QARA QARAM KA TAJ MAHAL (PART 19)
"चौदहवीं चोटी" भाग 1 और 23 अक्टूबर 2005
वह भूकंप प्रभावित लोगों को इंजेक्शन लगा रही थी।
"फराह, तुम इस्लामाबाद वापस जा रही हो, तुम चलोगी या यहीं और रुकना चाहोगी?"
"अगर तुम जा रही हो तो मैं भी चलती हूँ। तुम हवाई मार्ग से जा रही हो?"
"हाँ, अभी बशीर आकर बताएगा कि हेलीकॉप्टर खाली है या नहीं।"
इसी दौरान एक कैप्टन अंदर आया, "मैडम, हेलीकॉप्टर बस आने ही वाला है। कर्नल तारिक उसमें कुछ लोगों को लेकर आ रहे हैं।"
"वे बस आते ही होंगे।"
वह झुककर एक बच्चे को इंजेक्शन लगा रही थी, फिर चिंतित होकर उसकी माँ से उसके बारे में सवाल करने लगी क्योंकि उसे तेज़ बुखार था।
कैप्टन बशीर ने सोचा कि वह डॉक्टर साहिबा को बता दे कि जो लोग कर्नल फारूक के हेलीकॉप्टर से मुज़फ्फराबाद आ रहे थे, वे तुर्की से आए थे। डॉक्टर साहिबा ने तुर्की से आने वालों के बारे में पूछा था, लेकिन उन्होंने खुद ही कहा था कि तुर्की से कोई नहीं आ रहा। अगर उन्हें तुर्की से आने वालों में कोई दिलचस्पी होगी, तो वह ज़रूर तुर्क डॉक्टरों से होगी। इसलिए बशीर ने कुछ कहे बिना ही वहाँ से चले जाना बेहतर समझा, क्योंकि आने वाले डॉक्टर नहीं, बल्कि इंजीनियर थे।
आधे घंटे बाद, वही बशीर था जिसने दोनों को कर्नल फारूक के आने की सूचना दी।
"आप जल्दी से अपना सामान पैक करके आ जाइए, क्योंकि कर्नल साहिब को तुरंत वापस जाना है। प्लीज़ मैडम, देर मत कीजिएगा, उनका गुस्सा पूरी यूनिट में मशहूर है।"
"हाँ, मैं अभी जाकर अपना सामान ले आती हूँ।"
वह उस तंबू की ओर बढ़ी जहाँ वे रात भर रुकी थीं।
खुला मैदान था, एक ओर शरणार्थी शिविर था और दूसरी ओर खाली ज़मीन थी, जहाँ हेलीकॉप्टर उतर रहा था। वह अपने तंबू में गई, जल्दी से सामान समेटा, बालों को फिर से ऊपर कर क्लिप में बांधा। तभी कुछ टूटने की आवाज़ आई, मगर उसने ध्यान नहीं दिया।
शॉल लपेटकर, बैग कंधे पर डालकर बाहर आई। फराह उसका इंतजार कर रही थी।
"चलो।"
दोनों हेलीकॉप्टर की ओर बढ़ीं। वहाँ ज़्यादातर सैनिक थे, जो इधर-उधर घूम रहे थे। कुछ सैनिक मरीजों को हेलीकॉप्टर में चढ़ा रहे थे, जिन्हें आगे इलाज के लिए इस्लामाबाद ले जाना था।
बशीर ने एक सैनिक को रोका, "Toki की टीम को उस आखिरी तंबू में ले जाओ, वह अभी खाली है।"
दोनों हवा से बचते हुए हेलीकॉप्टर में दाखिल हुईं। मरीज पहुंच चुके थे, दरवाज़ा बंद हो गया।
उसके बालों की क्लिप का एक कीमती पत्थर गिर चुका था।
"अब इसे कहाँ ढूंढूं?"
"फराह, मेरा पत्थर गिर गया है, शायद वह आखिरी तंबू में गिरा होगा, मैं जाकर ले आऊं?"
"पागल हो गई हो? हेलीकॉप्टर उड़ने वाला है! क्या कर्नल फारूक के गुस्से के किस्से नहीं सुने? बेवजह उन्हें नाराज़ मत करो!"
"लेकिन फराह, वह बहुत कीमती पत्थर था और..."
"लोगों के घर-बार उजड़ गए, और तुम्हें अपने पत्थर की पड़ी है? क्या तुम कर्नल साहिब से हेलीकॉप्टर फिर से नीचे उतरवाओगी एक पत्थर के लिए?"
फराह पूरी तरह नशा की तरह झुंझला रही थी। वह चुपचाप पीछे हो गई, मगर उसका दिल चाहा कि वह कर्नल फारूक से बस एक मिनट के लिए हेलीकॉप्टर उतारने की गुजारिश करे, ताकि वह अपना पत्थर ले आए।
लेकिन बात सिर्फ पत्थर की नहीं थी, उसे मुज़फ्फराबाद के उस खामोश और ग़मगीन माहौल में "कुछ खास" महसूस हुआ। कुछ ऐसा जो इन पिछले दिनों में उसने कभी महसूस नहीं किया था।
वह मुज़फ्फराबाद छोड़ना नहीं चाहती थी, मगर सिर्फ लिहाज़ में चुपचाप बैठी रही।
प्रिशे और फराह को हेलीकॉप्टर में बिठाकर, कैप्टन बशीर तेज़ क़दमों से वापस आया। उसने उस जवान को देखा, जिसे उसने "Toki टीम" को तंबू में बिठाने के लिए कहा था।
तीन लोग उस तंबू के पास खड़े थे, उनकी पीठ बशीर की ओर थी।
"सलाम वालेकुम सर!"
तीनों एक साथ पलटे।
पहला तुर्क इंजीनियर लंबा-चौड़ा, गोरा-चिट्टा, यूरोपीय नक्श-ओ-कद का था।
बशीर ने हाथ बढ़ाया, "मैं कैप्टन बशीर हूं।"
"कैप्टन जेनक।"
तुर्क इंजीनियर ने गर्मजोशी से हाथ मिलाया।
दूसरा व्यक्ति कुछ छोटा था, उसके घुंघराले सुनहरे बाल थे और उसने पीछे की ओर टोपी पहन रखी थी, जिस पर सफेद मार्कर से कुछ लिखा था।
"जेनक।"
उसने खुशी से बशीर से हाथ मिलाया।
अब तीसरे की बारी थी। वह अंधेरे में था। जब उसने सिर उठाया तो उसका चेहरा बेहद गंभीर था।
"उफ़ुक हुसैन अर्सलान।"
उसने अपना परिचय दिया।
उसमें कुछ ऐसा था जिससे कैप्टन बशीर प्रभावित हुआ—शायद वह बहुत हैंडसम था, या शायद उसकी शख्सियत में चुंबकीय आकर्षण था।
"मैं आपको इंजीनियरिंग कोर वालों से जल्दी मिलवाऊंगा, तब तक आप थोड़ा आराम करें।"
बशीर जल्दबाजी में कहकर वापस लौट गया।
वो तीनों तंबू में घुसे और ज़मीन पर बैठ गए। लेकिन उफ़ुक बैठते-बैठते रुक गया। उसकी नज़र ज़मीन पर पड़े एक छोटे से पत्थर पर पड़ी।
वह झुककर उसे उठाने लगा।
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उसने गौर से पत्थर देखा—यह उसके अंगूठे से दोगुने आकार का था और उस पर एक रेखा थी।
कुछ देर सोचने के बाद उसने पत्थर जेब में रख लिया और बाहर आ गया।
वह इधर-उधर देखने लगा, जैसे किसी को खोज रहा हो।
कैप्टन बशीर, जो किसी और से बात कर रहा था, उसे देखकर पास आया।
"कुछ चाहिए था, मिस्टर अर्सलान?"
"नहीं..."
फिर उसने आखिरी तंबू की ओर इशारा किया, "यह सेना का है? यहाँ कोई था?"
"मेरा ख्याल है, सर, यह राहत सामग्री में आया था।"
"अच्छा, ज़्यादा दिक्कत तो नहीं, लेकिन इसकी चादर ठंड से बचाने के लिए नाकाफी लग रही है।"
"नहीं सर, ये काफी गर्म हैं और इनमें पैराशूट की लाइनिंग है।"
"मुझे नाज़ुक मत समझना, कैप्टन। लेकिन जो यहाँ पहले थे, उन्हें कोई शिकायत तो नहीं हुई?"
"नहीं, सर, जिन्हें ठहराया गया था, उन्होंने कोई ज़िक्र नहीं किया।"
"शायद वे किसी ऐसी जगह के थे, जहाँ उन्हें ठंड महसूस न हुई हो।"
"नहीं सर, वे दोनों इस्लामाबाद की डॉक्टर थीं।"
बशीर ने दिमाग पर ज़ोर देकर याद किया और इंकार में सिर हिलाया।
"पम्प्स हॉस्पिटल?"
वह बुदबुदाया और फिर अपनी जेब से पत्थर निकाला।
"यह किसका है? मुझे यह तंबू के फर्श पर मिला।"
"यह डॉक्टर साहिबा के क्लिप में था। मैंने गौर नहीं किया था, लेकिन यह ढीला था। मैंने उन्हें कहा भी था कि गिरने वाला है, यह कीमती है, संभालकर रखें। लेकिन गिर ही गया।"
"वे डॉक्टर अब कहाँ हैं?"
"वे तो अभी-अभी इस्लामाबाद चली गईं।"
तुर्क इंजीनियर के चेहरे पर छाई मायूसी देखकर बशीर को हैरानी हुई।
सर, यह मुझे दे दीजिए, मैं जब इस्लामाबाद जाऊँगा तो उन्हें लौटा दूँगा।
"तुम कब जाओगे?"
"आज 23 तारीख है, मैं दो दिन बाद, 26 को जाऊँगा।"
"मुझे भी साथ ले चलना, मैं उन्हें खुद लौटा दूँगा। यह कीमती पत्थर मेरे पास अमानत रहेगा।" उसने पत्थर को अपनी जेब में डाल लिया, उसके चेहरे पर गंभीरता थी।
"अजीब आदमी है! अभी इस्लामाबाद से आया और अभी जाने की बात कर रहा है!" कैप्टन बशीर ने मन ही मन सोचा।
"सुना था कि तुर्की से सबसे खास इंजीनियर आया है, मगर यह तो... पर हमें क्या?"
सब लोग अपना काम खत्म करके सो चुके थे, मगर अफ़क बिना सोए ही काम में लगा रहा। बशीर को यह बहुत अजीब लगा।
एक मर्द होने के बावजूद, कैप्टन बशीर ने अफ़क जैसी खूबसूरत आँखें नहीं देखी थीं।
कोरक की हर लड़की उसे देखने की ख्वाहिश रखती थी, मगर वह आदमी जाने किस मिट्टी का बना था!
औरत से बात करना तो दूर, सिर उठाकर देखता तक नहीं था।
वह ख़ामोश-सा था, जबकि उसके दो दोस्त बहुत बातूनी थे। फिर भी, उनकी दोस्ती कैसे हो गई?
दो दिनों में अफ़क ने बशीर से सिर्फ़ दो बार बात की थी—
एक बार जब वह खाना देने आया था, और दूसरी बार जब उसने तंबू के बारे में पूछा था।
तुर्की में हर लड़की को पैदा होते ही कीमती सोने की चीज़ दी जाती है, जो उसकी सबसे अनमोल धरोहर होती है।
तुर्क लड़की मर सकती है, मगर वह ज़ेवर किसी को नहीं देती, चाहे कितनी भी गरीब क्यों न हो।
वह कुछ क्षणों के अंतराल से कह रहा था—
"28 अक्टूबर को पाकिस्तान के भूकंप पीड़ित बच्चों के लिए स्कूल फंड इकट्ठा किया गया।"
"एक छोटी बच्ची का बाप बहुत गरीब था, उसने अपने बचपन की वे चूड़ियाँ फंड में दान कर दीं, जो उसे जन्म के समय मिली थीं।"
"हमने वह चूड़ियाँ संबंधित अधिकारियों तक पहुंचा दीं।"
"हमें पाकिस्तानियों के जज़्बे पर गर्व है।"
मंगलवार, 25 अक्टूबर 2005
वह अपने मामू के एक दोस्त से मिलने सीएमएच (CMH) आई थी। सुबह का वक्त था, आसमान साफ था, और बादल इस्लामाबाद से दूर थे।
वह तेज़ी से चल रही थी। सड़क के दोनों तरफ़ नज़र दौड़ाई, तो एक पेड़ के पास मैनेजर नुमान को खड़ा देखा।
उन्होंने कैंप में कई दिन साथ गुज़ारे थे, अब सीएमएच में मिलना कोई इत्तेफाक़ नहीं था।
"कैसे मिज़ाज हैं, डॉक्टर साहिबा?"
"ख़ैरियत? सीएमएच?"
"ख़ैरियत से अस्पताल कौन आता है, मैनेजर साहब?" वह हल्की मुस्कराहट के साथ बोली।
"ब्रिगेडियर बाजवा की मिसेज़ की अयादत (देखभाल) के लिए आई हूँ। आप कब आए मुज़फ़्फ़राबाद से?"
"आज ही सुबह-सुबह पहुँचा और आपके सामने हूँ।"
"कैसी गुज़र रही है मुज़फ़्फ़राबाद में?"
"बस, मेम, काम हो रहा है। हर कोई कोशिश कर रहा है कि अल्लाह बेहतरीन कर दे।"
"आप ठीक हैं?"
"मैं बिल्कुल ठीक हूँ। कैप्टन बशीर वगैरह सब ठीक हैं?"
"अल्हम्दुलिल्लाह, सब ठीक हैं।"
"कुछ विदेशी भी आए हुए हैं, जो पहले भी थे, मगर जिनसे अभी मिला हूँ, उनके जज़्बे ने हैरान कर दिया।"
वह शायद बोलने का शौक़ीन था।
"मिसेज़ बाजवा को दूसरे डिपार्टमेंट में ले गए हैं। आपको इंतज़ार करना पड़ेगा। मैं देखता हूँ, जब वे आ जाएँ तो आपको बता दूँगा।"
"अरे, मैनेजर नुमान, मैं खुद देख लूँगी, आप ख़ामख़ा तकलीफ़ न करें।"
सिर्फ इसलिए कि वह उसके साथ कैंप में थी, वह उसका इतना ख्याल रख रहा था, जिससे वह थोड़ी शर्मिंदा हो रही थी।
"कोई बात नहीं, आप बैठिए, मैं देख कर आता हूँ।"
"नहीं, मैं यहीं हूँ।"
मौसम, यादें और वो ग़ज़ल...
आज मौसम बहुत अच्छा था।
उसने सिर उठाकर देखा— ठीक उसके ऊपर रूई की तरह एक बादल का टुकड़ा तैर रहा था।
वह उदासी में मुस्कराई—
"और मैं वैसे भी अच्छे मौसम की दीवानी हूँ।"
"अच्छा, फिर मैं देख कर आता हूँ।"
वह वहीं पेड़ से टिककर गुज़रे लम्हे याद करने लगी।
यादें जो कभी धुंधली नहीं होतीं...
जब वे दोनों साथ-साथ वादियों और झरनों में घूमते थे...
ऐसे ही एक पेड़ से टिककर बैठे थे, ऐसी ही हरी घास थी...
हम बेतुकी बातें करते थे...
अफ़क की पैंट पर एक लाल रंग का कीड़ा गिरा था...
उसने आँखें बंद कर लीं, और उसके लब धीमे-धीमे गुनगुनाने लगे—
वही गीत, जो कभी बारिश में भीगते हुए चौड़ी सड़क पर अफ़क सुनाया करता था।
"ना कुछ कहो हमें, इस राह के हम मुसाफ़िर हैं..."
"हम इश्क़ में पागल हैं, ना कहो कुछ हमें..."
"हम लैला हैं, हम मजनूं हैं..."
शायद लैला ने क़ैस से उतनी मोहब्बत नहीं की होगी, जितनी प्री ने अपने पर्वतारोही से की थी...
मगर आज भी वह तन्हा थी...
"अफ़क अर्सलान?"
पता नहीं कितनी देर वह तुर्की गीत गुनगुनाती रही, जब अचानक किसी आवाज़ से चौंकी।
मैनेजर सड़क पर खड़ा मुस्कुरा रहा था।
"आपने ग़लत प्रोफेशन चुना, डॉक्टर साहिबा! आप तो बहुत अच्छा गाती हैं!"
"फिर मेडिकल में क्यों आईं?"
"नहीं, यह तो बस ऐसे ही..." वह झट से उठ खड़ी हुई।
ज़र्द पत्तों का ढेर उसकी गोद से नीचे गिर पड़ा।
"ब्रिगेडियर बाजवा की वाइफ रूम में आ चुकी हैं, आप उनसे मिल सकती हैं।"
"आपने यह ग़ज़ल कहाँ सुनी?"
वह एक पल के लिए रुकी, फिर पूछने लगी—
"वैसे, मैनेजर साहब, यह गाना थोड़ा मुश्किल है, ना?"
"नहीं, पर... यही गाना कल मैंने अफ़क अर्सलान को गाते सुना था!"
वह सन्न खड़ी रह गई।
"किस को???"
उसने हैरानी से पूछा, जैसे उसकी सुनने की शक्ति धोखा दे रही हो।
"अफ़क अर्सलान को! आप नहीं जानतीं?"
"वह तुर्की का इंजीनियर है, उसी की बात कर रहा हूँ!"
वह इस दुनिया से बेख़बर हो चुकी थी...
"कौन-सा तुर्की इंजीनियर??"
उसने खुद से बुदबुदाया।
"अफ़क अर्सलान नाम है उसका!"
"वह तुम्हें कहाँ मिला?"
उसकी आवाज़ लड़खड़ा रही थी।
"वही मुज़फ़्फ़राबाद में, वह राहत कार्य के लिए तुर्की से आया है!"
"मगर... मैंने तो मुज़फ़्फ़राबाद में कोई तुर्क इंजीनियर नहीं देखा!"
"वह उसी हेलीकॉप्टर में आया था, जिसमें कर्नल तारिक थे।"
उसका दिल तेज़ी से धड़कने लगा...
"उसका पूरा नाम क्या है?"
"अफ़क हुसैन अर्सलान।"
वह ग़ुमसुम खड़ी थी...
"और उसकी आँखें?"
मैनेजर नुमान ने गहरी सांस ली...
"हल्के भूरे रंग की..."
यहाँ पूरा अनुवाद हिंदी में प्रस्तुत है:
"सर, यह आप मुझे दे दें, मैं जब इस्लामाबाद जाऊँगा तो उन्हें लौटा दूँगा।"
"तुम कब जाओगे?"
"आज 23 तारीख़ है, मैं दो दिन बाद 26 को जाऊँगा।"
"मुझे भी साथ ले चलना, मैं उन्हें ख़ुद लौटा दूँगा। यह क़ीमती पत्थर मेरे पास अमानत रहेगा।"
उसने पत्थर को अपनी जेब में डाल लिया, उसके चेहरे पर संजीदगी थी।
"अजीब इंसान है! अभी-अभी इस्लामाबाद से आया है और अभी जाने की बात कर रहा है," उसने मन ही मन सोचा।
सुना था कि तुर्की से सबसे बेहतरीन इंजीनियर आया है, मगर यह तो... ख़ैर, हमें क्या!
सब अपना काम ख़त्म करके सो चुके थे, मगर अफ़क़ बिना सोए काम में लगा रहा। यह बात बशीर को बहुत अजीब लगी।
मर्द होने के बावजूद कैप्टन बशीर ने उसकी जैसी ख़ूबसूरत आँखें नहीं देखी थीं।
कोरक की हर लड़की उसे देखने की ख़्वाहिश रखती थी, मगर वह आदमी जाने किस मिट्टी का बना था—किसी औरत से बात करना तो दूर, वह सिर उठाकर देखता तक नहीं था।
एक खामोश शख़्स और दूसरा इतना बातूनी—उनकी दोस्ती कैसे हो गई?
दो दिनों में उसने बशीर से सिर्फ़ दो बार बात की थी—पहली बार जब वह देने आया था और दूसरी बार जब तंबू (ख़ेमा) के बारे में पूछने आया था।
"तुर्की में हर लड़की को जन्म के समय एक क़ीमती सोने की चीज़ दी जाती है, जो उसकी सबसे क़ीमती अमानत होती है।"
"तुर्की की कोई भी लड़की मर सकती है, मगर अपना वह गहना किसी को नहीं देती, चाहे वह कितनी ही ग़रीब क्यों न हो, वह उसे बेचती नहीं।"
कुछ मिनटों के अंतराल से वह फिर कहने लगा, "28 अक्टूबर को पाकिस्तान में भूकंप आया था, जिसमें बच्चों के स्कूल के लिए चंदा (फंड) इकट्ठा किया गया। एक छोटी बच्ची के पिता ग़रीब थे, उसने अपनी वही सोने की चूड़ियाँ चंदे में दे दीं, जो उसे बचपन में मिली थीं। हमने वह चूड़ियाँ संबंधित लोगों तक पहुँचा दीं।"
"हमें एक पाकिस्तानी होने के नाते तुर्कों पर फ़ख़्र है।"
मंगलवार, 25 अक्टूबर 2005
वह अपने मामू के एक दोस्त से मिलने सीएमएच (संयुक्त सैन्य अस्पताल) आई थी।
सुबह का वक़्त था, आसमान साफ़ था, बादल अभी इस्लामाबाद से दूर थे।
वह तेज़ी से चल रही थी। सड़क के दोनों ओर देखा तो एक पेड़ के पास मैनेजर नुमान खड़ा दिखाई दिया।
उन्होंने कई दिन कैंप में साथ बिताए थे, अब सीएमएच में मिलना कोई इत्तेफ़ाक़ नहीं था।
"कैसे मिज़ाज हैं, डॉक्टर साहिबा? ख़ैरियत से सीएमएच?"
वह कुछ क़दमों की दूरी पर था, फिर वह क़रीब आ गया।
"ख़ैरियत से अस्पताल कौन आता है, मैनेजर साहब? ब्रिगेडियर बाजवा की मिसेज़ की अयादत (हालचाल लेने) के लिए आई हूँ। आप कब आए मुज़फ़्फ़राबाद से?"
"आज ही सुबह-सुबह पहुँचा हूँ और आपके सामने हूँ।"
"कैसी गुज़र रही है मुज़फ़्फ़राबाद में?"
"बस, मैम, काम चल रहा है। कोशिश तो सब कर रहे हैं, बाक़ी अल्लाह बेहतर करेगा। आप ठीक हैं?"
"अल्हम्दुलिल्लाह, सब ठीक हैं।"
"कुछ विदेशी लोग भी आए हुए हैं, कुछ वही हैं जो पहले भी थे। मगर मैं जिनसे मिलकर आ रहा हूँ, उनके जज़्बे ने मुझे हैरान कर दिया।"
वह बात करने का शौक़ीन था शायद।
"मिसेज़ बाजवा को दूसरे डिपार्टमेंट तक ले जाया गया है, आपको इंतज़ार करना पड़ेगा। मैं पता करता हूँ, जब वे कमरे में आ जाएँगी तो आपको बता दूँगा।"
"अरे, मैनेजर नुमान, मैं ख़ुद देख लूँगी, आप ख़ामख़्वाह तकलीफ़ न करें।"
सिर्फ़ इस वजह से कि वह उसके साथ कैंप में थी, वह उसका ख़्याल कर रहा था, जिससे वह थोड़ी शर्मिंदा हो गई।
"कोई बात नहीं, आप बैठें, मैं देखकर आता हूँ।"
"नहीं, मैं यहीं हूँ। आज मौसम बहुत अच्छा है।"
उसने सिर उठाकर देखा—बिलकुल उसके ऊपर रूई की तरह एक बादल का टुकड़ा तैर रहा था।
वह उदासी में मुस्कुरा दी और बोली, "वैसे भी मैं अच्छे मौसम की दीवानी हूँ।"
"अच्छा, फिर मैं आता हूँ, देख कर।"
वह वहीं पेड़ से टेक लगाए बीते लम्हों को याद करने लगी।
जब वे दोनों साथ-साथ वादियों और चश्मों में घूमते थे,
ऐसे ही एक पेड़ से टेक लगाकर बैठे थे,
और ऐसी ही घास थी।
हम यूँ ही बातें कर रहे थे,
अफ़क़ की पैंट पर एक लाल कीड़ा गिरा था।
उसने आँखें मूँद लीं,
उसके होंठ धीरे-धीरे गुनगुनाने लगे,
वह गीत,
जो कभी बारिश में भीगते हुए अफ़क़ उसे सुनाया करता था—
"न कुछ कहो हमें,
इस राह के हम मुसाफ़िर हैं,
हम इश्क़ में पागल हैं,
न कहो कुछ हमें..."
शायद लैला ने क़ैस से इतनी मोहब्बत नहीं की थी,
जितनी प्री ने अपने पर्वतारोही से की थी।
मगर आज भी वह तन्हा थी।
वह जाने कितनी देर तक तुर्की गीत गुनगुनाती रही,
जब तक किसी की आवाज़ से उसकी तंद्रा नहीं टूटी।
मैनेजर नुमान सड़क पर खड़ा मुस्कुरा रहा था।
"आपने ग़लत प्रोफ़ेशन चुना, डॉक्टर साहिबा। आप तो बहुत अच्छा गा लेती हैं। फिर मेडिकल में क्यों आईं?"
"नहीं, यह तो बस ऐसे ही..."
वह झट से उठ खड़ी हुई,
पीले पत्तों का ढेर उसकी गोद से नीचे गिर गया।
"ब्रिगेडियर साहब की वाइफ कमरे में आ चुकी हैं, आप उनसे मिल लें।"
वह एक लम्हे को ठिठकी,
फिर सोचते हुए पूछने लगी,
"वैसे, डॉक्टर साहिबा, यह गीत काफ़ी मुश्किल है, है न?"
"नहीं तो..."
उसने हँसकर सिर झटका,
कुछ पत्ते और टूटकर गिरे।
"आप यह पाकिस्तान में किसी के मुँह से नहीं सुनेंगी।"
"अरे, नहीं, मैडम। यही गीत कल मैंने अफ़क़ अर्सलान को गाते सुना था।"
वह साक़ित खड़ी मैनेजर नुमान को देख रही थी।
"किस को???"
उसने बेयक़ीनी से पूछा,
शायद उसकी सुनने की ताक़त ने उसे धोखा दिया था।
"अफ़क़ अर्सलान को। आप नहीं जानतीं? वह तुर्क इंजीनियर है न, उसी की बात कर रहा हूँ।"
वह दुनिया को भूल गई।
"कौन-सा तुर्क इंजीनियर?"
"अफ़क़ अर्सलान नाम है उसका।"
"वह आपको कहाँ मिला?"
मैनेजर नुमान सोचकर बोला,
"वह मुज़फ़्फ़राबाद में राहत कार्य के लिए तुर्की से आया है।"
"मगर... मगर मैंने तो मुज़फ़्फ़राबाद में कोई तुर्क इंजीनियर नहीं देखा।"
उसकी आवाज़ जैसे कहीं अटक गई थी...
हिंदी अनुवाद:
वह उसी दिन उसी हेलीकॉप्टर में कर्नल तारिक के साथ आया था, यही वजह थी कि अब मैनेजर नौमान को साफ़ तौर पर बेचैनी हो रही थी।
उसी हेलीकॉप्टर में वह खो गई थी, आने वाले लोगों को वह देख ही नहीं पाई थी।
"डॉ. जहानज़ैब, आप ठीक हैं?"
वह चौंकी नहीं, लेकिन वह उसका पूरा नाम क्यों ले रहा था?
मैनेजर नौमान ने गहरी सांस ली। "उफ़ुक हुसैन अरसलान।"
अब वह कुछ समझ रहा था। वह उसे जानती थी, अब सिर्फ़ पुष्टि करना चाह रही थी।
"यह हसन हुसैन अरसलान की मेहनत की कमाई है, जिसे हम इस तरह हिमालय में झोंक रहे हैं।"
बहुत पहले सुना हुआ उफ़ुक का एक वाक्य उसके दिमाग में गूंजा।
"उफ़ुक अरसलान।" उसने धीमे से दोहराया।
एक अजीब सी बेचैनी थी।
"मैनेजर नौमान, वह कैसा दिखता है?" वह खोए हुए लहजे में पूछने लगी।
"आ...," वह सोचकर बताने लगा, "काफ़ी लंबा, मुझसे भी दो इंच लंबा, बाल भूरे हैं और आँखें..."
"और आँखें?" उसने सांस रोक ली, जवाब का इंतज़ार करने लगी।
"कोई हल्का रंग था।"
"हनी कलर?"
"शायद वैसा ही था, सॉरी, गौर नहीं किया। ये लड़कियों का काम होता है," वह हंस दिया।
वह सोच में डूबी हुई थी।
"वह इंजीनियर है ना? तो सिर पर कैप तो पहनता होगा?"
मैनेजर ने सिर हिलाकर हामी भरी।
"उसकी कैप पर कुछ लिखा था?" वह पुष्टि करना चाहती थी। उसके दिल की गवाही थी कि वह उसका वही पर्वतारोही है।
"नहीं, कुछ नहीं लिखा था।"
"अच्छा...," उसे निराशा हुई। उफ़ुक की कैप पर तो लिखा था, मगर हो सकता है कि यह वही कैप न हो...
"उसके साथ और कोई था? दो इंजीनियर?" वह बेताबी से पूछी।
"हाँ, दो इंजीनियर थे। उनमें से एक की कैप पर सफ़ेद रंग से तैय्यब एर्दोगान के समर्थन में नारा लिखा था।"
अब उसे यकीन आ गया था। अब किसी शक की गुंजाइश नहीं रही थी।
"तीसरा कौन था? डॉक्टर?"
"नहीं, वह भी इंजीनियर था।"
"उनके साथ कोई तुर्क डॉक्टर नहीं था?"
"मैंने नहीं देखा, शायद हो। आप उन्हें जानती हैं? कोई समस्या है?"
उसके धैर्य भरे सवाल के जवाब में वह खुद से बुदबुदाई, "मेरा कुछ खो गया था इन पहाड़ों में... वही खोज रही हूँ।"
"क्या गिरा था? वो जेम स्टोन जो तंबू में गिरा था?"
प्रिशे चौंककर उसे देखने लगी, फिर सिर हिलाकर हामी भरी।
"हाँ, वही।"
"वह कैप्टन बशीर के पास है, बल्कि शायद उन इंजीनियर के पास। वे शायद कल आएँगे।"
"पत्थर को?"
"नहीं, उस इंजीनियर उफ़ुक अरसलान को, जिसने आपका कीमती पत्थर अपने पास रख लिया है। मैं बताना भूल गया था, आपको मिल जाएगा, डोंट वरी। अब आप मिसेज़ बाजवा से मिल लें।"
वह क्या कह रहा था, वह कुछ सुन नहीं पाई।
जब वह वहाँ से आ रही थी, तो उसे महसूस हो रहा था कि कोई आया है—जो उसकी ज़िंदगी था। वह भी उसी जगह था, जहाँ वह इस वक़्त मुज़फ़्फ़राबाद में खड़ी थी।
"हे भगवान, मैं वहाँ से क्यों चली आई?"
नौमान क्या कह रहा था?
"वह कल बशीर के साथ आ रहा है।"
मगर "कल" में बहुत घंटे बाकी थे।
वह "कल" का इंतजार नहीं कर सकती थी। उसे उफ़ुक के पास जाना था... अभी, इसी वक्त।
उसने सिर उठाकर देखा, नौमान कब का जा चुका था। वह लगभग दौड़ते हुए अस्पताल में दाखिल हुई।
रिसेप्शन पर एक लड़का और लड़की बैठे थे। वह उनकी ओर लपकी।
"डॉक्टर नौमान कहाँ हैं?"
"राइट साइड जाएँ, लेफ्ट में..." लड़की कुछ कह ही रही थी कि प्रिशे पूरी बात सुने बिना ही भाग गई।
आगे जाकर देखा, वह किसी से बात कर रहे थे। वह भागकर उनके पास पहुँची।
"मैनेजर नौमान!" वह हांफते हुए बोली।
"रीलैक्स डॉक्टर साहिबा, मिसेज़ बाजवा नहीं मिलीं क्या?"
"भाड़ में जाएँ मिसेज़ बाजवा!" वह कहते-कहते रुकी, फिर सांस को नियंत्रित कर बोली,
"आज कोई हेलीकॉप्टर मुज़फ़्फ़राबाद जा रहा है?"
"वे तो रोज़ आते-जाते हैं। मलबा अभी नहीं हटाया गया। आपको क्या मुज़फ़्फ़राबाद जाना है?"
"जी, प्लीज़, मुझे अभी जाना है।"
"अभी तो...," वह सोच में पड़ गया।
"शायद हमारे कर्नल मानसेहरा जा रहे हैं, तो हो सकता है कि वे आपको रास्ते में मुज़फ़्फ़राबाद छोड़ दें।"
"मगर मुज़फ़्फ़राबाद मानसेहरा के रास्ते में नहीं पड़ता। क्या कोई इमरजेंसी है?"
"हाँ, मेरा पत्थर!"
"तो कल वे लोग आ ही रहे हैं।"
"मगर कल बहुत देर हो जाएगी। मेरा पत्थर बहुत कीमती था, मुझे चाहिए।"
"आपको उनसे बात करनी है?"
"हाँ, अभी!"
"तो मैं बात करवा देता हूँ।"
"कैसे?"
"शायद कुछ साल पहले बेल नामी किसी व्यक्ति ने एक चीज़ बनाई थी, जिसे फोन कहते हैं।"
"हाँ, पता है, मगर वहाँ सिग्नल नहीं थे।"
"अब कुछ आने लगे हैं। नहीं भी हो तो, आर्मी का संपर्क तो है। आपकी बात करवा देता हूँ।"
वह चला गया।
प्रिशे वहीं घबराई हुई उंगलियाँ मरोड़ने लगी।
"काश मेरे पर होते, तो उड़कर इस वक़्त मुज़फ़्फ़राबाद पहुँच जाती!"
"मुझे इस हाल में उससे मिलना था... देखना था... मैं क्यों चली आई..."
बीस मिनट कब होंगे?
वह उफ़ुक की आवाज़ सुनेगी... उसकी आत्मा प्यास थी...
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"परीशे?"
उसी पल पूरी कायनात रुक गई थी।
वह आवाज़ लाखों में पहचान सकती थी।
वह उसका उफ़ुक ही था।
"अफ़ुक..."
"परी..."
"तुम... तुम कहाँ हो, उफ़ुक?"
"मैं हिमालय के आसमान के नीचे हूँ।"
एक बार फिर हिमालय का आसमान दोनों के बीच आ चुका था...
"परी, मैं आ जाऊँ?"
"क्या तुम्हें अब भी यह पूछने की जरूरत है?"
"मैं कल आ रहा हूँ, मुझे तुम्हारा पत्थर भी देना है।"
"मुझे पता है।"
"परी, तुम्हारे पापा?"
"वह नहीं रहे..."
"मैं जानता हूँ।"
"तुम कैसे जानते हो?"
"उन्होंने बहुत नाम कमाया था। तुम्हारा जिक्र किया था कभी। उनके निधन की खबर मैंने पढ़ी थी।"
"उफ़ुक..."
"बोलो।"
"तुम किधर आओगे?"
"इस्लामाबाद?"
"नहीं, वहाँ मत आना।"
"क्यों?"
"हम वहीं मिलेंगे, जहाँ पहली बार मिले थे..."
अध्याय: पुनर्मिलन
अगले दिन सुबह का सूरज पहाड़ों की चोटियों से झांक रहा था। बर्फ से ढकी पहाड़ियों पर हल्की गुलाबी आभा बिखर रही थी। प्रीशे उसी पुराने पत्थर पर बैठी थी, जहां कभी उसकी اور अफक़ की پہلی ملاقات हुई थी। उसके दिल की धड़कनें तेज़ थीं, उसकी आंखें हर पल उस दिशा में उठ जातीं, जहां से अफक़ को आना था।
अचानक घोड़ों की टापों की आवाज़ हवा में गूंजने लगी। उसने अपनी सांस रोक ली। सफ़ेद बर्फ पर एक घुड़सवार तेजी से उसकी ओर बढ़ रहा था। वही ब्राउन बाल, वही कैप, वही हनी कलर आंखें... अफक़!
प्रीशे की आंखें भर आईं। उसकी आंखों में अनगिनत सवाल थे, पर अफक़ मुस्कुरा रहा था, जैसे सब कुछ समझ चुका हो।
"तस्वीर ले सकती हो?" अफक़ ने वही पुराना सवाल दोहराया।
प्रीशे ने हंसकर कैमरा उठाया, "नहीं, पहले मैं तुम्हारे कैमरे से तुम्हारी तस्वीर लूंगी!"
अफक़ ने घोड़े की लगाम खींचकर उसे पास रोका और घोड़े से उतरकर उसकी तरफ़ बढ़ा। प्रीशे की आंखें अब भी भीगी थीं।
"अब कोई वादा मत करना, जो फिर तोड़ दो।" उसने कांपती आवाज़ में कहा।
अफक़ ने हल्की हंसी के साथ उसका हाथ थाम लिया, "इस बार कोई वादा नहीं, बस... तुम्हारा हाथ पकड़ कर चलना चाहता हूं, जहां तक ये रास्ता ले जाए।"
हवा तेज़ हो गई थी। बर्फ़ के छोटे-छोटे टुकड़े हवा में उड़ने लगे। पहाड़ों के बीच खड़ा वो जोड़ा अब अकेला नहीं था। तीन महीने की दूरी जैसे कभी थी ही नहीं...