथ चलने लगी। वह उसे सेब के बाग में ले आया, जहाँ बर्फ से ढके अनगिनत पेड़ खड़े थे। वे पत्थरों के एक ढेर पर बैठ गए।

"तुम इस तरफ़ से क्यों आई हो? तुम्हारा घर तो शहर की ओर है," उसने सीधे पूछा।

वह अचानक चौंकी, "तुम्हें कैसे पता कि मैं उधर से आई हूँ?"

"मैं छत पर खड़ा था। मुझे लगा था कि तुम इतनी पागल नहीं हो कि रास्ते बंद होने के बावजूद आओगी। पर तुम तो मेरी सोच से भी ज्यादा पागल निकली," वह हंसा।

"तुम क्या मुझसे कम पागल हो?"
वह हंसी, तो उसकी नीली आँखों में तारे चमक उठे।

और वह उसकी आँखें देखकर ही अपने सारे सवाल भूल गया।

"परी, मैं दादा जी से हमारे बारे में बात करूँ?"

"किस बारे में?" वह संजीदगी से बोली।

"मैं उन्हें तुम्हारे घर रिश्ता लेकर भेजूँगा।"

"नहीं!" उसके लहज़े में तीखापन था।
"अभी नहीं!"

"पर क्यों?"

"बस कहा ना, अभी नहीं!"
वह अपनी जादुई आँखों से उसे देख रही थी।

"हम यूँ छुप-छुपकर कब तक मिलते रहेंगे? मुझे अच्छा नहीं लगता। यह सही नहीं है।"

"इसमें क्या बुराई है? हम कुछ गलत तो नहीं कर रहे।"

"पर... यह ठीक भी नहीं है, परी। तुम क्यों नहीं समझती? मैं अपने घर वालों को भेजता हूँ, हमारा कोई रिश्ता तो होना चाहिए। अगर तुम्हारे घर वालों ने कहीं और तुम्हारी शादी कर दी तो?"

"ऐसा नहीं होगा।"
वह पूरे विश्वास से कह रही थी।

"और अगर हो गया तो?"

"कहा ना, नहीं होगा!"

"तो तुम्हारे घर में किसी को हमारे बारे में पता है? तुम यहाँ किसके साथ आई हो?"

"अकेली आई हूँ।"

"अकेली? छह-सात किलोमीटर? किस चीज़ पर?"
वह हैरानी से बोला।

"है एक सवारी।"

"मुझे तो कहीं नजर नहीं आ रही। और इस बर्फ पर तो गाड़ी भी नहीं चलती!"

"अच्छा, ज्यादा सवाल मत किया करो तुम!"
वह झुंझलाकर बोली।

"नहीं, मैं करूँगा और तुम्हें जवाब देना पड़ेगा।"

"अब्दुल्ला, तुम्हें मुझ पर भरोसा नहीं है क्या?"
वह उसकी आँखों में गहराई से झाँकते हुए बोली।

"यह तुमने कैसे सोच लिया कि मुझे तुम पर भरोसा नहीं?"

"अगर मैं किसी दिन खो गई या बहुत लंबे समय के लिए तुमसे बिछड़ गई, तो क्या करोगे?"

उसकी नीली आँखों में दर्द की एक परछाई थी।

"ऐसा हो ही नहीं सकता।"
वह हंसते हुए कह रहा था।

"अगर हो गया तो?"

"तुम्हें तो यह बर्फबारी भी नहीं रोक पाई, तो और कौन रोक सकता है? ऐसा नहीं होगा।"

"अगर हो गया तो? अगर मैं तुमसे बिछड़ गई तो?"

उसने फिर दोहराया।

"तो मैं पागल हो जाऊँगा!"
उसने गंभीरता से कहा।

"तुम ऐसा क्यों कह रही हो?"
उसके दिल को कुछ हुआ, जैसे वह सच कह रही हो।

उसने कोई जवाब नहीं दिया और गर्दन मोड़कर दूर तक फैले घने पेड़ों को देखने लगी।

कुछ पल खामोशी छाई रही।

"परी, क्या हुआ?"

"मैं चलती हूँ।"
वह उठ खड़ी हुई।

"तुम कैसे जाओगी?"
उसे चिंता हुई।

"जैसे आई थी।"
वह मुस्कराई, मगर उसकी आँखें उदास थीं।

"तुम जाओ, मैं चली जाऊँगी।"

"नहीं, मैं तुम्हें जाते हुए देखूँगा।"

"कहा ना, तुम जाओ, मैं चली जाऊँगी!"

"एक तो तुम अपनी हर बात मनवा लेती हो!"

वह बाग से निकलकर घर की ओर चल पड़ा। वह बार-बार मुड़कर उसे देख रहा था, यहाँ तक कि वह मोड़ तक पहुँच गया, जहाँ से दाएँ मुड़कर उसका घर था। उसने एक आखिरी बार उसे देखा और फिर कुछ कदम चलकर घर के अंदर दाखिल हो गया।

अंदर जाते ही वह तुरंत छत की तरफ दौड़ा। वह देखना चाहता था कि वह कैसे जाएगी।

यहाँ से बाग का वह हिस्सा नजर आता था, जहाँ कुछ देर पहले वे बैठे थे। उसने देखा—वह कहीं नहीं थी!

वह छत पर इधर-उधर देखने लगा। बाग और सड़कें दोनों सूनी थीं। वहाँ न परी थी, न उसका कोई निशान। न कोई गाड़ी थी, न कोई और सवारी। वह बुरी तरह उलझ गया।

"आखिर यह लड़की है क्या?"

न उसके घर का पता था, न उसके परिवार वालों को जानता था। और तो और, उसने अपना नाम तक नहीं बताया था। वह कितनी पढ़ी-लिखी है, यह भी उसे मालूम नहीं था। लेकिन अब वह उससे ऐसा बंध चुका था कि उसे छोड़ने का ख्याल भी उसकी जान निकाल सकता था।

वह इसी उलझन में नीचे आ गया।

"तुम ऊपर क्या कर रहे थे?"

दादा जी उसे देखकर पूछने लगे।

"वो... मैं बस यूँ ही चला गया था, कमरे में बैठे-बैठे थक गया था।"

"अच्छा... तुम्हारे चाचा इब्राहीम, उनकी फैमिली और तुम्हारी दादी आ रहे हैं। तुम उन्हें बस अड्डे से ले आओ। बस पहुँचने ही वाली होगी। सामान वगैरह होगा, तो उन्हें दिक्कत होगी।"

"जी, अच्छा।"

दो-तीन मिनट में वह कहाँ जा सकती है?
वह बड़बड़ाता हुआ बाहर की ओर बढ़ा। यहाँ से कुछ ही दूरी पर बस स्टॉप था, जहाँ से उसे चाचा के परिवार को लेना था। वह तेज़ी से चलता हुआ वहाँ पहुँच गया।

"जीते रहो, अब्दुल्ला!" दादी ने उसे दुआएँ देते हुए गले लगाया।

"सलाम, चाची! और सुनाइए, जिब्राईल कैसा है?" उसने जिब्राईल के गोल-मटोल गालों को खींचा। दोनों की आपस में खूब बनती थी।

वह उनके साथ-साथ चलता हुआ बातें कर रहा था, उसका मूड भी खुशगवार हो गया था।

शमा ने बमुश्किल फैज़ को गोद में उठाया हुआ था, और फाएक रोते हुए पीछे-पीछे घसीट रहा था कि उसे गोद में क्यों नहीं उठाया जा रहा।

"मेरी बूढ़ी हड्डियों में इतना दम नहीं कि इतने बड़े बच्चे को उठा सकूँ," दादी ने उसकी शिकायत सुनकर कहा।

"दादी, मैं उठा लेता हूँ इस नटखट को," अब्दुल्ला ने भारी-भरकम फाएक को गोद में उठाया। "हाय, चाची, यह तो बहुत भारी है!"

कुछ उसका अपना वजन था और रही-सही कसर ऊनी कपड़ों ने पूरी कर दी थी।

"हाय, अब्दुल्ला! नजर लगा देगा मुझे!" उसकी गोद में बैठे फाएक ने लाड़ से कहा।

"शर्म नहीं आती! इसे भाई कहते हैं, और कितना बड़ा है तुझसे!" दादी ने उसे डाँटा।

"हूँ!" उसने मुँह बनाया।

"मैं भी थक गई हूँ, मुझसे नहीं चला जा रहा!" शज़ा शिकायत करते हुए रास्ते में ही बैठ गई और अपने पैर सहलाने लगी। "हाय, मेरे जोड़ों में दर्द हो रहा है!" उसने दादी की नकल की।

"यह बहुत बड़ी ड्रामेबाज़ है, अब्दुल्ला भाई!" जिब्राईल ने शज़ा को घूरते हुए कहा।

"बस गुड़िया, वह सामने ही घर है, थोड़ा और चल लो।"

वे पहाड़ी के करीब पहुँच चुके थे।

"नहीं, भैया, मुझसे अब और नहीं चला जाएगा! मुझे गोद में उठा लो!"

"शज़ा, उठो आराम से, ज्यादा बदतमीजी मत करो!" शमा ने डाँटा, मगर वह अपनी जिद्द पर अड़ी रही।

"मम्मा, मेरे पैरों में बहुत दर्द हो रहा है, मैं कैसे चलूँ?" उसने रोनी सूरत बना ली।

कोई और मौका होता तो शमा उसे दो थप्पड़ लगा ही देती, पर शायद ठंड की वजह से छोड़ दिया। ठंड में तो हल्की-सी चोट भी बहुत लगती है।

"चाची, एक काम करते हैं, हम जिब्राईल को शज़ा के पास छोड़ देते हैं और मैं घर तक यह सामान और बच्चों को छोड़कर वापस आकर उसे ले जाऊँगा।"

"हाँ, ठीक है!" शज़ा तुरंत बोली।

"पर ऐसे छोड़ना ठीक नहीं, बेटा!"

"दादी, सामने ही तो घर है, कुछ नहीं होगा, यहाँ कोई गैर नहीं आता।"

"अच्छा चलो, ठीक है, मैं तो बहुत थक गई हूँ," उन्होंने घुटनों पर हाथ रखा।

"तुम दोनों यहीं रुको, मैं बस दो मिनट में आया।"

"जिब्राईल, बेटे, बहन का ख्याल रखना!" दादी ने जाते-जाते हिदायत दी।

"आप चिंता मत करें, दादी!" उसने पूरी ज़िम्मेदारी से जवाब दिया।

वे चलते-चलते मोड़ मुड़ गए। अब्दुल्ला तेज़ रफ्तार था, पर उनका साथ देने के लिए धीरे-धीरे चल रहा था।

उन्हें घर के गेट पर छोड़कर वह वापस मुड़ा।

"जिब्राईल, वह देखो कितनी प्यारी चिड़िया!" वे दोनों साथ बैठे थे, शज़ा ने उसके पीछे इशारा किया।

"हैं? चिड़िया यहाँ कैसे आ गई?" उसने हैरानी से चारों ओर देखा। "मुझे तो नहीं दिख रही... कहाँ है?" वह अपनी ही धुन में बोल रहा था।

उसने मुड़कर देखा तो शज़ा गायब थी!

"शज़ा... शज़ा!"

जब अब्दुल्ला वापस आया तो उसने देखा कि जिब्राईल बाग़ की ओर जाने वाली सड़क पर भागता हुआ चिल्ला रहा था।

कुछ दूरी पर, शज़ा मस्ती में हँसती हुई उसे चिढ़ाती हुई भाग रही थी। "अब मैं गुम हो जाऊँगी और तुम्हें मार पड़ेगी!" वह वहीं से चिल्लाकर बोली।

उसके सिर से टोपी उतरकर रास्ते में गिर गई थी और उसके लंबे रेशमी बाल हवा में लहरा रहे थे।

मौसम में काफी ठंडक थी। सूरज का नाम-ओ-निशान नहीं था।

सड़क पूरी तरह वीरान थी, और वे तीनों एक-दूसरे के पीछे भाग रहे थे।

"शज़ा, रुक जाओ! मैं कह रहा हूँ, रुक जाओ!"

वह बाग़ से भी काफी दूर निकल गई थी, और अब उसका रुख दाएँ ओर बर्फ़ से ढके कच्चे रास्ते की तरफ था, जो पुरानी हवेली के खंडहरों पर जाकर खत्म होता था।

उस तरफ कोई नहीं जाता था, क्योंकि उस हवेली के बारे में बहुत सी डरावनी बातें मशहूर थीं—कि वहाँ जिन्नों का साया है, वहाँ से खौफनाक आवाज़ें आती हैं, और जो भी वहाँ जाता है, उस पर जिन्नों का असर हो जाता है। दादा जी ने उन्हें कभी उस ओर जाने नहीं दिया था।

"जिब्राईल, पकड़ो उसे!"

अब्दुल्ला ने शज़ा को उस तरफ जाते देखा तो उसके दिल की धड़कन तेज़ हो गई। उसके दिमाग़ में वे सारी बातें गूंजने लगीं, जो उसने बचपन से उस हवेली के बारे में सुनी थीं।

उसकी छठी इंद्रिय खतरे का संकेत दे रही थी।

शज़ा हर चीज़ से बेखबर हवेली के जंग लगे, खुले फाटक से अंदर चली गई थी...