fatah kabul (islami tareekhi novel) part 32
आप बीती
दूसरे रोज़ अब्दुल्लाह ने इल्यास के पास आकर कहा "चलिए वह औरत आपका इंतज़ार कर रही है "
इल्यास उनके साथ चले। वह एक बाग़ में झोपड़ी के अंदर रहती थी उनकी आहट पा कर बाहर निकल आयी। इल्यास ने उसे देखा। पहले जैसे वह जवान न रही। मगर हुस्न रफ्ता के दिलकश आसार अब भी चेहरा से ज़ाहिर थे। उसकी सेहत अच्छी थी। अच्छी सेहत ने चेहरे की दिलकशी को और बढ़ा दिया था। आँखों में अब भी तेज़ चमक थी। उसने इल्यास को देखा बगैर इरादा के इल्यास ने सलाम किया। उसने उन्हें दुआ दी और आगे बढ़ कर उनकी पेशानी को बोसा दिया।
झोपड़ी के बाहर रस्सी की चटाई बिछी हुई थी वह इल्यास का हाथ पकड़ कर उस चटाई पर बैठी इल्यास उसके सामने और अब्दुल्लाह एक तरफ बैठ गए। औरत ने कहा "बेटा !पहले तो इस बात की माफ़ी मांगती हु की मैंने तुम्हारे और तुम्हारी माँ का दिल दुखाया। हक़ीक़त यह है की दिल दुखाने का सिला मैंने पा लिया। मेरे दिल को जो तकलीफ पहुंची है उसे मैं ही खूब जानती हु। क्या तुम मुझे माफ़ कर दोगे। "
इल्यास : जहा तक मेरा ताअल्लुक़ है। मैंने माफ़ कर दिया। अल्लाह भी माफ़ करे। रहा माँ का वह खुद माफ़ कर सकती है मैं उनकी तरफ से कैसे माफ़ी दे सकता हु।
वह :ठीक है लेकिन अगर तुम कोशिश करो तो वह माफ़ कर देंगी।
इल्यास : मैं यही कोशिश करूँगा। लेकिन पुरे पंद्रह साल उन्हें देखते हुए गुज़र गए है।
वह : इसका मुझे अफ़सोस भी है और रंज भी है। लेकिन उस कम्बख्त दिल ने मुझे मजबूर कर दिया था। उस बच्ची से मुझे ऐसी मुहब्बत हो गयी थी की मैं अंधी हो गयी थी। किसी बात का ख्याल न रहा। मैं उसे बहला फुसला कर ले आयी। चाहती थी की कलेजा से लगा कर रखूंगी। लेकिन बुरे नियत वालो ने मुझे मजबूर कर दिया और मैंने उस दरबे बहा को फरोख्त कर डाला समझी थी की उसके पास रहूंगी। बेटी समझ कर पालूंगी। लेकिन ज़बरदस्ती उससे जुदा कर दी गयी। तड़पी। तिलमिलाई। मगर एक कमज़ोर औरत थी कुछ कर न सकी तड़पी जिस तरह तुम्हारी अम्मी तड़पी होंगी।
वह चुप हो गयी। इलियास उसके चेहरे की तरफ देख रहे थे। उन्होंने कहा "राबिआ को भी अपने अज़ीज़ो का छूटने का रंज हुआ होगा .
वह : बहुत ज़्यादा रंज हुआ था। महीनो रोती रही थी। मुझे डर हो गया था कही उसकी सेहत खराब न हो जाये। लेकिन ज़माने ने उसके ग़म का न देखा। वह मुझे अपनी माँ समझने लगी अब तो वह मुझे पहचानती भी नहीं।
इल्यास : वह तुम्हे और किसी को क्या खुद अपने आपको भी नहीं पहचानती।
वह : यही बात है। मुझे अगर कुछ तसल्ली हो जाती है तो इस बात से की वह राहत आराम से है और जवानी ने उसे ऐसा निखार दिया है जैसे कली खिल कर खुशनुमा फूल बन जाता है। इस वक़्त वह सारे काबुल में और काबुल में ही नहीं तमाम हिन्द में बल्कि मैं तो यह कहु की सारी दुनिया में आप ही अपनी नज़ीर है। शबाब ने उसके हुसन को हज़ार दर्जा बढ़ा दिया है। ऐसा दिलकश हुस्न ऐसा दिलफरेब और भूला चेहरा। ऐसे नाज़ो अंदाज़ परियो में भी नहीं होंगी। जो उसे एक नज़र देखता उसका बंदा बे दाम बन जाता है।
इल्यास : मैंने उसे क़रीब से देखा है। उसकी खूबसूरती उसके हुस्न और उसके रानाई के बारे में खूब जानता हु। मैं उसके तमाम हालात सुन्ना चाहता हु। किस तरह तुम लायी। कहा रखा। किसके फरोख्त किया।
वह : यह एक लम्बी दास्ताँ है। जी तो यह चाहता है की उस दास्तान की जज़्यात तक बयां कर दूँ। लेकिन वक़्त ज़्यादा लगेगा न मैं सारे हालात बयांन कर सकुंगी न तुम सुन सकोगे। इसलिए मुख़्तसर बयान करती हु। मुझे राबिआ से मुहब्बत हो गयी थी। बे पनाह मुहब्बत। मैं उसे अपने साथ रखना चाहती थी। लेकिन न मैं वहा रह सकती थी और न उसका बाप और न तुम्हारी अम्मी उसे मेरे साथ आने की इजाज़त दे सकती थी इसलिए मैंने यह इरादा कर लिया की ख़ुफ़िया तौर पर उसे ले जाऊं। मैं जानती थी की उसके अब्बू मुझे चाहने लगे है। उन्होंने इशारा में मुझसे यह बात कही थी की अगर मैं मुस्लमान हो जाऊं तो वह मुझे अपनी बीवी बना ले। मैं दिल में हंसी .लेकिन उनसे चिकनी चपड़ी बाते करती रही। अचानक से मुझे बुखार आगया। वह मुझे देखने आते और घंटो बैठे रहते। मैं उनसे राबिआ को लाने के लिए कहा। .वह ले आये। मैंने रात को उसे रोकने की कोशिश की। वह मेरी हर बात को हुक्म समझते थे। छोड़ कर चले गए। मेरा दिल बेईमान हो गया मैं आधी रात को उसे लेकर वहा से चल पड़ी और दूसरे गैर मारूफ रास्तो से रात दिन चल कर पहले अरजनज में पहुंची। वहा से यहाँ आगयी। राबिआ सारे रास्ते रोती रही और वापस जाने की ज़िद करती रही। मैं उसे समझाती और ज़्यादा ज़्यादा उसकी तसल्ली करती। मेरे साथ जो आदमी थे वह निहायत मक्कार बड़े लालची थे। उन्होंने मुझे तरग़ीब देना शुरू की कि मैं महाराजा काबुल के हाथ फरोख्त कर दूँ। मैं इंकार करती रही। हम काबुल में जा पहुंचे। उन बदबख़्तो ने साज़ बाज़ करके राजा को वह लड़की दिखा दी। महाराज ने उसे पसंद किया। महारानी ने देखा तो उसपर लट्टू हो गयी .काबुल के वज़ीर आज़म ने मुझ पर डोरे डालने शुरू किये। मुझे बहकाया की लड़की महाराजा के हाथ बेच दू। दाम अच्छे और मुँह मांगे मिल जायेंगे और मैं उसके पास रहूंगी। मैं उसके बात में आगयी। सच तो यह है मैं उसे बेचना नहीं चाहती थी लेकिन इधर तो मेरे साथियो ने मुझे मजबूर किया। इधर वज़ीर ने फुसलाया। मैं तैयार हो गयी दो लाख मेरे साथी ले गए और एक लाख मेरे पास रह गए। लड़की मुझसे ले ली गयी। उसके बुध मज़हब में दाखिल करने की रस्म बड़ी धूम धाम से अदा हुई। कई रोज़ तक जश्न होते रहे। लड़की को कुछ मालूम न हुआ। उसका नाम सुगमित्रा रखा गया। कुछ दिन तो मुझे रनवास में रहने दिया गया। शायद इस वजह से कि लड़की नए माहौल से रानी और राजा से ,कनीज़ों और रनवास वालियों से मानूस हो जाये। कुकी जब सुगमित्रा ने नयी ज़िन्दगी शुरू की वहा उसका दिल लग गया। वह रानी से इस दर्जा मानूस हो गयी कि उसे अपनी माँ समझने लगी तो न मालूम क्यू मुझे महाराजा ने कश्मीर जाने का हुक्म दे दिया। इंकार से फायदा न समझ कर मुझे जाना पड़ा। रुपया मेरे साथ था। मैं कई बरस तक वहा रही या रखी गयी। अमीरो की सी शान से रफ्ता रफ्ता रूपया खर्च हो गया। जब मैं काबुल वापस आयी तो रनवास में जाने की इजाज़त न मिली। मैं दादर गयी। वह से फिर काबुल वापस आगयी।
मुझे काबुल आकर मालूम हुआ की बनारस से कुछ पंडित आये है। मैं उनसे मिली। उन्होंने ,बनारस मथुरा ,इलाहाबाद हरी द्वार के दिलकश मनाज़िर और हिन्द दिलचस्पियों के हालात कुछ ऐसे ब्यान किया की मुझे वहा से जाने की शौक़ पैदा हुआ। मैं न समझी की पंडित मुझे उभार कर वहा ले जा रहे है।
गरज़ मैं उनके साथ चल पड़ी। वहा से पेशावर। पेशावर से लाहौर पहुंची। पंजाब को देखा। उस मुल्क में पांच दरिया बहते है ,अच्छा सरसब्ज़ मुल्क है वहा से हरद्वार गयी। उस मुक़द्दस दरिया में ग़ुस्ल किया जिसे अहले हिन्द सबसे पाक समझते है। उसका नाम गंगा है ,गर्मियों के मौसम में वहा पहुंची थी। दरियाये गंगा का पानी मुझे बहुत पसंद आया ,वहा से बनारस गयी ,यह मुक़ाम भी बहुत अच्छा था। दरियाए गंगा के किनारा पर है। यहाँ वह पंडित रहते थे जो मेरे साथ आये थे ,या मुझे अपने साथ लाये थे।
बनारस पहुंच कर उन पंडितो की नियत पता चली। वह मुझे अपनी हवस का शिकार और बदकार बनाना चाहते थे मालूम यह हुआ की मुझ पर बुरी तरह फरिफ्ता है। मैं घबरा गयी ,उन्हें जल दे कर जल्दी उनके पास से भागी। उस मुल्क में थी जिसे मैं बिलकुल नहीं जानती थी। वहा से निकल कर और मुसीबतो में फँस गयी। उस मुल्क में जो आदमी भी मुझे माला गुमराह बदकार ही मिला। मेरी आबरू रेज़ी की हर शख्स ने कोशिश की मुझे अफ़सोस हुआ की इस मुल्क के लोग किस क़द्र मक्कार और गुनाह गार है मैंने बुढ़ियो के पास जाकर पनाह ली। वाज जवानो से भी ज़्यादा शैतान निकली। गरज़ मैं बारह बरस तक उस मुल्क में मारी मारी फिरि। ज़िन्दगी थी बच गयी और फिर काबुल में। आगयी
मुझे राबिआ या सुगमित्रा से जुदा हुए चौदा बरस से ज़्यादा गुज़र चुके थे। मैं उसे देखने के लिए बे क़रार हो गयी। लेकिन शाही महल में मुझे जाने की इजाज़त न थी। हर चंद कोशिश की रसाई न हुई। मैं राबिआ से कोशिश कर रही थी और एक पंडित मेरी आबरू लेने की फ़िक्र कर रहा था। मुझे मालूम न था उसने मेरी एक सहेली के ज़रिये से मुझे कोई ऐसी दवा खिलवा दी जिसने मेरा दिमाग खराब कर दिया और मुझे पागल हो गयी। मेरी यह दास्तान है बेटा ! अब मैं थक गयी हु। मेरी दरख्वास्त है कल फिर मेरे पास आना। मैं बाक़िया हालत तुम्हे सुनाऊँगी।
इलियास उसे सलाम करके उठे और अब्दुल्लाह के साथ चले आये।
अगला भाग ( बाक़िया दास्तान )