QARA QARAM KA TAJ MAHAL ( PART 3)

                                                  


तीसरी चोटी

रविवार, 24 जुलाई 2005

पापा की ढेर सारी दुआएँ लेकर वह घर के गेट से बाहर टूर कंपनी की बस में आ गई।
उनका गाइड कम ड्राइवर, ज़फर, उसका सामान लोड करके ड्राइविंग सीट पर आ गया।
बस में उसे चार अनजान चेहरे दिखाई दिए।
वह एक अपेक्षाकृत पिछली सीट पर खिड़की की तरफ बैठ गई। निशा या वह तुर्क पर्यटक अभी तक नहीं आए थे।
खुले शीशे से आती ठंडी हवा उसकी आँखों को बंद कर रही थी।
उसने शीशा बंद कर दिया और लेज़र में कटे काले बालों को ऊँची पोनीटेल में बाँधा।
अचानक उसे दूसरे यात्रियों का ख़याल आया।
उसने एक सरसरी नज़र उन पर डाली।

उसके बाईं ओर सीटों की कतार में उसके बराबर एक कम उम्र की लड़की बैठी थी। उम्र मुश्किल से बीस-इक्कीस साल की होगी।
कंधों तक आते खुले बाल, जो माथे पर बैंग्स की तरह कटे थे और गोरी रंगत।
वह ध्यान से सड़क के किनारे भागते पेड़ों को देख रही थी। उसने सफ़ेद ट्राउज़र और घुटनों तक कुर्ता पहन रखा था और पैरों में सैंडल थे।

दूसरे यात्रियों में पचास-पचपन साल के एक अंकल थे। शायद कोई रिटायर्ड अफ़सर या कोई अमीर बिजनेसमैन। वे काफ़ी रौबदार लग रहे थे और सबसे आगे की सीट पर विराजमान थे।
इसके अलावा एक जोड़ा था। पत्नी काफ़ी करख्त और नकचढ़ी लग रही थी, जबकि पति 'सीधा-सादा' सा था।
परीशे को क़याफ़ा-शनासी (चेहरा पढ़ने की कला) में गहरी दिलचस्पी थी।

"सुबह छह बजे कोई वक्त है जाने का? मुझे सोने भी नहीं दिया।"
निशा उसके सामने आकर बैठी तो बस, जो निशा को पिक करने के लिए रुकी थी, फिर से चल पड़ी।
"सो जाओ, लंबा सफ़र है।" उसने निशा की उनींदी आँखें देखकर कहा।

ज़फर ने अपना आखिरी यात्री एक ऊँचे दर्जे के होटल से उठाया था। वह बस में दाखिल हुआ और परीशे की उम्मीदों के विपरीत उनकी ओर आने के बजाय 'रिटायर्ड' अंकल के साथ वाली खाली सीट पर बैठ गया।
उसने तो गर्दन घुमाकर उनकी ओर देखा तक नहीं था।
क्योंकि वह उनसे काफ़ी आगे बैठा था और वह भी बाईं कतार में, तो परीशे उसके सिर्फ़ दायां कंधा, बाजू और सिर ही पीछे से देख सकती थी।
हल्की भूरी शर्ट, सफ़ेद पैंट, वही कल वाली स्लीवलेस हल्की-सी टूरिस्ट जैकेट, गले में लटकता मफलर, पैरों में जॉगर्स, वह बहुत अच्छा लग रहा था।
हाँ, आज उसके सिर पर पी कैप भी थी।
वह कुछ देर उसे देखती रही, फिर निशा की तरह सो गई।

कोई दो घंटे बाद उसकी आँख खुली। वे लोग अभी भी सफ़र में थे।
निशा जाग चुकी थी।
उसने चोरी-छुपे अफ़क़ को देखा, वह अपने सेल फोन के बटनों से खेल रहा था।

"सुनो परी! तुम्हें यह शख़्स अच्छा नहीं लगा?"
"नहीं और मैं इसका ज़िक्र नहीं करना चाहती।" वह खिड़की के बाहर देखने लगी।
"मगर मैं करना चाहती हूँ।" निशा ज़िद पर अड़ी थी।
"ठीक है, फिर जाकर उसी के पास बैठ जाओ।"

बाक़ी सारा रास्ता खामोशी में कटा।
दिन चढ़ते ही बस पेशावर की हदों में दाखिल हुई।
सड़कों पर काफ़ी भीड़ थी।
अपने उफ़ान पर चमकता सूरज शहर को झुलसा रहा था।


"कितनी गर्मी है यहाँ! जबकि पेशावर पहाड़ों पर स्थित है… यार, इससे ठंडा तो इस्लामाबाद था।" निशा को अपना शहर याद आया।

टूर कंपनी ने पहले से एक मध्यम दर्जे के होटल में उनकी बुकिंग करवा रखी थी।
होटल के बाहर तंग सी सड़क पर बहुत ज्यादा भीड़ थी।
सड़क के अच्छे-खासे हिस्से पर ठेलों (रेहड़ी वालों) का कब्ज़ा था।
गाड़ी एक ढलान पर चढ़कर होटल के पार्किंग क्षेत्र में आई।
वहाँ गाड़ियों की लंबी कतार थी।

"नॉट बैड।" बस से निकलकर निशा ने टिप्पणी की।
परी होटल की ऊँची इमारत को देखने लगी।

तुर्क पर्यटक उनसे कुछ दूरी पर खड़ा, सफ़ेद जीन्स की जेबों में हाथ डाले, आँखें सिकोड़कर चारों तरफ़ का जायजा ले रहा था।
वह अपनी ओर ध्यान आकर्षित पाकर मुस्कुराया, लेकिन परीशे ने निगाहें फेर लीं।

"हेलो गर्ल्स, कैसी हो तुम दोनों?" वह उनके करीब आ गया।
"ओह, तो आप हमें पहचानते हैं?"
निशा को यह बहुत अखरा कि उसने पूरे रास्ते उन्हें लिफ्ट नहीं दी।
बिना शिकायत किए रह नहीं सकी।

वह जवाब में हंस पड़ा।
"मैंने सोचा कि सुबह-सुबह नींद से बेहाल लोगों को न जगाऊँ, ज़रा कहीं पहुँच जाएँ तो आराम से गपशप कर लेंगे।"
वह मुस्कान दबाए संजीदगी से बोला।

परीशे उन दोनों को छोड़कर उस किशोर लड़की के पीछे चलते हुए सीढ़ियाँ चढ़ने लगी।

246 नंबर कमरे में पहुँचकर ज़फर ने चाबी उसके हवाले की।
वह ट्रिपल बेडरूम उसे, निशा और उस लड़की के साथ साझा करना था।

"ओके, शाम को मुलाकात होगी।"
अफ़क़ यह कहकर उनके साथ वाले कमरे में चला गया।
वह पति-पत्नी सामने वाले कमरे में चले गए।

"मैं डॉक्टर परीशे जहांज़ेब हूँ।"
कमरे में आकर अपने होठों पर मुस्कान सजा कर उसने उस लड़की की तरफ़ हाथ बढ़ाया।

"मैं अरसा बुखारी हूँ। वैसे आपका नाम बहुत प्यारा है, परीशे!"
वह रुकी और फिर सुधार कर बोली, "परीशे आपी!"


"आपी?"
उन दोनों ने बिस्तर पर बैठते हुए उसे हैरानी से देखा।

"दरअसल, मैं पाकिस्तानी कज़िन्स को अगर बिना 'आपी' या 'बाजी' कहे बुलाऊँ, तो दादो 'अंग्रेज़' कहकर टोकती हैं।
सो मैंने यह नतीजा निकाला है कि किसी भी पाकिस्तानी लड़की को 'आपी' या 'बाजी' कहे बिना नहीं बुलाना।"

वे दोनों हँस पड़ीं।

खाना उन्होंने साथ ही खाया।
तब तक परिचय का सिलसिला पूरा हो चुका था।

अरसा का ताल्लुक लाहौर से था, मगर वह पली-बढ़ी इंग्लैंड में थी।
वह उर्दू लिख और पढ़ सकती थी, मगर बोलने में बहुत मुश्किल होती थी।

उसके पास इतनी कम उम्र में भी एक अच्छा अल्पाइन रिकॉर्ड था।
वह ज़्यादातर यूरोपियन ऐल्प्स (Alps) फतह कर चुकी थी।
इसके अलावा तिब्बत में उसने Shishapangma और Cho Oyu को फतह किया था।

"तो तुम अफ़क़ के साथ राका पोशी जा रही हो?"
निशा को वह मासूम और होशियार लड़की बहुत अच्छी लगी थी।

"हाँ!" उसने सिर हिला दिया।
"राका पोशी मेरे नॉवेल की सेटिंग है। ओह, मैं बताना भूल गई, मैं राइटर भी हूँ। दो नॉवेल लिख चुकी हूँ, यह मेरा तीसरा नॉवेल है।"

"इतनी कम उम्र में दो नॉवेल?"
परीशे को सुखद आश्चर्य हुआ।

अरसा हँस पड़ी।
"मुहम्मद बिन क़ासिम ने सत्रह साल की उम्र में सिंध फतह किया था, मैंने तो इस उम्र में सिर्फ़ पहला नॉवेल लिखा था। यह कोई बड़ी बात नहीं है।"

"अच्छा, तो तुम्हारे नॉवेल की कहानी क्या है?"
उसे दिलचस्पी हुई।

"एक पर्वतारोही हीरोइन की राका पोशी फतह करने की रोमांटिक दास्तान।" वह मज़े से बोली।

"एंड हैप्पी करोगी या ट्रैजिक?"

"ट्रैजिक! क्योंकि ट्रैजिक एंड यादगार होता है। वैसे आप नहीं आएँगी राका पोशी? आप बता रही थीं कि आप भी क्लाइंबर हैं?"

 "हाँ, मैंने कंब्रिया के टु स्कूल, लेक डिस्ट्रिक्ट से सात हफ़्ते के कोर्स किए थे, मगर मैं राकापोशी नहीं आऊँगी क्योंकि मुझे अपने फादर की परमिशन नहीं है।


"कंब्रिया के टु से? वाह, मैं इम्प्रेस्ड हूँ!"
"और स्विस आल्प्स के अलावा, मैंने स्पांटिक (spantik) को भी सर कर रखा है।"
वह मुस्कुराते हुए बताने लगी।
"ओह वैसे आप आतीं तो मजा आता। अफ़क भाई बहुत अच्छे हैं। मेरी उनसे मुलाकात फ्लाइट के दौरान हुई थी, वह मिस्र से आ रहे थे और मैं इंग्लैंड से।"
"अब सोते हैं," इससे पहले कि वह "अफ़क नाम" शुरू करती, परेशे ने उसकी बात काट दी। अरसा ताबेदार के बिस्तर पर लेट गई।
जल्दी ही उसे नींद ने घेरा। फिर वह शाम तक सोती रही। अरसा और निशा सुबह तड़के ही उठ गई थीं और बग़ार ज़ोर से गपें हांकते हुए उन्होंने उसे भी जगा डाला था। मगर वह आँखों पर हाथ रखे सोती बनी रही।
अचानक दरवाजे पर दस्तक हुई, परेशे का दिल जोर से धड़कने लगा। उसने आँखों पर से बाजू नहीं हटाया, मगर वह जानती थी कि बाहर कौन था। वह दस्तक नहीं, अफ़क अरसलान की खुशबू पहचानती थी।
"अंदर आ सकता हूँ अच्छी लड़कियों?" उसका शरारत से कहता लहजा परेशे की सुनवाई से टकराया। अगर उसकी आँखों पर बाजू न होता तो वह शायद उसकी पलकें देख पाती।
"लगता है अच्छी लड़कियों के बिना दिल नहीं लग रहा। आओ बैठो।" वह इतना महज़ब, शिष्ट हंसमुख था कि निशा और अरसा तुरंत उसके लिए उठ खड़ी हुईं और उसे कुर्सी पेश की।
"यूं ही समझ लो," वह परेशे के बिस्तर के सामने रखी कुर्सी पर बैठ गया। कुर्सी और बिस्तर के पाँपती के बीच फासला खासा कम था। जगह तंग थी, वह बैठ तो गया मगर उसके जॉगर्स बिस्तर के सिरा को छू रहे थे।
"मैं इस सफर को यादगार बनाना चाहता हूँ और एक अच्छे सैलानी के तौर पर, मैं कोई पल भी खाली नहीं बैठना चाहता। तो फिर तुम लोग बताओ शाम का क्या प्रोग्राम है?"
उसे महसूस हो रहा था कि बोलते हुए भी नजरें भटककर अफ़क की नजरें उसी के चेहरे पर पड़ रही थीं, जो उसने अपने सफेद बाजू के ओट में आँखों को छिपा रखा था। कम्बल गर्दन तक ले रखा था, सिर्फ चेहरे का निचला हिस्सा खुला था।
"परी उठ जाए तो कोई प्रोग्राम बनाते हैं।"
"तुम्हारी दोस्त बहुत ज्यादा सोती है क्या?" उसके अंदाज़ से परेशे को लगा, वह जान गया है कि वह सो नहीं रही थी।

"नहीं आज बस ज़रा थक गई। तुम अपना प्रोग्राम बताओ।"
"मैं आज तुम्हारे पेशावर के बाजार, यही कैंट और सदर वगैरह खंगालने का सोच रहा हूँ। बाकी एवरेस्ट अट्रैक्शन कल देखूंगा।"
"तो फिर हम तीनों भी आपके साथ चलते हैं अफ़क भाई! अहमद साहब और इफ्तिकार फैमिली की मर्जी हो तो जहां भी जाएं या फिर उनसे पूछ लें?" अरसा असमंजस में थी।
"वह कपल बहुत रिज़र्व है, वह यकीनन हमसे घुलना मिलना पसंद नहीं करेंगे। अहमद साहब तो आधा घंटा हुआ कहीं चले भी गए हैं फिर हम चारों साथ चलते हैं मगर..."
वह एक पल को रुका, परेशे के कान खड़े हो गए।
"मगर क्या?"
"मगर हो सकता है तुम्हारी दोस्त को कोई आपत्ति हो।"
"अरे नहीं। वह बहुत नाइस और स्वीट है। उसे कोई आपत्ति नहीं होगी,"
"वैसे निशा! मुझे बहुत खुशी हुई थी जब तुमने मुझे बताया था कि तुम्हारी दोस्त मेरी बहुत तारीफ कर रही थी,"
परेशे ने एक झटके से कम्बल उठाया और तेज़ी से सीधी हुई।
"मैंने ऐसा कब कहा था?"
अफ़क का हंसी बेइच्छा ऊँची हुई, उसे अपनी हिम्मत पर शर्मिंदगी हुई। निशा और अरसा कुछ हैरान थी।
"इनको अभी 'लतीफ़ा' समझ में नहीं आया था।"
"तुम उठ गईं? मैं समझी सो रही हो।"
"मेरे सर पर जो तुम लोग गोल मेज़ कॉन्फ़्रेंस कर रहे हो, मैं भला कैसे आराम से सो सकती थी?"
शर्मिंदगी छिपाने को उसने ग़ुस्से का सहारा लिया और बिस्तर से नीचे उतर गई। ड्रेसिंग रूम जाने के रास्ते में अफ़क की लंबी टाँगें आड़ी हो गई थीं। उसे पास आते देख कर उसने पैर सिकोड़े। वह पैर पटकते हुए उस तंग जगह से गुज़री।
"सॉरी परी! मैं मजाक कर रहा था।"
वह बड़ी मुश्किल से हंसी को कंट्रोल करते हुए माफी मांगने लगा लेकिन वह चिढ़ती हुई जोर जोर से अलमारी के पट खोल बंद करती रही।
"अच्छी लड़कियों! तैयार होकर लॉबी में आओ। तुम्हारे पास सिर्फ पंद्रह मिनट हैं।" वह जाने के लिए उठ खड़ा हुआ तो परेशे ने कनखियों से उसे देखा, उसने कपड़े बदल लिए थे। शर्ट की आस्तीनें आधी, मगर रंग काले थे। और ऊपर सफेद टूरिस्ट जैकेट, गर्दन के आसपास बिल्कुल लाल मफलर।
"राइट बॉस!" अरसा ने ताबेदार दिखाया। वह मुस्कुराते हुए एक नज़र परेशे पर डाली और बाहर निकल गया। वह "अफ़" कहते हुए क्लिकस कर रही थी।
इन पंद्रह मिनट में परेशे ने कोई दो सौ बार इन दोनों से "जरूर प्रोग्राम बनाना था तुमने उसके साथ?" सुना था। निशा ढीठ बनी सुनती रही, अरसा को हालांकि हैरानी हुई थी।
"यह परेशे आपी की कोई लड़ाई हुई है अफ़क भाई से? वह तो इतने केयरिंग और स्वीट हैं।"
"यह एक सदियों की कहानी है, तुम्हें एक शाम में समझ नहीं सकती।" निशा ने आह भरकर कहा।
हेयर ब्रश करते परेशे के हाथ एक पल को थमे थे। वह अंदर से काँप कर रह गई थी। पलट कर शॉक की नज़र निशा पर डाली और दूसरी अपनी अंगूठी में मौजूद अंगूठी पर। निशा ने लापरवाही से कंधा उचका दिया। अरसा के सिर के ऊपर से सब कुछ गुजर गया था।
वह पैर पटक कर बाथरूम में चली गई। निशा की बात वह आमतौर पर नहीं मानती थी, मगर अब उसके पास कोई दूसरा रास्ता न था। निशा और अरसा चली जाती तो उसने भला क्या कसूर किया था। जो वह अकेले छोटे से कमरे में बैठी रहती? युँ भी अफ़क के साथ मार्केट जाना उसे बुरा नहीं लग रहा था। हालांकि युँ जाहिर करना वह अपना फर्ज़ समझती थी।
पार्किंग एरिया में खड़ी टूर कंपनी की बस के साथ टेक लगाए खड़ा अफ़क उनका इंतजार कर रहा था। उन्हें देखकर वह सीधा हो गया। एक स्वागत मुस्कान ने उसके होंठों का ख्याल रखा था। पी कैप अभी भी उसके सिर पर थी।
"कैंट चलते हैं, यहाँ से बहुत करीब है।" उनका मार्गदर्शन करते हुए वह होटल से पार्किंग एरिया से नीचे सड़क तक जाती ढलान से उतर रहा था।
"तुम तुर्की से आए हो या صوب़े सरहद से?" निशा को इसका पेशावर और आस-पास की जानकारी हैरान करती थी।
वह बेइच्छा हंस पड़ा। "बस पिछली बार इधर आया था तो काफी दिन यहाँ बिताए थे, इसलिए आइडिया हो गया है।"
पन्ना नंबर 43
"पिछली बार कब आए थे?"
"दो साल पहले," वे लोग ढलान उतर कर नीचे सड़क पर आ चुके थे। सड़क काफी खुली थी, मगर फलों की रीढ़ियों और खानचों की आपसी सहयोग से अब बहुत तंग हो चुकी थी। यहाँ होटेल थे या पीसीओ।
"दो साल पहले क्या सैर-ओ-सीरत के लिए आए थे?"
रीढ़ियों से दोनों ओर गहरी सड़क पर रास्ता बना कर चलना बहुत मुश्किल था, फिर भी वह बहुत ध्यान से उनकी बातचीत सुन रही थी।
"हाँ, सैर-ओ-सीरत के लिए और...," बोलते बोलते वह एकदम चुप हो गया।
"और...बस कुछ कम था," वह साफ़ टाल गया था। निशा नैतिकता से उतने तो अवगत थी कि अगर वह टाल रहा था तो वह उस काम की डिटेल न पूछती।
अफ़क ने टैक्सी रोकी। टैक्सी वाला अंग्रेजी से अनजान था। सो कर्रया का मामला निशा ने ही तय किया।
कैंट की खूबसूरत दुकानों के बाहर आहिस्ता से चलते हुए वे चारों काफी देर तक शॉपिंग करते रहे। फिर अरसा उन्हें छोड़कर सईद बुक बैंक की तरफ चली गई। वे तीनों एक ज्वेलरी शॉप में दाखिल हो गए।
यह संयोग ही था कि जब निशा विभिन्न एरिंग्स देख रही थी, तो अपनी ढीली पोनी को कसते हुए परेशे के बालों का जकड़ा रबर बैंड टूट गया। उसके बाल किसी झरने की तरह कमर पर गिर गए।


"निशा, तुम्हारे पास कोई हेयर क्लिप है?" अपने लंबे, लेयर्ड कट बालों को संभालते हुए, उसने परेशानी से निशा से पूछा।
"खुद खरीदने से तुम्हें मौत पड़ती है?" निशा बहुत व्यस्त थी, इसलिए झट से बोली।
"दूर हो जाओ!" वह बड़बड़ाते हुए सामने शेल्फ पर रखी टोकरी में क्लिप्स और हेयर टाई देखने लगी।
"यह कैसी है?"

उसने चौंककर सिर उठाया। अफ़क़ हाथ में एक हेयर क्लिप लिए उसे दिखा रहा था। उसने नजरें झुकाकर क्लिप को देखा। वह सिल्वर कलर की थी, जिसमें एक तरफ बड़ा, गोल फ़िरोज़ी रंग का पत्थर जड़ा था और दूसरी तरफ हरा व नीला, दो रंगों का पत्थर लगा था।


"अच्छी है," उसने सुंदर क्लिप लेने के लिए हाथ बढ़ाया। अफ़क़ ने उसे उसके हाथ पर रखना चाहा, लेकिन पकड़ते-पकड़ते वह नीचे गिर गई। वह घबराकर झुकी और क्लिप उठा ली। उसके दो रंगों वाले फूल के बीच हल्की सी सीधी दरार पड़ गई थी।
"टूटी तो नहीं?" वह पूछ रहा था। उसने सिर हिलाकर मना कर दिया और नजरअंदाज करते हुए सेल्समैन से कीमत पूछी।
"दो सौ पचास रुपये।"

अफ़क़ ने पैसे दुकानदार की ओर बढ़ाए।
"सॉरी, यह मैं खुद खरीदूंगी," उसने धीमी आवाज़ में उसे टोका।
"मैं इस लालच में तुम्हें यह गिफ्ट कर रहा हूँ कि कल तुम भी मुझे कुछ गिफ्ट करोगी।"
"मैं गिफ्ट्स न लेती हूँ, न देती हूँ," उसने पर्स से पैसे निकाले।
"लेकिन मैं देता भी हूँ और लेना भी पसंद करता हूँ," वह ज़िद पर था। उसे नजरअंदाज करते हुए, उसने पैसे सेल्समैन को थमा दिए।

खाकी लिफ़ाफे में पैक की गई क्लिप निकालकर उसने अपने बालों में लगाई और निशा की ओर बढ़ गई।
अर्सा के आने और निशा की शॉपिंग पूरी होने के बाद, वे लोग बाहर निकल आए।

बाहर अंधेरा फैल रहा था। दुकानों के अंदर और बाहर लाइटें जगमगा रही थीं। स्ट्रीट लाइट्स और साइनबोर्ड्स रोशन थे।
"रात के खाने के लिए तुम्हें पिशावर के सबसे बेहतरीन रेस्टोरेंट ले चलूं?" वह उनके दाईं ओर, जेब में हाथ डाले, सामने देखते हुए चल रहा था। वह उसकी ओर देखने से बच रही थी।
"पीसी?" अर्सा ने झट से पूछा।
"नहीं, मैं बेस्वाद, बासी और फीके खाने का आनंद नहीं लेता। मैं तुम्हें एक बेहतरीन रेस्टोरेंट ले जा रहा हूँ।"

शहर की तंग गलियों से टैक्सी में गुजरते हुए, वह उन्हें एक और संकरी गली में ले आया, जहाँ कई तीसरे दर्जे के रेस्टोरेंट थे। हवा में हर तरफ स्वादिष्ट खाने की खुशबू फैली थी।


वह उन्हें नमक मंडी ले आया था। प्रीशे को हैरानी हुई—वह उसके देश को उससे ज्यादा जानता था।
नमक मंडी में नमक वाली कड़ाही खाने के बाद, जब वे वहाँ से निकले, तो निशा ने बेख्याली में पूछ लिया,
"अगर तुम इन जगहों पर इतनी बार घूम चुके हो, तो अब फिर क्यों आए हो?"
"यही तो मैं कह रही थी। अच्छा-खासा हम जुलाई में ही राकापोशी क्लाइंब शुरू कर देते। बेवजह यहाँ आने की क्या जरूरत थी? पता नहीं अफ़क़ भाई को अचानक इन इलाकों का दौरा करने का ख्याल क्यों आ गया और मुझे भी घसीट लाए," अर्सा ने बेखयाली में कहा।

अफ़क़ ने कोई जवाब नहीं दिया।

अपने होटल के कमरे में वापस आकर, निशा फिर से अफ़क़ की तारीफ करने लगी।
"मैंने इतना सॉफ्ट, विनम्र और अच्छा इंसान पहली बार देखा है।"
"और नहीं तो क्या! जितनी जानकारी उन्हें इन इलाकों के बारे में है, मेरा ख्याल है कि वह एक बहुत सफल यात्रा-वृत्तांत लेखक बन सकते हैं," अर्सा ने कहा।

"रहने दो, अर्सा," वह जो टीवी ट्रॉली के पास खड़ी बोतल से पानी पी रही थी, झुंझलाकर बोली,
"ये पश्चिमी दुनिया के लोग हमारे देश में आकर जानकारी इसीलिए इकट्ठा नहीं करते कि हमारी अच्छी छवि दिखाएँ। बल्कि अगर तुम इन विदेशियों के यात्रा-वृत्तांत पढ़ो, तो तुम्हें पता चलेगा कि ये लोग हमारे बारे में कितना ज़हर उगलते हैं। हमें अज्ञानी, पिछड़ा और अविकसित कहते हैं। तुम्हारे ये अफ़क़ अर्सलान भी तुर्की जाकर यही करेंगे—यात्रा-वृत्तांत लिखकर दुनिया को बताएंगे कि हमारा देश कितना पुरातनपंथी, गरीब और सुविधाओं से वंचित है, यहाँ कितनी गंदगी और अव्यवस्था है। ये सब एक जैसे होते हैं—प्रचार करने वाले!"

बोतल रखकर वह मुड़ी, तो सन्न रह गई। अफ़क़ दरवाजे के बीच खड़ा था, होंठ भींचे हुए। वह शायद टैक्सी का किराया चुका कर उन्हें शुभरात्रि कहने आया था। और चूँकि वह अर्सा के लिए अंग्रेजी में बोल रही थी, तो उसके सुन लेने का सवाल ही नहीं उठता था।
वह अचानक तेज कदमों से चलता हुआ गलियारे से बाहर निकल गया।

निशा और अर्सा ने बेबस होकर एक-दूसरे की ओर देखा। वे उसकी नाराज़गी महसूस कर चुकी थीं।
उसे भी एहसास था। अंदर से वह बहुत पछताई और घबराई हुई थी, मगर चुपचाप लेट गई।


"तुम्हारे पैसे!" निशा ने उसकी साइड टेबल पर 250 रुपये रखे, तो उसने तकिया हटाया।
"कौन से पैसे?"
"वही, जो उस ज्वेलरी वाले ने वापस किए थे। कह रहा था कि तुमने उसे दिए हैं। तुम उस वक्त अर्सा से बात कर रही थीं, तो मैं देना भूल गई।"

उसके लहज़े में हल्की सी नाराजगी थी।

वह कुछ देर तक कुछ कह नहीं सकी। वह क्लिप, जिसे उसने बहुत गर्व से लगाया था, उसकी कीमत उस इंसान ने चुकाई थी, जिसकी वह कुछ मिनट पहले ही बेइज्जती कर चुकी थी।

उसका दिल चाहा कि वह ढाई सौ रुपये उसी वक्त उसके मुँह पर दे मारे, मगर उसने अहमर साहब के साथ कमरा साझा किया था। और फिर जो कुछ वह कर चुकी थी, अब उसमें कोई सुधार नहीं था।

वह चुपचाप सोने के लिए लेट गई। पैसे उसने पर्स में रख लिए।

जितना वह उससे दूर भागने की कोशिश करती, वह उतना ही उसके रास्ते में आ जाता था।

चौथी चोटी (भाग 2)

"परी... मैं..."

उसने उफ़ुक की बात सुने बिना तेजी से उसकी कलाई थाम ली।

"तुम्हें बुखार है, बहुत तेज़ बुखार! देखो तुम्हारा हाथ कितना गर्म हो रहा है, और नब्ज़ कितनी तेज़ चल रही है। और तुम आराम करने के बजाय ट्रेकिंग करने निकले हो, हाँ?"

उसे इस लापरवाह इंसान पर बहुत गुस्सा आ रहा था।

"तुमसे इतना भी नहीं हुआ कि मुझे बता देते? मैं डॉक्टर हूँ, तुम्हें दवा तो दे ही सकती थी। लेकिन तुम्हें खुद को तकलीफ़ देकर बहादुर कहलाने का शौक़ है। तुम एक बेकार इंसान हो! फ़ौरन वापस चलो मेरे साथ।"

वह जो पहले घबरा गया था, अब होंठों की मुस्कान दबाए, सिर झुकाए उसकी डाँट सुन रहा था।

"माफ करना, डॉक्टर! लेकिन मेरा नहीं ख़याल कि मैं इतना बीमार हूँ कि बिस्तर पर पड़ा रहूँ।"

"ये फैसला करने वाले तुम नहीं, मैं हूँ। समझे?"

वह वापस जाने के लिए मुड़ी तो वह भी सिर झुकाए, उसकी चिंता भरी नाराज़गी को महसूस करता हुआ, उसके पीछे-पीछे चल पड़ा। वह बड़बड़ाते हुए पहाड़ से नीचे उतर रही थी।

"डॉक्टर, मैं सच में इतना बीमार..."

वह झटके से पीछे मुड़ी। वह उसके बिल्कुल करीब था—बस एक क़दम के फ़ासले पर। अगर वह तुरंत पीछे न हटता तो उससे टकरा जाता।

"सुनो! तुम्हें आख़िरी बार कह रही हूँ, मेरे सामने अपना मुँह बंद रखो। मुझे बड़बड़ाते हुए मरीज़ ज़हर लगते हैं।"

उफ़ुक ने आज्ञाकारी अंदाज़ में अपने होंठों पर उंगली रख ली।

"सॉरी डॉक्टर, अब नहीं बोलूँगा।"

उसके लहजे और शहद-रंगी आँखों में शरारत थी।

"हाँ, अब ठीक है। चलो!"

वह उसके आगे चलने लगी।

"वैसे, कितनी देर तक नहीं बोलना?"

"जब तक मैं ना कहूँ। और अब चुप रहो।"

वह उसे ऊपर कमरे तक ले आई। उसे पैरासिटामोल की दो गोलियाँ देकर सख़्ती से सो जाने को कहा।



"लेकिन मैं सोना नहीं चाहता!"

बिस्तर पर बैठे उफ़ुक ने विरोध किया।

"चुप! बिल्कुल चुप रहो। डॉक्टर के सामने अपनी ज़बान बंद रखा करो!"

उसे सख़्ती से डाँटकर वह उसके कमरे से बाहर आ गई।

ऊपर की मंज़िल पर कमरों की एक क़तार थी। सामने एक लॉन था, जो आयताकार आकार का था। लॉन के किनारे, जहाँ खाई थी, कुछ झाड़ियाँ और कुछ पेड़ों की एक मामूली-सी बाड़ बनी हुई थी।

वह अपने बैग से डायरी और पेन निकाल लाई और लॉन के बीच में रखी कुर्सियों में से एक पर बैठकर अपने सफ़र के बारे में लिखने लगी। जब उसे यक़ीन हो गया कि आसपास उसके सिवा कोई नहीं है, तो उसने अपने जूते उतार दिए, पाँव मेज़ पर रख लिए, और डायरी घुटनों पर रखकर लिखने लगी। बीच-बीच में वह उफ़ुक के कमरे की ओर नज़र डाल लेती थी। एक बार जाकर देख भी आई—वह आँखों पर बाज़ू रखे सो रहा था।

जब वह संतुष्ट होकर वापस आई तो देखा कि एक छोटा सा बंदर मेज़ पर बैठकर उसकी डायरी से छेड़छाड़ कर रहा था। एक और बंदर नीचे घास पर लेटा अंगड़ाई ले रहा था।

उसके करीब आते ही एक बंदर तो झटपट भाग गया, लेकिन जो घास पर लेटा था, वह सम्मानपूर्वक सीधा बैठ गया।

उसने मुस्कुराते हुए अपना पेन बंदर की ओर बढ़ाया, जिसे उसने अपने छोटे-छोटे हाथों से पकड़ लिया। कुछ देर वह उससे खेलता रहा और वह मुस्कुराते हुए उसे देखती रही।

फिर अचानक, बंदर ने उसका पेन ज़ोर से उछाल दिया। वह लॉन के किनारे से होता हुआ नीचे खाई में गिर गया। परीशे के चेहरे से मुस्कान ग़ायब हो गई।

"दफ़ा हो जाओ तुम!"

उसने ग़ुस्से से पाँव ज़मीन पर पटका। बंदर उछलता हुआ भाग गया।

परी ने अफ़सोस से खाई की ओर देखा। उसका पेन अब वापस नहीं आ सकता था।

फिर वह उफ़ुक के बारे में सोचने लगी। उसे सैफ के बारे में सोचना अच्छा नहीं लगता था, लेकिन उफ़ुक की बातें, उसकी शरारत भरी शहद-रंगी आँखें और उसके होंठों पर छिपी मुस्कान को याद करना उसे अच्छा लग रहा था।

वह शख़्स, जिसे चार दिन पहले तक वह जानती भी नहीं थी, अब बहुत अपना-सा लग रहा था। नहीं... शायद वह उस पर्वतारोही को सदियों से जानती थी—रूह के वजूद में आने से पहले, पहली साँस से भी पहले से।

तभी उसे महसूस हुआ कि उफ़ुक किसी को पुकार रहा है। वह कमरे का दरवाज़ा खुला छोड़ आई थी, शायद वही आवाज़ आ रही थी।



"वह इतनी जल्दी जाग गया?"

नहीं, वह जगा नहीं था। शायद वह सोया ही नहीं था।

उसका बाज़ू अब उसकी आँखों पर नहीं था। उसका माथा और पूरा चेहरा पसीने से भीगा हुआ था।

"उफ़ुक!"

परीशे ने उसके पास जाकर उसे ग़ौर से देखा। उसके होंठ हल्के-हल्के काँप रहे थे। वह शायद कुछ कह रहा था।

"मेरा ऑक्सीजन कैन कहाँ है? मेरा ऑक्सीजन कैन कहाँ है?"

बंद आँखों और नकारात्मक रूप से हिलते सिर के साथ, वह धीमी आवाज़ में जैसे किसी को पुकार रहा था।

"उफ़ुक, उठो!"

उसने उसका कंधा धीरे से हिलाया। उसकी शर्ट पसीने से भीगी हुई थी।

"मेरा ऑक्सीजन कैन... हना दे... मेरा ऑक्सीजन..."

उसने बीच में तुर्की भाषा का कोई शब्द बोला, जिसे वह समझ नहीं पाई।

उसने ज़ोर से उसका कंधा हिलाया। उफ़ुक ने तुरंत आँखें खोल दीं और झटके से उठ बैठा। उसकी आँखों में अविश्वास और डर था।

"म...मेरा ऑक्सीजन कंटेनर कहाँ है?"

"उफ़ुक! तुम्हारे पास कोई ऑक्सीजन कैन नहीं है। क्या तुम्हें सांस लेने में दिक्कत हो रही है?"

वह कुछ भी समझ नहीं पा रही थी।

उफ़ुक चौंककर परीशे को देखने लगा।

"मैं कहाँ हूँ?"

फिर उसने तुर्की भाषा में कुछ कहा।

"तुम व्हाइट प्लस, मरगुजार, स्वात में हो। तुमने शायद कोई बुरा सपना देखा है।"

"सपना?"

वह झटके से कंबल हटाकर बिस्तर से नीचे उतर आया।

"तुम ठीक तो हो?"

परी ने धीरे से उसके कंधे पर हाथ रखा।

उसने उसका हाथ झटक दिया और कुछ क़दम आगे बढ़ गया। वह इधर-उधर देखकर हालात समझने की कोशिश कर रहा था।

"तुम... तुम यहाँ से जाओ।"

वह दीवार की ओर देख रहा था, उससे नज़रें नहीं मिला रहा था। उसके चेहरे पर अजीब-सा डर और बेचैनी थी।

"मुझे बताओ, तुम्हें क्या हुआ है?"

"तुम जाओ यहाँ से।"

उसने अपना चेहरा घुमा लिया और बालों में उंगलियाँ फँसाकर कुछ याद करने की कोशिश कर रहा था।

"तुम ठीक नहीं हो..."

"जाओ! ख़ुदा के लिए जाओ यहाँ से! जस्ट गेट आउट ऑफ़ हियर!"

वह अचानक चिल्लाया।

परी सहमकर पीछे हटी और फिर कमरे से बाहर निकल गई।

उसे हैरानी हुई थी, वह बहुत बहादुर पर्वतारोही था, वह तो शारीरिक तकलीफों की परवाह नहीं करता था, फिर एक सपने से इस तरह क्यों डर गया था? उसके चेहरे पर इतना अजनबी डर क्यों था? वह समझ नहीं पा रही थी।

फिर पूरी शाम वह अपने कमरे से नहीं निकला। प्रीशे ने रात के खाने के लिए उसका इंतजार किया। तीनों वाइट प्लस की पहली मंज़िल की सफेद इमारत के बरामदे में रखे खूबसूरत सोफों पर बैठी खाने का इंतजार कर रही थीं, जब वह उनसे आकर मिला।

"मैं ज़रा देर से आ गया, माफ करना। मैं उस बंदर के साथ खेलने लग गया था।"

"घोड़ों के अलावा बंदरों से भी आपकी अच्छी-खासी समझदारी लगती है।" निशा ने बेखयाली में कहा।

"समझा करें न... डार्विन कहता था कि इंसान पहले बंदर था। क्यों, अफ़क भाई?"

"इंसान पहले बंदर था या नहीं, लेकिन डार्विन के पूर्वज जरूर बंदर थे।"

वह अचानक फिर से वही पुराना, हंसता-मुस्कुराता अफ़क लग रहा था। शाम वाले वाकये का उसके चेहरे पर कोई असर नहीं दिख रहा था। प्रीशे ने सिर झटककर चुपचाप खाना खाने लगी।