INS WA JAAN PART 16
शज़ा---शज़ा---कहाँ हो तुम-?
दादू नीचे बुला रही हैं-
जिब्रईल धम से दरवाजा खोलकर उसके कमरे में आया- वह जो मगन सी मोबाइल पर कुछ देख रही थी- एक दम घबराई- जल्दी से उसने मोबाइल छिपा दिया-
"हाँ क्या कह रहे थे तुम?"
उसने ज़बरदस्ती मुस्कराने की कोशिश की- पकड़े जाने के डर से हाथ धीरे-धीरे कांप रहे थे-
"मैं इतना ऊँचा-ऊँचा ऐलान कर रहा था और तुम्हें मेरी आवाज़ ही नहीं सुनाई दी...
क्या कर रही थी तुम?"
उसने शक भरी नज़र से उसे देखा-
"क--कुछ नहीं--भाई पढ़ रही थी बस--"
"लग तो नहीं रहा..." उसने उसके आस-पास नज़र दौड़ाई, वहां कोई किताब नहीं थी-
उसकी ज़े़रक नज़रें उसके चेहरे पर जमी थीं, जिस पर परेशानी और झूठ साफ दिख रहा था- वह उन्नीस साल की उम्र में काफी समझदार और संजीदा था- बचपन से ही वह अपने बाकी बहन-भाइयों से अलग था- उनकी तरह बेतकलीफ और शरारत नहीं करता था-
"अच्छा चलो---दादू बुला रही हैं--"
"आई.."
वह अपने बाल समेटते हुए बोली- असल में वह उसके बाहर जाने का इंतजार कर रही थी ताकि मोबाइल को किसी सुरक्षित जगह छिपा सके-
"अच्छा जल्दी आओ-!" वह शक भरी नज़रों से उसे देखता हुआ बाहर जाने को मुड़ा-
"अफ--कहाँ छुपाऊँ तुझे--" वह कुछ देर तक उपयुक्त जगह ढूँढती रही और फिर मैट्रेस के नीचे मोबाइल छिपाकर बाहर निकल आई-
"सुनाओ शज़ा जी--कैसी जा रही है फ्रेंडशिप-?"
ज़मल ने उसके पास बैठते हुए मुस्कुराते हुए पूछा-
"बहुत ज़बरदस्त--यह देखो उसने मुझे गिफ्ट भी दिया है--" उसने फख्र से गर्दन उठाकर कहा-
"अरे वाह--यह तो बहुत महँगा फोन लगता है--"
"हां ना--बहुत अच्छा है--"
उसकी आँखें चमकने लगीं-
"कोई डेट शीट--?" उसने शज़ा को आँख मारते हुए पूछा-
"नहीं--नहीं--मेरी दादू को पता चल जाएगा-."
"अफ्फ--कितनी डरपोक हो तुम--"
"ऐसी बेज़ल लड़की मेरी दोस्त नहीं हो सकती- चिड़ीया जितना दिल है तुम्हारा। मुझे तो तुम्हें दोस्त कहते हुए शर्म आती है। इतनी डरपोक हो तुम..। मुझे देख कर भी कुछ नहीं सीखा।"
"अच्छा --अच्छा तुम तो नाराज़ ही हो गई--सॉरी--"
"तुम्हारी दादू ने भी अपने दौर में बहुत कुछ किया होगा स्वीटी--" उसने मानीखेज़ी से मुस्कुराते हुए कहा-
"हैं---?" शज़ा हैरान हुई--
"हां--बड़ी बूढ़ियाँ सिर्फ बच्चों पर पाबंदियाँ लगाती हैं- अपने ज़माने में बड़ी चीज़ होती थीं ये--ऐसी ही दिखने में शरीफ लगती हैं--सब अपने दौर में इंजॉय करते हैं-
तुम्हें क्या पता--मेरी दादी के भी बड़े किस्से हैं-- सिनेमा जाती थीं मूवीज़ देखने और दोस्त के घर का बहाना करके किसी लड़के से मिलने जाती थीं--पर शादी मेरे दादा से हो गई- हाहा-
वह मज़े से उसे अपनी दादी की बातें सुना रही थी-- और शज़ा की आँखें हैरानी से फैल रही थीं-
वह दोनों इस समय कॉलेज के लॉन में पड़े एक बेंच पर बैठी थीं--
बहुत देर ज़मल उसे इस तरह की कहानियाँ सुनाती रही-- जो उसकी दादी से शुरू होकर-- उसकी फूफियों और खालाओं से होती हुई उसकी माँ पर खत्म हो रही थीं-
"हां देखो यह सब लोग छुप-छुप के वही करते हैं जिससे हम बच्चों को मना करते हैं और डराते हैं-- इसमें ऐसी घबराने की कोई बात नहीं- सब के अफेयर होते हैं-- मुझे तो ऐसी लड़कियाँ बिलकुल पसंद नहीं जो दबी-दबी सी ---लिपटी-लिपटी सी और हर वक्त डरी रहती हैं-- किसी लड़के से बात नहीं करतीं-- कहती हैं--- यह तो गुनाह है-- गैर लड़कों से हंसकर बात नहीं करनी चाहिए-- फालतू नहीं बोलना चाहिए-- दोस्ती न लगाओ गिफ्ट्स न लो-- फोन पर बात न करो-- फ्लाँ फ्लाँ--- ऐसी शरीफ ज़ादियाँ हैं तो घर से बाहर ही न निकलें-- फिर भी तो मर्द देखते हैं-- उनके साथ बैठ कर पढ़ती हैं- और मेल टीचर्स से भी पढ़ती हैं--
भला यह भी कोई बात है-- छोटी सोच के लोग--" उसने नख़त से सिर झटका- "यह सब बातें छोटे दिमाग के लोग करते हैं- इंसान को ब्रॉड-माइंडेड होना चाहिए-"
वह और भी बहुत कुछ कह रही थी जो शज़ा के दिमाग में जड़ें पकड़ता जा रहा था-
जब शज़ा वहाँ से क्लास में जाने को उठी तो उसका ब्रेन अच्छे से वॉश हो चुका था- उसे ज़मल की हर बात ठीक लग रही थी-
"हंन्ह--भला यह भी कोई बात है कि लड़कों से बात नहीं करनी चाहिए-- डरपोक लड़कियाँ-- हमेशा डरती रहती हैं--" उसने नाखुशी से सोचा और क्लास में चल दी-
वह घर आई तो लाउंज में टीवी चल रहा था- उस पर कोई इस्लामी चैनल लगा हुआ था- जिसमें कोई मुफ्ती साहब मसाइल बयान कर रहे थे-
दादू वहीं बैठकर सलाद के लिए सब्ज़ियाँ काट रही थीं-
वह भी बैग रखकर सोफे पर आधी लेटी हुई थी-
"क्या बोरिंग चीज़ है--" उसने बेज़ारी से स्क्रीन पर दिख रहे मुफ्ती को देखा-
"दादू रिमोट कहाँ है--?"
"क्यों--? क्या करना है तुझे--?" उन्होंने खीरे छीलते हुए पूछा-
"दादू यह चैनल चेंज करें-- कोई अच्छी सी चीज़ लगाएं ना-"
"चल जा इधर से-- अच्छी सी चीज़ लगाएं-- जुबान ही चलती है बस तेरी अक्ल तो नाम की नहीं है--"
दादू उसे घूरते हुए रिमोट टांग के नीचे दबाकर बैठ गईं। दादू को शायद गुस्सा आ गया था-
शज़ा ने कोई जवाब नहीं दिया-
"आप कहते हैं ये दकियानूसी बातें हैं छोटे लोगों की छोटी सोच है-- नामहरम से दूर रहना-- मर्दों से कतराना और घुलने-मिलने से परहेज़ करना -- ये सब बزدली के काम हैं--"
"क्या सोच कर आप यह बात करते हैं--?"
"कभी अपना इज़्ज़ाम करें- आप लोगों पर नहीं बल्कि सीधे रब करीम पर बात कर रहे हैं, उसे नाऊज़ बिल्लाह दकियानूसी कह रहे हैं--"
"क्या आपने कभी गंभीरता से इस पहलू को सोचा--? इस पर कोई रिसर्च की--?"
"बड़ी-बड़ी उच्च डिग्रियाँ तो ली हैं। मशहूर संस्थाओं से पढ़े हैं-- कांसेप्ट्स क्लियर किए हैं- रिसर्च थिसिस लिखे हैं मेहनत की है- पोज़ीशंस ली हैं- नाम कमाया है--
मगर--- कभी क़ुरान में लिखे हुक्मात पर थोड़ा सा गौर किया है--?"
"नहीं---ना ---ना --आपके पास वक़्त ही नहीं-- कि इस किताब को पढ़ें-- मखमल के घलाफ में लपेट कर ऊँचे ताखे पर सजा दिया-- घर में बरकत के लिए रखा है-- बस पड़ा रहे--"
मुफ्ती साहब निहायत धीमे अंदाज़ में अपनी बात को दलीलों से समझा रहे थे। शब्द वजनदार थे मगर लहजा ऊँचा या हुक्मी नहीं था।
"अरे अल्लाह के बंदों-- तुम अल्लाह के बंदे कहलाते हो बस-- बन के नहीं दिखाते-- लौट कर तो वहीं जाना है-- यह क्यों भूल जाते हो-"
"सूरत अल-अहज़ाब खोलकर पढ़ो.. इसमें उम्माहातुल मुमिनीन को मुक़ातिब करके कहा गया है..
कि किसी नामहरम से लचकदार लहजे में बात मत करो-- मबादा जिस के दिल में रोग हो वह लालच में आ जाए- और अपने घरों में ठहरे रहो।
अगर इतनी पाकीज़ा औरतों को यह हुक्म दिया जा रहा है- जिनका दर्जा सब औरतों से अफ़ज़ल है और जो सबसे ज्यादा हया वाली और ताहिरा हैं। जिनसे किसी फितने का शक नहीं।
तो आम औरतों पर कितनी एहतियात لازم है।?
अरे सोचो... अल्लाह के बंदों यह लम्हा फ़िकरी है। हम तो उनके कदमों की धूल के भी बराबर नहीं जिनको यह हुक्म दिया गया है।"
"यह मैं नहीं कह रहा-- तुम्हारे-- तुम्हारे रब का हुक्म है--"
"अब इसमें क्या हिकमत है- शब्दों पर गौर करो कि जिस के दिल में रोग हो वह लालच में आ जाए-
इस रोग से मुराद-- बदनियत है- शहवत है- औरत की हिर्स है-
कि अगर औरत किसी गैर मर्द से नर्म लहजे में बात करेगी तो उस मर्द के दिल में औरत का कोई रौब नहीं होगा- वह उससे बात करते हुए एहतियात नहीं करेगा- उसे कमजोर समझेगा- और उसे कमजोर किरदार की मालिक समझेगा। और उस औरत का शिकार करना। उसे अपनी बातों के जाल में फंसा लेना। और रिश्ते बढ़ाने की मक्सद से बात को लंबा करना उसके लिए आसान होगा।"
और वह औरत अगर अपने लहजे में सख्ती नहीं रखती, किसी से बातचीत में एहतियात नहीं बरतती, अपने पैरों पर खुद कुल्हाड़ी मारती है, अपने किरदार की दुश्मन खुद होती है, और रिश्ते बढ़ते चले जाते हैं जो तबाही पर खत्म होते हैं। शब्द 'औरत' का तो मतलब ही यही है, छिपी हुई चीज। वह जितना खुद को छिपा कर रखेगी, उतनी ही इज्जतदार होगी। अगर ना-महरीम से रिश्ते रखना इतना घिनौना और नाजायज न होता, तो तुम्हारा रब निकाह को क्यों रिवाज बनाता? औरत को एक वक्त में एक ही मर्द से क्यों जोड़ता? उसे अपनी सिंगार-ओ-ज़ीनत छिपाने का हुक्म क्यों दिया जाता?
अरे अल्लाह के बंदों, तुम्हारे रब ने तो यह भी कहा है कि बच्चा जब सात साल का हो जाए तो उसका बिस्तर अलग कर दो, वह माँ और बहन के साथ न सोए, वह तो बच्चा है, महرم है, फिर भी यह हुक्म दिया गया। जानते हो क्यों? समाज को पाक बनाने के लिए, उसमें अमन और सुकून के लिए, शैतानियत से बचने के लिए। बच्चा है, जब उसका दिमाग बड़ा होगा और वह नई बातें सीखेगा तो सबसे पहले माँ और बहन ही नजर आएंगी। शरीर की बनावट और आकार तो सभी का एक जैसा है, तो खुदा न खास्ता अगर उसके दिल में अपनी मह्रम औरतों के लिए बुराई आ जाए तो क्या होगा?
अब आपको मेरी बातें शायद बकवास लग रही हों, लेकिन आप रोज सुनते हैं और पढ़ते हैं कि बेटे ने बाप को या माँ को मार डाला, बहन को, माँ-बाप ने अपनी औलाद को मार दिया। सगे रिश्ते, खून के रिश्ते, एक दूसरे के खून के प्यासे हो गए हैं। अगर यह हो सकता है तो इस फानी दुनिया में क्या नहीं हो सकता? लेकिन लोगों को यह बात समझ नहीं आती, उन्हें ये सारे हुक्म बेकार लगते हैं। मुफ्ती साहब और भी बहुत कुछ कह रहे थे, लेकिन शज़ा अपना बैग उठाकर धपधप करती वहां से उठकर अपने कमरे में आ गई। उसने कान बंद कर लिए थे, यह सारी बातें उसके लिए बेकार और बेमानी हो चुकी थीं क्योंकि उसके दिल पर मुहर लग चुकी थी।
उसके दिल की अनछुई ज़मीन पर तबरेज ख़ान के नाम की हवाएँ चलने लगी थीं। वह अब उसके लिए सिर्फ एक बॉयफ्रेंड नहीं रहा था, बल्कि वह उसके साथ भविष्य के ख्वाब भी देखने लगी थी। बाकी लड़कियों की तरह उसका भी यही मसला था कि वह मीठी बातों के घेरे में खुद को सुरक्षित समझने लगी थी। जब वह कहता था कि — तुम दुनिया की सबसे खूबसूरत लड़की हो और मैंने आज से पहले कभी किसी लड़की से दोस्ती नहीं की, तुम मेरी जिंदगी में आने वाली पहली लड़की हो, मैं तुम्हें कभी धोखा देने का सोच भी नहीं सकता — तो शज़ा इब्राहीम तुरंत उसकी बातों पर विश्वास कर लेती थी। बिल्कुल वैसे ही जैसे बच्चों को कहा जाता है कि अगर तुम खाना नहीं खाओगे तो भूत आ जाएगा, और वह विश्वास कर लेते हैं।
बिलकुल वैसे ही वह भी उसकी हर बात पर विश्वास कर लेती थी। फोन पर तो लगभग हर रोज़ ही बात होती थी, और अक्सर रात के दूसरे या तीसरे पहर वे छत पर मिलते थे। वह अब तक नहीं जानती थी कि वह उसके घर की छत पर कैसे आता है और उसका घर कहाँ है। न ही कोई और जानता था। शज़ा के घरवालों को इस बात की भनक भी नहीं पड़ी थी। सब कुछ बहुत आसानी से चल रहा था।
आपके द्वारा दिए गए नंबर से इस वक्त जवाब नहीं मिल रहा है।
यह बात वह तीन दिनों में करीब सात सौ बार सुन चुकी थी। तबरेज का फोन तीन दिनों से लगातार बंद था। उसके पास न कोई संपर्क था, न ही कोई पता। ज़मल ने भी इंकार कर दिया था, उसे भी इसके बारे में कुछ नहीं पता था। शज़ा दो दिन से कॉलेज भी नहीं जा रही थी, बस तबियत खराब होने का बहाना करके कमरे में बंद रहती थी। दादू उसके लिए तरह-तरह की चीजें बनाती रहतीं, कभी नजर उतारती और कभी टोटके करती।
"कितना तो समझाती हूँ तुझे, लेकिन तू मेरी बात मानती ही नहीं, बाल मत खोल, नजर लग जाती है।" अब वह फिर उसके सिरहाने बैठ कर कह रही थीं और वह किसी और ही दुनिया में खोई हुई थी। वह उसे सोता समझ कर चली गई थीं, और उसकी तो नींद, भूख, प्यास सब खत्म हो चुकी थी।
ऐसे ही कई दिन गुजर गए थे। अब वह पहले जैसी नटखट और जिंदादिल सी शज़ा नहीं रही थी। हमेशा बुझी-बुझी और चुप-चुप रहती थी। कॉलेज वह जाने लगी थी, लेकिन पढ़ाई में भी उसका ध्यान नहीं था। लेक्चर के दौरान भी वह हेडफोन लगा कर म्यूजिक सुनती रहती। घर आकर या तो टीवी देखती रहती या फिर पढ़ाई के बहाने कमरे में बंद हो कर मोबाइल पर व्यस्त रहती। सब ने उसकी इस बदलाव को नोटिस किया था, लेकिन वजह किसी को नहीं पता थी। उन्होंने शायद अब उसकी आदतों से समझौता कर लिया था, या उन्हें लगा था कि वह गंभीर और जिम्मेदार हो गई है। उसका लापरवाहपन और शरारतें न के बराबर हो गई थीं और वे संतुष्ट थे कि वह अपनी पढ़ाई में ज्यादा रुचि लेने लगी है, लेकिन यह सिर्फ गलतफहमी थी।
यह सर्दी का मौसम था। रात के एक बजे का समय था। शज़ा कुछ देर पहले ही सोई थी। अचानक उसके तकिए के नीचे पड़ा फोन वाइब्रेट करने लगा। वह चौंक कर उठी। यह नंबर सिर्फ तबरेज के पास था। उसने स्क्रीन पर नंबर देखा, वह कोई अजनबी नंबर था। उसने तुरंत कॉल रिसीव कर के कान से लगा लिया।
"कैसी हो शज़ा डियर?"
उसकी आवाज़ उसकी सुनने की क्षमता से टकराई। वह खुद पर काबू नहीं रख पाई, और उसकी सिसकियाँ कमरे के सन्नाटे को तोड़ने लगीं।
"तुम कहाँ थे? मुझे छोड़ क्यों चले गए थे?" वह ज़ार-ज़ार रोते हुए उससे पूछ रही थी।
"रिलैक्स, रोओ तो मत, मुझे तुम्हारे रोने से तकलीफ होती है, अब आ गया हूँ न, मैं बहुत बड़ी मुसीबत में फंस गया था, बहुत मुश्किल से निकला हूँ।"
"तुम अब तो नहीं जाओगे मुझे छोड़ के?" वह अब भी रो रही थी।
"नहीं अब कभी नहीं," उसने पूरी तसल्ली से कहा।
"अच्छा रोना बंद करो, दरवाजा खोलो, मैं बाहर खड़ा हूँ।"
"बाहर—हाआ?" वह नंगे पांव कमरे के दरवाजे की तरफ दौड़ी और झट से उसे खोल दिया। वह सामने खड़ा था, उसने आगे बढ़कर उसे गले लगा लिया।
शज़ा के आंसुओं में तीव्रता आ गई। "अच्छा अंदर तो चलो, यहां कोई आ न जाए।" तबरेज ने उसके कान में सरगोशी की, और उसे साथ ले कर अंदर आकर कमरे का दरवाजा लॉक कर दिया।
रोने से उसका चेहरा लाल हो रहा था और लंबे बाल बिखरे हुए थे।
"तुम इस वक्त चाँद को भी देखाओ तो वह भी छिप जाएगा, तुम रोते हुए और भी खूबसूरत लगती हो।" वह उसकी तारीफ कर रहा था, और वह खुद को दुनिया की सबसे खुशकिस्मत लड़की समझ रही थी।
शैतान आज़ाद था और इन दोनों के बीच में खड़ा था। शज़ा ने खुद को उसकी रहमत और करम पर छोड़ दिया था, उस वक्त उसके लिए कोई चीज़ क़ीमती या अहम नहीं थी। इज्जत जो रब से उसे तोहफे में मिली थी, उसे उसकी भी परवाह नहीं थी। बस तबरेज को देख कर वह सब कुछ भूल गई थी। वह जादूगर था, उसने जाने कौन सा मंत्र उस पर फूंका था कि वह ना तो विरोध कर पाई, और ना ही इनकार कर पाई।
सदियों के इंतजार के बाद, बारिश की एक बूँद जो सीप के अंदर बंद हो कर सच्चा मोती बन गई थी, साफ, शفاف, बेदाग और चमकता हुआ, उसे झूठी मोहब्बत के कीचड़ ने दागदार कर दिया था। रात के इस आखिरी पहर, जो क़बूलियत और नूर का पहर था, इस पहर में, उस सच्चे मोती की कोई कीमत नहीं रही थी। वह अनमोल से हमेशा के लिए बेमूल हो गया था।
फ़जर की अज़ानें हो रही थीं।
"तबरेज तुम जाओ, दादू उठ जाती हैं इस वक्त," शज़ा ने खुमार زدہ आँखों से उसे देखते हुए कहा।
"ओके डियर, मैं चलता हूँ, अपना ख्याल रखना, फिर मिलेंगे," वह मतलब से कहते हुए जाने की तैयारी करने लगे।
वह मुस्कुराते हुए उसे बाहर जाने तक देखती रही।
इस बात से बेपरवाह कि वह मोहब्बत के नाम पर अपनी क़ीमती दौलत गवा चुकी है। आधुनिक दौर की आधुनिक मोहब्बत अपने तलब पूरा कर चुकी थी और हर नुकसान से परे अपने अंजाम तक पहुँच रही थी। वह हर डर से आज़ाद हो कर करवट बदल कर सो गई।