INS WA JAAN PART 14
शज़ा ने अपनी सहेली से पूछा-
"तुमने बॉयफ्रेंड्स कैसे बनाए हैं? मेरा मतलब है कि तुम दोस्ती कैसे करती हो?"
वह एकदम अपने बालों को झटककर हंसी- "ओ प्यारी लड़की, ये भी कोई मुश्किल काम है! ये वही बॉयज कॉलेज है न, वहीं से किसी को पटालो!" उसने हाथ झाड़ते हुए कहा।
"पर कैसे?"
"तुम मेरे साथ रहोगी तो सब सीख जाओगी, बस ये बताओ कितने बॉयफ्रेंड्स चाहिए?"
"बस एक," उसने एक अंगुली लहराई, जैसे कह रही हो, बस एक जूता चाहिए।
"हाहाहा..." ज़मल का ठहाका गूंजा, "बस एक?"
"हां," उसने मासूमियत से कहा।
वह शौक़ीन, चंचल और बेक़ाबू लड़की जरूर थी, मगर दादी ने उस पर कड़ी नजर रखी थी और उसे विपरीत लिंग से यथासंभव दूर रखा था। स्कूल में जिब्राइल भी उसकी हर हरकत पर नजर रखता था। इसलिए वह कभी इस तरह के मामलों में शामिल नहीं हो पाई थी।
ज़मल, उसकी कॉलेज की दोस्त, एक अपर क्लास फैमिली से ताल्लुक रखती थी, जहां हर तरह की आज़ादी होती है और लड़के-लड़कियों का मिलना-जुलना सामान्य माना जाता है। ऐसी लड़कियां गैर-मर्दों से अपनी तारीफ सुनकर ही जीती हैं।
"मैं तुम्हें कुछ लड़कों से मिलवाऊंगी, जो तुम्हें पसंद आएं, उनसे दोस्ती कर लेना... सिंपल!"
वह ऐसे कह रही थी, जैसे किसी जानवर को पसंद करने की बात हो रही हो।
"मगर कैसे और कब?"
"एक तो तुम सवाल बहुत करती हो!"
"देखो, जिस दिन कॉलेज में फन फेयर है न, उस दिन कोई रोक-टोक नहीं होगी, हम लंच पर चलेंगे... वहीं..."
सोलह साल का बचकाना दिमाग और दुनिया की ऊंच-नीच से पूरी तरह अनजान था। जो लड़की कभी बाप और भाई के बिना अकेली घर से बाहर ना निकली हो, उसे क्या पता कि दुनिया के मर्द कैसे होते हैं?
वह तो बस खुद को एक हीरोइन समझती थी। उसकी एक सहेली उसके बालों की तारीफ करती, कोई रंगत की और कोई सरपने की। अब इस हीरोइन को एक हीरो चाहिए था, जैसे फिल्मों में हमेशा होता है। उसके लिए ज़िन्दगी बिल्कुल किसी फिल्म की तरह थी, जहां एक बॉयफ्रेंड अपनी गर्लफ्रेंड की तारीफ करता है, उसे गिफ्ट्स देता है, उसकी छोटी-छोटी खुशियों का ध्यान रखता है और उससे प्यार भरी बातें करता है। फिर अक्सर उन दोनों की शादी हो जाती है।
अब तक उसका दिमाग हीरोइन और उसके जीवन के तरीके की तुलना करने से अनजान था, और इसके अंतर भी उसे स्पष्ट नहीं थे। दादी की रोक-टोक उसे बिल्कुल पसंद नहीं थी, और मां की तरफ से कभी उसे इतनी पाबंदियों का सामना नहीं करना पड़ा था। और ना ही कभी उन्होंने उसके तंग या ऊंचे कपड़े, खुले बालों या सिर नंगे घर से बाहर जाने पर कुछ कहा था, क्योंकि शमा का मानना था कि जमाना बदल गया है और उसकी बेटी को भी उसी के अनुसार फैशनेबल और मॉडर्न होना चाहिए, वरना लोग उसे पिछड़ी मानेंगे।
अब बस दादी ही आंखों में खटकती थी, या जिब्राइल था, जो उसे कॉलेज छोड़ने आता और अच्छे से दुपट्टा ओढ़ने की सलाह देता रहता था।
"मां, मेरा अच्छा सा पार्टी मेकअप कर दो, जल्दी जल्दी!"
वह हाफ स्लीव्स लाल घेरदार फ्रॉक पहने खड़ी थी, जिस पर डल गोल्डन कलर का काम था। दोनों कलाइयों में भर-भर के चूड़ियां पहनी हुई थीं, और ऊंची हिल्स में उसका मध्यम कद लंबा नजर आ रहा था। उसकी मलाई जैसी रंगत पर लाल रंग बहुत अच्छा लग रहा था।
"कितनी प्यारी लग रही है मेरी बेटी," शमा ने कस्टमर से नजरें हटाकर उसका जायजा लिया। "तुझे तो जरूरत ही नहीं मेकअप की!"
"नहीं मां, आंखें तो बना दो, और अच्छा सा हेयर स्टाइल भी!"
"अच्छा, बैठ, बस दो मिनट!"
शमा ने उसका आई मेकअप किया और लाल लिपस्टिक लगाई। बालों को सामने से स्टाइल करके बाकी खुले छोड़ दिए।
"चल जा अब, नजर ना लगे मेरी बेटी को!"
अब घर पर तो कोई नहीं है जो तुझे छोड़ आए। दस बज रहे हैं, तेरे बाबा भी चले गए और भाई भी।
शमा ने सवालिया नजरों से बेटी को देखा।
"वो मेरी दोस्त है न ज़मल, वही पास से गुजर रही है, मुझे भी पकड़ लेगी।"
"अच्छा, चलो ठीक है!" शमा फिर से कस्टमर के साथ व्यस्त हो गई।
उसने नेट का बारीक दुपट्टा सिर पर ओढ़ा और जाने के लिए निकल पड़ी।
"अरे! इतनी सज़-धज के क्या किसी के ब्याह में जा रही है?" दादी ने चश्मे के नीचे से उसे घूरा।
"दादी, कॉलेज में फंक्शन है!"
"तो वहां जाकर नाचेगी क्या?" जैसे स्कूल में नाचती थी। "हड्डियां तोड़ दूंगी अगर तूने ये बेहयाई की!"
दादी को उसकी तैयारी देखकर ही गुस्सा आ गया।
"आप कौन सा कॉलेज में आकर देख सकती हो वहां क्या हो रहा है?" वह ऊंची आवाज में बड़बड़ाई।
"आकर देख लूंगी!" उन्होंने उसकी बड़बड़ाहट सुन ली थी।
"अरे, किसके साथ जा रही है?" दादी ने पीछे से आवाज लगाई।
"दोस्त के साथ जा रही हूं, और क्या? यहां मेरे लिए कोई नौकर बैठा है या गाड़ियां खड़ी हैं जो मुझे छोड़ आएं?"
वह बदतमीजी से कहती बाहर निकल गई।
बाहर ज़मल का ड्राइवर लगातार हॉर्न बजा रहा था।
"तुम सेल क्यों नहीं ले लेती?" शज़ा के कार में बैठते ही उसने कहा।
शज़ा ने उसकी बात अनसुनी कर दी। अब वह उसे ये बताते हुए अच्छी नहीं लग रही थी कि उसके घर में लड़कियों को इतनी आज़ादी नहीं दी जाती और वह अभी भी अपनी मां का मोबाइल इस्तेमाल करती है।
"मैं कैसी लग रही हूं?"
"हां, ठीक लग रही हो!" उसने सामान्य तरीके से कहा।
"बस ठीक?"
"हाँ, अच्छी लग रही हो—हेयर स्टाइल भी—
वो खुद जो स्लीवलेस टॉप में मلبूस थी और दुपट्टा ندارد—तो उसे ये अनारकली टाइप ड्रेस कहां भाना था—
रास्ते भर ज़मल मोबाइल पर मस्रूफ रही—और शज़ा बाहर देखती रही—
वो कॉलेज पहुंचे तो वहां अच्छी ख़ासी रौनक थी—लड़कियों को अपनी मनमर्जी करने का मौका मिल गया था—
प्रोग्राम शुरू होने ही वाला था, शज़ा की डांस परफॉर्मेंस थी—और उसकी बाकी दोस्तों ने ग्रुप डांस परफॉर्मेंस करनी थी—
हम दो बजे यहां से निकल पड़ेंगे—लंच पर जाएंगे—ज़मल ने उसे बताया—
ओके—वो मुस्कुराई—
जैसे जैसे इंसान बड़ा होता जाता है, उसे अपनी ज़ात का शऊर आता जाता है—एक बच्चे को ये बिलकुल इल्म नहीं होता कि वो खूबसूरत है या बदसूरत—काला है या गोरा—न ही वो दूसरों के बारे में इस चीज का शऊर रखता है—ये बेशऊरी बहुत बड़ी नीयमत है—
लेकिन बड़े होने के साथ-साथ उसे अपनी खूबसूरती या बदसूरती नजर आने लगती है और एक पर वो फख्र करने लगता है और दूसरी पर शिकवे और नाशुक्राई—
किसी को अपना ज़ाहिरी हुस्न नजर आता है और किसी को बारीकी—और फिर वो उसे और संवारने की कोशिश करने लगता है—
ज़ाहिरी हुस्न का नजर आना बड़ा खतरनाक होता है—क्योंकि फिर इंसान चाहता है कि उसे कोई सराहने वाला हो—कोई चाहने वाला हो।
और लड़कियाँ अगर अपने हुस्न से नाबिना ही रहें तो यही उनके लिए बेहतर है—या वो अपने आपको बदसूरत समझें और सब से छुपने की कोशिश करें तो भी यही उनके हक में बेहतर है—या उन्हें अपना हुस्न सिर्फ उसी वक्त नजर आए जब वो इसकी तहरीफ की जरूरत महसूस न करती हो।
जाने क्यों हर तहरीफ करने वाला उन्हें हमदर्द लगता है—किसी दाना का قول है कि—
ज़रूरी नहीं जो आपको मोहब्बत भरी नज़रों से देखे, वो आपका ख़ैर ख़्वाह हो—बिल्ली भी तो कबूतर को मोहबत्त भरी नज़रों से देखती है—
लड़कियाँ भी शायद कबूतर की तरह बज़दिल होती हैं जो बिल्ली को देख कर आँखें बंद कर लेती हैं—अपनी पंखों पर भरोसा नहीं करतीं—और फिर आसानी से उसका शिकार बन जाती हैं—लड़कियाँ भी किसी की मोहब्बत भरी आँखें देख कर उसकी हवस से अपनी आँखें बंद कर लेती हैं—
जैसे एक कबूतर को शिकार बनते देख कर बाकी कबूतर नसीहत नहीं पकड़ते, वैसे ही लड़कियाँ कभी भी दूसरी लड़की के अंजाम से नसीहत नहीं पकड़तीं—
उन्हें खुद पर जमी नज़ाहें दुनिया की पाकीज़ा और सच्ची तऱीन नज़ाहें लगती हैं—मोहब्बत की वादी उनके कदमों के लिए अनछुई होती है और इसमें कदम रखते ही वो हमेशा के लिए खो जाती हैं—
उसका तस्सम उन्हें कुछ और सोचने ही नहीं देता—पर वो नहीं जानतीं कि इस वादी के अंत में एक दलदल है जिसमें कदम रखते ही इंसान पूरा का पूरा धंस जाता है...काश कोई उन्हें समझा सके...काश...
कॉलेज से कुछ दूर एक रेस्टोरेंट था—शज़ा ज़मल के साथ उसकी गाड़ी में वहां पहुँची—टेबल पर बैठ कर उसने जूस ऑर्डर कर दिया—
आयन सामने पांच लड़कों का एक ग्रुप बैठा था—सब एक से बढ़कर एक थे—उनकी उम्रें सत्रह से बीस साल के बीच थीं—लापरवाह अंदाज—छिछोरा पन—बेफ़िक्री—अयाशी—
उनके हर अंदाज से साफ था—वो हाथ पर हाथ मारकर हंसी लगा रहे थे—आस पास मौजूद हर लड़की को जाँचती नज़रों से देख रहे थे—
देखो इन में से कौन ज्यादा अच्छा है—?
मुझे तो सब ही अच्छे लग रहे हैं—तुम ही बता दो—उसने नर्वस होकर अंगुलियाँ मरोड़ी—
उसके होशरबा सरापे ने उनको उसकी तरफ़ खींच लिया था—वो अब इन दोनों पर नज़रे जमाए उन्हें देख रहे थे और आँखों ही आँखों में एक दूसरे को इशारे कर रहे थे—
एक नीलें आँखों वाला लड़का उठ कर उनकी टेबल के पास आया—उसने हाथों में बैंड्स—रंग्स और जाने क्या अलम ग़लम पहन रखा था—वो लंबा कद, वज़ीह और शानदार पर्सनैलिटी का मालिक था—पर उसकी शख्सियत में कोई वक़ार नहीं था—
हैलो प्रिटी—
वो कुर्सी खींच कर बैठ गया और हाथ शज़ा के सामने बढ़ा दिया—और अब वो गहरी नज़रों से उसे देख रहा था—
ज़मल मुस्कुरा रही थी—
ड्रामों में ऐसा होता था, वो देखती थी—कॉलेज यूनिवर्सिटीज में ये सब चलता है—
उसने कुछ झिझकते हुए अपना हाथ उसके हाथ में थमा दिया—
तबरिज़ खान—
उसने गर्मजोशी से उसका हाथ दबाया।
शज़ा इब्राहीम—
उसके पूरे बदन में सनसनी सी दौड़ गई—कुछ था जो एक पल में महसूस हुआ था—कोई तबदीली या कोई अंजाना सा एहसास—कोरे कागज़ पर सियाह धब्बा।
मेरी गर्लफ्रेंड बनोगी—?
वो सीधे मुद्दे पर आ गया—उसकी चमकती आँखें बहुत कुछ कह रही थीं—
वो मुस्कुरा कर रह गई—
यू आर सो प्रिटी एंड क्यूट—क्या हुस्न है...बिलकुल पुरानी देवमालाई कहानियों की किसी देवी जैसा---और तुम्हारे बाल—उसने उसके चेहरे की अतराफ़ लहराती लंबी लटों को देखते हुए कहा—
अफ़—क्या बात है—वो खुमार जदी आँखों से कह रहा था—लहजे में सताइश थी—
सिर्फ़ फ्रॉक और नेट के दुपट्टे में उसका हुस्न छुपा नहीं छुप रहा था—और मुकाबिल अक़ाब की सी आँखों से उसे तक रहा था—
उसे ये अल्फ़ाज़ बेहद भले लगे थे—ये सत्ताइश...ये वालाहनापन और मुकाबिल की जज़्बे लटाती आँखें।
गाड़ी से निकलकर रेस्टोरेंट के अंदर जाने तक हर शख्स ने उसे अपनी नज़रों से सराहा था और अब सामने बैठे हर लड़के की नज़रें भी यही कह रही थीं—शज़ा हवाओं में उड़ रही थी—उसे एकदम से अपना आप अहम लगने लगा था—
मेरा नंबर ले लो—फिर बात होगी—
म्म—मेरे पास सेल नहीं है—मामा का नंबर है—
ओह—शिट—उसके चेहरे पर नाखुशगी आई पर वो फौरन ही संभल गया।
अच्छा इन्ही का दे दो—किसी लड़की के नाम से मेरा नंबर सेव कर लेना और दोस्त कह कर बात कर लेना—
मैं तुम्हें सेल गिफ्ट कर दूँगा—फिर कोई मसला नहीं होगा।
ज़मल खामोशी से जूस पी रही थी—
बाय—स्वीट हार्ट—
वो कहता हुआ वहाँ से उठ गया—
चलो चलें—
शज़ा—ज़मल उठ खड़ी हुई—
रास्ते भर वो उसे बॉयफ्रेंड को काबू में रखने के गुर बताती रही और वो सिर हिला हिला कर उसे सुनती रही—
कितना घटिया शब्द था ये—गर्लफ्रेंड—!!
जिसे पुराने ज़माने में लोंडी कहा जाता था—
लोंडी—औरत का कमतर दर्जा—जिनके आगे पीछे कोई नहीं होता था उन्हें लोंडी बना के बेच दिया जाता था—वो भी एक ही मालिक की ग़ुलाम होती थी—पर गर्लफ्रेंड—आज एक की तो कल दूसरे की होती है—उसे टिशू पेपर की तरह इस्तेमाल करके कूड़े दान में फेंक दिया जाता है—
कोरे काग़ज़ पर सिर्फ़ एक सियाह नुक्ता भी बदनमा लगता है।
किसी नामहरम से वाहियात गुफ़्तगू करके कभी ज़िन्दगी सुकून नहीं होती—आलूदा हो जाती है—
जैसे कचरे का कोई ढेर जिस पर ढेरों मक्खियाँ भिनभिनाती रहती हैं—पर अक़ल के अंधों को बैक्टीरिया और वायरस तो नज़र आते हैं मगर—रूह की—लफ़्ज़ों की और अमल की गंदगी नहीं नज़र आती—
शज़ा इब्राहीम गंदगी के इस ढेर में खुद ही आकर गिर गई थी—उसकी सारी हस्सियात नकारा हो चुकी थीं—वो अपने जिस्म में फैलने वाली बदबू सोंग सकती थी और न ही किसी की आँखों में भरी ग़लाज़त—उसे किसी की गर्लफ्रेंड बनना था—सो वो बन गई थी—
शायद समाज उन लड़कियों को क़बूल नहीं करता जिनका कोई बॉयफ्रेंड नहीं होता...या लोग किसी लड़की की पाकबाज़ी का यकीन नहीं करते?
क्या ऐसी लड़कियाँ भी होती हैं जिन्होंने कभी अपनी समातों को किसी नामहरम की बेवजह की गुफ़्तगू से आलूदा नहीं किया हो? जिने कोई नामहरम से بلا वजह बात करने से और अपनी तहरीफ सुनने से घिन आती हो।
क्या ऐसी लड़कियाँ भी होती होंगी...?
पर उनकी पाकबाज़ी का यकीन कौन करेगा?
किसी को यकीन दिलाने की जरूरत ही क्या है? एक हस्ती है ना...जिसे कुछ बताने की जरूरत नहीं।
अब्दुल्ला को जब क़ैद में डाला गया तो उसके ह्वास शल से थे पर उसे हैरान था कि वो इतने हेबतनाक मंज़र देख कर भी जिंदा कैसे है?
वो बहुत देर चकराते सिर के साथ इस निम अंधेरे ग़ार में बैठा रहा—उसका पूरा बदन टेसीं मार रहा था और दमاغ बिल्कुल सुन हो चुका था—कानों में अजीब सी साईं साईं की आवाजें आ रही थीं—आंखें पूरी खुलने से क़ासर थीं—
वो जगह अत्यंत हेबतनाक और बदबूदार थी—फ़र्श पर सैलन थी—जिस दीवार से उसने टेक लगाई थी वो भी अजीब टेढ़ी मेढ़ी थी—
पता नहीं एक दिन गुजर गया था या एक रात—वक्त का कोई हिसाब नहीं था—ना रौशनी दिखाई दी थी ना
अंधेरा छटा था—महौल में कोई तबदीली नहीं आई थी—उसे लग रहा था कि वो किसी जहन्नम में क़ैद है।
वो इसी तरह शल सा वहां पड़ा था—लगता था उसका दमاغ काम करना छोड़ चुका है—
उसने अपना नाम याद करने की कोशिश की—
अब्द...अज़...बाज़...ल...अल...अबल—
टूटे फूटे शब्द उसके ज़ेहन में आ रहे थे—
अब्दुल...ल—
अब्दुल्ला—बिला अखीर बहुत देर ज़ेहन पर जोर डालने पर उसे अपना नाम याद आ गया—
अब्दुल्ला—हाँ—मेरा नाम अब्दुल्ला है—
अल्लाह—अल्लाह—हाँ वो तो है ना—
अल्लाह तो है—किधर है—? वो उठ कर पागलों की तरह दीवारें टटोलने लगा—
अल्लाह तो किधर है—? सामने आ—
लेकिन मैंने तो उसे देखा ही नहीं—तो पहचानूंगा कैसे—?
वो कैसा है—? उसने شدت से सोचा—पर ज़ेहन खाली था जैसे कोई कोरा काग़ज़—
अल्लाह—अल्लाह—वो जोर जोर से चिल्लाने लगा—
ग़ार में रौशनी बढ़ी और उसने चारों तरफ़ से बड़े बड़े अजधों को अपनी तरफ बढ़ते देखा—
वो खौफ से काँपने लगा—इसके ज़ेहन में एक दम धमाका हुआ—
अल्लाह—अल्लाह हू—अल्लाह हू ला इलाहा इलल्लाह—उसकी ज़बान पर आयत अलक़रसी जारी हो गई—वो अपनी पूरी ताकत से पढ़ रहा था—अब उसे कुछ कुछ समझ आने लगा था—वो कौन है—कहाँ है—और क्यों है—
वो पूरे यकीन और दिल की गहराइयों से हलक के बल आयत अलक़रसी पढ़ रहा था—
अजधें छोटे होते जा रहे थे और कुछ देर बाद उनको आग लग गई और वो धुंआ बन के फिजा में घुल गए—
कोई ताकत थी जो उसकी ज़बान को ना रुकने दे रही थी और ना थकने दे रही थी—
वो दीवाना वार आयत अलक़रसी का ورد कर रहा था—एक जोरदार धमाका हुआ और
ग़ार का पत्थर लड़़क गया—बाहर से रौशनी अंदर आने लगी—रास्ता मिलने पर वो بلا ताखीर भागा—
ग़ार से बाहर एक सुरंग नुमा रास्ता था जहां मुकम्मल रौशनी नहीं थी—सामने से बड़े बड़े जिन हाथों में लोहे के गरज़ उठा आए दौड़ते चले आ रहे थे—अब्दुल्ला ने अपनी पूरी ताकत और यकीन के साथ ورد जारी रखा—
हर गुजरते पल के साथ उसकी आवाज़ بلند होती जा रही थी और ताकत बढ़ती जा रही थी—
जो तू पढ़ रहा है उसे छोड़ दे—मैं कहता हूँ अभी बाज आ जा—वरना तेरा वो हश्र होगा कि एक बाल भी नहीं मिलेगा—उससे गर्जदार आवाज़ सुनाई दी—
पर वो अपनी धुन में था किसी की धमकी उस पर कोई असर नहीं दिखा रही थी—वो खौफ का सामना करके अब उससे आज़ाद हो चुका था—
उसे ऊँचा ऊँचा रोने पीटने और बीन करने की आवाज़ें आने लगी—वो सुरंग में भागता जा रहा था—आचनक से दादा जी सामने आ गए—
अब्दुल्ला बस कर—चुप हो जा—न पढ़—अब कुछ नहीं हो सकता—हम सब खत्म हो जाएंगे—बस कर...
वो नाकाम आवाज में कंधे झुका के उससे दुआस्तीन कर रहे थे—
दादा जी आप यहाँ? वो शशदर खड़ा था—