fatah kabul (islami tareekhi novel ) part 48
मिलाप......
सुगमित्रा कमला के साथ कभी तैयार न होती अगर उसे राजकुमार पिशावर से नफरत न होती और महाराजा ज़बरदस्ती उसके साथ शादी करने पर तैयार न हो जाते औरत में एक खूबी यह भी है की वह जिससे नफरत करती है उसके साथ रहने से मौत को अच्छा समझती है।
सुगमित्रा को यह भी मालूम न था की कमला ने उसके जाने का क्या इंतेज़ाम किया है। न उसे यह ख्याल था की उसे मेला में ही उड़ा दिया जयेगा। क्युकी वह खूब जानती थी की मेला में बेशुमार आदमी होते है।
लेकिन बिमला ने ऐसे लोग उसे ले जाने पर मुक़र्रर किये जो अपनी ज़िन्दगी को खतरा में डालने से भी गुरेज़ न करते। जिनकी इस्तलाह में लफ्ज़ 'नामुमकिन 'की गुंजाईश न थी। जो मुश्किल काम को आसान और मुमकिन काम को आसान समझते थे।
गरज़ यह दोनों सुगमित्रा और कमला देवी को लेकर तेज़ी से रवाना हुए। घोड़ो पत्थरो और खाईयो को फ्लागते चले जा रहे थे कुछ दूर दौड़ कर उन्होंने घोड़ो की बांगे सहारे और उन्हें रोक कर चट्टान की एक ज़ोफ़ दाखिल हुए। या तो किसी वक़्त ज़लज़ला के सदमे से फट गयी थी या उसमे कुदरती छेद था। इस छेद के दूसरी तरफ छोटा सा मैदान था। पंद्रह बीस गज़ मुरब्बा होगा। इस मैदान में कसरत से दरख्त खड़े थे और उसकी ज़मीन सब्ज़ पोश थी। सवारों ने मैदान में जाकर घोड़े रोके। पहले वह उतरे। फिर उन्होंने सुगमित्रा और कमला को उतारा। इन दोनों ने कहा "माफ़ करना हमें जो हुक्म दिया गया था हमने उसकी तामील की है। अब तुम यहाँ इत्मीनान से बैठो। यहाँ कोई खतरा नहीं है। थोड़ी ही देर में तुम्हारे लिए घोड़े आ जायेंगे और तुम आगे सफर करोगी।
वह दोनों आदमी वहा से हट कर शिगाफ़ के दरवाज़े पर जा खड़े हुए। यह दोनों सेम तन वहा रह गयी। सुगमित्रा ने कहा " यह इंतेज़ाम तुमने किया है।
कमला : नहीं, तुम्हे खुद ही सब कुछ मालूम हो जयेगा।
सुगमित्रा : हमें कहा चलना होगा।
कमला : इस्लामी लश्कर में।
सुगमित्रा : मेरा धक् धक् कर रहा है कही मैंने गलती तो नहीं की।
कमला : अगर गलती का ख्याल है तो अभी कुछ नहीं गया। वापस चलो। किसी को भी मालूम न हुआ होगा की कहा गयी थी।
सुगमित्रा : कमला अगर मेरी शादी का क़िस्सा पेश न होता तो मैं हरगिज़ न आती।
कमला : और वह क़ैदी।
सुगमित्रृ : मैं उसे भूलने की कोशिश कर रही थी।
कमला : जानती हो वह कौन है।
सुगमित्रा : एक मुस्लमान है।
कमला : सिर्फ इतना ही जानती हो। वह तुम्हारा मंगेतर भी है।
सुगमित्रा ; फिर दिललगी की।
कमला : मैं सच कहती हु तुम्हे खुद ही सब कुछ मालूम हो जायेगा।
अब यह दोनों आदमी हट आये। उन्होंने कहा " तैयार हो जाओ तुम्हारे लिए घोड़े आगये।
यह दोनों सब्ज़ा (घास ) पर बैठ गयी थी। यह सुनते ही खड़ी हो गयी और दोनों मर्दो के पीछे चल पड़ी। मर्दो ने घोड़ो के बांगे पकड़ी और चले। शिगाफ़ से बाहर आये। यहाँ चार घोड़े खड़े थे। दो पर सवार थे और दो कोतल थे। उनमे से एक पर सुगमित्रा और दूसरे पर कमला को सवार कराया और यह सब रवाना हुए। जिस रास्ता पर यह लोग चले उस से कमला वाक़िफ़ थी और न सुगमित्रा। घोड़े इतनी तेज़ी से चल रहे थे जिससे उन दोनों नाज़नीन लड़कियों को तकलीफ न हो।
रात को उन्होंने एक बस्ती में क़याम किया और सुबह होते ही फिर चल पड़े अभी यह थोड़ी ही दूर गए थे की उन्होंने एक औरत को सवार अपने से आगे जाते देखा। वह भी तेज़ी से जा रही थी। उन्होंने भी घोड़े बढ़ा दिए लेकिन उस औरत को न पकड़ सके।
दुपहर के क़रीब उन्होंने एक चट्टान के साये में क़याम किया। कुछ खाया और फिर रवाना हुए। दिन छिपते एक गाव में पहुंच कर ठहर गए और सुबह फिर चल पड़े। उन्होंने फिर उस औरत को आगे जाते देखा जिसे कल देखा था .सुगमित्रा ने कहा "यह औरत कौन है जो कल से हमसे आगे जा रही है।
कमला ने उसे पहचान लिया था। वह बिमला थी। मगर उसे बताया नहीं। सिर्फ इतना कहा " यह भी मुसाफिर मालूम होती है .चलो पकड़े उन्होंने घोड़े तेज़ किये। लेकिन रास्ता के घूम पर जाकर गायब हो गयी। शाम के टाइम यह सब एक खुले मैदान में पहुंचे। इसी मैदान में खेमो का शहर आबाद था। कमला ने कहा "यह मुसलमानो का लश्कर मालूम होता है "
इस्लामी अलम (झंडा) देख कर कहा "मैंने पहचान लिया। इस्लामी लश्कर ही है। वह देखो इस्लामी झंडा लहरा रहा है।
सुगमित्रा ने भी देखा। उसने कहा " मुझे तो खौफ मालूम हो रहा है। मुस्लमान वहशी होते है।
कमला : मुसलमान वहशी नहीं होते।
जो लोग उनके साथ आये थे। वह रुक गए यह दोनों बढे। जब लश्कर के किनारा पर पहुंचे तो उन्हें इल्यास मिले। जोश व ख़ुशी से उनका चेहरा सुर्ख हो रहा था। सुगमित्रा ने जब उन्हें देखा तो उसके सुर्ख व सफ़ेद चेहरा पर और भी सुर्खी बिखर गयी। आँखों में अजीब सहर ख़ेज़ चमक पैदा हो गयी। इल्यास ने कहा " ज़हे क़िस्मत की तुम आगयी। खुदा का शुक्र है। लो तुम दोनों यह निक़ाब चेहरा पर डाल लो। "
दोनों ने चेहरे पर नक़ाब डाल लिए और इल्यास के साथ लश्कर में शामिल हो गयी। वह उन्हें लेकर खेमा पर पहुंचे .वहा उनकी अम्मी बड़ी बे सबरी से उनका इंतज़ार कर रही थी। जैसे ही सुगमित्रा और कमला घोड़ो से उतर कर उनके पास पहुंची। अम्मी ने दौड़ कर सुगमित्रा को अपने सीने से लगा लिया और जल्दी से कहा मेरी बच्ची ,मेरी राबिआ। "
सुगमित्रा हैरान रह गयी। लेकिन उसे अम्मी के आगोश में बड़ी राहत महसूस हुई। कुछ देर के बाद अम्मी उसे खेमा के अंदर ले गयी। वहा बिमला भी मौजूद थी। उसका जी भी चाहा की सुगमित्रा को अपने कलेजे से लगा ले लेकिन ज़ब्त किया अम्मी ने बिमला से कहा " फातिमा ! मैं तुम्हारी मश्कूर हु तुमने जिस तरह राबिआ को अगवा करके मेरे दिल को दुखाया था .आज उसी तरह मुझ दुखिया से उसे मिला कर मेरे दिल को मसरूर किया है। खुदा तुम्हरी हर आरज़ू पूरी करे।
सुगमित्रा अम्मी की गुफ्तुगू का एक लफ्ज़ भी न समझ रही थी वह हैरान हो रही थी। अम्मी के कहने से वह बैठ गयी .कमला ने कहा " तुम हैरान हो रही हो। अब सुनो तुम कौन थी हां इन्हे बताओ अम्मी। "
अम्मी ने कहा " सुगमित्रा तेरा नाम राबिआ है। तू महाराजा काबुल की बेटी नहीं है। मेरे भतीजी है। तू बसरा में पैदा हुई थी .
उसके बाद उन्होंने तमाम हालात ब्यान किये। राबिआ निहायत गौर से सुन रही थी। वह अपने दिमाग पर ज़ोर दे रही थी .उसे भूली हुई बाते याद आरही थी। कई बचपन के वाक़ये याद आगये। यह भी याद आ गया की उसे कोई औरत अपने साथ लायी थी। आखिर खून ने जोश मारा। वह अम्मी जान से लिपट कर रोने लगी। इस क़द्र रोइ की गुलाबी रुख़्सारे आंसू से भीग गए। अम्मी के आँखों में भी आंसू झलक आये। उन्होंने कहा "बेटी अब न रो। मैं तुझे याद कर कर बहुत रो चुकी हूँ। खुदा ने मेरी फरियाद और ज़ादी पर रहम किया। मेरी आरज़ू पूरी की तुझसे मुझे मिला दिया।
राबिआ ने अपने आंसू खुश्क किये। अम्मी ने कहा " यह बिमला है जो तुझे अगवा कर के लायी थी। किसी बुरी नियत से नहीं। उसे तुझसे मुहब्बत हो गयी थी। यही अब तुझे वहा से लायी है उसी ने मेरे दिल पर ज़ख्म लगाया था। उसी ने मरहम फाया रखा है। मैंने उसे माफ़ कर दिया। तू भी माफ़ कर दे। खुदा भी माफ़ करे !
अब बिमला ने उसे बाक़ी हालात सुनाये और कहा " यह मेरा बेटा और मंगेतर है। उसे मैंने तेरी तलाश में भेजा था। उसने तेरा सुराख़ चलाया। "
राबिआ ने हया बार दिलकश निगाहो से इल्यास को देखा। दिलफरेब तबस्सुम उसके होंटो पर फैल गया। चेहरा रोशन हो कर जज़ीब नज़र बन गया। लेकिन वह निगाह भर कर उन्हें न देख सकी। शर्मा गयी। उसका शर्माने की अदा बड़ी ही रूह कश थी।
इल्यास के दिल पर चरका लगा। उनके चेहरे का रंग उड़ गया। उन्होंने लड़खड़ा कर नज़रे चुरा ली। इस वक़्त असर की अज़ान हुई। इल्यास नमाज़ पढ़ने चले गए। अम्मी और फातिमा ने भी वज़ू करके खेमा में नमाज़ शुरू की .राबिआ हैरत से देखने लगी। उसने किसी को इस तरह इबादत करते नहीं देखा था। जब यह दोनों नमाज़ पढ़ चुकी तो राबिआ ने कहा "यह तुम क्या कर रही थी अम्मी ?
अम्मी : मैं खुदा की इबादत कर रही थी।
राबिआ : वाओ। यह इबादत का क्या तरीक़ा है कभी खड़ी हो गयी। कभी झुक गयी थी कभी सजदा क्र लिया। कभी बैठ गयी। फिर सामने बुत तो रखा ही नहीं। तुमने किस की इबादत की किसे सजदा किया ?
अम्मी : मेरी भोली बेटी ! हम उस खुदा को सजदा करते और उसकी इबादात करते है जो हर वक़्त और हर जगह मौजूद रहता है। जिसके हाथ में ज़िन्दगी और मौत है जो इज़्ज़त दौलत सल्तनत सब कुछ देता है। बुत बेजान चीज़ है .उसकी इबादत करना खुदा को नाराज़ करना है। हम मुस्लमान है। तू भी मुस्लमान थी। लेकिन तूने काफिरो में पुर वर्ज़िश पायी। खुद भी काफिर होगी।
राबिआ : मेरी समझ में कुछ नहीं आया।
रफ्ता रफ्ता समझ जाएगी बेटी उसके बाद वह और बाते करने लगे।
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