fatah kabul (islami tarikhi novel) part 9
- गुमशुदगी .......
इल्यास की माँ जब यह क़िस्सा सुना रही थी तो उनका दिल भर आया था। वह सर झुका कर खामोश हो गयी। इल्यास ने उनकी तरफ देखा। वह बड़ी दिलचस्पी से वाक़ेयात सुन रहे थे। जो वह बयां कर रही थी। वह चाहते थे के जल्द अज़ जल्द वह बयां करे के फिर क्या हुआ राबिया आयी या नहीं उसे क्या हुआ।
- जब उनकी माँ को चुप बैठे देर हो गयी तो उन्होंने कहा "फिर क्या हुआ अम्मी जान ?
- उन्होंने आहिस्ता से सर उठा कर इल्यास को देखा के उनकी आंखे नम है। वह बड़े मुतास्सिर हुए। "अम्मी जान तुम्हारी तबियत कैसी है।
- उन्होंने भर्रायी आवाज़ में कहा "अच्छी है बेटा मु झे ऐसा मालूम हो रहा है जैसे वह दिन आज ही है। वह वाक़ेआ आज ही गुज़रा है। जबकि उस वाक़ेया को गुज़रे चौदा साल हो गए है। मैंने हर बरस और हर बरस का हर दिन हर दिन का हर पहर गिन गिन कर और बड़ी तकलीफ से काटा है। मई दुआ करती हु के अल्लाह तुम्हे जवान करे और तू मेरे दर्द दिल का मदावा करे। खुदा ने मेरी दुआ क़ुबूल की। माशाल्लाह तुम जवान हो गए। अब यह तुम्हारे हाथ में है के मेरे दिल की खलश को दूर करो।
- इल्यास :अम्मी जान !इंशाल्लाह मैं तुम्हरे दिल को सुकून देने के लिए अपनी जान देने से दरेग न करूँगा।
- अम्मी : तुमसे यही उम्मीद है मेरे चाँद। हक़ीक़त यह है के तुम्हे इस काम में अपनी जान की बाज़ी लगानी होगी।
- इल्यास :मैं जान ही की बाज़ी लगा दूंगा। बयान करो अम्मी जान फिर क्या हुआ।
- अम्मी ने ठंडा सांस भरा और कहा " राबिया की वापसी का इंतज़ार करने लगी। वक़्त गुज़रता रहा। न राबिया आयी न राफे आया मेरी तशवीश बढ़ने लगी। जो जो वक़्त गुज़रता गया मेरी परेशानी बढ़ती जाती थी। अचानक मेरे दिल में होक उठी और जी चाहा खूब चीख कर रोऊँ लेकिन मैंने ज़ब्त किया।
- उसके थोड़े ही देर के बाद राफे आये। सख्त परेशान और बदहवास आँखे गम और दर्द में डूबी हुई। पेशानी अर्क आलूद। होंटो पर पपड़िया जमी हुई उनकी यह हालत देख कर मेरा दिल धक् से हो गया। मई राबिया को भूल गयी। उनकी जाबो हाली देख कर उनकी फ़िक्र में गिरफ्तार हो गयी। मैंने जल्दी से कहा खैर है राफे तुम्हारी यह क्या हालत है।
- वह मेरे पास ा खड़े हुए और उन्होंने मरी हुई ज़बान से कहा "खैर नहीं है अम्मी।
- मैं :क्या हुआ।
- राफे :मई लूट गया मेरी अकल पर पत्थर पड़ गए थे।
- मैं : खुदा के लिए कुछ तो कहो मेरा दिल होल रहा है।
- राफे : क्या कहु वह दगाबाज़ हिंदी औरत यहाँ से चली गयी है।
- मैं :चली गए कहा ?
- राफे :खुदा ही जनता है कहा गयी।
- मैं :और मेरी राबिया ?
- राफे :बदबख्त उसे साथ ही ले गयी है।
- इतना सुनते ही मेरा दिमाग चकराया। फिर मुझे कुछ खबर नहीं रही। मैं बेहोश हो गयी। कितने आरसे बेहोश रही मैं नहीं कह सकती। अलबत्ता जब मुझे होश आया और सोचने समझने के क़ाबिल हुई तो मुझे बतया गया के एक दिन और एक रात हो गए बेहोश हुए गुज़र गए है। मैं बहुत नहीफ हो गयी थी। मुझे यह भी मालूम न हुआ के राफे सारी सारी रात और तमाम दिन मेरे पास बैठे मेरी देख भाल करते रहे कई कई तबीबों को दिखया .जब तुम रोने लगे तो मैं तसल्ली देते थे।
- जब मुझे होश आया तो मैं खली दिमाग थी। कोई बात मेरे ज़हन में नहीं थी। तुमने मुझे पुकारा। तुमसे मुझे इस क़दर मुहब्बत है के अगर तुम मेरी क़बर पर भी खड़े हो कर पुकारो तो शायद मैं जवाब दू। मैंने तुम्हे देखा चाहा के तुम मुझ से लिपट जाओ। मेरे जज़्ब दिल ने तुम पर असर किया। तुम दौड़ कर मेरे पास आये और मुझ से लिपट गए। मेरे दिल को बाद सुकून हुआ।
- लेकिन और भी ऐसी हस्ती थी जिससे मुझे ऐसी मुहब्बत थी जैसी तुमसे वह राबिया थी। फ़ौरन ही मुझे उसका ख्याल आगया। वह भी मुझ से बहुत मुहब्बत करती थी। एक मर्तबा मुझे बुखार आगया था और मुझ पर गफलत तारी हो गयी थी। मुझे राफे ने बताया था के राबिया आंधी रात तक पास बैठी रोटी और मुझे पुकारती रही थी। बड़ी मुश्किल से राफे ने उसे तसल्ली दे कर सुलाया था।
- होश में आने के बाद जब मैं हवास में आयी और तुम मुझसे लिपट गए तो मुझे राबिया याद आयी। ताज्जुब हुआ के वह क्यू मेरे पास नहीं आयी। मैंने राफे से पूछा :राबिया नहीं आयी क्या ?
- राफे ने दूसरी तरफ मुँह फेर लिया। मैं समझी वह देख रहे है के राबिया क्यू नहीं आयी। मुझे बाद में मालूम हुआ के उन्हें मेरे कहने से बड़ा सदमा हुआ था और उन्होंने दूसरी तरफ मुँह इसलिए फेर लिया था। के मैं उनके तासुररात को न देख सकू।
- लेकिन बेटा तुमने मुझे हक़ीक़त से आगाह कर दिया। तुमने कह दिया के राबिया को तो हिंदी औरत ले गयी। तुम्हारे यह कहते ही मेरे दिमाग के परदे खुल गए। मुझे याद आगया के राफे ने आकर कहा था के हिंदी औरत राबिया को ले गयी। फिर बी मुझे सन्नाटा सा तारी हो गया और मेरी हालत फिर बिगड़ने लगी। राफे ने देख लिया उन्होंने मेरी तसल्ली के लिए कहा "उस हिंदी औरत को राबिया से बड़ी मुहब्बत है। और उसे सैर करने ले गयी है।
- मुझे इन्तेहाई यास में उम्मीद की झलक नज़र आयी। मैंने उनकी तरफ देख कर कहा "क्या कुछ पता लग गया है ?
- उन्होंने कहा : इंशाल्लाह राबिया तुम्हारे पास आजायेगी।
- मैं उस रोज़ उठने क़ाबिल न हो सकी दूसरे रोज़ कुछ तवानाई उठाया लेकिन कमज़ोरी की वजह से उठ न सकी। राफे मेरी बड़ी दिलदहि और खिदमत कर रहे थे। यूँ तो मोहल्ला की तमाम औरते और सब रिश्तेदार मेरे पास आते जाते रहते और रात दिन खिदमत करते थे मगर हक़ीक़ी खिदमत राफे ने की।
- आठ दस दिन के बाद मैं बहुत हद तक तंदुरुस्त हो गयी। जब कभी मुझे राबिया याद आजाती मेरा दिल तिलमिला जाता। मगर मैं ज़ब्त करती। क्यू के मैं देख रही थी के राफे को भी बड़ा सदमा है। खुदा ने एक हूर अता की थी। हमने उसे अपने हाथो से खो दिया था घर में दो ही बच्चे थे एक तुम और राबिया। तुम दोनों से घर की रौनक थी रौशनी थी फरहत थी राबिया चली गयी घर की रौनक आधी रह गयी थी। रौशनी फीकी पद गयी थी।
- जी चाहता था के मैं राफे मलामत करू। क्यू वह हिंदी औरत के पीछे अंधे हो गए थे। क्यू उन्होंने उस नागिन को खूबसूरत परिंदा समझा था क्यू राबिया को उसके पास ले गए थे। क्यू उसके पास छोड़ आये थे। लेकिन वह इस क़दर गम ज़दा और परेशान रहते थे के उन्हें मलामत करने की हिम्मत न होती थी। मगर शायद उन्होंने मेरे ख़यालात मेरी नज़रो से भांप लिया था।
- एक रोज़ वह मेरे पास आये उन्होंने कहा "अम्मी मैं वाक़िफ़ हु के तुम राबिया से इल्यास से बढ़ कर मुहब्बत करती हो। अपनी औलाद से चाहतीहो। उसकी गुमशुदगी ने तुम्हारी जान ही लेनी चाही थी। लेकिन खुदा ने रहम किया और तुम बच गयी। मैं यह भी जनता हु के तुम मुझे क़ुसूर वॉर समझती हो। तुम्हारी आंखे मलामत कर रही है। मुझे एतराफ़ है के क़ुसूर मैंने ही किया है न मैं राबिया को उस मक्कार औरत के पास छोड़ आता न वह उसे लेजाती न तुम्हारी दुनिये मुहब्बत ताराज होती। तुम्हारी मसर्रत को मैंने लूटा है। तुम्हारी सेहत को मैंने गहन लगाया है। इंशाल्लाह मै ही तुम्हारी मसर्रत और सेहत को वापस लाऊंगा। इजाज़त दो के मैं रबिया को वापस लेने रवाना हो जाऊ।
- बेटा ! मेरी तो यह वाली आरज़ू थी के कोई राबिया को ढूंढ कर लाये। लेकिन मैं जानती थी के वह दुनियाए इस्लाम में नहीं है बल्कि ऐसे मुल्क में चली गयी जी इस मुल्क से भी जिसमे हम रहते है बहुत बड़ा है बस्ते है जो बुतपरस्त है। जिसमे नेज़ इस्लाम ने ज़ियाबाज़ी नहीं की है। उनके मशरत अलग है। मज़हब अलग है। उन्हें मुसलमानो से कोई हमदर्दी नहीं है। ऐसे मुल्क और ऐसे लोगो में राफे को कैसे जाने की इजाज़त दे देती। चुनांचा मैंने कहा :"इस मुल्क की जिसके मुताल्लिक़ हमें कुछ भी मालूम नहीं है तुम या कोई मुस्लमान कभी नहीं गए। न रास्तो से वाक़िफ़ हो न मालूम वहा के लोग तुम्हारे साथ किस तरह पेश आये। इसलिए तुम्हारा वहा जाना मुनासिब नहीं मालूम होता।
- राफे : मैं किसी बात से नहीं घबराता। मुस्लमान हु। मुसलमान घबराता नहीं। राबिया के मुहब्बत ने मेरे दिल में में तड़प पैदा करदी है औलाद की आग बुरी होती है। फिर तुमने उसे ही नहीं मुझे भी पाला है। तुम्हारे दिल को जो सदमा पंहुचा है। उसे मैं भी समझता हु। मुझे इजाज़त दो और दुआ करो के रब्बुल आलमीन मुझे कामयाब और सरखरो वापस लाये।
- मैंने उन्हें हर चाँद समझाया। नशेब व फ़राज़ दिखाए लेकिन वह बज़िद रहे आखिर मैंने उन्हें इजाज़त दे दी। वह बहुत खुश हुए। उन्होंने उस रोज़ से लम्बे सफर की तैयारी शरू करदी। उनके एक दोस्त थे इबादुल्लाह वह भी उनके साथ जाने को तैयार हो गए।
- चुके राफे को तुमसे भी बड़ी मुहब्बत थी और वह नामालूम मुद्दत के लिए तुम से जुदा हो रहे थेइसलिये जब तक तैयारी में मसरूफ रहे रोज़ाना तुम्हारे लिए अच्छी अच्छी खाने पीने की चीज़े लाते रहे। तुम्हे ताज्जुब हो रहा था। लेकिन मैं समझ रही थी।
- आखिर वह जुमे के रोज़ नमाज़ पढ़ कर रुखसत हुए। और मैंने उनकी सलामती और बा मुराद आने की दुआ मांगी
अगला भाग (जासूसों का काफला )
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