QARA QARAM KA TAJ MAHAL ( PART 21)

 


चौदहवीं चोटी – भाग 3 

"सर, मैंने सोच-समझकर फैसला किया है। मुझे इस पर कोई पछतावा नहीं होगा।"
डॉ. वासती के संकोच और एहतियात को सुनकर वह इत्मीनान से मुस्कराई।
"इसके बावजूद, अगर आप कभी वापस आना चाहें तो हमारे अस्पताल के दरवाज़े आपके लिए हमेशा खुले रहेंगे।"
"शायद, लेकिन पता नहीं अब मैं कब लौटूंगी, हो सकता है कि मैं विदेश चली जाऊं। खैर, धन्यवाद सर।"

वह अपना इस्तीफा देकर बाहर निकल गई। आज उसका आखिरी दिन था, इसके बाद उसे यहाँ नहीं आना था। लेकिन अपने आखिरी कुछ घंटों में भी वह मरीजों पर पूरी तवज्जो दे रही थी।

रात में वह डॉ. कामरान के साथ एक घायल व्यक्ति की मरहम-पट्टी कर रही थी। नर्स ने उसे खून चढ़ाने की जरूरत बताई थी।

"ब्लड चढ़ा दिया?"
परीशे ने पास आती नर्स से सवाल किया।
"जी, ओ-पॉजिटिव लगा दिया है।"
"ओ-नेगेटिव नहीं था?" वह जाते-जाते रुकी और पलटी।
"नहीं, ओ-नेगेटिव और ओ-पॉजिटिव दोनों ब्लड बैंक में खत्म हो चुके हैं।"
डॉ. कामरान ने दवाई लिखकर नर्स को दी, "यह इंजेक्शन ले आओ।"
नर्स जा चुकी थी, परीशे ने पर्ची ली।
"सर, दें, मैं ले आती हूँ।"
हालाँकि उसकी ड्यूटी खत्म हो चुकी थी, फिर भी वह फार्मेसी से दवा लेने चली गई और रिसेप्शन की तरफ बढ़ी।

"इस नंबर पर कॉल करनी है।"
उसी वक्त किसी ने दरवाज़ा धक्का दिया। नर्स से बात करते हुए उसने पलटकर देखा—वर्दी पहने सैनिक बड़ी तेजी से स्ट्रेचर अंदर ला रहे थे।

"सुनिए, क्या हुआ? ये कौन लोग हैं?" वह खड़े-खड़े पूछने लगी।
"ये फौजी हैं। रेस्क्यू ऑपरेशन कर रहे थे, लेकिन छत उनके ऊपर गिर गई। एक जवान शहीद हो गया, दो रास्ते में दम तोड़ चुके, और ये बुरी तरह घायल है।"
जो फौजी स्ट्रेचर धकेल रहा था, वह घबराया हुआ लग रहा था।

वह वापस मुड़ी और नर्स को निर्देश देने लगी। फिर दवा का पैकेट लेकर वह वॉर्ड की ओर भागी, जहाँ डॉ. कामरान ने इंजेक्शन मंगवाए थे।
रास्ते में उसकी नजर स्ट्रेचर पर पड़ी, जिस पर एक मृत शरीर रखा था। चेहरा सफेद चादर से ढका था।

लेकिन उसे जैसे ही एहसास हुआ, उसने स्ट्रेचर रोका और चादर हटा दी।

मृत व्यक्ति का चेहरा खून से सना हुआ था। उसके सीने पर एक पी-कैप (फौजी टोपी) रखी थी। परीशे ने वह कैप उठाई। पहले नीली दिखने वाली वह टोपी अब पूरी तरह लाल हो चुकी थी—खून से।

"हेल टू तैय्यब एर्दोगान!"
उसकी नजर टोपी के अंदर लिखे शब्दों पर गई।

ज़मीन-आसमान उसकी आँखों के सामने घूमने लगे। उसका शरीर काँप उठा। कैप उसके हाथ से गिर गई।

"हेल टू तैय्यब एर्दोगान..."
उसने अविश्वास से दोहराया। फिर तेजी से मृत व्यक्ति का चेहरा अपनी ओर घुमाया।

"यह अफक नहीं है!"
लेकिन यह कैप अफक पहनता था। यह उसके दोस्त जैनिक की टोपी थी।

"जैनिक, अफक के बिना कहीं नहीं जाता।"
अहमद की कही हुई बात उसके दिमाग में गूँज उठी।

"तो मरने वाला जैनिक था... और जैनिक अफक के बिना कहीं नहीं जाता... तो अफक कहाँ है?"

उसने तुरंत नर्स को देखा, जो दूसरी लाश को स्ट्रेचर पर ले जा रही थी। परीशे तेजी से उसकी ओर दौड़ी और चादर हटाने लगी, लेकिन उसके हाथ काँप रहे थे।
नर्स ने कुछ समझते हुए खुद चादर हटा दी।

उसका दिल बैठ गया।

"यह अफक नहीं है... यह अहमद दुरान है... जो हमेशा हँसता था।"

"अहमद... ओ खुदा!"

"नहीं, अहमद नहीं!"
उसने अपने मुँह पर हाथ रखा और चीख रोकने की कोशिश की। दो कदम पीछे हटी।

फौजी तीसरा स्ट्रेचर ला रहे थे।

उसे जानने की जरूरत नहीं थी कि तीसरे स्ट्रेचर पर कौन था।

वह बेसुध-सी उनकी ओर दौड़ी।

उसके हाथ से दवा का बैग छूट गया। दवाइयाँ एक-एक कर के ज़मीन पर गिरने लगीं।

"रुको... रुको!"
उसकी आवाज़ सुनकर सैनिक रुका।

वह लपककर स्ट्रेचर तक पहुँची। घायल का चेहरा अपनी ओर घुमाया।

"यह अफक अर्सलान था।"

"अफक बहुत बुरी तरह ज़ख्मी था!"

"इसे जल्दी अंदर लाओ!"

वह काँपते हाथों से स्ट्रेचर धकेलते हुए इमरजेंसी वार्ड में ले आई।

"डॉ. वासती, जल्दी देखिए, वरना यह मर जाएगा!"

डॉक्टरों ने तुरंत इलाज शुरू किया।

"इसका बहुत खून बह चुका है। इसका ब्लड ग्रुप चेक करके खून का इंतजाम करो!"

परीशे एकदम चौंकी।

"मुझे पता है इसका ब्लड ग्रुप! ओ-नेगेटिव!"

वह ब्लड बैंक की ओर भागी, लेकिन उसे याद आया कि ओ-नेगेटिव पहले ही खत्म हो चुका है।

"अब मैं खून कहाँ से लाऊँ?"

उसने अपने दिमाग पर ज़ोर डाला। क्या अफक के किसी रिश्तेदार का यही ब्लड ग्रुप था?

"सैफ!"

हाँ, सैफ का ब्लड ग्रुप ओ-नेगेटिव था!

वह भागकर रिसेप्शन पर आई। नर्स किसी से बात कर रही थी। उसने नर्स से फोन छीनकर सैफ को कॉल मिलाई।

"सैफ, प्लीज़, बहुत इमरजेंसी है! खून चाहिए!"

"क्या हुआ परी? अम्मी तो ठीक हैं?"

"एक ज़ख्मी को ओ-नेगेटिव खून चाहिए, बहुत जरूरी है!"

"तो अस्पताल से ले लो, भूकंप में तो काफी खून जमा हुआ था।"

"जो था, वह लग चुका है! अगर होता तो मैं तुमसे क्यों माँगती? तुम बस फौरन आ जाओ!"

"परीशे, मैं बहुत बिजी हूँ, नहीं आ सकता।"

"सैफ, खुदा के लिए, वह मर जाएगा!"

"यार, क्या दिक्कत है? मैं मीटिंग में हूँ। अच्छा, एक घंटे में आता हूँ!"

"एक घंटे तक नहीं, सैफ! उसके पास समय नहीं है!"

"तो मैंने कौन सा उसे ज़ख्मी किया है? मैं बिज़नेस में दो करोड़ का मुनाफा कमाने वाला हूँ, यह खोना नहीं चाहता! अब मुझे परेशान मत करो, बाय!"

सैफ ने फोन काट दिया।

परीशे सुन्न हो गई।

"दो करोड़ के लिए... सैफ अफक की जान नहीं बचा सकता?"

"दो करोड़... और अफक की ज़िंदगी?"

वह ऑपरेशन थियेटर की ओर दौड़ी, लेकिन उसे रास्ते में किसी ने रोक लिया।

"डॉ. परीशे, आपको ओ-नेगेटिव खून चाहिए था? मेरा ब्लड ग्रुप ओ-नेगेटिव है।"

वह एक 17-18 साल का लड़का था।

किसी ने जैसे परीशे के मृत शरीर में फिर से जान फूँक दी।

"मेरे साथ आओ!"

चौदहवीं चोटी – भाग 5 

"मिल गया ब्लड, सर!"

परीशे लड़के को खींचकर ऑपरेशन थिएटर में ले आई। उसने लड़के को दूसरे बेड पर लिटाया और खून चढ़ाने की नलियाँ जोड़ दीं। एक-एक बूँद अफक के शरीर में दाखिल हो रही थी। वह बिना पलक झपकाए मशीन को देख रही थी, मानो डर रही हो कि कहीं खून की बोतल खत्म न हो जाए, कहीं यह दृश्य बदल न जाए।

"परीशे, रिलैक्स करें! आप कई घंटों से ड्यूटी पर हैं।"

डॉक्टर ने हरे मास्क के पीछे से कहा।

वह उन्हें कैसे बताती कि यह आदमी उसकी पूरी दुनिया था? एक वक्त था जब उसकी सिर्फ टांग घायल थी, और वह तब भी चार रातें चैन से नहीं सोई थी। अब भला कैसे जा सकती थी?

खून की हर बूँद अफक के शरीर में समा रही थी। ईसीजी मशीन पर दिल की धड़कनें तरछी रेखाओं में उभर रही थीं। परीशे का दिल डूब रहा था।

"नहीं देखा जा रहा मुझसे..."

वह ऑपरेशन थिएटर से बाहर निकल आई। अब वहाँ फौजी भी नहीं थे, जाने कहाँ चले गए थे। उसने फर्श पर गिरा अपना दुपट्टा उठाया और काँपते हुए कंधे पर डाल लिया।

"अगर अफक को कुछ हो गया तो...? मैं क्या करूंगी? कहाँ जाऊँगी?"

उसने अपने हाथ उठाए, प्रार्थना करने लगी।

"खुदा, उसे बचा लो!"

लेकिन उसकी दुआ दम तोड़ गई। आँसू टप-टप गिरने लगे।

अभी कुछ देर पहले तक वह कितनी खुश थी, घर जाने वाली थी। कल तो उसे अफक से मंगला की पहाड़ियों में मिलना था। उसने मना किया था कि अस्पताल मत आना, फिर क्यों आ गया?

उसे पता भी नहीं चला कि कब वह फर्श पर बैठकर फूट-फूट कर रोने लगी।

"ज़िन्दगी हमेशा मेरे साथ ऐसा ही क्यों करती है? मुझे खुशियाँ क्यों रास नहीं आतीं?"

तीन साल बाद जो खुशी उसे मिली थी, कल अफक उसका होने वाला था... फिर खुदा ने इतनी जल्दी वह खुशी क्यों छीन ली?

"इतना करीब आकर क्यों फिर से दूर जा रहा है?"

"मैं जरूर आऊँगा... याद है तुम्हारे आँसू राका पोशी में गिरे थे? मुझे वे लौटाने हैं..."

अफक ने यही कहा था, और वह सच में लौट आया था—सुबह से पहले।

"अब रोना मत, परी। आँखें साफ करो।"

उसकी कही हुई बात परीशे के कानों में गूँजी। उसने जल्दी से अपने आँसू पोंछे और उठ खड़ी हुई।

लड़का खून दे चुका था। उसने अपनी बाजू नीचे की और परीशे की ओर देखा। फिर वह कुछ कदम चलकर उसके पास आया।

परीशे ने उसे पहचान लिया।

"रो मत... वह ठीक हो जाएगा।"

वह बहुत हल्की आवाज़ में बोला, जैसे सिर्फ परीशे ही उसे सुन सके।

"क्या सच में वह ठीक हो जाएगा?"

"हाँ। और अब क्या मैं तुम्हें आपी (दीदी) कह सकता हूँ?"

वह मुस्कुराया। परीशे भी हल्की-सी मुस्कुराई और सिर हिला दिया।

"कभी-कभी हम किसी को कितना गलत समझते हैं..."

वह उसके पास से गुजरकर बाहर चला गया।

"सुनो!" परीशे ने उसे पुकारा।

वह मुड़ा, "जी?"

"तुम्हारा नाम क्या है?"

वह फिर से भूल गई थी।

"मुअज़्ज़िब उमर।"

कहकर वह रुका नहीं, चला गया।

अफक के पास

परीशे फिर से अफक के पास आ गई। आसपास कितने ही लोग थे, लेकिन उसे कोई नज़र नहीं आ रहा था।

उसकी निगाहें बस अफक के चेहरे और बंद आँखों पर टिकी थीं।

वह उसके सिरहाने खड़ी थी।

उसका बायाँ हाथ अब भी सुरक्षित था। उसने उसे थाम लिया।

अफक के हाथ में वही घड़ी थी—लेकिन अब चकनाचूर।

"यह आँखें खोलता क्यों नहीं? कुछ कहता क्यों नहीं?"

"अफक, उठो! सोना नहीं है!"

"अगर सो गए तो फिर कभी नहीं उठ सकोगे!"

"मैंने मना किया था ना, फिर क्यों सो रहे हो?"

"कम से कम अपनी परी के लिए आँखें खोलो... देखो, मैं तुम्हारे कितने करीब हूँ..."

"तुमने कहा था कि अगर हम फिर कभी वाइट पैलेस गए तो नीली टाइलों वाले उस फव्वारे के पीछे छुपाया गया आधा बगोगोशा (फूल) खोजेंगे। अफक, उस हरे बगोगोशे को तो अब तक परिंदों ने नहीं खाया... वह सब हमारा इंतज़ार कर रहे हैं।"

"उठो ना, अफक! अपनी परी के लिए!"

"मुझे फिर से तीसरी मंज़िल की बालकनी पर अफक अर्सलान का गीत सुनना है..."

"वही गीत, जिसमें जामुनी पहाड़ों और अनातोलिया की गलियों का ज़िक्र है... जिसमें बिछड़ने और वादों की बात है..."

"मुझे वह गीत सुनना है, अफक! उठो!"

"अब मैं तुमसे कोई वादा, कोई कसम नहीं लूँगी..."

"अब मैं तुम्हें कहीं नहीं जाने दूँगी..."

"तुम्हें उस प्यार का वास्ता, जिसका इज़हार तुमने कभी नहीं किया..."

"उठ जाओ, अफक!"

उसकी पलकों से आँसू टपककर अफक के हाथ पर गिर रहे थे।

अफक ऑक्सीजन मास्क में साँस ले रहा था, लेकिन आवाज़ नहीं थी।

ईसीजी मशीन पर दिल की धड़कनों की लकीरें अब भी ऊपर-नीचे हो रही थीं।

वह उन लकीरों को देख रही थी—वे उसे उन बेरहम पहाड़ों जैसी लग रही थीं, जो किसी माँ के बेटे को वापस नहीं लौटाते।

बहुत ज़ालिम और बहुत खूबसूरत थे कोह-हिमालय के पहाड़...

"तुमने किसी का क्या बिगाड़ा था? ये पहाड़ इतने निर्दयी क्यों हैं?"

बाहर बर्फ गिर रही थी।

वह दूर तक फैले पहाड़ों को देखती रही।

"अफक, उठो... खुदा के लिए, सो मत जाना! अगर सो गए, तो फिर कभी नहीं जाग पाओगे!"

"बस थोड़ी देर और, वो आते ही होंगे!"

"हमें एक और सफ़ेद रात नहीं गुज़ारनी पड़ेगी!"

अतीत और वर्तमान आपस में गडमड हो रहे थे।

ऊँचे पहाड़ों की तरह ये भी उस पर हंस रहे थे।

"अफक, उठो! यह उठता क्यों नहीं? यह बोलता क्यों नहीं?"

"कोई इसे उठाए! खुदा के लिए, कोई इसे उठाए!"

"मैंने इसके लिए कितनी रातें जागकर दुआ की थी!"

वह अफक के कंधे पकड़कर उसे झकझोरने लगी।

पीछे से किसी ने उसे रोकने की कोशिश की।

"ऐसे मत करो, परीशे!"

"डॉ. वासती, इसे उठाइए! यह क्यों नहीं उठ रहा?"

"अगर यह नहीं उठा, तो मेरा दिल फट जाएगा!"

वह ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी।

"यह नहीं मर सकता... यह कैसे मर सकता है?"

"मैंने इसके लिए अपने हिस्से का गर्म पानी दिया था... बर्फ में इसके लिए पैदल चली थी..."

"खुदा इतना ज़ालिम नहीं हो सकता!"

वह फर्श पर बैठकर घुटनों के बल रो रही थी, अफक का हाथ थामे हुए।

और अचानक...

ईसीजी मशीन पर हलचल हुई।

"ऐसा मत करो, परेशे! ऐसा मत करो, वह मर जाएगा!"
कोई उसे रोकने की कोशिश कर रहा था।

"यह नहीं मर सकता! यह कैसे मर सकता है? मैंने इसे अपने हिस्से का गर्म पानी दिया था, इसके लिए बर्फ में पैदल सफर किया था।"
"मैंने खुद ठंडी रातें काटी थीं, इसे गर्म कर के सुलाया था। तूफान में, बर्फ़बारी में, इसे अपने कंधे पर उठाकर लाया था, फिर भी आप कहते हैं कि यह मर जाएगा? अल्लाह इतना ज़ालिम नहीं हो सकता! इसने किसी का क्या बिगाड़ा था? यह नहीं मर सकता! मैंने इसे अपना खून दे दिया था, फिर भी क्यों मरेगा?"

वह ज़मीन पर घुटनों के बल बैठ गई और अफक का हाथ पकड़कर फूट-फूटकर रोने लगी।

अस्पताल के कमरे में...

पहले जब वह अस्पताल में जागी थी, तो अकेली थी।
आज फिर ज़िंदगी उसे उसी मोड़ पर ले आई थी।
वह फिर से अस्पताल के कमरे में थी।
वह फिर से अकेली होने जा रही थी।
वह उसे छोड़कर जा रहा था।

बिस्तर पर लेटा शख्स मर रहा था और वह उसके लिए कुछ नहीं कर सकती थी।

रोते-रोते उसने सिर उठाकर देखा। बहुत से लोग अफक के इर्द-गिर्द खड़े थे। कोई उसे कमरे से बाहर जाने के लिए कह रहा था, लेकिन वह उसे छोड़कर नहीं जा सकती थी।

"अफक...! तुम्हें कुछ नहीं होगा... प्लीज़! आँखें खोलो... मुझे छोड़कर मत जाओ... मैं मर जाऊँगी!"

वह फिर से उसके सिरहाने खड़ी हो गई। अफक अभी भी आँखें बंद किए हुए था।

"डॉक्टर वस्ती... सर! यह बच जाएगा, न? इसे कुछ नहीं होगा, न?"

उसके आँसू उसके चेहरे को भिगो रहे थे। वह बिखरी-बिखरी सी रोते हुए डॉक्टर वस्ती से पूछ रही थी।

"शायद..."
किसी डॉक्टर ने कहा। वे निश्चिंत नहीं थे। वे आश्वस्त भी नहीं थे।

"अफक!"
वह उसके चेहरे के पास झुकी।
"अफक! आँखें खोलो, प्लीज़ अफक!"

वह उसे पुकार रही थी, लेकिन अफक की आँखें नहीं खुल रही थीं।
ईसीजी मशीन पर अभी भी सीधी लकीर नहीं आई थी।

"अफक...! तुम्हें तुम्हारे इश्क़ का वास्ता है, आँखें खोल दो..."

वह बहुत धीरे से बोली, शायद अपने दिल में ही। लेकिन उसे लगा, अफक ने सुन लिया।

बहुत धीरे-धीरे उसने अपनी आँखें एक पल के लिए खोलीं।
वह आधे होश में था।
उसकी आँखों में कोई भाव, कोई अभिव्यक्ति नहीं थी।

फिर उसने आँखें बंद कर लीं।

"यह फिर से बेहोश क्यों हो गया?"
उसने घबराकर उसका चेहरा थपथपाया, लेकिन अफक में कोई हलचल नहीं हुई।

"यह... यह आँखें क्यों नहीं खोल रहा?"

"रिलैक्स, परेशे... अब वह खतरे से बाहर है।"

किसी ने कहा था।

वह बस उसकी बंद आँखों को डर भरी नज़रों से देखती रही।

"उसे उठाइए... उसे कहिए कि वह आँखें खोले!"

"परेशे! अब वह ठीक है। वह सो रहा है।"
डॉक्टर वस्ती ने उसके कंधे पकड़कर उसे अफक के पास से हटाने की कोशिश की।

"वह सो रहा है?"
उसने अविश्वास से दोहराया।

"वह... वह बच जाएगा, न?"

"हाँ, वह बच जाएगा। तुम बाहर जाकर बैठो।"

लेकिन वह फिर भी उसके सिरहाने खड़ी रही।
उसने अभी भी अफक का हाथ पकड़ा हुआ था।
वह उसे छोड़कर नहीं जा सकती थी।

बस, उसकी घबराई हुई नज़रें ईसीजी मशीन पर बनी लहरों को देखती रहीं। वे अब सही से चल रही थीं।
अब वे सीधी लकीर नहीं बनने वाली थीं।

एक सुकून सा उसकी रगों में उतरने लगा।

उसका अफक जिंदा था।
वह उसे छोड़कर कहीं नहीं गया था।
वह उसके क़रीब ही था।

वह उसका हाथ पकड़े वहीं ज़मीन पर घुटनों के बल गिर गई।
पता नहीं वह कितनी देर तक अफक के सिरहाने रोती रही।
उसे वक़्त के गुज़रने का एहसास भी नहीं हुआ।

और तब उसने डॉक्टरों को देखा...

वे अफक का बायाँ पैर काट रहे थे।

"यह... क्या...?"
उसका सांस लेना मुश्किल हो गया।

अफक का बायाँ पैर बुरी तरह कुचल गया था।
और वे सब बड़े आराम से उसे काट रहे थे।

वह उनके हाथ रोकना चाहती थी।
उनसे भीख माँगना चाहती थी कि "ख़ुदा के लिए अफक का पैर मत काटो!"

अगर उसका पैर कट गया, तो वह घुड़सवारी कैसे करेगा?
पहाड़ों पर कैसे चढ़ेगा?

कोह-पहाड़ों को जीतने वालों को अपने क़दमों पर नाज़ होता है
और वे निर्दयी डॉक्टर अफक अर्सलान से उसके कदम छीन रहे थे।

"नहीं! ख़ुदा के लिए ऐसा मत करो!"
"वह अपना अधूरा वजूद देखकर मर जाएगा!"

वह उन्हें रोकना चाहती थी, मगर रोक नहीं सकी।

सूरज उगने लगा था...

चिड़ियों ने मधुर गाना शुरू कर दिया था।

वह लंबी, अंधेरी, भयानक रात अब ख़त्म हो चुकी थी।
एक लंबी यात्रा अपने अंतिम पड़ाव पर आ गई थी।

डॉक्टर काफ़ी देर पहले वहाँ से जा चुके थे।

अफक अब ठीक था।
अभी भी उसे ऑक्सीजन लगी थी, लेकिन अब कोई ख़तरा नहीं था।

वह उठकर उसके बिस्तर पर बैठ गई।

वह शांत था।
बिल्कुल बेखबर...
कि उसका पैर अब कट चुका है।

परेशे ने हल्की मुस्कान के साथ उसका चेहरा देखा।
फिर उसने बेख़याली में उसके माथे और हाथों को छुआ।

वह उसकी मौजूदगी का यकीन करना चाहती थी।

अब उसे यकीन हो गया था।

"मैं अब तुम्हें कभी हुमालया और काराकोरम के पहाड़ों में जाने नहीं दूँगी।
"मैं तुम्हारा इलाज दुनिया के सबसे बेहतरीन अस्पतालों में करवाऊँगी।
"एक दिन तुम बिल्कुल ठीक हो जाओगे। फिर हम तुर्की चले जाएँगे और एक नई ज़िंदगी शुरू करेंगे।"

"अब हम कभी इन निर्दयी पहाड़ों की तरफ़ नहीं आएँगे।"
"इन पहाड़ों ने हमसे अहमद, अरसा और खनिक को छीन लिया है।"

"अब हम यहाँ कभी नहीं आएँगे।"

"मुझे हुमालया की महान चोटियों की क़सम है, मैं तुम्हें दोबारा यहाँ लौटने नहीं दूँगी!"

उसने अफक की जैकेट की जेब से वह नीला और हरा दो-रंगा पत्थर निकाला, जिसके बीच एक लकीर थी।

उसने उदास होकर मुस्कराया।
उसे बहुत कुछ याद आ गया।

अब अफक कभी घुड़सवारी नहीं कर पाएगा।
अब वह कभी पहाड़ों की यात्रा नहीं कर पाएगा।

लेकिन फिर भी, वह खुश थी।
वह सुकून में थी।

उसकी ज़िंदगी का अंधेरा अध्याय अब खत्म हो चुका था।
अब उसे एक नई ज़िंदगी की शुरुआत करनी थी।

उसने नरमी से अफक के माथे पर गिरे बाल हटाए।

काराकोरम की परी को आखिरकार उसका पर्वतारोही मिल ही गया था।