INS WA JAAN PART 17



क्या तुम परेशान हो...? फंस गए हो?
रास्ता भी समझ में नहीं आ रहा...
वह हल्के से मुस्कराए।
अब्दुल्लाह चुपचाप उन्हें देख रहा था।
तुम्हें पता है तुम पिछली मुसीबत से यहां क्या चीज़ निकालकर लाए हो?
उन्होंने रेत पर अपनी उंगलियां घुमाते हुए अचानक सिर उठाकर उससे पूछा।
उसका सिर अनायास न में हिल गया।
तवक्कुल...
बस एक चीज़ है तवक्कुल...जिसने तुम्हें बचाया है...अगर तुमने यह तवक्कुल न किया होता तो आज तुम्हारी हड्डियों का सुरमा भी नहीं मिलता।
वह बड़ी हैरानी से उनकी बातें सुन रहा था।
यह देख... उन्होंने रेत पर गवाह की उंगली से तीन समानांतर लकीरें खींचीं। वह गौर से उन लकीरों को देखने लगा।
जैसे मुझे यकीन था कि मैं रेत पर उंगली घुमाऊँगा और यहाँ लकीरें पड़ जाएंगी। मेरे दिमाग में कोई शक नहीं था। क्या ऐसा हो सकता है कि मैं रेत पर उंगली घुमाऊं और कोई निशान ही न पड़े?
वह रुककर उसे देखने लगे। उनका सफेद मलमल का कुर्ता गर्म हवा से फड़फड़ा रहा था, और सफेद बालों से ढके उनके भृकुटियाँ आँखों पर झुकी थीं। उन आँखों में रेत की सी चमक थी। जो सामने वाले को अपने काबू में करने की ताकत रखती थीं।
नहीं... अब्दुल्लाह सिर्फ इतना ही कह पाया।
तो बस... यह है तवक्कुल... भरोसा... यकीन... सिर्फ एक ज़ात पर...
उन्होंने रेत से हाथ उठाकर आसमान की ओर इशारा किया।
ऐसा तवक्कुल लाओ... ऐसा यकीन लाओ... जिसमें कोई शक न हो, इतना सा भी नहीं... उन्होंने रेत की चुटकी भरी और हवा में उछाल दी।
तू पार लग जाएगा...
तुझे एक औरत का इश्क... मخلوق का इश्क... बेचैन करके यहाँ ले आया है... अब फिर इश्क कर... बार-बार कर लेकिन खुदा से... यही तेरी मुअराज है। यह जो इश्क मज़ाजी है न, यह इश्क हकीकी तक पहुँचने का रास्ता है और कुछ नहीं।
तू भटक मत जाना, यह राह बड़ी हरी-भरी है। धोखा देती है। सिराब है। इस रेत की तरह।
जा अल्लाह तेरा निगहबान हो।
वह उठे और रेत पर आसानी से चलते हुए विपरीत दिशा में जाने लगे।
"मेरी निया पार लगा दे... मेरी निया पार लगा दे..."
रेतले रेगिस्तान के सन्नाटे में उस अजनबी बुज़ुर्ग की सुरिली आवाज़ें गूंज रही थीं...
वह बहुत दूर जा चुके थे, अब्दुल्लाह ने आँखें मसलकर उनका आक्स ढूंढने की कोशिश की... लेकिन अब सब कुछ धुंधला हो रहा था...
यह सपना था मगर बिलकुल हक़ीकत जैसा... उसे बुज़ुर्ग की सफेद दाढ़ी और मलमल का कुर्ता बिल्कुल साफ याद था...
दोपहर ढल रही थी। खजूर के पेड़ के नीचे पड़ी सूखी हो चुकी खजूरें खाकर वह किसी साए की तलाश में यहाँ आ गया था... यह रेत का बड़ा सा टीला था जो सूरज के सामने उसके लिए आड़ बन गया था और वह उसकी छांव में बहुत देर बेमकसद बैठा रेत के इस समंदर को ताकता रहा था। उसकी चमकदार आँखें उसे चुभ रही थीं... उसकी आँखें दुखने लगीं तो उसने उन्हें बंद कर लिया। और इसी दौरान... नींद के कुछ पल में उसने यह सपना देखा था...
सारे शब्द शब्दशः उसे याद थे। सब स्पष्ट था इसमें कोई संदेह नहीं था...
वह रेत के टीले की ओट से बाहर आया। वही चांदी सी चमकती सत्ता उसके सामने थी... हर तरफ पानी की मौजूदगी का एहसास होता था... पर वह जानता था ये सिराब है... वहां पानी नहीं था... उसका गला सूख रहा था।
हाथ खाली थे... जेबें खाली थीं। उसका सारा सामान खो गया था और वह एक लुटे-पिटे मुसाफिर की तरह इस बेइंतिहा रेगिस्तान में खड़ा था।
उसने अपने बिखरे बालों से रेत झाड़ी जो नीचे गिरकर फिर से उसके कदमों के नीचे रेत के रूप में बन गई थी।
उसे याद आया कि उसने इतने दिनों से नमाज़ भी नहीं पढ़ी थी। यहाँ वक्त का कोई हिसाब नहीं था। वह घड़ी से वक्त देखने वाला, साए से वक्त कैसे माप सकता था? उसने अपनी कलाई को देखा, वहाँ बंधी घड़ी अब नहीं थी।
यहाँ कोई अज़ान की आवाज़ नहीं थी। मस्जिदों से पाँच वक्त के बुलावे नहीं थे। कोई बताने वाला नहीं था कि तुम्हारा रब तुम्हें सफलता की ओर बुला रहा है दौड़ते हुए आओ।
और जो ये बुलावे सुनते थे, उनमें से कुछ को छोड़कर बाकी उठते नहीं थे। उनके पैर थे, मगर वह सफलता की ओर दौड़ने की ताकत नहीं रखते थे। वह बुलावा सुनकर भी बहरे थे। उनकी ज़ुबान खुदा की तारीफ करने से थक जाती थी। उनके पास वक्त नहीं था।
पर यहाँ तो कोई नहीं था जो उसे बुलाता...
उसने सिर उठाकर आसमान को देखा... वह बिल्कुल सपाट था... बेभाव और तड़कता हुआ।
यहाँ वह था जिसके बुलावे का उसकी नाइब, मुनादी करने वाले... उसकी मخلوق... अपने जैसी दूसरी मخلوق को सुनाती थी।
यहाँ कोई मुनादी करने वाला नहीं था मगर वह खुद था जिसके पैगाम की मुनादी पूरी दुनिया में गूंजती है।
उसने साए को देखा, वह ढल रहा था। सूरज की जलन मंद सी पड़ रही थी। शायद यह عصر का वक्त था। जाने कौन सा दिन था? कौन सी तारीख थी?
उसने रेत से तिमाम किया... और वहीं टीले की छांव में नीयत बांध कर खड़ा हो गया।
सोचने को कुछ नहीं था... दिमाग बिल्कुल खाली था जैसे बे-हिस हो गया हो।
उसने العصر की नमाज़ की नीयत की।
سبحانک اللہم وبحمدک
ए अल्लाह तू पाक है... और तमाम तारीफें तेरे लिए हैं।


वह इस कलाम के मानी जानता था, पर आज से पहले कभी नमाज़ में अदा करते हुए उसे नहीं सोचा था। उसकी दुनिया में वक्त कम था। पर इस अजनबी दुनिया में वक्त का कोई हिसाब नहीं था। वह भरपूर था... बे-जा था...
الحمد للہ رب العالمین
तमाम तारीफें अल्लाह के लिए हैं जो तमाम जहानों का रब है।
अब वह सुरह फातिहा पढ़ रहा था। पूरे ध्यान से। हर शब्द को महसूस करते हुए।
इस जहान में पानी नहीं था। वह प्यासा था।
पर उसके अंदर भी एक जहान था। और वह भी प्यासा था। बरसों से उस वक्त का जो... सारा का सारा एक हस्ती की तारीफ में बसर हो। वह लम्हात जब उसे... उसके कलाम से महसूस किया जा सके... जब वह कल्पना में मुजस्सम हो।
उसके अंदर का जहान प्यासा था, मगर उसमें शरा थी... जो उसकी आँखों से बूँदों के रूप में बहने लगी थी।
इस रेगिस्तान में उसकी तिलावत गूंज रही थी वह बहुत ठहर ठहर कर पढ़ रहा था।
ورتل القرآن ترتیلاo ....القرآن
और क़ुरआन को ठहर ठहर कर पढ़ो।
उसके आँसू रेत पर गिर रहे थे। और उसकी सिसकियाँ रेत के हर कण में समाहित हो रही थीं। वीरान रेगिस्तान आबाद हो गया था। कोई खालिक काइनात का नाम लेने वाला उसे कलाम इलाही से आबाद कर रहा था।
रेगिस्तान और वीराने इंसानों से नहीं, अपने रब के नाम से आबाद होते हैं। भरे-पूरे शहर वीरान कब्रिस्तान हैं अगर उनमें कोई अब्द नहीं... कोई उसका नाम लेने वाला नहीं...
मालिक अपने गुलाम की जुबान से अपनी तारीफ सुन रहा था। और इस बेइंतिहा रेगिस्तान का हर कण उस चाशनी को अपने अंदर جذب कर रहा था।


उसकी ज़िन्दगी की डोर लगता था तबरेज़ खान के साथ बंध गई है- वह फोन न करता तो वह घंटों बैठकर उसके फोन का इंतजार करती रहती थी- वह उससे बात किए बिना सारा दिन बोलाई बोलाई फिरती थी- जब उसका दिल चाहता तो वह मिलने आ जाता और हसरत भरी मोहब्बत जताता- और शजा इब्राहीम किसी कठपुतली की तरह उसके हाथों में नाच रही थी- वह रस्सी खींचता तो नृत्य रुक जाता- छोड़ देता तो नृत्य शुरू हो जाता-
कुछ ही दिनों में उसकी सेहत खराब होना शुरू हो गई थी- उसे अपने घर वाले भी बुरे लगने लगे थे- उनके साथ बैठने बात करने और हंसी मजाक करने को दिल नहीं करता था- खाने पीने की पहली सी वह शौकीन नहीं रही थी- घर वालों को यही पता था कि उसके एग्जाम्स पास हैं इसलिए पढ़ाई कर कर के यह हाल हो गया है-
सत्रह बरस की उम्र में ही वह अपनी शोख मिजाजी खो बैठी थी- आज़ाद लड़कियों की सी बेफिक्री उसकी ज़िन्दगी में नापید होती जा रही थी- बस ज़िन्दगी का एक ही नाम रह गया था-- तबरेज़ खान-
घर में मेहमान जमा थे- दादा जी और उसके चचा यूसुफ फैमिली समेत आए हुए थे- सब खुश गपियों में व्यस्त थे- हलचल हो रही थी।
पर उसे कोई दिलचस्पी नहीं थी- वह अपने कमरे में बंद थी- जब सफ़ोरा उसे बुलाने आई-
तुम यहाँ अकेली क्यों बैठी हो? सब तुम्हारा ही पूछ रहे हैं-
सफ़ोरा बे तकلفी से उसके बेड पर बैठ गई- उसके चेहरे पर बच्चों जैसी मासूमियत थी- उसने हिजाब के स्टाइल में दुपट्टा ओढ़ रखा था- उसके चेहरे पर तसल्ली और आसूदी थी- किसी झूठी मोहब्बत का दर्द नहीं था-
वह बस --मैं सो रही थी-
उसने बहाना बनाया-
अरे वाह-- यह फोन कब लेकर दिया चाचू ने-?
अपनी तरफ से तो उसने फोन छुपाकर रखा हुआ था मगर उसकी कज़िन को वह नजर आ गया था-
यह---- यह तो--- मेरी फ्रेंड का है- उससे कोई बात नहीं बन रही थी- दिल जोर-जोर से धड़क रहा था-
इतनी अच्छी फ्रेंड है तुम्हारी इतना महंगा फोन तुम्हें दे दिया-?
वह सादगी से कह रही थी।



वह अब उसकी स्क्रीन पर अंगुलियां फेर रही थी- शज़ा के हाथ कांप रहे थे- उसने फोन उसके हाथ से ले लिया- कहीं वह मैसेज न पढ़ ले।

"नहीं--- यह तो मजाक में ले आई थी, मैं वह---- रख कर भूल गई थी, मैंने उठा लिया और उसे बताया नहीं। कल वापस कर दूंगी।" उसने जबरदस्ती मुस्कराते हुए फोन ऑफ करके साइड पर रख दिया।

"अच्छा, चलो न बाहर आओ- इतने दिनों बाद मिल रहे हैं और तुम मुझे लिफ्ट ही नहीं दे रही।"

"नहीं, तुम यहीं बैठो -- यहाँ बैठकर ही बातें करते हैं।"

"अरे शज़ा-- तुम इतनी बोर कब से हो गई- बाहर चलो न- कोई शरारत नहीं सूझ रही तुम्हें आज-?" वह मुस्कराई तो उसकी मुस्कान में कितनी सच्चाई और सादगी थी।

"मेरा दिल नहीं कर रहा।"

"चले उठो-- बस अब मैं कुछ नहीं सुनूंगी- यहाँ कोई और लड़की होती तो मैं तुम्हारी मिन्नतें न कर रही होती।"

सफोरा उठकर खड़ी हो गई और उसका हाथ पकड़कर खींचा--- "छोड़ो न--" शज़ा प्रतिरोध की कोशिश कर रही थी।

पर उसने उसे बेड से नीचे खींच लिया-- इसी खींचतान में शज़ा का हाथ छूटा और उसका सिर साइड टेबल से जा टकराया।

"ओह, सॉरी," सफोरा परेशान हो गई, उसने जल्दी से उसे सीधा किया लेकिन वह बेहोश हो गई थी।

सफोरा के तो हाथ-पैर फूल गए- वह उसे वहीं छोड़कर बाहर भागी।

"दादा जी--- वह शज़ा---"

"क्या हुआ शज़ा को?"

सभी लाउंज में बैठे थे जब वह भागती हुई आई।

"वह... उसे... चोट लग गई है।"

"परेशान क्यों हो रही हो? डॉक्टर तो घर में ही मौजूद है।"

अब अब्दुल्ला के बाद हातम भी डॉक्टर बन चुका था।

"चलो भई, برخوردार," दादा जी ने उसे संबोधित किया।

"बल्कि छोटी बहू, तुम भी आ जाओ।"

डॉक्टर साल्विया भी वहीं मौजूद थी।

वे सभी उसके कमरे की ओर बढ़े- शज़ा बेड पर बेहोश पड़ी थी- साल्विया ने आगे बढ़कर उसकी नब्ज चेक की, वह धीमी गति से चल रही थी- उसके माथे पर मामूली सा नीला पड़ गया था।

"आंतरिक चोट है, बशर्ते कोई घाव नहीं है।"

"हातम, तुम इंजेक्शन ले आओ," उसने एक पेन किलर इंजेक्शन का नाम लिया।

"परेशानी की कोई बात नहीं है, अभी ठीक हो जाएगी।" दादा जी, आप परेशान न हों- साल्विया ने उन्हें तसल्ली दी।

"ठीक है बहू, तुम अपनी डॉक्टरी आज़माओ, हम बेफिक्र हो जाते हैं," दादा जी मुस्कराए।

"शमां, उसे कंबल ठीक से ओढ़ाओ," शमां कंबल ओढ़ाते हुए आ गई। "मैं इसके लिए गर्म दूध लाती हूँ।" सभी बाहर चले गए थे।

साल्विया जानबूझकर वहीं रुक गई थी- शज़ा की हालत उसे कुछ और ही समझा रही थी- वह गहरी विचारशील निगाहों से उसे देख रही थी। उसने दो-तीन बार उसका चेहरा थपथपाया तो उसने धीरे-धीरे आँखें खोल दीं।

साल्विया ने उससे डॉक्टर के तौर पर कुछ सवाल किए तो उसका शक यकीन में बदलने लगा।

लेकिन वह बिना किसी सबूत के कुछ नहीं कह सकती थी- वह इस नाबालिग लड़की को हैरानी से देख रही थी, जिसके घरवालों को उसकी हरकतों का आभास भी नहीं था। वह अफसोस से उसे देखती रही, जो अब आँखें बंद किए किसी सोच में डूबी थी।

वह उसे इंजेक्शन लगाकर वहां से आ गई थी- लेकिन उसका दिमाग वहीं अटका हुआ था और उसके दिल को निजी तौर पर तकलीफ हो रही थी। शायद मेरा वहम हो- उसने सोचा।

"मम्मी-- शज़ा कमजोर होती जा रही है, उसकी सेहत पहले जैसी नहीं रही और वह बता रही थी कि उसे थकावट भी बहुत जल्दी होती है। अगर आप बुरा न मानें तो मैं उसे क्लिनिक ले जाऊं, एक-दो टेस्ट होंगे तो पता चल जाएगा क्या प्रॉब्लम है और उसके हिसाब से डाइट प्लान भी बना दूँगी," उसने शमां से बात की।

"हां-- हां-- इसमें भी कोई पूछने वाली बात है, घर के डॉक्टर का कोई तो फायदा हो," शमां ने कहा। "मैं भी नोट कर रही थी, पर उसके एग्ज़ाम्स हो रहे हैं न तो टेंशन बहुत लेती है। मैंने सोचा ठीक हो जाएगी।"

साल्विया ठंडी सांस भरकर रह गई- वह कैसी माँ थी? जो बेटी में इतनी बड़ी तब्दीली को महसूस नहीं कर पाई थी।

शज़ा चेक अप करवाने के लिए राज़ी नहीं थी- साल्विया उसे ज़बरदस्ती क्लिनिक ले गई थी- और अब उसकी हालत ऐसी थी कि काटो तो बदन में लहू नहीं। टेस्ट रिपोर्ट्स ने उसका पर्दा फाश कर दिया था- साल्विया का सिर चकरा गया- मास्टर जी की इज़्ज़त को धक्का लग गया था। वह तो यह सोचकर ही कांप गई कि जब सबको पता चलेगा तो क्या हंगामा मचेगा।

"कौन है वह--?"

साल्विया ने सख्ती से उससे पूछा।

"कौन--?" शज़ा ने सिर झुकाकर उठाया।

"तुम अच्छी तरह जानती हो मैं तुमसे क्या पूछ रही हूँ?"

"मुझे आपकी बात समझ नहीं आ रही- घर चलें।"

"शज़ा देखो- इससे पहले कि पूरे परिवार को यह बात पता चले तुम शराफत से मुझे सच बता दो," उसने उसे धमकाया।

"कौन सी बात-?"

वह अभी भी अनजान बन रही थी लेकिन उसका चेहरा धुंआ-धुंआ हो रहा था।

"यह देखो अपनी रिपोर्ट्स," साल्विया ने उसके हाथ में रिपोर्ट्स थमाईं।

उसमें देखने की ताकत नहीं थी क्योंकि वह जानती थी कि उनमें क्या लिखा है।

उसके आंसू टप-टप गिरने लगे।

"देखो अगर कोई हादसा वगैरह था तो बता दो, इसमें तुम्हारा कसूर नहीं होगा," साल्विया अब नरमी से बोली।

उसने नफी में सिर हिलाया।

"आप किसी को मत बताइएगा, मैं उससे बात करती हूँ," उसने तबरेज़ को कॉल मिलाई।

दूसरी ही बेल पर उसने कॉल उठा ली- "हैलो शज़ा डार्लिंग--" उसकी चहकती आवाज़ उभरी।

साल्विया ने उसके हाथ से फोन ले लिया- "इधर दो, मुझे बात करने दो।"

"क्या मिला तुम्हें एक लड़की की जिंदगी तबाह करके?" "तुम्हें उससे निकाह करना होगा।"

उसका मक़रूह हंसी गूंजी-

"निकाह--- हाउ फनी!!!"

"इस बदकार लड़की से-?" स्पीकर से गूंजती आवाज़ ने शज़ा के मुंह पर तमाचा मारा।

"तुम घटिया नीच आदमी-..." साल्विया का बस नहीं चल रहा था, उसे गोली मार दे।

"ओह--- हाउ स्वीट---" उसने फिर हंसी लगाई- "और मुहतरमा शज़ा को क्या خطاب देना पसंद फरमाएंगी आप?"

"मैंने तो नहीं कहा था कि मुझे बॉयफ्रेंड बनाओ और फरमाइशें करो- मुफ्त की मिठाई मिल रही हो तो कौन पागल नहीं खाता?" "मुफ्त की शराब काज़ी को भी हलाल--- यह मुहावरा नहीं पढ़ा आपने-? हाहाहा!"

"मैं तुम्हें कोर्ट में घसीटूंगी, तब तुम्हें अपने जुर्म का इقرار करना पड़ेगा।" वह गुस्से से लाल हो रही थी।

"ओह--- मैं डर गया--- हाहाहा!"

"मैं भी फिर वह सारी तस्वीरें और कॉल रिकार्ड्स पेश करूंगा जो आपकी शरीफ ज़ादी की शराफत का मुँह बोलता प्रमाण हैं।"

साल्विया को चुप लग गई- रो-रो कर शज़ा की हालत बदतर हो रही थी।

"वह जो तुम्हारे गुनाह का बोझ उठाए फिर रही है उसका क्या कसूर है?" उसने हार के साथ कहा।

"वह उसका मामला है अब, वह जाने और उसके घरवाले।" उसने कहकर फोन बंद कर दिया।

साल्विया ने गुस्से और करुणा की मिली जुली भावना से उसे देखा, जो अपना सब कुछ बर्बाद कर बैठी थी।

"गुनाह के खेल में बोझ हमेशा औरत ही उठाती है-- दाग उसके माथे पर ही सजाया जाता है। इज़्ज़त उसे ही ज्यादा अज़ीज़ होती है- और फिर पता नहीं क्यों--- और कैसे वह उस इज़्ज़त पर समझौता कर लेती है-?" "मामूली से कीड़े-मकोड़े से डरने वाली औरत, आदमी से क्यों नहीं डरती?"

"और बेमोल हो जाती है- किसी और के अंजाम से कभी عبرत नहीं पकड़ती- जब तक खुद जलती आग में कूदकर झुलस न जाए।"

"इस मामले में औरत बड़ी ढीठ निकलती है- और मर्द बहुत बेरहम-!!!"