QARA QARAM KA TAJ MAHAL ( PART 20)

                                             


चौदहवीं चोटी – भाग 2

"तुम कभी नहीं बदलोगी, परिशे जहांजेब। तुम हमेशा आम चीजों में भी खूबसूरती ढूंढती रहोगी।" वह उसकी सुंदर कल्पना पर हंस पड़ा।

"तुम भी तो यही करते हो। मैं दुआ करूंगी कि गिल भी मारगल्ला पर वैसे ही बादल उतारे, जैसे तीन महीने तीन दिन पहले उतरे थे।"

"मैं दुआ करूंगा कि मेरी परी मुझे उसी तरह सफेद और गुलाबी रंग में मिले। तुम कल वही कपड़े पहनना, जो उस दिन पहने थे।"

परिशे ने अपने जूतों को देखा। क्या वह यही पहनकर अफक से मिलने जाएगी? नहीं, वह नए खरीदेगी। अफक को कौन-सा उनके डिज़ाइन याद होगा? मर्दों को ऐसी बातें कहां याद रहती हैं भला!

"ठीक है, तो तुम भी वही जैकेट पहनना।"

फिर कुछ पलों तक दोनों खामोश रहे। दोनों ने कुछ सोचा और एक साथ बोल पड़े—
"और तुम वही वाला..."

लेकिन कुछ याद आने पर दोनों चुप हो गए। उन्होंने एक साथ बोला था, इसलिए एक-दूसरे की बात सुन नहीं पाए थे।

"कल तुम्हारे मामू के पास चलेंगे।" वह अभी पिछली बात में ही थी, बेध्यान होकर बोली।
"वो क्यों?"

"तुम्हें टॉम क्रूज़ ने प्रपोज़ किया था ना? बस, वही लेकर जाएंगे।"

फिर दोनों हंस दिए।
"अच्छा आदमी है, कर लूंगी मैं उसी से शादी।"

"हां, मगर मुझे मारकर करना।" वह जलकर बोला, फिर खुद ही हंस दिया।

"अच्छा, अब मैं फौज का और खर्चा नहीं करवाती। फोन बंद करो, तीन बजे मिलते हैं।"

"मैं राहत (रिलीफ) के लिए आया हूं, मगर कल के लिए समय निकाल लूंगा।"

"मेरे लिए सबसे अहम काम तुम हो। मुझे याद है, राका-पोशी में तुम्हारे आंसू गिरे थे। वे आंसू तुम्हें लौटाने जरूर आऊंगा।"

उसने "अल्लाह हाफ़िज़" कहकर फोन बंद कर दिया।
कितने समय बाद आज वह पूरी तरह संतुष्ट थी।


उसने आंखें बंद कर एक संतोष भरी सांस ली और फिर आंखें खोल दीं।
कमरा कितनी खूबसूरती से सजाया गया था। खिड़की के बाहर दिखने वाला पौधा कितना हरा-भरा था, और वातावरण कितना शांत था।
वह बाहर निकल आई।

कुछ देर बाद उसे मेजर नुमान मिल गया।
"बात हो गई? अब खुश हो?"

परिशे ने बच्चों की तरह सिर हिलाकर हां कहा।
"चलो, यह तो अच्छी बात है।"

वह समझ चुका था कि मामला सिर्फ पत्थर का नहीं था।
परिशे ने उसे धन्यवाद कहा और वहां से चली आई।
आज उसे बहुत सारे काम करने थे।


अफक पूरे घंटे मुज़फ़्फ़राबाद की टूटी हुई इमारतों के पास कुछ खोजता रहा, मगर उसकी चाही हुई चीज़ उसे नहीं मिल रही थी।
निराश होकर वह हाई-कोर लॉन्ज़ चला गया।

वहां एक जगह घास पर गरम कपड़ों, टोपी और मोज़ों का ढेर पड़ा था। कुछ लोग इधर-उधर घूम रहे थे, मगर कोई भी उस ढेर से कुछ उठा नहीं रहा था।
अफक ने वहां भी खोजा, मगर उसे अपनी चीज़ नहीं मिली।

वह मायूस होकर लौटने ही वाला था कि उसने एक पेड़ के तने के सहारे बैठी एक कम उम्र की लड़की को देखा। उसके सिर पर हाथ से बना हुआ एक हैट था।

अफक की मुराद पूरी हो गई थी।

वह वैसे ही जींस की जेबों में हाथ डाले हुए तेज़ क़दमों से उसके पास गया।
"सुनो!"

लड़की ने गर्दन उठाई।
उसके भूरे बाल थे और गाल सेब की तरह लाल थे।

"तुम्हें अंग्रेजी समझ में आती है?"

"हां, मैं यूनिवर्सिटी की स्टूडेंट हूं।"

धूप से लाल पड़े चेहरे पर उदासी बिखर गई।
"अब कहां की यूनिवर्सिटी और कहां की अंग्रेज़ी! सब राख हो गया।"
"खैर, तुम बताओ, तुम्हें क्या चाहिए?"

"मुझे तुम्हारा हैट चाहिए।"

लड़की ने हैरानी से आंखें संकरी कर लीं।
"मेरे इस पुराने, बदरंग हैट का क्या करोगे?"

"मुझे किसी को गिफ्ट देना है।"
"मगर मुज़फ़्फ़राबाद में मुझे तुम्हारे हैट के अलावा कोई और दिखा ही नहीं।"

लड़की ने अपना हैट उतारकर ध्यान से देखा।
"ओह, मतलब तुम हैट बना सकती हो?"

"हां, मगर मेरी फूफी ने मुझे सिखाया था।"

"खैर, तुम्हें हैट चाहिए?"

"हां, मगर सादा हो, और ऊपर एक खुला हुआ गुलाब हो, जिसकी पंखुड़ियां काली होकर मुरझा गई हों।"

लड़की हैरानी से बोली—
"मुरझाए गुलाब का क्या फायदा?"

"मैं तुम्हें यह बात नहीं समझा सकता। जिसे दूंगा, उसे मुरझाया हुआ गुलाब पसंद आएगा।"

लड़की ने दिलचस्पी से पूछा—
"तुमने यह हैट कब देना है?"

"कल दोपहर।"

"तो फिर सुबह ताजा गुलाब लगा दूंगी। दोपहर तक तो वह मुरझाएगा। मैं सुबह उजाला होते ही गुलाब तोड़ूंगी, ताकि वह ज्यादा देर तक ताजा रहे।"

अफक मुस्कराया।
"वाह, तुम तो बहुत समझदार लड़की हो!"

"खैर, मैं सुबह वह हैट नीलम स्टेडियम में ला दूंगी। वहां जो आर्मी का आखिरी कोने वाला हरा टेंट है, वहां आ जाना। वैसे कितने पैसे दोगे हैट के?"

लड़की ने उदासी से हंसते हुए कहा—
"तुम कहां से आए हो?"

"तुर्की से।"

"क्या तुम डॉक्टर हो?"

"नहीं, इंजीनियर हूं।"

"फिर भी तुम पहाड़ों में रहने वाले लोगों की मदद कर रहे हो। वह मेरी तरफ़ से तुर्की से आए इंजीनियर के लिए तोहफा होगा। मैं शाम को ही दे दूंगी।"

"नहीं, हम अभी कुछ लोगों के साथ दूर पहाड़ी इलाकों में मदद पहुंचाने जा रहे हैं। शाम तक शायद लौटें। तुम सुबह आ जाना। और तोहफे के लिए शुक्रिया।"

लड़की ने जिज्ञासा से पूछा—
"सुनो, तुम यह हैट किसे दोगे?"

अफक एक पल के लिए रुका, फिर मुस्कुराकर बोला—
"तुम्हें क्यों बताऊं?"

कई महीनों बाद वह आज खुलकर मुस्कुराया था।


परिशे सीएमएच से सीधी अपने मामू के ऑफिस गई।
"आपके बॉस अंदर हैं?"

सचिव ने कहा, "जी, मगर वह दुबई के लिए निकलने वाले हैं।"

परिशे ने सुने बिना ही दरवाज़ा खोल दिया।

मामू ने सिर उठाया, उसे देखा और मुस्कुराए।
"आओ बेटी! ऑफिस में? खैरियत?"

"जी, बस एक बात करनी थी।"

"अच्छा, वैसे सही समय पर आई हो। मैं फ्लाइट के लिए निकल ही रहा था।"

परिशे ने धीरे से उंगली से अंगूठी उतारी और मेज़ पर रख दी।
"आप यह फूफी को वापस कर दें।"

मामू कुछ देर तक चुप रहे, फिर मुस्कराकर उसे देखने लगे।

"तुम मुझसे नाराज़ तो नहीं हो कि मैंने पापा की इच्छा पूरी नहीं की?"
"इच्छाएँ ज़िंदगी तक होती हैं। जो चले जाते हैं, उनके सपनों के पूरा होने या न होने से फर्क नहीं पड़ता। आमतौर पर हम लोग अपनों को उनकी ज़िंदगी में दुख देते हैं और उनकी मौत के बाद उनके लिए प्रार्थनाएँ करते हैं। प्री, तुमने अपने पापा की ज़िंदगी में कभी उनकी अवज्ञा नहीं की, उनकी हर बात मानी, उनके हर आदेश का पालन किया। तुम्हारे पापा तुमसे ख़ुश होकर गए हैं। तुम्हारी शादी जिससे भी हो, अब उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ेगा। उन्हें बस इस बात से फर्क पड़ेगा कि तुम खुश हो या नहीं?"

"आप लोग भी इस रिश्ते से नाखुश थे ना?" मामू की बातों से उसका आत्मविश्वास लौटने लगा।
"हम बिल्कुल खुश नहीं थे, लेकिन इसमें जहानज़ेब की कोई गलती नहीं थी। भांजे-भतीजे सबको प्यारे होते हैं। निशा की सगाई भी तो मैंने तुम्हारी मामी के भतीजे से करवाई थी। अपने रिश्तों के कारण इंसान बहुत कुछ जानबूझकर नज़रअंदाज़ कर देता है।"

"तो फिर आपने पापा के गुजर जाने के बाद इस रिश्ते को तोड़ने के बारे में नहीं सोचा?"
"मैं कई दिनों से तुम्हारे मुंह से यह सब सुनने का इंतजार कर रहा था। आज मेरा इंतजार खत्म हो गया।" मामू ने प्यार से मुस्कराते हुए कहा।
"आप फूफो से किस आधार पर बात करेंगे?" उसने वाक्य अधूरा छोड़ दिया।
"वह मेरा मसला है।"
"लेकिन फिर भी, वह बहुत हंगामा करेंगी।" वह थोड़ी चिंतित हो गई।
"बेटा, मेरी भी तो कोई बात है ना? अगर तुमने हिम्मत करके मुझ पर भरोसा करके यह सब कहा है, तो जब मैं कह रहा हूँ कि मैं सब संभाल लूंगा, तो तुम्हें इस बारे में सोचकर परेशान होने की ज़रूरत नहीं है।"
उसने चिंता के साथ हल्की मुस्कान के साथ सिर हिला दिया।
"थैंक यू मामू! मैं चलती हूँ।" फिर वह घड़ी देखते हुए खड़ी हो गई और जाते-जाते रुकी, "आप फूफो से कब बात करेंगे?"
"दुबई से वापस आने के बाद।"
"अच्छा।" वह जाने के लिए मुड़ी।

"प्री बेटा!"
वह दरवाजे के करीब थी जब उन्होंने उसे पुकारा। वह दरवाजे के हैंडल पर हाथ रखे मुड़ी।
"जी मामू!"
"बेटा, अपने पापा के बारे में कभी गलत मत सोचना। हर बेटी के पिता को अपने भांजों से बहुत उम्मीदें होती हैं। अगर तुम्हें लगता है कि राकापोशी जाने की इजाज़त न देने पर तुम्हारे दुखी होने की वजह से तुम्हारे लिए लाखों रुपये खर्च कर देने वाला पिता, ज़िंदगी के सबसे अहम फैसले पर कठोर हो गया था, तो तुम गलत हो। उसे अंदाज़ा था कि तुम नाखुश हो, लेकिन उसे उसका भांजा इतना प्यारा था कि उसके विचार में सैफ से शादी कराकर वह तुम्हें ज़िंदगी की सारी खुशियाँ दे रहा था। तुम्हारे पापा की सोच हर पारंपरिक पिता की तरह यही थी कि वह अपनी बेटी के लिए सबसे अच्छा फैसला कर सकता है। वह एक बेहतरीन पिता थे। उन्होंने हर हाल में तुम्हारे लिए सबसे अच्छा ही सोचा था।"

वह उदास होकर मुस्कराई।
"मुझे पता है मामू! मैं पापा से कभी नाराज़ नहीं हो सकती। शायद मैं सैफ से शादी कर भी लेती, लेकिन... बस, दिल नहीं मानता।" वह आगे कुछ और कहना चाहती थी, लेकिन रुक गई। यह बात उसे मामू की वापसी पर करनी थी।
"ख़ुदा हाफ़िज़ मामू!"
वह वहाँ से निकल आई। अब उसका रुख बाज़ार की ओर था।

जिन्ना सुपर मार्केट में एक ऐसी दुकान थी, जहाँ से वह अक्सर विदेशी सामान खरीदा करती थी।
"मुझे तुर्की का झंडा चाहिए।"
इस दुकान में आकर उसने सेल्समैन से कहा।

अफ़क को फोन पर वही मफलर पहनकर आने की हिदायत देने लगी थी, लेकिन तभी उसे याद आया कि वह मफलर तो राकापोशी की बर्फ में सदियों के लिए दफन हो चुका था।
अब उसे वैसा ही एक मफलर अफ़क अर्सलान को गिफ्ट करना था।

"तुर्की का झंडा तो नहीं है।" सेल्समैन ने कुछ मिनटों बाद बताया।
"अच्छा।" उसे निराशा हुई। "लेकिन आप मंगवा सकते हैं ना? मुझे कल सुबह तक चाहिए।"
"कल तक?" सेल्समैन सोच में पड़ गया।
"मैं दस गुना ज़्यादा कीमत देने को तैयार हूँ, लेकिन मुझे हर हाल में तुर्की का झंडा कल तक चाहिए।" उसका लहजा साफ़ और दृढ़ था।
"जी जी... बिल्कुल! कल सुबह आप ले जाइएगा।"

वहाँ से वह जूते की दुकान पर गई और अपने पुराने जूतों से मिलते-जुलते गुलाबी और सफेद रंग के स्नीकर्स खरीदे। अब उसे अस्पताल जाकर इस्तीफ़ा देना था।
कल से वह एक नई ज़िंदगी शुरू करने जा रही थी—नई ज़िंदगी, जिसमें उसे गुज़रे हुए तीन महीने और पहाड़ों की यादों को पीछे छोड़ना था।

सामान कार में रखकर उसने ऊपर आकाश की ओर देखा। अब नीले आसमान में सफेदी की हल्की परतें उभर रही थीं। काले बादलों का झुंड इस्लामाबाद से काफी दूर था।
काश, ये बादल कल ठीक उसी जगह और उसी वक्त मारगल्ला की पहाड़ियों पर बरसें, जब वह अफ़क से मिलने जाएगी।

ठंडी हवा उसके खिलाफ़ दिशा में बह रही थी, जिससे उसके बाल बार-बार चेहरे पर बिखर रहे थे।
कार में बैठने से पहले, कुछ पलों के लिए उसने आँखें बंद कर हवा की खुशबू को महसूस किया, पेड़ों पर उड़ती हवाओं की सरगोशियाँ सुनीं, और पैरों के नीचे सरसराते पत्थरों की बातें सुनीं। फिर आने वाले दिन की खुशियों की कल्पना करते हुए उसने आँखें खोलीं और कार में बैठने ही वाली थी कि अचानक दूर से उड़ते हुए दो कौवे आए और उसकी गर्दन के पीछे अपनी चोंच मार दी।

उसके होठों से हल्की चीख निकली, और उसी पल वे कौवे आसमान में उड़ते चले गए।
वह गर्दन सहलाते हुए डरी हुई निगाहों से उन कौवों को उड़ते हुए देखती रही।
क्या फिर कोई बुरी खबर उसकी राह देख रही थी, या वह ज़रूरत से ज़्यादा वहम करने लगी थी?
उसने सिर झटक कर कार में बैठ तो गई, लेकिन उन दोनों कौवों के ख्याल को दिमाग से निकालना उसके लिए बहुत मुश्किल था।

"मुझे समझ नहीं आ रहा कि यह सब इतना अचानक कैसे हो गया?"
तंबू में रखी चौथी कुर्सी खींचते हुए जेनेक ने आश्चर्य से पूछा।
बाकी तीन कुर्सियों पर अफ़क, कनिन और अहमद बैठे थे।

"मैंने उसे संपर्क किया और कल मैं उससे मिलने जा रहा हूँ, बस इतना ही।" अफ़क ने लापरवाही से कहा, लेकिन उसके होठों पर बिखरी मुस्कान छुप नहीं सकी।

"तुम बहुत किस्मत वाले हो। एक मुझे देखो, मेरी सगाई से दो दिन पहले कॉल आ गई कि मुझे कश्मीर जाना है।" जेनेक ने मज़ाकिया अंदाज़ में सिर झटका।
उसकी सगाई टल गई थी, और उसने खुद ही ऐसा किया था।

यह सब उन्हें वहाँ लाया था—
फिर तुम हमारे साथ इन रिमोट एरिया में न ही जाओ तो बेहतर है, अहमद ने कुछ देर सोचने के बाद संजीदगी से कहा, "देखो, हमें वहाँ मलबे से दबे लोगों को निकालना है—सारी इमारतें आधी खड़ी होंगी और अगर रेस्क्यू ऑपरेशन के दौरान किसी आफ्टर शॉक से पूरी की पूरी इमारत तुम्हारे ऊपर गिर गई तो हम डॉक्टर प्रीशे को क्या जवाब देंगे?"

अहमद, बंदे की शक्ल अच्छी न हो तो बात तो अच्छी कर लेनी चाहिए, अफ़क ने खफ़गी से उसे देखा।

"मेरी शक्ल बहुत अच्छी है, आने कहती हैं मुझसे ज़्यादा खूबसूरत बच्चा उसने तुर्की में नहीं देखा था,"

"हर माँ यही कहती है, मेरी माँ भी यही कहती थी, असल हकीकत तो यूनिवर्सिटी की लड़कियों ने बताई थी," कैनन हंसकर बोला।

"चलिए हम जा रहे हैं, तुमने चलना है?" जीनिक सामान बैकपैक में पैक कर रहा था।

"ऑफ कोर्स, तुम्हें क्या भूल गया है कि मैं और तुम हमेशा हर जगह एक साथ जाते हैं?" वह भी उठकर खड़ा हो गया।

"हाँ, लेकिन तुम्हें कल इस्लामाबाद जाना है, वह इलाका दूर है, शायद तुम्हारी कल सुबह तक वापसी न हो सके,"

"कोई फर्क नहीं पड़ता, अगर देर हो गई तो... तो मैं कल के बजाय परसों चला जाऊँगा, लेकिन हमें साथ ही जाना है—याद है हमारा मोटिव था कि अफ़क और जीनिक जन्नत में भी एक साथ ही जाएंगे," वह हंसते हुए कहते हुए अपना सामान समेटने लगा।

बात सिर्फ जीनिक के साथ जाने की नहीं थी, उसका दिल अंदर ही अंदर उन लोगों का सोचकर तड़प रहा था जो इतने दिन गुजरने के बाद भी मलबे तले दबे हुए थे। आज उन्होंने मुज़फ्फराबाद से कुछ लोगों को ज़िंदा निकाला था, तो उसे उम्मीद थी कि वहाँ कुछ जानें होंगी जिन्हें वह इन पत्थरों से निकाल सकेंगे।

उनके ग्रुप में कराची यूनिवर्सिटी के कुछ स्टूडेंट्स, कुछ जवान और वे चारों तुर्क थे। हेलीकॉप्टर ने उन्हें दो पहाड़ दूर एक जगह उतारा था, जहाँ से छह घंटे पैदल चलकर वे उस बस्ती में पहुँचे थे जहाँ 8 अक्टूबर के बाद कोई नहीं आया था।

वह एक छोटा सा गाँव जैसा कस्बा था, जहाँ तक पहुँचने के ज़मीन रास्ते लैंड स्लाइडिंग के कारण बंद हो चुके थे। हर तरफ इमारतों का मलबा बिखरा हुआ था। क्या घर और क्या स्कूल, सब तबाह हो चुका था।

वह एक बड़ी इमारत थी जो आधी ढह चुकी थी और बाकी आधी सलामत खड़ी थी। 8 अक्टूबर के बाद शायद कोई भी व्यक्ति इसके पास नहीं आया था, इसका कारण उसका आधा खड़ा हिस्सा था जो इतना कमजोर था कि बस एक आफ्टर शॉक ही इसे जमींदोज़ करने के लिए काफी था।

"यह इतनी बड़ी इमारत है, शायद सरकार का कोई दफ्तर होगा। ज़रूर अंदर बहुत से लोग होंगे और हो सकता है कुछ ज़िंदा भी हों," अफ़क के पीछे जब कोई भी इस इमारत में नहीं घुसा तो वह बाहर निकलकर उन सभी लोगों से कहने लगा,
"इतने दिन बाद तो शायद ही कोई ज़िंदा हो," एक लंबे लड़के ने मायूसी से कहा।

"लेकिन आज उन्होंने मुज़फ्फराबाद से कुछ लोग निकाले हैं। इसलिए मैं अंदर जा रहा हूँ, जो आना चाहता है, आ सकता है और जो आफ्टर शॉक के डर से बाहर रुकना चाहता है, वो रुक सकता है। मुझे कोई ऐतराज नहीं," वह सीधे अंदाज़ में कहकर अपने उपकरण लेकर अंदर चला गया। फौजियों और तुर्कों ने उसकी नकल की।

वहाँ हर तरफ मलबा बिखरा हुआ था। शायद कोई स्कूल था, जिसके आधे से ज्यादा कमरे ढह चुके थे, कुछ की छतें भी आधी गिर चुकी थीं।

जिस कमरे में वह घुसा, उसकी छत आधी से ज्यादा जमींदोज़ हो चुकी थी। वह और एक जवान जमीन पर पड़े पत्थर उठाने लगे। थोड़ी देर बाद उसे बड़े-बड़े पत्थरों और सरिए के टुकड़ों के बीच कुछ कागज़ दिखाई दिए। उसने झुककर उन कागज़ों को उठाया और उन्हें अपनी आँखों के पास लाया। उन पर अंकों में कुछ लिखा था।

"यह देखो, क्या लिखा है?" अफ़क ने सामने खड़े जवान की तरफ वह कागज़ बढ़ाया, जिसने टॉर्च से उस पर रोशनी डालते हुए पढ़ना शुरू किया।

"मुझे डर लग रहा है। यहाँ बहुत अंधेरा है। क्लास के सारे बच्चे बहुत चिल्ला रहे हैं। मुझे भी रोना आ रहा है मगर मैं नहीं रोऊँगी। मुझे पता है अभी कोई मुझे बचा लेगा। अभी अबू आजाएंगे। वह यह डेस्क हटा देंगे जो मेरे ऊपर गिरा पड़ा है।"

कुछ सिटोर छोड़कर लिखा था—
"मेरी टांग में बहुत दर्द हो रहा है। कुछ नजर भी नहीं आ रहा, यहाँ बहुत डरावना सा अंधेरा है, शायद रात हो रही है। अबू अभी तक नहीं आए। प्लीज अल्लाह मियाँ अबू को भेज दो। मुझे बहुत डर लग रहा है। सारे बच्चे रो रहे हैं। किसी के अबू नहीं आ रहे। प्लीज कोई मुझे यहाँ से निकाले। मुझे भूख लगी है, मुझे खाना खाना है।"

"अब बच्चे नहीं चिल्ला रहे। मैंने मरीम को आवाज़ दी है मगर वह बोलती नहीं है। कश्माला कह रही है मरीम मर गई है और अब वह कभी नहीं बोलेगी। कश्माला जोर-जोर से रो रही है। मुझे भी रोना आ रहा है। लिखा भी नहीं जा रहा। अल्लाह मियाँ प्लीज हमें यहाँ अकेला मत छोड़ो। हमें निकाल लो। यहाँ बहुत अंधेरा है।" पढ़ते-पढ़ते उस जवान का गला रुँध गया।

"अहमद... अहमद...!" अफ़क बाकी लोगों को आवाज़ें देने लगा, अहमद और जीनिक दौड़ते हुए वहाँ आए।

"आओ जल्दी करो, यह मलबा हटाओ। शायद मरीम और उसकी बहन ज़िंदा हों," वह जाने किस उम्मीद पर पत्थर हटाने लगा। शायद वह लड़की ज़िंदा हो, शायद वह नहीं मरी हो। उसने कागज़ शायद पत्थरों के बीच सुराखों से ऊपर फेंका होगा और वह पत्थरों में फंस गया होगा।

वह तेजी से मलबा साफ कर रहे थे। अफ़क के कपड़े मिट्टी और धूल से सने थे। कड़ी सर्दी के बावजूद पसीने आ रहे थे। लाशों की बदबू हर जगह फैल रही थी। थोड़ा नीचे मलबा हटाने पर एक गोरी-चिट्टी, खूबसूरत बच्ची की लाश मलबे में फंसी हुई दिखाई दी। उसके हाथ में एक पेंसिल जकड़ी हुई थी।

अफ़क का दिल खराब होने लगा। मुश्किल से खुद को काबू करते हुए वह जीनिक और अहमद के साथ उस बच्ची की लाश निकालने लगा। उसकी कुचली हुई टांग पर एक भारी पत्थर था। वह तीनों झुककर उस भारी पत्थर को उठाने की कोशिश कर रहे थे कि तभी ज़मीन ने जोरदार झटका खाया।

इससे पहले कि उनमें से कोई सीधा होता, कमरे की आधी खड़ी छत जोर से उन पर गिर पड़ी।