INS WA JAAN PART 18
रेत बेतहाशा उड़ रही थी- तूफान के तंद-तेज चक्कर हर तरफ रेत उड़ा रहे थे- वह जिस टीले की ओट में बैठा था हवा उसे खा रही थी- निगल रही थी- रेत यूं एक जगह से दूसरी जगह منتقل हो रही थी जैसे बहुत से मजदूर अपनी टोकरी भर-भर के फेंक रहे हों- वह घुटनों में सिर दिए इस तूफान से बचने की कोशिश कर रहा था पर रेत उसके ऊपर ढेर होती जा रही थी।
हर चीज से और हर जज़बे से मावरा तूफान... एक इंसान को रेत के समंदर में डुबो रहा था- उसके बदन पर रेत सुईयों की तरह चुभ रही थी- वह सख्ती से आँखें मीचे उस तूफान के थमने का इंतजार कर रहा था।
उसने तूफान सहे थे—बारिश के ठंडे तूफान- गर्मियों में मिट्टी के तूफान- और नदियों में आने वाले तूफान जो हर खर-पतवार को बहा ले जाते हैं- पर यह तूफान सबसे ज्यादा कष्टकारी था- यहां कोई अपना नहीं था... न माँ थी जिसकी गोदी में वह पनाह ले लेता और इससे बच जाता- वह निहत्थे योद्धा की तरह इसके सामने बेबस थे- प्रकृति अपनी ताकत दिखा रही थी- चाँद पर पहुँच जाने वाला—सितारों पर डोरी डालने वाला—हवाओं में उड़ने वाला इंसान—प्रकृति के सामने बेबस था।
रेत के साथ वक्त भी सरक रहा था- मगर उसकी रफ्तार धीमी थी- कठिन वक्त हमेशा तेजी से आता है और धीमी रफ्तार से जाता है- यह वक्त की खासियत है उसकी रफ्तार कभी एक सी नहीं रहती-
वक्त की रफ्तार वक्त के हिसाब से बदलती रहती है-
उसे लगा था कि शायद यह रेत उसे भी अपने साथ उड़ा ले जाएगी और फिर किसी और अनजानी ज़मीन पर फेंक देगी या उसकी रूह को उसके बदन से खींच लेगी- उसे घर याद आ रहा था अपने माँ-बाप- बहन- भाई- वह ठंडी रात जब वह अपने घर लौट रहा था- और अब... गुमराह होकर दर-बदर भटक रहा था- लेकिन सारे दरों का मालिक एक ही है- वह ज्यादा देर अपने गुलामों को रांद दरगाह नहीं रहने देता।
अजीब बात थी उसे वह याद नहीं आई थी- जिसकी वजह से वह यहां था- उसके मन की स्लेट से जैसे उसकी याद मिट गई थी-
परी---उसकी ज़बान पर आज उसका नाम आया था- तुमने छोड़ दिया न मुझे- तुम्हारे पास तो बहुत सी ताकतें हैं तुम मुझे यहाँ से निकाल सकती थी- मेरी मदद कर सकती थी पर शायद तुम्हें मेरी याद ही नहीं आई- उसने बंद आँखों से सोचा- जिनकी पलकों पर बेहिसाब रेत थी।
रेगिस्तान के बाशिंदे जाने कैसे यहाँ बसते होंगे? क्या उनके बदन को रेत नहीं खाती होगी? या वे लोहे के बदन के मालिक होते हैं? उनका खाना-पीना कैसा होता होगा? और बेकार दिन कैसे कटते होंगे? और वे ठंडी रात से कैसे बचते होंगे? वे तो अज़ल से यहाँ रहते थे... जाने कैसे? वह अज्ञात लोगों को सोच रहा था।
गर्ज़ते तूफान थम चुका था- हल्की सी रोशनी बाकी थी- रात आने को थी- उसने आँखें खोलकर चारों ओर देखा- वह कंधों तक रेत में धंसा हुआ था- रेत को मुश्किल से झाड़कर वह बाहर निकला- रेत का टीला वहाँ नहीं था- वह अपनी जगह बदल चुका था- और उसकी हाइट और आकार भी पहले जैसा नहीं रहा था-
रेगिस्तान की रातें ठंडी और दिन गर्म होते हैं- उसके तन पर एक जोड़ा था और एक उसकी जैकेट- जो इस ठंडी रात में उसे सुरक्षित रखने में नाकाम थी-
वह इस जगह से निकल जाने की उम्मीद में रेत पर चलने लगा- पर वह वैसी ही थी जैसे पहले दिन थी- गुमराह करने वाली- होशियार इंसान को पागल करने वाली। और चुभने वाली।
इसमें कोई खास निशानी नहीं थी कोई रास्ता नहीं था कोई मंज़िल नहीं थी- रेत के ढेर इधर से उधर हो गए थे फिर भी इस रेगिस्तान की शक्ल-ओ-शुबाहत में कोई बदलाव नहीं आया था- वह चलते-चलते बहुत दूर निकल आया था-
कुछ पुराने चीथड़े तूफान कहीं से उड़ा लाया था और अब वह रेत के इस समंदर में बिखरे हुए थे- चलते-चलते उसके पैरों के नीचे कोई बड़ी सी चीज आई- उसने रुककर देखा यह एक गदड़ी थी- रंग-बिरंगे कपड़े के टुकड़ों से बनी एक चादर जैसी चीज- जो आमतौर पर फकीर या दरवेश पहनते हैं- उसने इसे उठाया- वह इसे ठंड से बचाने के लिए काफी थी- ऐसा लगता था जैसे रेतले तूफान ने किसी फकीर से उसकी यह गदड़ी छीन ली हो या उससे उसकी जिंदगी छीन ली हो कि वह विरोध न कर सके-
वह एक झाड़ी के पास बैठ गया और इस गदड़ी को अच्छे से अपने चारों ओर लपेट लिया- रात गिर रही थी- आसमान पर तारे बहुत रोशन थे- चाँद बहुत दूर दिखाई दे रहा था- वह आधा था- आधा काला और आधा सफेद-
उसका डर धीरे-धीरे खत्म हो रहा था- अब उसे अकेलापन और इस वीरान रेगिस्तान से डर नहीं लग रहा था- वह निडर हो गया था- तवक्कल बढ़ने लगा था- उसे लगता था कि जिंदगी अब शुरू हो रही है- इस रेगिस्तान से- पहले वह इस कदर अहम नहीं था- न ही उसकी शख्सियत उसके लिए अहम थी और न ही सारी कायनात के मालिक से इतना संपर्क था- अब लगता था कि सिर्फ उसी से वास्ता है... उसी से संपर्क है- उसके सिवा न कुछ समझ आता था और न कुछ दिमाग में समाता था-
रात अपना सफर तय कर रही थी और उसकी सोचों को समेटते समेटते नींद की वादी में क़ैद कर रही थी- नींद तो सولی पर भी आ जाती है- और उसे भी इस रेत ने अपनी गोदी में थपक-थपक कर सुला दिया था-
दिन का उजाला फैल रहा था- सूरज की चुभती किरणों ने उसे जगा दिया था- पानी के बिना उससे साँस लेना मुश्किल हो रहा था- उसने दूर तक निगाह दौड़ाई पानी कहीं नहीं था- वह यहाँ रहते-रहते थक चुका था- भूख-प्यास जन्मजात स्वभाव हैं जो किसी भी हालत में इंसान को आज़ाद नहीं होने देतीं वह भी इनकी जंजीरों में खुद को बंधा हुआ महसूस कर रहा था-
उसने खड़े होकर आस-भरी नजरों से इस ज़मीन को देखा- बहुत दूर एक कैक्टस का पौधा था- उसे थोड़ी तसल्ली हुई और बहुत देर चलने के बाद वह उस तक पहुँच गया- सूरज उसके साथ-साथ सफर कर रहा था जैसे उसकी रखवाली पर नियुक्त हो-
वह हांफता हुआ उस पौधे तक पहुँच गया।
वह उसके कद से भी ऊँचा मोटे-मोटे कांटों से भरा पौधा था- कैक्टस का पौधा सख्त छाल वाला बड़े-बड़े कांटों से भरा एक रेगिस्तानी पौधा होता है- ऐलोवेरा की तरह उसके अंदर जेल जैसा गूदा भरा होता है- जो कठिन परिस्थितियों में पानी के विकल्प का काम दे सकता है-
उसे हाथ लगाना अपने आप को घायल करने के बराबर था- अब मसला यह था कि उसे कैसे खोला जाए- अब्दुल्ला बहुत देर परेशान खड़ा रहा-
उसने आसमान की तरफ देखा और रब से मदद मांगी- तवक्कल का एक और जामा पार हो चुका था- वह अपनी जरूरत के लिए अपने परवरदिगार पर भरोसा करके उससे रुख कर रहा था- अब किसी भी الوسीले के न होने पर उसकी नजर सीधे रब की तरफ ही उठती थी। मسبب अल-असबाब की तरफ।
जब दुनियावी الوسीले और कारण थे तो उन्हीं पर तकीया होता था। इंसान की फितरत ही ऐसी है कि वह थक-हार के और हर जगह से मायूस और नाकाम होने के बाद कहता है...
"या अल्लाह अब तो बस तू ही है"
वह पहले दिन से ही क्यों अपने परवरदिगार पर भरोसा नहीं करता? जिसके बुज़ुर्ग... जो जूते के तस्मे की जरूरत भी शाहंशाह आलम से मांगते थे। वह दर-दर का भिखारी बन जाता है। और पूरी रियाया... पूरी सल्तनत से ठुकराए जाने के बाद उसे ख्याल आता है कि इस सल्तनत का एक बादशाह भी है अब उसके दरबार में जाना चाहिए। और वह ऐसा सख़ी है ऐसा रहमाँ है कि नाराज़ ही नहीं होता कि तू मेरे पास पहले क्यों नहीं आया?
उसने आसपास नज़र दौड़ाई- रेत पर कुछ टूटे बर्तनों के टुकड़े पड़े थे- मिट्टी के टूटे बर्तनों के टुकड़े- शायद यहाँ भी कभी कोई आबाद था- कोई बस्ती थी जिसमें इंसान अपने दौर की तहذیب और संस्कृति समेत जीते थे- और जाने वक्त के कौन से पहर वह बेनिशान हो गए थे-? उनकी बस्ती शायद किसी आफत या तूफान का शिकार हो गई होगी या वे इस वीराने को छोड़कर कहीं और जाकर बस गए थे-
उसने एक तेज धार वाली नोकदार सी टूटती चाकरी उठाई और उसे कैक्टस की एक शाखा के बीच में उतार दिया- वह बीच से कट गई थी- उसके अंदर का गूदा उसकी प्यास बुझाने में काम आया था- उसने उस पौधे की कई शाखाएँ चीर डाली थीं-
अब उसके पास करने को कुछ नहीं था- इसलिए वह उसी पौधे के पास बैठ गया-
रेत पर एक सक्रिय साया सा दिखाई दिया- उसने ऊपर की तरफ नज़र की- बड़े बड़े काले पंखों वाले गिद्ध उसके सिर पर मंडरा रहे थे-
कुछ देर चक्कर काटने के बाद वह उससे कुछ दूर आकर बैठ गए- उनकी गर्दनें गुलाबी और नाजुक थीं- पंजे सख्त थे और उनके पंजों से कुछ ऊपर सफेद पंखों का हल्का सा आभा बना था- उनके पंख बड़े-बड़े और काले रंग के थे जो उनके आस-पास में झलके हुए थे- और उखड़े उखड़े से थे- आँखें मुरझाई हुई और किसी मुर्दा के इंतजार में थीं- वे अपनी तेज़ चोंचें खोलकर हांफ रहे थे- और उसे तक रहे थे- वे शायद उसके मरने का इंतजार कर रहे थे- ताकि उसके मरे हुए बदन से अपनी भूख मिटा सकें- शायद यहां उन्हें कोई और मरा हुआ या जिंदा नहीं मिला था इसलिए वे अब उसकी तरफ आश भरी नजरों से देख रहे थे- वह झुरझुरी लेकर उनसे और दूर हो गया-
वह حافظ था- उसने कुरान को फिर से दोहराने का इरादा किया- अलहमदु लिल्लाह से वाल नास तक-
वह हल्की आवाज में तلاوة कर रहा था- और रेत का हर कण हमे तन गोश हो गया था- जाने क़यामत की सुबह तक फिर ऐसा कलाम सुनने को मिले या न मिले? इसलिए यह पूरी सल्तनत मस्त हो गई थी- सूरज सवा नज़े पर था और झुक कर नीचे बैठे इस गुलाम को देख रहा था- जो उसके रब की सना कर रहा था-
पूरा दिन जलता सूरज---सफेद सेरमी सा आसमान...
आस भरी आँखों वाले गिद्ध--कैक्टस का पौधा और उस पर लगे कांटे- --दूर दूर उगी झाड़ियाँ और उनमें छिपे छोटे छोटे कीड़े मकोड़े--उन्हें सुनने और देखने में मशगूल रहे थे--
शाम हुई तो सूरज अपनी रोशनी समेटने पर मजबूर था और गिद्ध बुझी आँखों के साथ मुड़ गए थे- कीड़े मकोड़े अपनी खुद की बिलों में घुस गए थे- उजाड़ झाड़ियाँ... और कैक्टस का पौधा... और गहरा सेरमी आसमान और अब्दुल्लाह फिर वही थे- उसने पूरा कुरान दोहराया था- और अब डुबते रात उसे शांत कर रही थी।
जब उसकी आँख खुली...
जब उसकी आँख खुली, तो उसे किसी नरम बिस्तर पर होने का एहसास हुआ। उसके सामने पत्थरों से बनी एक दीवार थी। लेकिन वह तो रेत पर सोया था, तो यह सब क्या था? वह नरम और गर्म बिस्तर पर लेटा हुआ था। किसी मधुर आवाज़ में सूरह अर-रहमान की तिलावत हो रही थी—
"فَبِأَيِّ آلَاءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ"
"तो तुम अपने रब की कौन-कौन सी नेमतों को झुटलाओगे?"
जब वह पूरी तरह से होश में आया, तो उठकर बैठ गया। उसके सिरहाने वही बाबा जी तिलावत कर रहे थे, जिनके पास उसे अली लेकर गया था। वही बाबा जी, जो पहाड़ की चोटी पर कुटिया बनाए रहते थे। यह सुबह-सवेरे का समय था। पूरी फिज़ा में एक अजीब सा जादू था।
वह हैरानी से उन्हें देख रहा था— वह यहाँ कब और कैसे पहुँचा? उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था। लेकिन बाबा जी उससे पूरी तरह बेखबर, अपने मौला से गुफ्तगू में मगन थे।
"उठ गया तू?"
तिलावत पूरी करके उन्होंने उसे प्यार भरी मुस्कान से देखा।
"जी… मैं यहाँ… कैसे?"
उसके लहजे में गहरी हैरानी थी।
"यह ले, पानी पी ले। बहुत प्यासा है तू... पर अब सैराब भी हो गया है।"
बाबा जी ने मिट्टी के घड़े से पानी निकालकर एक प्याले में उसे दिया। मिट्टी के प्याले में पानी बहुत मीठा लग रहा था, और उसकी ठंडक उसके दिल को सुकून दे रही थी।
"बाबा जी… मैं यहाँ कैसे?"
"क्या मैंने कोई सपना देखा था?"
"हाँ, यही समझ ले बेटे।"
"क्या मतलब?"
"मतलब यह कि तू इस सब को याद रख। इसे भूलना मत। जो वक्त तूने वहाँ गुज़ारा, वह सोने के समान है। लेकिन किसी को अपने इस राज़ से आगाह मत करना।"
"राज़?"
**"हाँ… यह कायनात के रहस्य हैं। यह वही पर खोलता है, जिसे चाहता है। हर किसी की अक़्ल इन्हें समझ नहीं सकती। तूने भी कायनात के छुपे हुए राज़ों में से एक राज़ पा लिया है— 'वक्त का राज़।'
"इस कायनात में हर जगह वक्त एक जैसा नहीं चलता। कहीं यह ठहर जाता है, और कहीं पलक झपकते ही गुज़र जाता है। यह हमारे-तुम्हारे लिए ही वक्त का चक्कर है— दिन, महीने, साल, घड़ियाँ, और उनकी चलती सुइयाँ।"
"क्योंकि हमारी अक़्ल इन्हें मानती है। जिस चीज़ को अक़्ल न माने, हम उसके लिए अंधे होते हैं। वह हमें दिखती नहीं।"
वह उलझन में उन्हें देख रहा था।
"तू यहाँ आ गया है, जैसे वहाँ से लाया गया था। तुझे फरेब ने एक दूसरी दुनिया में गुम कर दिया था, और तवक्कुल (भरोसे) ने फिर से तुझे यहाँ पहुँचा दिया है। यह तवक्कुल मत छोड़ना। यही तुझे राहे-हक़ तक ले जाएगा। तेरा दिल कभी डगमगाएगा, शंकाएँ आएँगी, लेकिन तू इस राह पर कायम रहना।"
"बहुत सफर किया है तूने, थक गया होगा।"
बाबा जी लगातार बोल रहे थे, और वह ध्यान से सुनता जा रहा था।
"यह सफर भी बहुत ज़रूरी था। इसके बिना आदमी, इंसान नहीं बनता।"
"कुरआन कहता है—"
"قُلْ سِيرُوا فِي الْأَرْضِ فَانْظُرُوا كَيْفَ كَانَ عَاقِبَةُ الْمُكَذِّبِينَ"
"कहो, ज़मीन की सैर करो और देखो, झुटलाने वालों का अंजाम कैसा हुआ।"
"यह सफर बहुत कुछ सिखाता है। दोनों तरह का सफर— उर्दू वाला भी और अंग्रेजी वाला भी।"
"कभी किसी भिखारी को गिड़गिड़ाते देखा है?"
वह रुक गए।
उसने सिर हिलाकर हामी भरी।
"उस पर गौर करना। जब तू पहली बार भिखारी को देखेगा, तो तेरा उसे कुछ देने का कोई इरादा नहीं होगा। अगर वह अपाहिज न हो, तंदुरुस्त हो, तो लोग भिक्षा देने से हाथ रोक लेते हैं।"
"लेकिन अगर उसे माँगने का हुनर आता हो, तो वह तुझसे कुछ न कुछ ले ही लेता है। वह तुझसे गिड़गिड़ाता है, अपनी मजबूरियाँ बताता है, झूठी-सच्ची कहानियाँ सुनाता है, मासूम और लाचार चेहरा बनाता है, और फिर एक कठोर से कठोर दिल वाला इंसान भी पिघल जाता है।"
"यही फलसफा है… रब से माँगने का।"
"भिखारी बन जा। गिड़गिड़ा। अपनी मजबूरियाँ बयान कर। उससे ऐसे माँग कि उसकी रहमत जोश में आ जाए। वह बहुत रहीम है। सत्तर माँओं से भी ज्यादा चाहने वाला। उसका खज़ाना भरा हुआ है।"
"और याद रख, अल्लाह किसी को उसकी औक़ात देखकर या उसके ज़ाहिर को देखकर नहीं नवाजता। अगर ऐसा होता, तो दुनिया के सारे मुश्रिक भूखे मर रहे होते।"
"वह सिर्फ इंसान का ज़र्फ (धैर्य) देखता है। उसकी मज़बूती और उसका भरोसा— कि वह कब तक और कितना भरोसा करता है?"
"क्या तू माँगते-माँगते थक तो नहीं जाएगा?"
"क्या तू ज़रूरतें माँगता है, या ख्वाहिशें?"
"सिर्फ अपने लिए माँगता है, या मख़लूक के लिए भी?"
"और उसकी तलब कितनी सच्ची है? वह दुनिया माँगता है, या आखिरत?"
"जो साबित क़दम रहते हैं, वे पा लेते हैं। फिर एक वक्त आता है जब उनकी हर दुआ क़बूल होती है।"
"मेरी बातें याद रखना, ऐ अल्लाह के बंदे!"
"यह बरतन पड़े हैं, खा ले इनमें से जो तेरा नसीब है।"
अब्दुल्लाह को अब बाबा जी की बातें धीरे-धीरे समझ में आने लगी थीं। उसने बरतन खोला और खाना खाने लगा— रात की बची हुई रोटी, दही और खजूर। खाना सादा था, लेकिन बहुत लज़ीज़।
इतने में फज्र की अज़ान हुई। उसने बाबा जी के पीछे नमाज़ पढ़ी और उसके बाद सूरह यासीन की तिलावत की।
फिर अचानक उस पर नींद तारी होने लगी।
"सो जा… आराम से… जब तेरा दिल भर जाए, तो घर चला जाना।"
बाबा जी ने उसे नींद में जाते देखा और कहा।
"पर बाबा जी, मैं घर जाकर क्या कहूँगा? कोई मेरा यक़ीन नहीं करेगा!"
"कहने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी, बेटा। कोई तुझसे पूछेगा ही नहीं।"
वह हैरान हुआ, लेकिन आगे सवाल करना मुनासिब न समझा।
जब वह पहाड़ से नीचे उतरा, तो उसे अहसास हुआ कि वह एक लंबी जंग के बाद अपने घर लौट रहा है।
बस स्टॉप पर खड़ा एक लड़का अपने फोन में व्यस्त था। अब्दुल्लाह ने उसकी स्क्रीन पर नज़र डाली और चौंक गया।
"भाई साहब, आज कौन सी तारीख़ है?"
"20 फरवरी।"
अब्दुल्लाह का दिमाग़ चकरा गया!
"क्या सच में?"
"हाँ भाई!"
उसे साफ़ याद था कि जिस रात वह इस मुसीबत में फँसा था, वह 19 फरवरी की रात थी— और अब 20 फरवरी थी!
क्या यह मुमकिन था?
क्या वह बस चार घंटे उस अनजानी दुनिया में रहा था? लेकिन वहाँ तो उसने कई दिन और रातें गुज़ारी थीं!
वक्त का यह खेल… इंसानी समझ से परे था!
"إِنَّ اللَّهَ عَلَىٰ كُلِّ شَيْءٍ قَدِيرٌ"
"बेशक, अल्लाह हर चीज़ पर क़ादिर है।"