QARA QARAM KA TAJ MAHAL (PART 17)
शुक्रवार, 26 अगस्त 2005
हेलीकॉप्टर हरी घास पर उसका इंतजार कर रहा था। उसने अपने हाथों से बाल ठीक किए और बरामदे में निकल आई।
उसका सामान घर में था।
उसे गिलगित से इस्लामाबाद हेलीकॉप्टर में जाना था। कर्नल फारूक जा रहे थे, और वह भी उनके साथ चल दी।
हेलीकॉप्टर के पास मैनेजर बिलाल खड़ा था।
"हैप्पी सेकंड बर्थडे, मैम!" वह खुशी से मुस्कराया।
वह भी मुस्कराई, यह सोचकर कि वह उसे कितना गलत समझ रही थी। शायद वे भूल गए होंगे, लेकिन उन्होंने उसे भुलाया नहीं था। वे समय पर उसे बचाने आ गए थे।
"मैंने आज अपने रेस्क्यू की वीडियो देखी थी। मेजर खालिद ने दिखाई थी। आपने कमाल का काम किया! इतना मुश्किल रेस्क्यू आपने कैसे कर लिया? मैं अब तक हैरान हूँ।"
"अरे मैम! जो किया, वह अल्लाह ने किया। पाक फौज ने बस हिम्मत दिखाई। वैसे, अब उम्मीद है कि आप मुझे 'शुक्रिया' नहीं कहेंगी।"
वह शर्मिंदा हो गई। "दरअसल, मैं परेशान हो गई थी। आप बेस कैंप से अचानक क्यों चले गए थे?"
"मैम, हम ईंधन लेने गए थे और हंजा के बाहर तीन दिन मौसम ठीक होने का इंतजार करते रहे। जैसे ही आसमान साफ हुआ, हम आ गए।"
"लेकिन आपने अफक अरसलान को हेलीकॉप्टर में क्यों नहीं बिठाया? यह हेलीकॉप्टर तो काफी बड़ा है।" उसने सामने खड़े हेलीकॉप्टर की ओर इशारा किया।
"यह वही हेलीकॉप्टर नहीं है जिससे आपको रेस्क्यू किया गया था। आपको शायद ठीक से याद नहीं, वह 'लामा' था, और उसमें अरसलान को कैसे बिठाते? वह तो बिल्कुल मच्छर था।"
"कौन अरसलान?"
"नहीं मैडम, हमारा हेलीकॉप्टर! लामा 'मच्छर' होता है।" वह हंसा। "यह ज्यादा वजन नहीं उठा सकता। इसमें तीन से ज्यादा लोग नहीं बैठ सकते। कर्नल जुबैर और मेजर आसिम ने अपनी गिलहरी... मेरा मतलब अपने स्क्वॉड से अरसलान को रेस्क्यू किया। इस बार राका पोशी पर हमने दो हेलीकॉप्टर भेजे थे, जैसे बल्तोरो पर रेस्क्यू ऑपरेशन के दौरान भेजते हैं।"
परीशे ने ध्यान से हरे रंग के हेलीकॉप्टर को देखा। "हां, यह मच्छर तो नहीं लग रहा।"
"अरे मैम, इसे कुछ मत कहिए, यह माइंड कर जाएगा!"
वह हंस दी। "मेजर बिलाल, यह हेलीकॉप्टर है!" जैसे वह कहना चाह रही हो कि 'यह इंसान नहीं है।'
"जनाब, यह शेर जवान है।" उसने हंसते हुए हरे रंग की धातु को थपकी दी।
"वैसे मेजर बिलाल, मैं मेजर आसिम से मिल नहीं सकी। उनसे मेरी तरफ से शुक्रिया कह दीजिएगा।"
"रोजर मैम!" फिर अचानक बोला, "हां, मेजर आसिम आपका जिक्र कर रहे थे। शायद आपके पास कोई चीज थी जो उनके पास रह गई थी..."
"नहीं, कुछ भी नहीं था। अच्छा, खुदा हाफिज! और एक बार फिर शुक्रिया।" वह बात काटकर हेलीकॉप्टर के खुले दरवाजे से अंदर चढ़ने लगी।
मेजर बिलाल ने कुछ उलझन से कुछ कहना चाहा, शायद उसे कोई शंका थी, मगर परीशे को यकीन था कि वह कोई कीमती चीज़ पीछे नहीं छोड़ रही थी। वह जो पहले ही खो चुकी थी, उसके बाद अगर कुछ रह भी गया था, तो अब उसे परवाह नहीं थी।
वह अंदर बैठ गई। कर्नल फारूक पहले ही तैयार थे, सो दरवाजा बंद कर दिया गया।
हेलीकॉप्टर हवा में उठने लगा। उसने हेडफोन कानों पर चढ़ा लिए, जिससे शोर थोड़ा कम हो गया।
वह खिड़की से सिकुड़ते हुए गिलगित और दूर होते पहाड़ों को देखने लगी, जिनके बीच बड़ी शान और गुरूर के साथ पर्वतों की देवी खड़ी थी।
"Thank you, Rakaposhi!" उसने चमकती हुई दीवार को किस बात के लिए धन्यवाद दिया था, वह खुद भी नहीं जानती थी।
चारों ओर फैले वे ऊँचे पहाड़ थे, जिनकी चोटियां झुककर आसमान को चूम रही थीं। वे वास्तव में महान पर्वत थे, और उनके बीच खड़ा था काराकोरम का 'ताज महल', जिसकी सफेद संगमरमर की दीवारों पर एक अनकही प्रेम कहानी लिखी थी।
वह निर्विवाद रूप से आगरा के ताज महल से ज्यादा सफेद और सुंदर था।
उसने आखिरी बार काराकोरम की पर्वत श्रृंखला को देखा।
"अलविदा काराकोरम, अलविदा हिमालय! मुझे तुम्हारी ऊँची चोटियों की कसम, मैं फिर कभी तुम्हारे निर्दयी पहाड़ों में नहीं आऊँगी।"
उसने सीट से टिककर आँखें बंद कर लीं। कई दिनों बाद उसकी पीठ के पीछे बर्फ नहीं थी।
"तो यह था कहानी का अंत। आखिर इस मोड़ पर आकर काराकोरम की परी और पर्वतारोही की कहानी समाप्त हो गई।"
वह बंद आँखों से उदासी में मुस्कुराई।
लेकिन... काराकोरम की परी और पर्वतारोही की कहानी अभी खत्म नहीं हुई थी।
मंगलवार, 6 सितंबर 2005
उस दिन, जब नदा आपा आईं, तो वे उसे अपने घर ले गईं।
किसी और वजह से या संयोग से, सैफ घर पर ही था। उसे नदा आपा के साथ आता देख उसकी आँखों में वही चमक आ गई, जिससे परीशे को नफरत थी।
"कैसी हो, परी?" उसने सिर से पांव तक उसे देखते हुए मुस्कराकर पूछा।
परीशे ने संजीदगी से उसकी ओर देखा।
"सैफ, आपको नहीं लगता कि मैं अब बड़ी हो गई हूँ? आपको मुझे पूरे नाम से बुलाना चाहिए।"
उसकी बात पर सैफ हंस पड़ा, लेकिन उसकी पेशानी पर आए बल देखकर चुप हो गया।
"आपा, आप भी सुन लीजिए, अब से मुझे 'परी' मत कहना।"
फूफो भी कमरे से बाहर आ गईं। "अरे, परी आई है! आज तो काफी फ्रेश लग रही हो।"
"जी फूफो, बस डाइट थोड़ी हेल्दी रखी हुई है।" वह बैठ गई।
"सैफी बता रहा था कि तुमने PIMS में नौकरी शुरू कर दी है?"
"जी फूफो!"
"कब से जा रही हो?"
"कुछ ही दिन हुए हैं।" उसे इस पूछताछ से घबराहट होने लगी थी।
"अच्छा, तनख्वाह कितनी मिलती है?"
उसे वहाँ बैठना मुश्किल लग रहा था। उसने कनखियों से सैफ को देखा, जो उसके जवाब का बेसब्री से इंतजार कर रहा था।
उसने धीरे से अपनी तनख्वाह बता दी।
"अच्छी है। वैसे भी, अच्छी बीवी वह होती है, जो पति के साथ मिलकर कमाए।"
इसी बीच, उसके फोन पर एक अनजान नंबर से मैसेज आया।
"क्या मैं आपसे बात कर सकता हूँ? आप फ्री हैं?"
परीशे ने कोफ्त से उसे डिलीट कर दिया।
"किसका मैसेज था?" सैफ ने तुरंत पूछा।
"पापा का।" उसने संकोच किया कि उसे बताना चाहिए कि किसी के एसएमएस के बारे में पूछना गलत है।
उसे वहाँ बैठना और भी मुश्किल लगने लगा। वह उठ खड़ी हुई।
"मेरा ड्यूटी टाइम हो गया है, डॉक्टर वस्ती बहुत नाराज होंगे। मुझे जाना होगा।"
सोमवार, 12 सितंबर 2005
ज्वेलरी शॉप का कांच का दरवाजा धकेलकर वह अंदर दाखिल हुई। सैफ उसके पीछे था।
वह आत्मविश्वास से चलती हुई शोकेस के सामने रखी कुर्सियों की लंबी कतार में से एक खींचकर उस पर टांग पर टांग रखकर बैठ गई। सामने बैठा सेल्समैन पेशेवर मुस्कान के साथ उसकी तरफ मुड़ा—
"जी मैडम?"
सेल्समैन के पीछे की दीवार कांच से ढकी हुई थी— चमकते कांच की दीवार... उसे कुछ याद आया। उसने सिर झटका और शीशे में खुद को देखा। लंबे और सीधे बालों को आधा बांधकर उसने एक कीचर (हेयर क्लिप) लगाया हुआ था, जो कीमती पत्थरों से जड़ा था। उस कीचर का दो रंगों वाला एक पत्थर थोड़ा ढीला था। कीचर से निकली कुछ लटें उसके गालों को छू रही थीं। कुछ दिनों से खान-पान की सावधानी के कारण उसका चेहरा काफी ताजा और भरा-भरा लग रहा था।
सैफ उसके साथ वाली कुर्सी पर आकर बैठ गया। उसे देखते ही दूर बैठा अधेड़ उम्र का सुनार लपक कर उसकी ओर आया।
"जी सेठ साहब, कोई यूनिक चीज दिखाइए हमारी होने वाली दुल्हन को, शादी के दिन पहनने के लिए।"
सैफ का उसे इस तरह से परिचय कराना उसे बिलकुल पसंद नहीं आया, मगर वह खामोश रही।
सुनार सेठ झट से काले मखमली डिब्बों में सजे चमचमाते सोने के सेट शोकेस पर रखने लगा। दूसरा लड़का उसकी मदद कर रहा था।
परीशे एक-एक कर हर सेट को नकारती रही। उसे इस सब में कोई दिलचस्पी ही नहीं थी। वह तो सिर्फ पापा और फूफो (बुआ) के कहने पर सैफ के साथ शॉपिंग करने आई थी।
सैफ ने बहुत से डिब्बे खुलवा लिए। वह ज्वेलर को अच्छी तरह जानता था। यकीनन वह पहले यहां आता रहा था। नदा आपा की शादी को काफी समय हो चुका था, जब उनकी शादी हुई थी तो सैफ इतनी महंगी ज्वेलरी अफोर्ड नहीं कर सकता था। यकीनन वह पिछले कुछ सालों में यहां आता रहा था। जाने कितनी औरतों को गहने दिलवाए थे। शायद इसी वजह से उसने दुकानदार को साफ तौर पर बता दिया था कि यह लड़की उसकी होने वाली बीवी है, ताकि वह सतर्क रहे।
एक पल को भी उसका दिल नहीं चाहा कि वह ज्वेलर से सैफ के अफेयर्स के बारे में पूछे। उसे सैफ और उसके रिश्तों में कोई दिलचस्पी नहीं थी। अगर पापा जानते-बूझते अपनी आंखें बंद कर रहे हैं, तो उसने भी अपनी आंखें और दिल कब का बंद कर लिया था।
"यह फिरोजी पत्थर वाला तो बहुत अच्छा है, यह ले लो।"
उसे कुछ याद आया। उसने बालों पर लगाया हुआ कीचर उतारा, और उसके रेशमी बाल कमर और चेहरे पर गिरते चले गए।
"क्या आपके पास इस तरह का कोई दूसरा पत्थर होगा या आप इस पत्थर को जोड़ सकते हैं? यह किसी भी वक्त गिर सकता है।" परीशे ने कीचर को शोकेस पर रखते हुए उसमें ढीले पड़े दो रंगों वाले पत्थर की ओर इशारा किया।
"यह बिल्कुल गिरने वाला है, इस कीचर को फेंक दो, मैं तुम्हें नया ला दूंगा।" सैफ ने लापरवाही से कीचर उठाकर डस्टबिन में फेंकना चाहा।
किसी चीते की तेजी से परीशे ने झपटकर उसके हाथ से कीचर छीन लिया।
"हाथ मत लगाइए इसे, यह बहुत कीमती है, समझे आप?"
किसी अनमोल चीज की तरह उसे मुट्ठी में बंद करते हुए परीशे ने सैफ को गुस्से से देखा। वह उसके इस प्रतिक्रिया पर स्तब्ध रह गया।
"परीशे तुम..." उसने धीमे स्वर में कुछ कहना चाहा।
"मैं गाड़ी में बैठ रही हूं। आपको आना है तो आ जाइए, नहीं तो मैं टैक्सी से चली जाऊंगी।"
बालों को पूरी तरह से कीचर में जकड़कर वह उठ खड़ी हुई और तेज कदमों से चलती हुई कांच का दरवाजा धकेलकर बाहर निकल गई। सैफ, ज्वेलर से माफी मांगता हुआ कुछ हैरान और कुछ दबे हुए गुस्से के साथ उसके पीछे बाहर निकल गया।
ज्वेलर ने व्यंग्य से सिर झटका और पास खड़े लड़के से कहा—
"बेगम साहिबा शादी पर खुश नहीं हैं, च्च च्च..."
लड़का हंसने लगा। ज्वेलर फिर से अपनी सीट पर बैठकर रजिस्टर में लिखने लगा, जबकि लड़का शोकेस में रखे गहनों के मखमली डिब्बे बंद करने लगा।
मंगलवार, 13 सितंबर 2005
वह अस्पताल जाने के लिए तैयार हो रही थी। ओवरऑल बाजू पर लपेटा, स्टेथोस्कोप जेब में डाला, जल्दी-जल्दी जूतों की स्ट्रैप्स बांधी, बालों को उसी कीचर में जकड़ा और पर्स कंधे पर डालकर बाहर निकल आई।
गाड़ी की तरफ बढ़ते हुए उसने निशा को गेट से अंदर आते देखा।
"तुम अस्पताल जा रही हो?"
"हां, कहो कोई काम है?"
"मैम, तुम्हें अपने शादी के लिए शॉपिंग करनी है, मम्मी बुला रही हैं।"
"अरे निशा, मामी की पसंद बहुत अच्छी है, वे खुद कर लेंगी। तुम उनकी मदद कर देना। तुम्हें तो उनकी पसंद-नापसंद का पता है।"
"मगर अब हम जूते लेने जा रहे हैं, तुम्हें ही जाना होगा।"
"यार, यहां रावलपिंडी-इस्लामाबाद में अच्छे जूते कहां मिलते हैं? और मेरे पास पहले से ही बहुत जूते हैं। अच्छा, तुम रहने दो, मैं लेट हो रही हूं।"
"बेवकूफ, लेने तो पड़ेंगे। आखिर शादी तुम्हारी है।"
उसके चेहरे पर एक साया सा गुजरा। उसकी पकड़ गाड़ी के दरवाजे पर ढीली पड़ गई।
"परी..." निशा उसके पास आ गई।
"अगर फैसला कर ही लिया है, तो समझौता करना सीखो। सैफ जैसा भी है, उसे स्वीकार करो और दिल से स्वीकार करो।"
परीशे के होंठों पर एक फीकी सी मुस्कान उभरी।
दिल तो कहीं दूर काराकोरम की पहाड़ियों में रह गया था। अब तो याद भी नहीं किस जगह खो गया था वह।
"कोई फोन, कोई खत, कोई संपर्क नहीं किया उसने?"
वह जानती थी निशा किसकी बात कर रही थी।
"मैंने उसे फोन नंबर दिया ही कब था?"
"ईमेल?"
"अहमद की पत्नी की आई थी, मैंने जवाब नहीं दिया। मुझे तुर्की के वासियों से कोई संपर्क नहीं रखना।"
वह सिर झटककर ड्राइविंग सीट पर बैठ गई और दरवाजा बंद कर लिया। खुली खिड़की पर झुकी निशा ने सवालिया नजरों से उसे देखा।
"खुश रहा करो, परी, वरना लोग जान जाएंगे।"
"जानने दो।" उसने इग्निशन में चाबी घुमाई। निशा पीछे हट गई, और उसने गाड़ी बाहर निकाल ली।
शुक्रवार, 30 सितंबर 2005
वह अस्पताल में अपने कमरे में बैठी थी। सामने वाली सीट पर एक औरत और एक किशोर लड़की उसकी तरफ देख रहे थे। वह तेज़ी से पेंसिल चला रही थी। जैसे ही वह सीधी हुई, उसने कागज़ उस औरत को दिया और कहा, "बच्ची की खुराक का ध्यान रखें। यह वैसे भी कम उम्र की है, घर जाकर इस पर ज़्यादा काम मत लादना।"
औरत ने शुक्रिया अदा किया, और सहमी हुई लड़की जो अब तक सब कुछ सुन रही थी, हल्के-फुल्के गहने पहने हुए थी।
इसी दौरान उसके मोबाइल की घंटी बजी।
उसने फाइल के पन्ने पलटते हुए व्यस्त अंदाज़ में "हैलो" कहा।
"डॉ. परीशे जहांज़ैब बात कर रही हैं?"
आवाज़ मर्दानी और अपरिचित थी। उसने स्क्रीन पर नंबर देखा—रावलपिंडी सरकारी अस्पताल का था।
"जी, बात कर रही हूँ। आप कौन?"
"डॉक्टर साहिबा, मैं 'राइज़िंग पाकिस्तान' शो से बोल रहा हूँ। हम आपको अपने शो में इन्वाइट करना चाहते हैं।"
कोई प्रोड्यूसर था।
"अच्छा, मगर किस सिलसिले में?"
"कुछ हफ्ते पहले आपको राकापोशी से रेस्क्यू किया गया था, हम—"
"सॉरी, मुझे कोई इंटरव्यू नहीं देना है।" उसने बिना सुने ही फोन काट दिया और फिर से फाइल देखने लगी।
कुछ पल बाद फिर से मोबाइल बजा।
उसने स्क्रीन पर देखा—वही नंबर।
"जी?"
"डॉक्टर साहिबा, हम आपको इंटरव्यू के लिए बहुत अच्छा—"
"रॉन्ग नंबर! मैं वह परीशे जहांज़ैब नहीं हूँ! बाय!" उसने दोबारा कॉल काट दी।
उसी पल फिर से घंटी बजी।
इस बार उसने नंबर देखे बिना ही झट से फोन कान से लगाया और गुस्से से बोली, "जी, फरमाइए!"
"असलामु अलैकुम, डॉक्टर परीशे।"
इस बार आवाज़ गहरी, गंभीर और रोबदार थी।
"आपको क्या प्रॉब्लम है?"
"याद है आपको, आपको राकापोशी से पाक आर्मी ने—"
"गुनाह कर दिया था पाक आर्मी ने! माफ़ी चाहती हूँ कि मैं बचकर ज़मीन पर आ गई! खुदा के लिए अब मुझे छोड़ दीजिए! अगली बार बचकर आने की गलती नहीं करूँगी!"
उसने कॉल कट कर दी और मोबाइल एक तरफ रख दिया।
"इतने दिन हो गए, फिर भी लोग भूल नहीं पाए!"
वह बड़बड़ाई और उसकी नज़र टेबल पर रखे कैलेंडर पर पड़ी, जो उसे साद बुक बैंक से मुफ्त में मिला था।
उसने घड़ी देखी—रात के 8 बज रहे थे।
वह उठी, जाने के लिए तैयार हुई।
कैलेंडर के पन्ने पलटे।
समय उसे अक्टूबर के महीने में खड़ा कर चुका था।
वह जो चीज़ भूल जाना चाहती थी, ना जाने क्यों बार-बार काली बिल्ली की तरह उसका रास्ता रोक लेती थी।
उसने कैलेंडर उठा कर दराज़ (लॉकर) में डाल दिया और खड़ी हो गई।
उसका मोबाइल अब भी बंद पड़ा था...