INS WA JAAN PART 15



हां बेटा, देख अगर तू हम सब की भलाई चाहता है, तो जो ये कहते हैं, उसे मान ले... नहीं पढ़ बेटा... ये सब बहुत ताकतवर हैं। तू इनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। दादाजी, आप ये सब कह रहे हैं? आप? जो मुझे हमेशा बहादुरी का पाठ पढ़ाते रहे हैं। मेरा अल्लाह इन सब से बड़ा और ताकतवर है और उसका क़लाम भी... इस वक़्त मैं आपकी बात नहीं मान सकता, उसने गुस्से से कहा। बुज़ुर्गों के जब अल्लाह के रास्ते से रोकने पर उनका हुक्म नहीं मानना चाहिए। हट जाइए मेरे रास्ते से। मेरा वक़्त बर्बाद मत कीजिए। वह कोई और ही अब्दुल्ला लग रहा था। उसका दिमाग अब तेजी से काम कर रहा था और उसकी इंद्रियां पूरी तरह से जागृत हो चुकी थीं। उसने आयतुल कुर्सी पढ़ कर अपने चारों ओर एक घेरे का निर्माण किया, अब कोई भी बुरी आत्मा इस घेरे के अंदर नहीं आ सकती थी। दादाजी ने जोर से चीख मारी और धुआं बन गए... उसे पूरा खेल समझ आ गया, वह दादाजी की छाया थी जो उसे गुमराह करने के लिए सामने आ खड़ी हुई थी। वह तेज़ी से सुरंग में दौड़ता जा रहा था। दोनों ओर जिन्नात ही जिन्नात थे। वह आग की लपटें उसकी तरफ़ फेंक रहे थे, जो उसकी फूँक से बुझती जा रही थीं और वे जिन्नात चीखते हुए धुंआ बन जाते। उसकी फूँक में क़लाम-ए-इलाही की तासीर थी। उसके सामने कौन दम मार सकता था? काफ़ी लंबा रास्ता तय करने के बाद वह एक मैदान में आ गया। वह एक बंजर रेगिस्तान था, जिसमें दूर-दूर झाड़ियाँ और रेत के बड़े-बड़े टीले थे। जाने यह समय का कौन सा पहर था। एक मद्धम सा अंधेरा हर जगह फैला हुआ था। सूखे और सड़े हुए पेड़ों के तने रेत में गड़े हुए थे। उनकी चरमराती शाखाएँ बिलकुल वीरान थीं। न कोई पत्ता, न कोई जीव-जन्तु। हर जगह खामोशी थी। अब्दुल्ला एक झाड़ी के पास ढेर हो गया। उसका वज़ा अभी भी उसकी ज़बान पर था, लेकिन आवाज़ मद्धम हो गई थी। रेत बहुत ठंडी थी, शायद यह रात का अंत था। उसने थक कर आँखें बंद कर लीं। इस वीराने में वह अकेला था। या अल्लाह... यह क्या हो गया मेरे साथ? पता नहीं मैं कहाँ हूँ और वापस कैसे जाऊँगा? वह दिल ही दिल में वीराने के मालिक से मुखातिब था। इस अकेलेपन में उसका एहसास तीव्र हो गया। कोई था जो यहाँ उसके बेहद करीब था, जिसे इतनी तीव्रता से उसने पहले कभी महसूस नहीं किया था। दुनिया के बेहंगम शोर-शराबे ने कभी अकेलेपन का मौका नहीं दिया था। बंद कमरे में भी कभी अकेलापन महसूस नहीं हुआ था। घड़ी की कृत्रिम टिक-टिक और आसपास की भौतिक वस्तुएं अकेलेपन में विघ्न डालती थीं। और दीवार के पार मौजूद घर के लोग अकेलेपन का मतलब स्पष्ट नहीं होने देते थे। कभी अपनी जात के साथ पूरी तरह से अकेलापन महसूस नहीं हुआ था। कभी खुद के साथ मिलकर बैठने का मौका नहीं मिला था। कभी अपने शह-रग से करीब मौजूद किसी जोड़ी की पहचान नहीं हुई थी। कभी पूरे ध्यान, यकीन और जोश से उसे जानने और महसूस करने का मौका नहीं मिला था। अब यह सब था। एक सीमा दृष्टि फैलाए हुए वीराना... झाड़ियों और मुरझाए पेड़ों से सजी ठंडी चुभती रेत। हवा का खामोश माहौल। मद्धम सा अजनबी अंधेरा। जिसमें वह अंधा होता जा रहा था और अपनी आँखें खोलकर सामने फैली दृश्य को देख रहा था। वहाँ वह था... और एक और था... बस वह था... और उसका खालिक़। वह अपनी धड़कनों को गिन सकता था और अपने फेफड़ों में आने-जाने वाली हवा में फर्क कर सकता था। उसे न भूख थी, न प्यास। वह बस किसी बे-जान लाश या मरने के कगार पर खड़े व्यक्ति जैसा वहाँ ढेर था। उसकी बेइख्तियार धड़कनों की तरह उसकी ज़बान भी बेइख्तियार हो गई थी और रुक नहीं रही थी, बस अपने खालिक़ के बोल दोहराए जा रही थी। शायद वह सालों से प्यासा थी। सालों से इंतजार कर रही थी कि वह इस क़लाम के सिवा कुछ और न बोले। वह खुद को एक ही ताल में मगन रखे। बहुत से पल सरक गए थे। अब्दुल्ला को वहाँ किसी ने न देखा था। सिर्फ वही देखता था, जिसका वह 'अब्द' था, गुलाम था। दाएँ से, बाएँ से, ऊपर से... और चारों ओर से वह उसे देखता था। झाड़ी में सरसराहट हुई थी, जो उसकी सुनवाई को जगा नहीं सकी। उस सरसराहट पैदा करने वाले रेंगते हुए अस्तित्व ने माथे पर रखी दो आँखों से... उस अस्तित्व को देखा। भले ही वह बहरा था पर उस अस्तित्व की ज़बान से निकलते शब्दों को सुन सकता था। इस वीरान रेगिस्तान में और कोई ऐसी ज़िंदा चीज़ नहीं थी, जिससे वह अपना ज़हर जमा सकता। उसे जीने के लिए ताजा लाल रक्त चाहिए था। उसका सरसराता हुआ शरीर झाड़ी से बाहर निकला और वह उसे लपेटते हुए फन फैलाए उसके चेहरे के बिल्कुल सामने खड़ा हो गया। वह झूम रहा था। ऐसा सुरूर कभी नशे की धारा में नहीं पाया था, जैसा अब उसकी ज़बान से निकलते शब्दों ने दिया। उस आवाज़ में लहर थी, नशा था। रंग और शराब की सी स्थिति थी। दो अस्तित्व एक-दूसरे के सामने, इसमें समाहित थे, एक बेखबर था और दूसरा ख़बरदार। उस रेगिस्तानी आकाश पर कालेपन के खत्म होने के संकेत दिखाई देने लगे थे। अंधेरे में इतनी सी राहत हुई थी कि अब आँखें फाड़-फाड़ कर नहीं देखनी पड़ रही थीं। हर क्षण सरक रहा था, काइनात का यह हिस्सा अपने रब के नूर से चमकने की तैयारी कर रहा था। बंद आँखों के सामने फैले अंधेरे में कुछ रौशनी की मिलावट हुई थी और धीरे-धीरे बढ़ती जा रही थी। परदे उठ गए थे और सामने का दृश्य अब साफ़ हो रहा था। वह कुंडली मारे, उसके चेहरे के सामने फन फैलाए बैठा था। उसकी काली खाल और लंबा चौड़ा शरीर चमक रहा था। गुलाम के पूरे शरीर में एक ठंडी लहर दौड़ गई। निरंतरता टूटने पर मांस का लोथड़ा भी स्थिर हो गया। उसने सामने की आँखों में आँखें डाल कर देखा। शराब खत्म हो चुकी थी। रँग और नशे की स्थिति फीकी पड़ने लगी। प्याले भरे हुए थे, पर छलकते नहीं थे। गुलाम अपने सामने बैठे उस काले कोबरा को निडर होकर देख रहा था। जो काफी देर से उसकी ज़बान से निकलने वाली अपने मालिक की तारीफों को सुनने में मगन था। जो उसके मालिक की प्रशंसा कर रहा था, वह उसे अपना ज़हर नहीं खिला सका था। उसने अपना फन ज़मीन पर रखा और लहराते हुए उसकी ओर पीठ करके चल पड़ा... बहुत दूर जाकर उसने पलटकर एक नज़र उस स्थिर बैठे गुलाम को देखा और फिर सरसराता हुआ गायब हो गया। एक रेगिस्तानी कोबरा उसे काटे बिना चला गया था। वह अशرف उल-मखलूकात नहीं था, पर अपने खालिक़ का एहसास रखता था। वह हिंसक और जहरीला था, पर अपने मालिक का नाफरमान नहीं था। उसे सिर्फ एक ही मालिक दिखता था और वह उसी पर भरोसा करता था। वह अशرف उल-मखलूकात नहीं था... कि अपने पैदा करने वाले को भूल जाता। या अपने ज़हर को किसी भलाई के लिए इस्तेमाल करता। वह जहरीला, हिंसक, दरिंदा और जानवर सब कुछ था, बेअकल था, पर... बेहोश नहीं था। नाफरमान नहीं था। अपने मालिक के अलावा किसी की तारीफ नहीं करता था। उसके सिवा किसी पर यकीन नहीं रखता था। पत्थरों को नहीं पूजता था। रेत में रेंगते हुए एक तुच्छ सा शरीर... अपने मालिक के नाम लेने वाले को कोई नुक्सान पहुँचाए बिना जा चुका था। गुलाम उसकी नज़रों से ओझल हो जाने तक उसे देखता रहा। फिर सूरज की उन छूने वाली किरणों में चारों ओर का जायज़ा लेने लगा। वह उठकर खड़ा हुआ और दाएँ दिशा में चलने लगा... हर जगह एक जैसी थी। झाड़ियों की शक्ल और आकार में कोई फर्क नहीं था। वह रेत में धंसते पैरों को घसीट-घसीटकर चल रहा था। कुछ कदम ही चला था कि वह घुटनों तक रेत में धंस गया। उसने मुश्किल से खींचकर खुद को बाहर निकाला। ठंडी रेत अब तपती जा रही थी। वह असमर्थ था। या अल्लाह... मुझे इस मुश्किल से निकाल दे। मैं क्या करूँ? वह थककर बैठ गया। लेकिन जलती रेत उसका शरीर काट रही थी। उसे निःशक्तता महसूस हो रही थी। शरीर की ताकत भूखा-प्यासा रहने से कम हो रही थी। बहुत दूर कुछ खजूर के पेड़ थे। उसे उस जलती रेत पर घिसटते हुए वहां तक पहुँचने का था।


मम्मी- अपना फोन दे दो, मुझे अपनी फ्रेंड से व्हाट्सएप पर कुछ नोट्स मँगवाने हैं। शजा, अभी तो फोन दे कर गई हो फिर मांगने आ गई हो? मम्मी आप भी तो सोने जा रही हैं, क्या करोगी फोन का? रात के दस बजे रहे हैं, तुम भी जाकर सो जाओ। भई, क्या बहस कर रही हो इस वक्त? इब्राहीम ने आदी नींद में कहा। साहिबजादी, आजकल फोन ज्यादा इस्तेमाल करने लगी है, पढ़ाई की तरफ जैसे ध्यान ही नहीं रहा। शम'अ, फुर्सत से बैठी थी, इसीलिए आज साहिबजादी की हरकतें शक्ल लग रही थीं। मम्मी, आप तो ऐसे ही... मैं तो पढ़ाई के लिए ही फोन लेती हूँ। वह भी ज़िद की पक्की थी। दे दो ना... क्यों बेकार की बहस लगाई हुई है। इब्राहीम दिन भर की थकावट से अब चिड़चिड़े हो रहे थे, नींद की वजह से। बाबा, आप मुझे फोन दे दो ना... अच्छा अच्छा... अब जाकर सो जाओ... कल बात करेंगे। वह करवट लेकर फिर से खर्राटे लेने लगे। शम'अ ने उसे घूरते हुए फोन उसके हाथ में थमा दिया। अफ, मम्मी, आपके नेल्स तो मुझसे भी लंबे हैं। उसे शम'अ के नुकीले नाखून चुभे थे। चलिए, ज्यादा दिमाग मत खाओ... वह फोन लेकर खुशी से छुपाती हुई कमरे में आ गई। उसका कमरा अलग था। बचपन में तो वह अक्सर दादी के कमरे में ही सोती थी, पर अब पढ़ाई का बहाना था, वह रात भर लाईट जलाए रखती थी। दादी को रोशनी में नींद नहीं आती थी, इसलिए मजबूरी में उसका कमरा अलग किया गया था। अब वह स्वतंत्र थी। उसे तबारिज से बात करनी थी। धड़कते दिल के साथ उसने मैसेज किया। वह तो जैसे इंतजार में था। फौरन उसकी कॉल आ गई। उसने चेहरा कम्बल के अंदर कर लिया ताकि आवाज बाहर न जाए। दूसरी तरफ से उसकी चंचल और मीठी आवाज़ गूंजी। उसके दिल की धड़कन और तेज हो गई। रात धीरे-धीरे गहरी होती जा रही थी, समय का कोई एहसास नहीं हुआ। वह दो घंटे बातें करते रहे।


एक तीसरा--- जो हर जगह मौजूद होता है, वह हर एक शब्द का प्रमाण रख रहा था- हर एक हरकत को अपने नादیدہ कैमरे में कैद कर रहा था- और फैसले के दिन उसने हर एक ऑडियो और वीडियो को सबूत के तौर पर सामने लाना है- सारे गवाह और सबूत अपराधी के खिलाफ होंगे और वह अपनी सफाई में कुछ न कह पाएगा- जो खुद अपने लिए बेइज्जती का रास्ता चुन चुका है, किसी के सामने अपना सम्मान गिरवी रख चुका है- उसके लिए उस दिन भी बेइज्जती होगी- जब बंद कमरों में हुए हर काम को एक दुनिया भर की एलसीडी पर दिखाया जाएगा।

इन बंद कमरों की हर दीवार पर लिखा जाना चाहिए--- "ध्यान रखो, कैमरे की आँख तुम्हें देख रही है।"

जब जुबान, खाल, उंगलियाँ, आँखें, कान सभी गवाही देंगे और दिल की तरह बेबस होंगे- उसका बस नहीं चलेगा कि उन्हें रोक दे या चुप करा दे- अपराधियों के सिर झुके होंगे और उन्हें उनके ठिकानों पर खींच कर ले जाया जाएगा- जो अपने रब के सामने खड़े होने से नहीं डरते थे, जो खुद को उससे छुपाते थे, फिर मخلوق के सामने बेइज्जत होंगे।

हाँ, लेकिन जो सच्ची तौबा कर ले, जो अपनी हिदायत के लिए दुआ करे, उसके लिए गुमराही के रास्ते कठिन हो जाएंगे- जो हिदायत नहीं माँगेगा, उसे वह नहीं मिलेगी। "والمن خاف مقام ربه جنتین"
और जो अपने रब के सामने खड़े होने से डरता है, उसके लिए दो जन्नतें हैं।

उसने कॉल और मेसेज के सारे प्रमाण मिटा दिए और फोन साइड टेबल पर रख कर सोने के लिए लेट गई-
लेकिन अब नींद कहाँ आनी थी- दो घंटे की बातचीत को सोचते हुए शायद रात ही खत्म हो जाए।

वह धीमे-धीमे मुस्कुराते हुए उसकी बातें सोच रही थी- एक नशा था या जादू जो सिर चढ़कर बोल रहा था- हराम का नशा जिसने उसे हर चीज़ की सही-गलत और अच्छे-बुरे का फर्क भुला दिया था।

हर वह चीज़ जो आदत बन जाए और धीरे-धीरे इंसान को निगल जाए, उसकी हया, इंसानियत, शराफत, सेहत, और मासूमियत को चाट जाए, नशा होती है- वह चाहे किसी के शब्द हों या कोई खाने-पीने की चीज़ हो।

यूं ही वह लगभग रोज़ बहाने बना कर शमा से फोन ले लेती थी- और अब वह उसकी आदत होती जा रही थी- उसके बिना उसे चैन नहीं आता था-

"शज़ा, मैं तुम्हें फोन देना चाहता हूँ, तुम आज मुझसे मिलने आओ।"

"अभी--? पर कैसे--?"

"रात के ग्यारह बजे मैं कैसे आ सकती हूँ?"

"छत पर आ सकती हो?"

"छत पर--? मगर क्यों?"

"मैं कह रहा हूँ ना--"

"तुमने मुझसे वादा किया था कि मेरी हर बात मानी जाएगी-- सवाल मत करो, नकारो मत।"

"हाँ, ठीक है, सॉरी--"

"मैं आ रही हूँ।"

वह चप्पल पहन कर खड़ी हुई, सेल जर्सी की जेब में डाली और अत्यधिक सावधानी से दरवाजा खोला।

बाहर कोई नहीं था- वह धीरे-धीरे लिविंग रूम में आई- सभी के कमरे के दरवाजे बंद थे और लाइट्स भी ऑफ थीं।

और वह उतनी ही सावधानी से सीढ़ियाँ चढ़ने लगी।

जैसे ही उसने छत का दरवाजा खोला, ठंडी हवा का एक झोंका उसके शरीर में समा गया।

सर्दी का मौसम शुरू हो चुका था और बर्फीली हवाएँ साईं साईं कर रही थीं।

उसने पलट कर दरवाजा बंद किया और चौड़ी छत पर बिना कोई आवाज़ किए चलने लगी- दूर तक फैले घरों में कहीं कहीं रोशनी और कहीं अंधेरा था- एक अंधेरा, दूसरा अकेलापन और सर्दी ने उसे कांपने पर मजबूर कर दिया।

वह छत के बीच में खड़ी थी।

उसने कॉल करने के लिए सेल फोन निकाला--

"मैं यहाँ हूँ--" उसकी पीठ से आवाज़ आई-

हमारे डर से शज़ा की घिग्गी बंध गई।

शज़ा ने पलट कर देखा- उसकी गहरी नीली आँखें मुस्कुरा रही थीं और हल्के भूरे बाल हवा में उड़ रहे थे- वह ग्रे जीन्स की जेब में हाथ डाले खड़ा था- गहरे बैंगनी रंग की शर्ट का ग्रीबन खुला था- गर्दन से सोने की मोटी चेन चिपकी थी- चाँद की रोशनी उसकी एक साइड पर पड़ रही थी-

"तुम यहाँ--?" उसके लहजे में हैरानी थी।

"हाँ, मैं यहाँ-- क्या मुझे यहाँ आना अच्छा नहीं लगा?"

वह उसके पास आया और उसका हाथ थाम लिया- जो बर्फ की तरह ठंडा था।

"पर तुम कैसे---?" "बस, नो मोर क्वेश्चंस---"

उसने उसके होंठों पर उंगली रखकर उसे चुप कर दिया- और उसकी आँखों में देखने लगा।

वह जैसे चारों ओर से बेखबर हो गई थी- मंद चाँदनी में नीली आँखों में उसका प्रतिबिंब दिख रहा था- वह मगन थी।

"अब बस करो--- नजर लगाओगी?"

उसने उसकी मगनता तोड़ी-

वह नज़रें चुराने लगी-

"यह लो तुम्हारा सेल फोन-- इसमें सिम लगाकर मैंने अपना नंबर सेव कर लिया है- तुम यह नंबर किसी को नहीं दोगी- सिर्फ मुझसे बात करोगी।"

"और अगर घरवालों को पता चल गया---?"

"नहीं, पता नहीं चलेगा- तुम इसे छिपा कर रखना और साइलेंट मोड पर लगा के वाइब्रेशन पर रखना- ताकि मेरे फोन का पता चल जाए।"

"थैंक यू---"

"अरे, थैंक यू किस बात का-- तुम्हारे लिए तो क्या है सब कुछ?"

वह जोर से हंसा---

"आहिस्ता-- कोई आ न जाए---" उसने सीढ़ियों के दरवाजे की तरफ डर से देखा-

"कोई नहीं आएगा- तुम्हारे घर वाले सो रहे हैं--"

"चलो यहाँ बैठो बातें करते हैं---"

उसने उसे पकड़ कर एक आधा टूटा हुआ सोफा पर बिठाया- जो पता नहीं कब से यहाँ कबाड़े में पड़ा था-

"डर क्यों रही हो---? मैं हूँ ना---"

उसके सिर से चादर सरक गई थी- और अब लटें हवा से खेल रही थीं-

उसने उसकी एक लट को अपनी अंगुली पर लपेटते हुए कहा--

"मैं हूँ ना..." और वह उसी ठंडी हवा में खुद को उड़ता हुआ महसूस करने लगी।

वे बहुत देर वहाँ बैठे रहे- चाँद उन्हें निहारते हुए ऊँचा उठता जा रहा था और वे उसके सामने बेज़ार होते जा रहे थे।

फासला नाम के लिए रह गया था- शर्म और हया अपना सामान बांध रही थी- शज़ा पूरी तरह से भावनाओं के जाल में फँस चुकी थी- अब शिकारी ने उसके पंख काटने थे।