QARA QARAM KA TAJ MAHAL ( PART 18 )



तेरहवीं चोटी
शनिवार 8 अक्टूबर 2005
सफेद दूध जैसी बर्फ पर दरारें पड़ रही थीं। दरार के नीचे बर्फ स्लैब होकर नीचे गिरने लगी। चारों ओर बर्फीली सफेद धूल थी, जहाँ अफ़क़ का कोई निशान नहीं था, वह चिल्लाकर अफ़क़ को पुकार रही थी।
वह कहीं नहीं था, आसपास के पहाड़ों से हंसी की आवाजें आ रही थीं।
वह एक झटके से उठ बैठी।
उसका शरीर पसीने से तर-बतर था। उसने हैरानी में अपना चेहरा छुआ। वह बिस्तर पर थी, रजाई में नहीं थी, अपनी आरामगाह में थी।
उसने चेहरा दोपट्टे से साफ किया, कुछ मिनट लगे खुद को सामान्य करने में। वह डरावने सपने उसका पीछा नहीं छोड़ रहे थे।
उसने घड़ी पर नज़र दौड़ाई, पौने नौ बज रहे थे।
"हे भगवान, मुझे तो आठ बजे तक अस्पताल पहुँचना था," वह तेजी से वॉशरूम की तरफ भागी, मुँह पर पानी के छींटे मारे, बालों में कंघी लगाई, उल्टे-सीधे जूते पहने और पाँच मिनट में बाहर आ गई। मामी और निशा सामने खड़ी थीं, मामा शायद ऑफिस जा चुके थे।
उसने देखा, टेबल पर नाश्ता नहीं था, उसने जल्दी से फ्रिज से दूध का डिब्बा निकाला और मुँह से लगाया, लेकिन उसे याद आया कि आज तो रोज़ा है।
उसे खुद पर हंसी भी आई और शर्मिंदगी भी। उसने दूध का डिब्बा वापस फ्रिज में रखा और जमीन जोर से हिली।
उसके हाथ से जूस का दूध का डिब्बा गिर गया, उसने लड़खड़ाते हुए पास की मेज को मजबूती से थाम लिया। ज़मीन ने जोरदार झटके दिए और शांति छा गई।
"मुझे सपने और चक्कर बहुत आने लगे हैं," उसने खुद को कोसते हुए पैकेट उठाकर फ्रिज में रखा और पर्स लेकर निकल गई।
उसके जवाब देर से आने पर डॉक्टर वस्ती के सवाल का जवाब सोच रहा था।
अस्पताल में सामान्य दिनचर्या चल रही थी, वह तेजी से सामने आते डॉक्टर वस्ती की ओर बढ़ी।
वह सिर में आने ही वाली थी कि मेरी कार...
"ठीक है, आप जल्दी से इमरजेंसी में जाइए," वह जल्दी में बोलकर आगे बढ़ गए, वह हैरान थी, सिर ने डांटा नहीं।
वह मुड़ी तो सामने टीवी स्क्रीन पर न्यूज़ फ्लैश थी जिससे उसे पता चला कि कुछ मिनट पहले उसका सिर चकराया था-
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एक हंगामा मचा हुआ था। उसे नहीं पता था कि वह कितने घंटों से मरीजों में घिरी हुई थी। एक टांग इमरजेंसी में थी तो दूसरी जनरल वार्ड में। घायलों को लाने का सिलसिला कई घंटों तक चलता रहा, बल्कि अब तो कश्मीर से भी घायल लाए जा रहे थे। रावलपिंडी, इस्लामाबाद के सारे अस्पताल भरे हुए थे। हर कुछ मिनट में स्ट्रेचर पर घायल लाए जा रहे थे। कोई खून से सना, कोई शरीर के अंगों से वंचित, तो किसी का चेहरा मसलकर काला हो चुका था, अजीब दृश्य था।
यह सिर्फ मारगला टावर्स तक सीमित नहीं रहा था, बल्कि कश्मीर के चनारों तक यह प्रलयकारी हलाकत हो चुकी थी। मंसराह, एपटाबाद, बाग, वादी नेलम, वादी जिहलम, गढ़ी डुपट, गढ़ी हदीकल, बाना, कढ़ाका, और ऐसे कई शहर और गाँव जो पाकिस्तान के आधे हिस्से में जीवन भर रहे थे। राजनीतिज्ञ और मंत्री मारगला टावर्स के मलबे पर खड़े होकर भाषण दे रहे थे और फोटो खिंचवा रहे थे, मगर अस्पतालों में इमरजेंसी लागू थी।
कितनी देर बाद वह जरा जो ठीक करने को कमरे में एक तरफ रखे सोफे पर जाकर बैठी तो पास बैठे किसी डॉक्टर का वाक्य कानों में गूंजा।
"यह सब हमारे गुनाहों की सजा है।"
उसका अचानक पारा हाई हो गया। "गुनाहों की सजा है तो अल्लाह से माफी मांगें, और अपनी सुधार कीजिए, दूसरों को सलाह देने से पहले, बदलाव हमेशा अंदर से शुरू होता है, आप से नहीं।" गुस्से में कहकर वह उठी और तेज़ी से कदमों से चलती राहदारी का मोड़ मुड़ते हुए किसी से टकराते-टकराते बची।
"सॉरी मैं..." इसी बिगड़े हुए मूड में सॉरी करते हुए वह रुककर उस युवा लड़के को देखने लगी, जिससे वह टकराने वाली थी, बहुत जानी पहचानी शक्ल थी।
"डॉक्टर परेश, कैसी हैं आप?" उसने आस्तीनें चढ़ाते हुए कहा, और शायद मरीज को मारगला टावर्स से लाने में स्वयं मदद कर रहा था।
"ठीक हूँ, तुम वही हो न, जिनके अब्बा..."
"जी, जिनके अब्बा के बारे में आपने भविष्यवाणी की थी कि उन्हें तरक्की मिलेगी, जबकि वह पिछले हफ्ते रिटायर हो गए हैं," वह मुस्कुराकर बोला।
"तो मुझे तो हसीब ने बताया था, वही बड़ा इंप्रेस था जनरल साहब से, मैं तो नहीं थी। जाहिर है, वह जैसा हैंडसम को कमांडर पंजाब को कभी नहीं मिला।"
"अच्छा, हटो रास्ते से," वह कहकर एक तरफ से निकलकर आगे बढ़ गई, वह पलट कर उसे देखने लगा, जब तक वह राहदारी के आखिरी सिरे से नहीं गायब हो गई, फिर सिर झटक कर खुद भी विपरीत दिशा में मुड़ गया।
....................*
बुधवार, 12 अक्टूबर 2005
"कुछ पता चला तुम्हारे कज़न का, फराह?" अस्पताल जाने के लिए तैयार होते हुए उसने फोन कान से लगाया। फराह उसकी सहयोगी डॉक्टर थी और 18 अक्टूबर के भूकंप के बाद एक साथ काम करने के कारण दोनों में अच्छी दोस्ती हो गई थी।
"नहीं यार, उनका अपार्टमेंट दूसरे फ्लोर पर था और मारगला टावर्स के दूसरे फ्लोर पर तो आठ फ्लोर गिर पड़े हैं। अच्छा, मैंने तुम्हें फोन इस लिए किया था कि मुज़फ़्फ़राबाद में पैरामेडिकल स्टाफ की ज़रूरत है, मैंने दो लैंटर कर दिए हैं, तुम जाओगी?"
"नहीं, मैं यहीं ठीक हूँ। वैसे तुम जाओगी कैसे?"
"आर्मी हेलीकॉप्टर से और कैसे? रास्ते तो अभी तक ब्लॉक हैं, लैंड स्लाइडिंग भी काफी हो चुकी है, चलो फिर बात होगी।"
परेशे ने अलविदाई कلمات कहकर फोन रख दिया और जल्दी-जल्दी तैयार हो कर बाहर निकल गई। रात तीन बजे वह आकर सोई थी, सो आज देर से आँख खुली थी।
"इस्लाम अलेकुम फूफू! मामा! आप अभी तक ऑफिस नहीं गए?" फूफू भी मामा के साथ लाउंज में ही बैठी थीं। वह एक साथ दोनों को संबोधित कर के बोली।
"बस निकलने लगा हूँ, तुमने सहरी नहीं की?"
"बस उठ नहीं सकी, मगर नीयत कर ली थी," वह अपनी हमेशा की लापरवाही से बोली। मामा सच में जाने वाले थे, सो उठकर चले गए। वह मुरोता कुछ देर के लिए फूफू के पास जाकर बैठ गई।

"जाहिर है अब भाई की वजह से देर हो जाएगी मगर तैयारी तो फिर भी करनी है।
"मैं पटियाला वालों से दोनों सेट उठाने जा रही हूँ, तुम भी साथ चलो। फिर आगे मेहंदी के जोड़े पसंद करने हैं, वो तुम खुद ही पसंद करना। अब मुझे क्या पता आजकल की लड़कियों की पसंद का।" वह हैरान होकर मुंह खोले उन्हें देखने लगी।
"मैं तुम्हें लेने आई थी।" उन्होंने सफाई दी।
"किस के लिए फूफी! देश पर आफत टूटी हुई है, लोग मर रहे हैं और आप लोगों को मेहंदी के जोड़े की पड़ी हुई है?" उसे गहरा सदमा पहुँचा था।
"वो तो ठीक है लेकिन भूकंप हम तो नहीं लाए। ये दुख-सुख तो चलते रहते हैं, अब उनके लिए अपनी खुशियाँ भी हराम कर लें?" फूफी को उसकी बात पसंद नहीं आई।
"दुख-सुख चलते नहीं रहते, दुख तो आते हैं और ठहर जाते हैं। जाने कितने बूढ़े और बच्चे इस भूकंप में जान खो बैठे। अगर मान लो, हम तब भी खुशियाँ मना रहे होते अगर इन मरने वालों में मैं या सैफ होते?"
"ख़ुदा न करे, सैफ क्यों होता?" वह डर कर बोलीं।
परीशे उन्हें देख कर चुप रही। उन्होंने सिर्फ सैफ का नाम लिया था। उन्हें सिर्फ सैफ प्यारा था। यह नहीं "ख़ुदा न करे तुम और सैफ क्यों होते?" वह किसी गिनती में भी नहीं थी।
"कम से कम पापा का कफ़न तो मैला होने दिया होता फूफी!" वह पीसती हुई कह कर बाहर निकल आई और फिर कितनी देर कमरे के दरवाजे के साथ खड़ी खुद को नार्मल करने की कोशिश करने लगी।
वह शायद इस दुनिया में किसी के लिए अहम नहीं थी, सिवाए उस शख्स के जो उसे क़राकोरम की प्रेक्टा था, जिसने मोहब्बत भी की थी और इज़हार भी किया था।
हस्पताल के सारे रास्ते वह रोती आई थी और फिर अस्पताल पहुँच कर उसने तुरंत डॉक्टर फरह को ढूंढा।
"तुम मुजफ्फराबाद जा रही हो ना? तो फिर मुझे भी साथ ले चलो।" उसने फरह से मिलते ही उसके साथ जाने का फैसला सुना दिया, जो वह सारे रास्ते करती आई थी।
"ठीक है फिर अभी चलो" फरह ने व्यस्त से अंदाज में कहा और आगे बढ़ गई।
वह... वह आज फिर... एक बार उन पहाड़ों में वापस जा रही थी जिनकी शक्ल नहीं...
देखने की क़सम उसने खाई थी। तीन महीने पहले भी वह फूफी और नदाआपा के लगाए घावों से निजात पाने के लिए पहाड़ आ गई थी।
आज फिर उसने भागने का वही तरीका सोचा था।


शुक्रवार 14 अक्टूबर 2005 मुजफ्फराबाद
वही बारिशों का मौसम
वही सर्दियों की शामें
वही दिलरूबा घाटें
वही सांस लेती खुशबू
वही मोड़ मोड़ती सड़कें
वही शांत जगह है
है फर्क बस ज़रा सा
वो पिछले मौसम में मेरा हमराह था
जाने वो अब कहाँ है।
जाने वो कहाँ है।
वह एक स्कूल की इमारत के नीचे खड़ी थी। उसके पीछे हरी घास थी जिसकी आखिरी किनारे पर खड़ा हेलीकॉप्टर के पंखों की गर्जना इस हद में मौजूद बिसों लोगों को कान पर हाथ रखने पर मजबूर कर रही थी।
छत के टूटे टुकड़ों के नीचे जाने कितने बच्चे जिंदा थे। रेस्क्यू वॉलंटियर्स और फौजी लगातार स्कूल का मलबा हटा कर बच्चे निकाल रहे थे।
वह दूर खड़ी चुपचाप देख रही थी, कीचड़ में लगे बाल हवा में उड़ रहे थे। किसी बच्चे को स्ट्रेचर पर डाल कर दो फौजी जवान कैम्प ले जा रहे थे।
मोड़ कर स्ट्रेचर पर मौजूद मासूम बच्चे को देखती रही।
हेलीकॉप्टर की तरफ से कैमुफ्लेज यूनिफॉर्म में मلبस एक आर्मी ऑफिसर तेजी से दो जवानों को आवाज दे रहा था।
"मैंने कहा था कि दस से बीस किलो वाले पैकट बनाने हैं, ईजी ड्रॉप के लिए लेकिन उन्होंने..." बोलते बोलते वह एकदम रुक कर परीशे को देखने लगा। परीशे ने एक सरसरी निगाह उस पर डाली और वापस मुंह इमारत की तरफ मोड़ लिया। उसे कप्तान का इंतजार था, जिसके साथ उसे मेडिकल कैंप जाना था।
थोड़ी देर बाद उसे एहसास हुआ कि वह स्मार्ट सा ऑफिसर अभी भी उसे ही देख रहा था। उसने मुड़ कर देखा। वह अब परी की तरफ इशारा करके कप्तान से कुछ पूछ रहा था। कप्तान कुछ पल बाद वहां से चला गया। वह ऑफिसर फिर से उसे देखने लगा। वह परीशे के लिए बिल्कुल अजनबी था। वह अगर किसी आर्मी वाले को जानती भी थी तो वह वही थे, जिन्होंने उसे राकापोशी से रेस्क्यू किया था। वह उन ऑफिसरों में से नहीं था।
जब कप्तान बशीर आया तो वह उसके साथ वहां से जाने लगी।
कप्तान बशीर से उसका परिचय वहीं मुजफ्फराबाद में हुआ था। वह बहुत साधा, मुहब्बत से बोलने वाला और लंबा था। उसका पिता फौज में सूबेदार रहा था। वह अपने गांव का तीसरा लड़का था जो फौज में गया था और इस बात पर बहुत गर्व करता था।
परीशे वहां आर्मी के फील्ड अस्पताल में ही रह रही थी। बशीर इस दौरान उसकी हर संभव मदद करता था। इत्तेफाक से उसे एक दिन परीशे ने अपना "लिज़ान ऑफिसर" कहा तो डॉक्टर फरह हैरान होकर पूछ पड़ी:
"क्या मतलब?"
"कुछ नहीं, यह माउंटेन क्लाइंबर्स और पाकिस्तान आर्मी का आपस का मजाक है।" वह हंस कर बोली थी और फिर काम में लग गई। उससे ज्यादा वह किसी से फ्रेंडली नहीं थी।
"सुनो कप्तान बशीर! यह आदमी मेरे बारे में क्या कह रहा था?" उसके साथ चलते हुए परीशे ने पूछा।
"आपका नाम वगैरह पूछ रहे थे। मैंने बता दिया।"
"अच्छा।" (जाने कौन था) उसने लापरवाही से कंधे उचकाए।
"वैसे मैम, मुझे नहीं पता यह कौन थे। एविएशन के थे शायद और..."
"अच्छा ठीक है। इट्स ओके।" लंबी सफाई से बचने के लिए वह बोली तो कप्तान बशीर तुरंत चुप हो गया।
यह सिविलियन डॉक्टर बहुत मूडी थी, वह अंदाजा कर चुका था।

यह घटना 21 अक्टूबर, 2005 को हुई। डॉक्टर प्रीशे एक घायल बच्ची की पट्टी खोल रही थी और उसके जख्म को देखकर गुस्से में बोली, "कितना खराब हो रहा है जख्म, ओ गॉड!" उसका घर मलबे में तबाह हो चुका था, और 8 अक्टूबर को उसे बाहर निकाला गया था। प्राथमिक चिकित्सा के तौर पर उसके जख्म को चाय की पत्तियों से बांधा गया था, जो अब उसे और खराब कर रही थी।

इसी दौरान, बाग में भी सभी के जख्म इसी तरह से बंद किए गए थे। एक तरफ़ से वह यह सोचती हुई जख्मों की सफाई कर रही थी। वह कल ही बाग से लौटी थी। वहाँ पर रोज़ करीब डेढ़ सौ मरीज आते थे, जो छह-छह किलोमीटर की यात्रा करके कैंप तक पहुँचते थे। कई दिनों से उसकी नींद भी पूरी नहीं हो रही थी।

वह उस वक्त मुज़फ़्फ़राबाद के नीلم स्टेडियम में लगे फील्ड हॉस्पिटल के एक तम्बू में थी। उसके सामने और दाएं कुछ और मरीज बैठे हुए थे। अचानक कैप्टन बशीर तम्बू का पर्दा हटाकर अंदर आया।

"मैम! वैक्सीनेशन आ गई है।" उसने पैकेट उसकी मेज़ पर रखा। प्रीशे ने सर उठा कर उसकी तरफ हैरानी से देखा।
"इतनी जल्दी? अभी तो कहा था-" "यह दरअसल यूनिसेफ के डॉक्टर लाए हैं, साथ में हाई एनर्जी बिस्किट भी हैं।" "अच्छा, और स्कूल का मलबा हटाया?" "लगभग, ब्रिटिश टीम आई हुई है।" "हूँ-" वह सिर झटकते हुए काम में व्यस्त हो गई। ब्रिटिश, यूनिसेफ, जाने कितने विदेशी लोग आए हुए थे।

अचानक उसने चौंक कर सर उठाया, "कैप्टन बशीर!" वह जा ही रहा था, उसकी आवाज़ पर पलटकर खड़ा हो गया।
"यस मैम?"
"आपने कहा था कि बहुत से विदेशी आए हुए हैं, क्या तुर्की से कोई आया है?" उसने हल्के से पूछा।
"जी, आया था।"
वह चौंकी, "कौन?" उसकी सांस रुकने लगी, वह जवाब का इंतजार कर रही थी।
"मैम, तैयब एर्दोग़ान आए थे, शोख़त अज़ीज़ के साथ कल पूरे इलाके का दौरा किया।"
उसके अंदर का तंत्र कांपने लगा, "अच्छा-" वह फिर से बच्ची के जख्म पर ध्यान देने लगी।

कैप्टन बशीर बाहर जाने के लिए तम्बू का पर्दा उठाने लगा। फिर प्रीशे ने उसे पुकारा, "सुनो, कैप्टन।"
वह बाहर निकलते हुए रुका और उसकी बात सुनने लगा।
"अगर तुर्की से कोई आए, तो मुझे बताना।" उसने कुछ उम्मीद के साथ कहा।
"कोई आने वाला है क्या?"
"नहीं, आने वाला तो नहीं है- कोई नहीं आएगा-" उसने उदासी से सिर झटका और बच्ची की पट्टी करने लगी।
कैप्टन बशीर कुछ न समझते हुए बाहर निकल गया।

अगले दिन 22 अक्टूबर 2005 को, फील्ड हॉस्पिटल से कुछ दूर, वह एक पत्थर पर चुपचाप बैठी, ठंडी हवा की सरसराहट सुन रही थी। उसने सफेद ओवरऑल पहना हुआ था, बालों को कैचर में बांधा हुआ था, और सफेद व हल्के गुलाबी जॉगर्स पहने थे, जिनका रंग अब फीका पड़ चुका था, जैसे उसकी ज़िंदगी का रंग भी फीका हो गया था।

आज बारिश से पहले का मौसम था और वह हमेशा की तरह उदास महसूस कर रही थी। दिन भर हल्के झटके के बाद अफ़्टरशॉक्स आते रहे थे। सामने खड़ा पहाड़ एक झटके में सचमुच दो टुकड़ों में टूटने वाला था, और आज उसकी चोटी पर बर्फ भी पड़ी थी। वह उस ढलती शाम में अकेली बैठी थी और गुनगुना रही थी,
"हम लीला हैं, हम मजनू हैं।"

यह गाना वह अक्सर अफ़्क़ को सुनाती थी, और वह जब बर्फ़ानी गुफ़ा में था, तब भी यह गाता था। वह इसे कभी नहीं भूल सकती थी, वह हमेशा उसके साथ था, हर पल, हर लम्हा।

उसने अपने हाथ पर देखा, उस जगह जहाँ तीन महीने पहले अफ़्क़ ने सैंटिया बांत किया था। अब वहां कोई खरोंच नहीं थी, लेकिन दर्द अंदर ही अंदर बहुत गहरा था।
वह भी अफ़्क़ को बहुत याद करती थी। उसे पता था कि वह अभी भी उसके साथ था, उसके बहुत अंदर कहीं।

तभी उसने भारी बूटों की आवाज़ सुनी। उसने पलटकर देखा, वही आर्मी अफ़सर था जो उसे पहले दिन घूर रहा था। वह काफी हैंडसम था और मेजर के रैंक का था।
"आप डॉक्टर प्रीशे जहाँज़ेब हैं?" वह खड़ा हुआ।
"यह बात आपने कैप्टन बशीर से पूछी थी।" वह कड़क आवाज़ में बोली।
"मुझे यह कन्फर्म करना था। मैं मेजर आसिम रौफ हूं। मैंने ही अरसलान को राका पोशी से रेस्क्यू किया था।"

उसके माथे की शिकन गायब हो गई, "ओह, अच्छा।" फिर वही यादें, "हे भगवान, यह दिमागी रूप से मेरा पीछा क्यों नहीं छोड़ता?"

"मेजर साहब! मैंने आपको सिरसरी तौर पर एक-दो बार ही देखा था, इसीलिए पहचाना नहीं।" वह मजबूरी में मुस्कराते हुए बोली।
"ठीक है। मुझे आपसे मिलना था। आप सीएमएच में बेहोश थीं और जिस दिन होश आया मुझे उसी सुबह सीओ ने फॉरवर्ड एरिया भेज दिया था। मैं तीन दिन वहां मौसम खराब होने की वजह से फंसा रहा। जब वापस आया तो आप जा चुकी थीं।"

वह इन सब बातों में बहुत दिलचस्पी नहीं ले रही थी, इसलिए वह जल्दी से बोली, "मैं चलती हूँ, मुझे कुछ मरीजों को देखना है, धन्यवाद।"

"मेम, मेरे पास आपकी एक अमानत थी। अफ़्क़ अरसलान ने यह आपके लिए दिया था कि जब आप होश में आएं तो दे दूं।"
यह सुनते ही प्रीशे की धड़कन तेज हो गई। "क्या... क्या दिया था अफ़्क़ ने?" उसकी आवाज़ में घबराहट थी।

मेजर आसिम ने अपनी जेब से एक छोटा सा लिफाफा निकाला और उसे प्रीशे की ओर बढ़ाया। "यह लिफाफा उसने मुझसे लिया था," उसने कहा।

प्रीशे ने कपकपाते हुए हाथों से लिफाफा खोला। अंदर टिशू में लिपटी हुई एक तस्वीर थी, जिसमें प्रीशे, अफ़्क़ और एक घोड़ा था। उसके नीचे लिखा था, "घोड़ा प्रीशे के दाहिने तरफ है।" तस्वीर को पलटकर उसने पीछे की ओर लिखा देखा।

"जिंदगी के सफर में बिछड़ने से पहले, मिलन के आखिरी शाम के ढलने से पहले, और एक दूसरे की सांसों और धड़कनों की आखिरी आवाज़ से पहले, जिसके बाद तुम मेरी दुनिया से दूर चले जाओगे, तुमसे यह वादा करना होगा कि उस रात के आने वाली हर सुबह, ठंडी हवा और बारिश के बाद, पहाड़ों पर दूध सी बर्फ देखकर तुम मुझे याद करना।"

प्रीशे की आंखों से आंसू गिरने लगे। उसे वह सब याद आ गया था, जब अफ़्क़ ने कहा था, "तुम्हें भी मुझसे वादा करना है।"

प्रीशे ने आँखें मूंद ली, उसके आंसू नहीं रुक रहे थे। तब मेजर आसिम ने पूछा, "क्या आप ठीक हैं, डॉक्टर प्रीशे?"

यह वह यादें थीं, जो अब उसे कभी नहीं छोड़ने वाली थीं।

यह उसने आपको कब दिया था? उसने अपनी हथेली से आँसू पोंछे और मजबूरी में मुस्कराई।
"जब आपसे मिलने अस्पताल आया था, आप बेहोश थीं। वह कमरे से बाहर आया, मुझसे लिफाफा, पेन, पेंसिल और कागज़ माँगा। फिर उसने अपनी जेब से एक तस्वीर निकाली, उसकी पीठ पर कुछ लिखा, उसे टिशू में लपेटकर लिफाफे में डालकर मुझे दिया और कहा था कि आपको खुद देने के लिए। वरना मैं काम से स्कर्दू गया था, डॉक्टर ख़ालिद या किसी को दे कर आपके पास भेज सकता था, मैंने पार्सल भी नहीं किया, हालाँकि मेरे पास आपका पता था। मैंने आपको कॉल भी किया, मैसेज भी किया, लेकिन किसी गलतफहमी की वजह से आपसे बात नहीं हो पाई। फिर मैंने भी नहीं आ पाया, आज फिर आपको इत्तेफाक से मिल गया। बहुत माफ़ी चाहता हूँ, देर हो गई।"
"मुझे आपकी कॉल का बिल्कुल भी याद नहीं, थैंक यू सो मच डॉक्टर आसिम।"
वह खुश होकर मुस्कराया, "माई प्लेज़र, मेम।"
उसने फिर एक बार भी यह नहीं पूछा कि वह क्यों रो रही थी, वही सुसंस्कृत आर्मी मैन।
"आपकी पत्नी और बच्चे ठीक हैं?" प्रीशे ने शिष्टाचार से पूछा।
"जी, महविश बिल्कुल ठीक है, बच्चे भी पिंडी में हैं।" वह फिर मुस्करा कर चला गया।
वह वहीं खड़ी सोचने लगी, क्या अफ़ोक को वादे याद करने की ज़रूरत थी? क्या वह उसे भूल सकती थी?