AQAAB PART 8

 


"आप एक बेहद बदतमीज़ इंसान हैं!!"

काफी देर से चुप बैठी मिलीहा ने अचानक कहा।

स्टेयरिंग पर उंगलियों से हल्का-हल्का म्यूजिक बजाते हुए
हमज़ा अली ने चौंक कर उसे देखा।

"क्या आपने मुझसे कुछ कहा, मोहतरमा?"
अली ने भौंहें चढ़ाकर उसे घूरा।

"जी हां! आप ही से बात कर रही हूं!!"
मिलीहा तमतमाते हुए बोली।

"फरमाइए! अब इस नाचीज़ ने क्या गुनाह कर दिया?"
उसने मासूमियत से पूछा।

"आपको शर्म नहीं आती? शरीफ और मासूम लड़कियों को परेशान करते हुए??"
मिलीहा ने गुस्से से पूछा।

हमज़ा अली के सिर पर तो बम ही फट गया!

"खुदा को मानो, बीबी!!"
"मुझ शरीफ इंसान पर तुम लड़कियों को परेशान करने का झूठा इल्ज़ाम लगा रही हो??"

"हां! इस पूरी दुनिया में सिर्फ आप ही शरीफ हैं, क्या??"
"हूंह!! बड़ा आया नवाज़ शरीफ का भाई..."
वह बड़बड़ाई।

"आप बताना पसंद करेंगी कि मैंने कब लड़कियों को परेशान किया? कोई सबूत है आपके पास??"
हमज़ा ने अब गंभीर लहजे में पूछा।

"सबूत चाहिए??"
"मैं खुद सबसे बड़ा सबूत हूं!"
"आपने मुझे डराया-धमकाया है!"
"सिर्फ आपकी वजह से सना को अकेले अंदर जाना पड़ा!"
वह गुस्से से बोली।

"मैंने आखिर किया क्या है??"
"एक तो इन हालात में आपको लिफ्ट दी और रही बात डॉक्टर सना की—वह डॉक्टर हैं, हस्पताल गई हैं, कोई 'लाइन ऑफ कंट्रोल' पर नहीं!!"

"और आपकी बात करें तो... मैंने कब धमकाया आपको??"

"आपने सिर्फ धमकाया नहीं, बल्कि ब्लैकमेल भी किया है!!"
अब के बार मिलीहा ने एक और इल्ज़ाम जोड़ दिया

हमज़ा आंखें फाड़कर इस पटाखा हसीना को देख रहा था।
अभी कुछ देर पहले भीगी बिल्ली बनी हुई थी, और अब इल्ज़ाम पर इल्ज़ाम लगाए जा रही थी।

"मोहतरमा, आप मेरे सारे गुनाह एक साथ ही बता दीजिए..."
"फिर मैं देखता हूं कि इनके 'अज़ाले' के लिए क्या कर सकता हूं!"
वह दांत भींचते हुए बोला।

"आपकी वजह से हमारा प्रोग्राम खराब हो गया!!"
"अब हम जलेबी खाने कैसे जाएंगे?"

"आपने मुझे सना के साथ जाने से रोका क्यों??"

"अच्छा-भला हम आपको चकमा देकर बैक डोर से निकल जाते, मगर नहीं!!!"

"आपने हमें धमकी दी कि हमारे 'सर' को बता देंगे और हमें ग्राउंड करवा देंगे!"

"अब बताइए, यह 'हैरासमेंट' नहीं तो और क्या है??"
वह गुस्से से भरी हुई थी।


"सना की घबराहट"

इससे पहले कि हमज़ा कोई जवाब देता,
हवा से भी तेज़ सना दौड़ती हुई आई और पिछला दरवाज़ा खोलकर अंदर बैठ गई।

"हमज़ा भाई, जल्दी करें... जल्दी!!"
"प्लीज़ यहां से निकलें!"
वह बुरी तरह डरी हुई थी।

"खैरियत, सना बहन??"
"किसी ने कुछ कहा है?? मुझे बताइए, मैं अभी जाकर दिमाग ठीक कर देता हूं!!"
हमज़ा उसकी डरी-सहमी हालत देखकर चौंका।

"आप बस यहां से निकलें..."
"कुछ नहीं हुआ... मैं बस..."
सना रोने को थी।

हमज़ा ने बिना वक्त गवाए गाड़ी स्टार्ट की और धड़धड़ाते हुए पार्किंग से बाहर निकल आया।


"चार साल बाद की मुलाकात"

वह जैसे ही मुड़ा,
उसकी आंखें, और उसके साथ पूरा वजूद भी साक्त हो गया।

"यह... यह वही है??"

वह अपने सामने खड़ी लड़की को बिना पलक झपकाए देख रहा था।

"अगर गलती से भी पलक झपकी, तो यह सपना खत्म हो जाएगा!"

चार साल...!!
पूरा चार साल बाद, वही चेहरा सामने था।

इन चार सालों में वह और भी निखर गई थी

वह गौर से उसके कांपते हुए हाथों को देख रहा था।

अभी वह उसकी ओर बढ़ता,
लेकिन इससे पहले ही...

वह मुड़ी और दौड़ती हुई बाहर निकल गई।

एक जादू सा टूटा था।

यह कोई ख्वाब या वहम नहीं था।

वह सच में उसके सामने थी!!

वह तेजी से उसके पीछे भागा,
लेकिन तभी...

पीछे से अस्फंद ने उसका कंधा पकड़ लिया।

"असामे!"
"मुझे पता है तुम लेट हो रहे हो, चलो, तुम्हें बेस छोड़ दूं!"

"आप कार स्टार्ट करें!"
"मैं एक मिनट में आया!"

असामे ने अस्फंद का हाथ अपने कंधे से हटाया और तेजी से बाहर की ओर भागा

मेन एंट्रेंस पर पहुंचकर चारों तरफ नजर दौड़ाई...

लेकिन...
वह कहीं नहीं दिखी।

तभी उसकी नजर तेज़ रफ्तार से निकलती एक कार पर पड़ी

पीछे की सीट पर...
वह सर झुकाए बैठी थी।

असामे ने गहरी सांस ली और मुस्कुरा दिया।

काफी सालों के बाद उसके लबों पर मुस्कान आई थी।

वह उस कार को बहुत अच्छी तरह पहचानता था...


"27 फरवरी 2019 – भारत को करारा जवाब"

"हालात की तंगहाली बढ़ती जा रही थी!"

"कई बार नाकाम होने के बावजूद दुश्मन अपनी हरकतों से बाज़ नहीं आ रहा था।"

"भारतीय सेना की तरफ से भंबर के कई सेक्टरों में फायरिंग का सिलसिला जारी था।"

लेकिन...

"पाकिस्तानी सेना भी उन्हें करारा जवाब दे रही थी!"

"पाकिस्तानी फौज पूरी जिम्मेदारी से दुश्मन की हर चाल नाकाम बना रही थी।"

"और पाकिस्तानी एयरफोर्स के शाहीन उन्हें आसमान से कुचल रहे थे!"

"क्योंकि..."
"हमेशा से ही पाकिस्तानी एयरफोर्स को भारत पर 'हवाई वर्चस्व' (एरियल सुप्रेमेसी) हासिल रही है!"


"भारतीय सेना की कायराना हरकतें"

"बढ़ती हुई लड़ाई की वजह से लाइन ऑफ कंट्रोल के कई नागरिकों को घर छोड़कर जाना पड़ा।"

"भारतीय सेना ने आम जनता को टारगेट करना शुरू कर दिया था।"

"जिसकी वजह से कई लोग घायल हुए और घर तबाह हो गए।"

"लेकिन पाकिस्तानी सेना के जवाबी हमलों में कई भारतीय चौकियां तबाह हो गईं!"


"26 फरवरी 2019 – भारतीय सेना का झूठा प्रोपेगेंडा"

"भारतीय सेना ने फिर एक नई चाल चली!"

"उनका टारगेट फिर से पाकिस्तानी नागरिक थे!"

"लेकिन पाकिस्तानी सेना की फुर्ती ने उन्हें फिर से नाकाम कर दिया!"

"इसके बावजूद भारतीय सेना ने झूठा दावा किया कि उन्होंने 360 आतंकवादियों को मार गिराया!"

"लेकिन सच्चाई ये थी कि उन्होंने जबा के इलाके में सिर्फ 4 बम गिराए!"

"ना कोई जानी नुकसान हुआ, ना कोई मकान गिरा।"

"और भारत हमेशा की तरह झूठ पर झूठ बोलता रहा..."


"27 फरवरी 2019 – वह ऐतिहासिक दिन!"

"जब पाकिस्तान एयरफोर्स ने भारत की बेज़्ज़ती कर डाली!"

  पाकिस्तानी हुदूद से लाइन ऑफ कण्ट्रोल के पार करवाई की गयी जिसमे जे.फ थंडर तैयारो को इस्तेमाल किया गया।  करवाई के जवाब में भारती फ़िज़ाइया के दो मग २१ तैयारो लाइन ऑफ कण्ट्रोल के खिलाफ वर्ज़ी करते हुए पाकिस्तानी हुदूद  में दाखिल ,जिन्हे फौरी तौर पर ट्रैक करके पाक फ़िज़ाइया ने निशाना बना लिया। 


जिसमें से एक विमान आज़ाद कश्मीर के खोई रट्टा सेक्टर तहसील समाहनी और दूसरा विमान क़ब्ज़े वाले कश्मीर के ज़िला बडगाम में जा गिरा।

भारतीय वायुसेना के लड़ाकू विमान का पायलट अभिनंदन पाकिस्तान की हवाई सीमा में प्रवेश कर टारगेट तलाश कर रहा था, जब उसे बड़ी आसानी से पाक वायुसेना ने ट्रैक किया और उसका विमान मार गिराया। विमान पर हमला होने के बाद वह टुकड़ों में बिखर गया, जिससे उसे विमान छोड़ना पड़ा।

पायलट नीचे गिरा तो उसके पास सिर्फ़ एक पिस्तौल थी। वह विमान छोड़कर भागने लगा, लेकिन आसपास लोग ज़्यादा थे। उसे लगा कि वह शायद भारत की सीमा में है। लोगों ने उसे पकड़ लिया।

"मैं इंडिया में हूँ क्या?" उसने पूछा।
"हाँ, तुम इंडिया में हो।" एक बाबा ने तंज़िया जवाब दिया।
"जय हिंद!" उसने जोश में नारा लगाया।
जो एक बुजुर्ग बाबा से सहन नहीं हुआ और उन्होंने उसे थप्पड़ जड़ दिया।
"नहीं, तुम पाकिस्तान में हो।" उन्होंने कहा।

यह सुनकर अभिनंदन की हालत ख़राब हो गई। उसने वहाँ से भागने की कोशिश की, जिस पर लोगों ने उसे पत्थर मारने शुरू कर दिए और वह रुक गया।
"मुझे मत मारो! देखो, मैं खुद को आपके हवाले करता हूँ।" उसने ग़ुस्साए भीड़ से कहा और चालाकी दिखाते हुए नदी में कूद गया, लेकिन फिर भी पकड़ा गया।

उसके पास अब एक ही रास्ता था—पिस्तौल फेंककर भागना। लोग बहुत ग़ुस्से में थे और उसे मार रहे थे, लेकिन पाक सेना के जवानों ने उसे इस ग़ुस्साई भीड़ से बचाया। न केवल बचाया, बल्कि उसके साथ बेहतरीन व्यवहार भी किया, जिसका अभिनंदन ने खुद भी स्वीकार किया।


शाम ढल चुकी थी। हल्का-हल्का धुंधलका छाने लगा था, तभी अचानक भारी फ़ायरिंग की आवाज़ों से समाहनी गूंज उठा। शेलिंग भी शुरू हो चुकी थी।
हमज़ा बहुत सावधानी से गाड़ी कैंप तक ले आया था और अब उन दोनों लड़कियों को लेकर मेजर डॉक्टर शब्बीर के सामने खड़ा था, उन्हें सारी जानकारी दे रहा था।

"मिस्टर हमज़ा, आपका बहुत शुक्रिया, आपने हमारी डॉक्टरों की मदद की।"
मेजर डॉक्टर शब्बीर ने हमज़ा का शुक्रिया अदा किया।

"इट्स ओके, सर! अगली बार अगर आपको कोई सैंपल या दवाइयाँ भेजनी हों तो मुझे बता दीजिएगा। मैं खुद या फिर कोई और इसे पहुँचा देगा। हालात अच्छे नहीं हैं और वैसे भी लड़कियों का अकेले निकलना इन इलाकों में ठीक नहीं समझा जाता।"
वह संजीदगी से कहता हुआ उनसे इजाज़त लेकर चला गया, जाते-जाते उसने एक नज़र मलिहा पर डाली।

"डॉ. सना और डॉ. मलिहा, मुझे आप दोनों से ऐसी गैर-ज़िम्मेदारी की उम्मीद नहीं थी! हॉस्पिटल जाने का कहकर आप समाहनी जा रही थीं?"
डॉ. शब्बीर ने दोनों की तरफ़ रुख किया।

"लेकिन सर! आप मेरी बात तो सुनिए..."
मलिहा ने धीमी आवाज़ में कहा।

"नो एक्सक्यूज़! कल से आप दोनों रोज़ सुबह ठीक पाँच बजे ओपीडी में होंगी। इट्स एन ऑर्डर!"

"यस, सर!"
वो दोनों कमरे से बाहर निकल गईं।


"और खाओ जलेबियाँ! देखना, अब सर शब्बीर हमें कहीं जाने नहीं देंगे।"
सना ने कमरे में घुसते ही अपना बैग बिस्तर पर फेंका और स्कार्फ़ उतारकर मुँह धोने चली गई।

बाथरूम में जाकर उसने गहरी साँस ली। उसका दिल अब तक ज़ोर-ज़ोर से धड़क रहा था। उसे अब भी ऐसा महसूस हो रहा था कि उसामा की नज़रें उसके जिस्म पर गड़ी हुई हैं।

"अगर उसने मुझे पहचान लिया तो?"
वह सिहर उठी।

"बस! अब कुछ भी हो जाए, मेडिकल कैंप से बाहर नहीं निकलना है!"
उसने खुद से वादा किया और मुँह पोंछती हुई बाहर निकल आई।

"तुम्हारी तबीयत तो ठीक है? मैं हॉस्पिटल से नोटिस कर रही हूँ कि तुम कुछ बुझी-बुझी सी लग रही हो।"
मलिहा ने उसकी तरफ़ तौलिया बढ़ाया।

"मुझे क्या होना है? मैं बिल्कुल ठीक हूँ, बस शायद थकान की वजह से सिर दर्द हो रहा है।"
वह उससे नज़रें चुराते हुए बोली।

मलिहा ने साइड टेबल से एनाटॉमी की किताब उठाई और लैंप जला लिया।

"अब यह कौन-सा टाइम है एनाटॉमी पढ़ने का?"
सना ने उसे घूरा।

"तुम अच्छी तरह जानती हो, मुझे पढ़े बिना नींद नहीं आती। और आज तो मैं वैसे भी उस मूर्ख की वजह से बहुत ग़ुस्से में हूँ!"
मलिहा ने किताब खोलते हुए कहा।

"अच्छा मलिहा! एक बात बताओ, तुम्हें हमज़ा भाई कैसे लगते हैं?"
सना बिस्तर पर बैठते हुए बोली।

"वो बस ठीक ही हैं!"
मलिहा ने किताब पढ़ते हुए जवाब दिया।

"बस ठीक? अरे, अच्छे-ख़ासे तो हैं हमज़ा भाई, और उस पर वकील भी हैं!"
सना ने मज़ाकिया अंदाज़ में कहा।

"सना! पहले ही दिमाग़ का दही बना हुआ है, अब तंग मत करो। याद है, कल से सुबह चार बजे ड्यूटी लगी है?"
मलिहा ने उसे टोका।

"अच्छा यह बताओ, तुम हॉस्पिटल से इतनी घबराई हुई क्यों निकली थीं, जैसे कोई भूत देख लिया हो?"
मलिहा ने सवाल किया।

सना इसी सवाल से बचना चाहती थी। उसका चेहरा एक पल को फीका पड़ गया।

"नहीं, वो बस... मुझे तुम्हारी फ़िक्र थी। हमज़ा भाई ग़ुस्से में थे ना, तो..."
वह हाथ मसलते हुए बोली।

"यह तो है! आज सिर्फ़ उसी की वजह से हम मशहूर ज़माने की जलेबियाँ खाने से वंचित रह गए!"
मलिहा ने ग़ुस्से से कहा।

"वैसे मलिहा! मुझे लगता है हमज़ा भाई तुम्हें पसंद करते हैं... क्या तुम भी?"

"सना! तुम कहना क्या चाहती हो?"
मलिहा ने उसे घूरा।

"मैं सिर्फ़ यह कहना चाहती हूँ कि मान लो, हमज़ा भाई तुम्हें पसंद करते हैं और तुम भी उनसे प्रभावित हो। वैसे भी तुम्हें तो वकील ही चाहिए था ना?"

"सना, प्लीज़! मैंने अभी ऐसा कुछ नहीं सोचा है। और वैसे भी, वो जब भी मिले हैं, ग़ुस्से में ही मिले हैं!"
मलिहा ने हाथ छुड़ाया।

"चलो अब सोने की सोचो! सुबह चार बजे उठना है।"
मलिहा ने लैंप बंद किया और लेट गई।

कमरे में ख़ामोशी छा गई। सना की आँखों से नींद कोसों दूर थी। आँखें बंद करती तो उसे उसामा का चेहरा नज़र आता।

"पता नहीं, वो आज भी पहले जैसा अहंकारी और घमंडी है या बदल गया है? अगर उसने मुझे भुला दिया तो? और अगर नहीं भूला तो?"
चार साल बाद भी उसामा की घृणा से भरी आवाज़ उसकी यादों में ज़िंदा थी...

एक आँसू उसकी आँखों से निकलकर तकिए में समा गया...


हालात बेहतर हो रहे थे, लेकिन तनाव अब भी बाकी था। स्कूल, कॉलेज और रोज़मर्रा की ज़िंदगी के सभी कामकाज अपनी सामान्य स्थिति में लौट चुके थे।

रातभर की ड्यूटी के बाद वह अभी आराम करने लेटा ही था कि उसकी आँखों के सामने फिर वही दुश्मन जान चेहरा उभर आया...

हालात ही कुछ ऐसे हो गए थे कि वह चाहकर भी तीन-चार दिनों से अली से नहीं मिल पाया था। लेकिन उसके दिल को यह सुकून था कि फातिमा अभी भी उसकी पहुंच से बाहर नहीं थी।

कल उसका छुट्टी का दिन था, इसलिए वह सोने की बजाय सुबह होने का इंतज़ार कर रहा था। सुबह होते ही उसने सबसे पहले अली को फोन मिलाया।

"अली, तुम फातिमा को कैसे जानते हो?"
फोन उठाते ही उसने सीधे सवाल किया।

"आज फिर तुझे फातिमा का भूत सवार हो गया है? सब ठीक तो है? और मैं तो उन्हें तेरे ही रेफरेंस से जानता था।" अली ने कहा।

"अगर तू उसे नहीं जानता, तो चार दिन पहले वह तेरी गाड़ी में क्या कर रही थी?" उसामा ने ठंडे लहज़े में पूछा।

"यार, मैं तो कभी फातिमा भाभी से मिला भी नहीं हूँ। और अगर कभी उन्हें गाड़ी में बैठाता भी तो सीधे तुझे ही लेकर आता।"
अली के दिमाग़ में कुछ कौंधा।

"उसामा! तू कहाँ है? मैं आ रहा हूँ!" अली खड़ा हुआ।

"नहीं, यहाँ सिविलियन्स को आने की इजाज़त नहीं है। तू अपना पता भेज, मैं खुद आ रहा हूँ।" उसामा ने दो टूक कहा।

अली का पता उसके हाथ में था। जीप में बैठकर समाहनी तक का सफर उसने जैसे किसी ग़ायब दिमाग़ी की हालत में किया था। न जाने उसके दिमाग़ में क्या-क्या चल रहा था...

जीप को तेज़ी से ड्राइव करता हुआ वह अपने ख्यालों से बाहर निकला। समाहनी का इलाक़ा आ चुका था। वह अपने मंज़िल पर पहुँच चुका था। आस-पास के खूबसूरत नज़ारे कितने दिलकश थे, यह आज उसने महसूस किया!

आज उसे अपनी खोई हुई मोहब्बत और भूली-बिसरी यादें याद आ रही थीं...

फातिमा से उसने सच में मोहब्बत की थी। ऐसी मोहब्बत, जो पहले नफ़रत से शुरू हुई थी। कहते हैं ना कि नफ़रत प्यार की पहली सीढ़ी होती है। फिर उसे फातिमा के वजूद से अपनापन महसूस होने लगा। यह अपनापन कब उसकी मिल्कियत के अहसास में बदल गया, उसे पता ही नहीं चला। चाचा के इंतकाल के बाद तो उसने उसे अपनी ज़िम्मेदारी मान लिया था। बस प्यार जताने का तरीका नहीं आता था। यही वजह थी कि वह लड़की उससे नफरत करने लगी थी।

चार साल, अलग-अलग ट्रेनिंग और पोस्टिंग में व्यस्त रहने के बावजूद, उसका दिल हर वक़्त तड़पता रहता था। कौन सा ऐसा शहर था, जहाँ उसने फातिमा को नहीं ढूँढा था?

वह अपने ख़याल झटकते हुए जीप बंद करके नीचे उतरा। अली बाहर ही खड़ा उसका इंतज़ार कर रहा था।

यह नदी के पास का इलाक़ा था। अली उसे देखकर फौरन लपककर उसके पास आया।

"शुक्र है, तू आ गया! जब से तूने फातिमा भाभी के बारे में पूछा है, तब से एक पैर पर खड़ा तेरा इंतज़ार कर रहा हूँ! अब बता, इतनी बड़ी बात तूने मुझसे कैसे कह दी?"
अली ने ग़ुस्से से उसे घूरते हुए पूछा।

"अली, मैंने खुद फातिमा को तेरी गाड़ी में देखा है।"

"कब देखा? कहाँ देखा?" अली ने पूछा।

"चार दिन पहले, अस्पताल की पार्किंग में। वह पीछे बैठी हुई थी और तू ड्राइव कर रहा था।"

"अस्पताल में? लेकिन वो तो डॉक्टर सना और डॉक्टर मलिहा थीं! मैंने उन्हें लिफ्ट दी थी।" अली उलझ गया।

"डॉक्टर? तू श्योर है?" उसामा ने हैरानी से पूछा।

"हाँ, डॉक्टर!" अली ने सिर हिलाया।

"लेकिन फातिमा तो आर्ट्स पढ़ रही थी, वह डॉक्टर कैसे बन सकती है?"
उसामा चौंक गया।

"हो सकता है तुझे डॉक्टर सना को देखकर फातिमा का भ्रम हुआ हो?" अली ने अंदाज़ा लगाया।

"नहीं! मेरी आँखें कम से कम फातिमा को पहचानने में धोखा नहीं खा सकतीं। मैं उसे आँखें बंद करके भी पहचान सकता हूँ। यह तो फिर भी खुली आँखों से देखा था!" उसामा ने ठोस लहज़े में कहा।

"ठीक है! मेडिकल कैंप चलते हैं। वहाँ जाकर दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा।"
अली ने उसामा को साथ चलने का इशारा किया।

वे दोनों मेडिकल कैंप पहुँचे तो वहाँ लोकल वर्कर्स काम कर रहे थे।

"भाई, जो डॉक्टरों की टीम आई हुई थी, वो कहाँ है?"
अली ने एक आदमी को रोककर पूछा।

"साहब, हालात बहुत बेहतर हो गए हैं, तो डॉक्टर आज ही वापस चले गए।" उस आदमी ने जवाब दिया।


उसामा फिर देर कर चुका था। वह जा चुकी थी। अब एक ही रास्ता बचा था—मेजर असफंद से मिलकर फातिमा की सारी जानकारी लेना।

उसने जीप में बैठकर मेजर असफंद को फोन मिलाया।

"अगर आप ड्यूटी पर नहीं हैं, तो क्या मैं आपसे मिल सकता हूँ?"
उसामा ने सीधे पूछा।

"लेफ्टिनेंट उसामा! मैं अपनी माँ के साथ अस्पताल में हूँ। तुम यहीं आ जाओ।"
असफंद ने गंभीरता से कहा।

"ओके! मैं आता हूँ।"
उसामा ने फोन रखा।

"चलो अली, अस्पताल चलते हैं। मेजर असफंद फातिमा के बारे में ज़रूर सब जानते होंगे। और वह तो उनकी पक्की मुरीद थी।"
उसामा ने जीप स्टार्ट की।

"अस्पताल जाने से बेहतर नहीं कि हम उनके पीछे जाएँ? चौकीदार कह रहा है कि उन्हें गए मुश्किल से आधा घंटा हुआ है। हम उन्हें रास्ते में रोक सकते हैं।"
अली ने संजीदगी से कहा।

"नहीं अली! मैं यहाँ पोस्टेड हूँ। माना कि आज मेरी छुट्टी है, लेकिन मुझे शहर से बाहर जाने की इजाज़त नहीं है।"
उसामा ने समझाया।

"मुझे तो ऐसी कोई पाबंदी नहीं है! तुम अस्पताल जाओ, मैं बस के पीछे जा रहा हूँ। और भाभी को लेकर ही आऊँगा! बस तुम मेरे फोन का इंतज़ार करना।"
अली जीप से कूदकर उतरा।

"अली यार! ऐसा मत कर, मैं नहीं चाहता कि वह मुझसे और दूर हो जाए..."

"उसामा, वह तेरी है! तूने चार साल उसकी तलाश में बिता दिए! और अगर वह फिर कहीं और शिफ्ट हो गई तो? अभी तो यह भी कंफर्म करना है कि वह फातिमा ही है या नहीं! यार, मुझे मत रोक। तू अस्पताल जा, मैं उन्हें ट्रैक करता हूँ।"
अली ने साफ़ कहा और आगे बढ़ गया।


मेजर असफंद बड़े आराम से अपनी माँ को दवा पिला रहे थे, जब दरवाज़ा खटखटाया गया। अनुमति मिलने पर उसामा अंदर दाखिल हुआ।

"आओ, उसामा! अम्मा जी, इनसे मिलिए, ये कैप्टन उसामा हैं—आपकी गुड़िया के शौहर!"
असफंद ने मुस्कुराते हुए कहा।

उसामा की माँ बेहद नफ़ासत भरी महिला थीं। उन्होंने बहुत प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरा।

"और उसामा, ये हैं मेरी और फातिमा की प्यारी अम्मा जी!"

उसामा हैरान था।

"मुझे तो यक़ीन नहीं हो रहा कि डैड को यह सब पता था... और उन्होंने मुझसे कभी कुछ नहीं कहा!"


चार साल पहले…

फातिमा किसी भी हाल में उस घर में रहने को तैयार नहीं थी। उसने असफ़ंद से मदद मांगी थी, और असफ़ंद इस वक़्त मुहसिन नक़वी साहब के सामने बैठा था।

"सर! आप बात को समझें, वह मेरी बहन है। मैं हरगिज़ उसका बुरा नहीं चाहता, लेकिन जबरदस्ती करने से यह मसला और उलझ जाएगा।"
असफ़ंद उन्हें सारी बात समझाने की कोशिश कर रहा था।

"हम्म… लेकिन फातिमा ने हमें इतना पराया क्यों समझा? उसने हमसे कुछ क्यों नहीं कहा?"
मुहसिन साहब ने गंभीर स्वर में पूछा।

"सर! वह क्या कहती? क्या आपने कभी उससे पूछा? आप वाकई बहुत व्यस्त रहते हैं, लेकिन वह आपके छोटे भाई की निशानी है। उसे शिकायत है कि आपको तो यह तक नहीं पता कि वह क्या पढ़ रही है, क्या करना चाहती है?"
असफ़ंद ने नरमी से समझाया।

मुहसिन साहब सोच में पड़ गए। फिर उन्होंने इंटरकॉम पर फातिमा को स्टडी में बुलाने के लिए कहा।

कुछ ही देर में दरवाज़े पर दस्तक हुई और फातिमा अंदर दाखिल हुई।

"फातिमा बेटी, इधर मेरे पास आओ।"
उन्होंने उसे अपने पास बिठाया।

"मुझे तुमसे शिकायत है! तुमने मुझे अपना पिता क्यों नहीं समझा?"
उन्होंने गंभीर लहज़े में कहा।

"नहीं अंकल, ऐसी बात नहीं है…"
फातिमा ने नज़रें उठाईं।

"नहीं, बेटा। आज मैं अपने भाई की आत्मा के सामने शर्मिंदा हूँ। तुम इस घर से बिना बताए जाने का फ़ैसला कर रही थी।"

"अंकल, प्लीज़!"
वह लगभग रो पड़ी।

"तुम्हें मेडिकल पढ़ना है?"
उन्होंने सीधे पूछा।

"जी, अंकल!"
फातिमा की आँखों में उम्मीद की चमक आ गई।

"ठीक है, मैं राज़ी हूँ। लेकिन मेरी भी एक शर्त है।"

"जी अंकल, आप हुक्म करें।"
वह बेसब्री से बोली।

"हम तुम्हारा निकाह उसामा से कर देते हैं, ताकि हमारे दिल को भी तसल्ली रहे। निकाह के बाद तुम कॉलेज जॉइन कर सकती हो। बोलो, मंज़ूर है?"

फातिमा हकबका गई।

"अंकल, आप उन्हें बहुत अच्छी तरह जानते हैं। मैं इस तरह से पढ़ाई नहीं कर पाऊँगी। वह बहुत रूड और सख्त हैं, और मेडिकल की पढ़ाई बहुत ध्यान मांगती है।"
वह हिचकिचाई।

मुहसिन नक़वी साहब भी उसामा की हर आदत से वाक़िफ़ थे। उन्हें एहसास था कि वह कभी भी फातिमा को खुद से या इस घर से दूर नहीं जाने देगा। दूसरी तरफ़, फातिमा भी उससे डरी हुई थी।

"असफ़ंद बेटा, तुम मौलवी साहब को बुलवाओ। यह निकाह आज ही होगा। और कल तुम फातिमा को रावलपिंडी ले जाओगे। मैं हॉस्टल में उसके रहने का इंतज़ाम करवा दूँगा।"


"क्या?!"
उसामा को यक़ीन नहीं हुआ।

"तुम्हारा और फातिमा का निकाह चार साल पहले ही हो चुका था।"
मेजर असफ़ंद ने ठंडी आवाज़ में कहा।

उसामा को लगा जैसे उसके पैरों तले ज़मीन खिसक गई हो…


"मगर सर, उसामा तो...?"
"हम... टेलीफोन पर निकाह पढ़वाएँगे। उसामा परसों आकर दस्तख़त कर देगा और फातिमा बेटी आज ही साइन कर देगी।"
उन्होंने उसकी बात काटते हुए कहा।

असफ़ंद सिर हिलाता हुआ बाहर निकल गया।

"अंकल, ये आप क्या कर रहे हैं? प्लीज़ ऐसा मत करें..."
वह रोते हुए बोली।

उन्होंने अपने दोस्त को फोन मिलाकर कुछ देर बात की, फिर वकील को फोन करके बुलाया।

"अंकल! आप मेरी बात तो सुनिए?"
फातिमा ने उनका हाथ पकड़ लिया।

उन्होंने प्यार से उसके सिर पर हाथ रखा और फिर उसामा को फोन मिलाया।

"कैसे हैं, डैड? मम्मी कैसी हैं?"
सलाम-दुआ के बाद उसामा की भारी आवाज़ आई।

"सब ठीक है, तुम्हारी मम्मी किसी उद्घाटन समारोह में गई हुई हैं। अच्छा सुनो, बीस मिनट में कर्नल रफ़ीक़ के घर पहुँचो। वहाँ सब तुम्हारा इंतज़ार कर रहे हैं।"

"ख़ैरियत, डैड?"
उसामा उलझ गया।

"सब ठीक है। बस बीस मिनट में तुम्हारा और फातिमा का निकाह स्काइप पर पढ़वाया जाएगा।"

"डैड! क्या हुआ है? ऐसी भी क्या इमरजेंसी है? मैं तो आ ही रहा हूँ वीकेंड पर।"
वह पूरी तरह से उलझ चुका था।

"यंग मैन! तुम्हें निकाह करना है या नहीं?"
उन्होंने सख्त लहज़े में पूछा।

"यस, डैड! लेकिन ऐसे..."

"ठीक बीस मिनट में गवाहों के साथ स्काइप पर आ जाओ, वरना फातिमा को भूल जाना!"
मुहसिन नक़वी साहब ने फोन काट दिया।

"देखो फातिमा! तुम मेरे भाई की आखिरी निशानी हो। वह मरने से पहले उसामा को तुम्हारी ज़िम्मेदारी सौंप गया था। इस निकाह के बाद तुम पूरी आज़ादी से अपनी पढ़ाई पूरी कर सकती हो। तुम्हारे पास पूरे चार साल हैं। इस दौरान मैं तुम्हारे बारे में किसी को कुछ नहीं बताऊँगा—ना तुम्हारी आंटी को, ना उसामा को। लेकिन फाइनल ईयर के बाद मैं उम्मीद करता हूँ कि तुम इस रिश्ते को एक मौका दोगी।"
उन्होंने प्यार से समझाया।


वर्तमान में...

उसामा आज बहुत खुश था। चाहे जैसे भी हुआ हो, लेकिन फातिमा अब उसकी हो चुकी थी। अब वीकेंड तक इंतज़ार करना बहुत मुश्किल था।

शनिवार को वह कराची पहुँचा। मम्मी-डैड से मिलने के बाद वह ऊपर अपने कमरे की तरफ़ बढ़ा। इरादा उस 'जालिम मनकोहा' के कमरे में झाँकने का भी था।
दो साल से उसने फातिमा को नहीं देखा था, और अब निकाह के बाद तो उसके एहसास ही बदल गए थे।

उसने ऊपर पहुँचकर फातिमा के कमरे का बंद दरवाज़ा देखा और फिर अपने बालों पर हाथ फेरते हुए झटके से दरवाज़ा खोला—पर वह वहाँ नहीं थी।

वह मायूस होकर अपने कमरे में चला गया।

शाम को उसे मुहसिन नक़वी साहब ने स्टडी रूम में बुलाया।

"जी, डैड! आपने बुलाया?"
वह दरवाज़ा खोलकर अंदर आया।

मुहसिन नक़वी साहब ने अपने खूबसूरत बेटे को देखा—मजबूत कद-काठी, चौड़ा सीना, फ़ौजी स्टाइल में कटे हुए बाल। उनकी आँखों में तारीफ़ उभर आई।

"उसामा, तुम्हें एक ज़रूरी बात बतानी है। जिस दिन तुम्हारा निकाह हुआ था, उसी दिन से फातिमा ग़ायब है। हमने उसे बहुत ढूँढा, हर ज़रिया इस्तेमाल किया, लेकिन कुछ पता नहीं चला।"

उसामा की आँखें फैल गईं।

"यह आप क्या कह रहे हैं, डैड? और आपने मुझे फ़ौरन क्यों नहीं बताया?"
उसका गुस्से से बुरा हाल हो गया था।

"तुम परेशान मत हो, मैं सब देख रहा हूँ। इंशा’अल्लाह, फातिमा हमें मिल जाएगी।"
उन्होंने उसे शांत करने की कोशिश की।

"डैड! वह मेरी इज़्ज़त है, मेरी बीवी है! मैं उसे कैसे छोड़ सकता हूँ? उसे पाताल से भी ढूँढ निकालूँगा!"
वह गरजा।


चार साल बाद...

कभी-कभी इंसान के पास सारे इख़्तियार होते हुए भी वह खुद को बेबस महसूस करता है।

फातिमा ने कभी नहीं सोचा था कि अचानक उसकी पूरी ज़िंदगी बदल जाएगी। वह अपने बाबा की लाडली बेटी थी, उसका मक़सद अपने माता-पिता के सपने पूरे करना था। लेकिन आज, अपने ही वारिसों के बीच होते हुए भी वह खुद को लावारिस महसूस कर रही थी।

वह हमेशा से एक आज्ञाकारी और सुलझी हुई लड़की रही थी। चाहकर भी वह अपने ताया को मना नहीं कर पाई थी।

क़िस्मत ने फ़ैसला सुना दिया था—उसामा को उसके सर का साया बना दिया था। लेकिन यह उसका अपना फ़ैसला नहीं था। यह क़ुदरत का फ़ैसला था, जिसे वह दिल से स्वीकार नहीं कर पा रही थी।

समय बीत चुका था। वह अब मेडिकल कॉलेज के फाइनल ईयर में थी। उसे घर छोड़े हुए चार साल हो चुके थे। लेकिन अब भिम्बर में उसामा को देखकर वह घबरा गई थी। उसे डर था कि वह उससे बीते सालों का कड़ा हिसाब लेगा।

यही वजह थी कि जब कुछ डॉक्टरों ने वापस कैंपस जाने का फैसला किया, तो वह सबसे आगे थी।

"सना! किन सोचों में खोई हुई हो?"
मलिहा ने उसका कंधा हिलाया।

"कुछ नहीं... बस यूँ ही।"
वह बुझी हुई आवाज़ में बोली।

अभी वे दोनों बातें कर रही थीं कि बस एक झटके से रुकी।

थोड़ी ही देर में दरवाज़ा खुला और हमज़ा अली अंदर आया। वह डॉक्टर शब्बीर से कुछ बातें करने के बाद उनके सामने की सीट पर बैठ गया। बस फिर से चल पड़ी।

"आप दोनों ऐसे बिना बताए कैसे जा रही थीं? किसी के दिल से खेलकर जाना आपकी आदत लगती है। लेकिन इस बार ऐसा नहीं होगा।"
वह जलाने वाली मुस्कान के साथ मलिहा को घूर रहा था।

"आप हमारे कौन होते हैं, जो हम आपको बताकर जाते? अपनी हद में रहिए, मिस्टर वकील!"
मलिहा चुप रहने वालों में से नहीं थी, उसने करारा जवाब दिया।

"मलिहा बीबी, तमीज़ से बात करें। वरना अगर मुझे गुस्सा आया, तो ये सारी अकड़ दो सेकंड में निकाल दूँगा!"
वह दाँत भींचते हुए बोला।

"इतनी कमजोर नहीं हूँ मैं! अभी सर से आपकी शिकायत करती हूँ!"
वह उठकर जाने लगी।

"अच्छा, तो शिकायत लगानी है?"
उसने मलिहा को दोबारा सीट पर धकेला।

"आप... आप अपनी हद में रहिए!"
मलिहा तिलमिला उठी।

"आपकी हरकतें ही मुझे अपनी हद में रहने नहीं देतीं। ख़ैर, अभी मुझे फातिमा भाभी से काम है।"
उसने अपना रुख फातिमा की तरफ़ किया, जो अपना नाम सुनकर चौंक गई थी।

"महाशय, आप ग़लत जगह लाइन मार रहे हैं! यहाँ कोई फातिमा नहीं है।"
मलिहा ने टोक दिया।

"फातिमा भाभी! आप अपनी दोस्त को चुप कराएँगी या फिर मुझे करना पड़ेगा?"
वह अब फातिमा से सीधे मुख़ातिब हुआ।

"यह आप सना से कैसे बात कर रहे हैं?"
फातिमा ने टोका।

"भाभी, आप अभी मेरे साथ चल रही हैं। मैं खुद आपको एक-दो दिन में रावलपिंडी छोड़ दूँगा।"
वह ठंडे लेकिन दो टूक लहज़े में बोला और फोन निकालकर उसामा को कॉल मिलाने लगा।

"सुनो, असफ़ंद भाई से बात करवाओ।"
फोन उठते ही वह बोला।

उसने असफ़ंद को सारी सिचुएशन बताई।

"असफ़ंद भाई, आप हमें पिक कर लें। मैं भाभी को लेकर बस से उतर रहा हूँ!"

"ओके!"

उसने फोन फातिमा की तरफ़ बढ़ाया।

"फातिमा बेटा, अम्मी की तबीयत बहुत खराब है। वह अस्पताल में भर्ती हैं और तुमसे मिलना चाह रही हैं। मैं तुम्हारे सीनियर से बात कर रहा हूँ, तुम बस से उतर जाओ। मैं आ रहा हूँ लेने। फोन हमज़ा को दो।"

हमज़ा फोन लेकर मेजर डॉक्टर शब्बीर के पास गया।

कुछ ही मिनटों बाद, फातिमा हमज़ा अली के साथ बस से बाहर थी...


असफंद ने अली से बात करके फोन रखा और चौकस खड़े उसामा से कहा,
"जाओ, उसे ले आओ, लेकिन देखो, उससे सख्ती से पेश मत आना और सीधे अस्पताल ही आना।"
"सर, आप अभी भी मुझ पर भरोसा नहीं कर रहे हैं? आपको सिर्फ अपनी बहन की चिंता है..."
उसामा ने फोन अपनी जेब में रखते हुए कहा।
"सर, नहीं, तुम मुझे भाई कह सकते हो। और वह अगर मेरी बहन है, तो यकीन करो, उसके रिश्ते से तुम भी मुझे उतने ही प्यारे हो। और जिस तरह से तुमने खुद को संभाला है, वह काबिल-ए-तारीफ है। मुझे तो आज भी यकीन नहीं होता कि तुम वही उसामा हो, जो मुझे सर्विस अस्पताल में मिला था, फातिमा को डराते हुए।"
असफंद ने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा।
"असफंद भाई, अगर आप इजाजत दें, तो क्या फातिमा... मतलब क्या मैं उसे अपने साथ रख सकता हूँ?"
उसने गंभीरता से पूछा।
"ऐसा नहीं हो सकता, उसामा। तुम बीस में हो और यहाँ परिवारों को अनुमति नहीं है। तुम्हें तो रूल्स पता हैं, न?"
असफंद ने हैरानी दबाते हुए कहा।
"सर, आज मेरा ऑफ है..."
वह बोला।
"ऑफ है, लेकिन इमरजेंसी का भी एलान है, कभी भी जरूरत पड़ सकती है। इस लिए सीधे सीधे उसे लेकर आओ। मैं मोहन अंकल को फोन कर दूंगा, वह अपनी सुविधा से फातिमा को लेकर आएंगे और तुम अपनी ड्यूटी पर जाओ।"
असफंद ने दो टूक लहजे में कहा।


फातिमा सना नकवी!! उस समय एक रोड के किनारे, हमज़ा अली के साथ खड़ी हुई असफंद का इंतजार कर रही थी।

"भाभी, आप का नाम तो फातिमा है न, तो फिर ये सना क्यों?" हमज़ा ने पूछा।
"भाई, फातिमा सना नकवी मेरा पूरा नाम है..." वह धीरे से बोली।
"भाभी, आप इतने वक्त से परिवार से अलग कैसे रह रही हैं? यहाँ तो उसामा से एक पल काटना मुश्किल था, मैं खुद गवाह हूँ।"
"हमज़ा भाई, आप प्लीज़ मुझे भाभी मत कहिए..." फातिमा ने तुरंत टोका।
"आप मेरी भाभी ही हैं, मेरे सबसे प्यारे दोस्त की मंगेतर! मैं तो आपको भाभी ही कहूँगा... आपके मना करने से रिश्ता नहीं बदलेगा, इसलिए आप भी अब इस रिश्ते को स्वीकार कर लें।"
उसका अंदाज उपदेशात्मक था।
"हमज़ा भाई, यह रिश्ता आपके दोस्त ने सिर्फ़ ज़िद में जोड़ा है। वह मुझे सिखाना चाहते थे, यह रिश्ता सिर्फ़ एक ज़िद के अलावा कुछ नहीं है..."
वह नम लहजे में बोली।
"आपको पता है, पिछले चार साल से उसामा ने आपकी खोज में क्या किया? इस बंदे ने एक ईद तक नहीं मनाई, हम सब दोस्तों को छोड़ दिया, बस आपकी तलाश में भटकता रहा। उसे आपसे मोहब्बत नहीं, इश्क है... और आप कह रही हैं कि यह रिश्ता महज एक ज़िद के सिवा कुछ नहीं?"
हमज़ा का लहजा तीखा था।
इन दोनों के बीच गहरी चुप्प छा गई। कुछ देर बाद एक तेज़ रफ्तार जीप धुआं उड़ाती हुई उनके पास आई।
करीब आकर ब्रेक चिचराए और जीप का इंजन बंद हो गया। उसामा बाहर निकला।
फातिमा तो उसामा को देखकर गुम हो गई। वह तो असफंद का इंतजार कर रही थी, और अब उसामा को देखकर उसका सांस ऊपर का ऊपर रह गया। वह नज़रें झुका कर जमीन को घूरने लगी।

हमज़ा अली के सलाम का जवाब देते हुए वह फातिमा के बिल्कुल सामने आकर खड़ा हो गया।
आसमानी रंग के खूबसूरत कपड़े में उसका दिलकश रूप दमक रहा था, सिर पर वही रंग का स्कार्फ़ और कंधों पर दुपट्टा फैलाए वह बड़ी शिद्दत से जमीन को घूर रही थी जैसे उससे ज्यादा अहम कोई काम न हो।
हमज़ा अली ने उसामा को गुड लक का इशारा किया और खुद वहाँ से आगे बढ़ते हुए किसी सवारी की तलाश में चल पड़ा।

न जाने उस लड़की में ऐसा क्या जादू था कि वह उसकी सोच पर छाई हुई थी। माना वह बहुत खूबसूरत थी, लेकिन उसकी खूबसूरती ने उसे अपना गुलाम नहीं बनाया था, बल्कि उसकी सादगी, अपने रूप से बेपरवाही और सबसे बढ़कर उसका मजबूत किरदार था। उसने टीनएज में होते हुए भी कभी भी उसामा को अहमियत नहीं दी थी।
एक गहरी सांस लेते हुए उसने फातिमा के झुके हुए सिर को गौर से देखा और फिर कहा,
"कैसी हो?"
वह चुपचाप सिर झुकाए खड़ी रही, उसे उसामा का सामना करने की हिम्मत नहीं थी।
"चार साल! पूरे चार साल बाद तुम्हें देख रहा हूँ! निकाह के बाद कितना खुश था मैं! कितनी चाहत के साथ तुमसे मिलने आया था, मगर तुम..." वह अफ़सोस से हंसा।
फातिमा से सिर उठाना मुश्किल हो रहा था। वह हमेशा उसकी ज़िदी हठधर्मिता से डरती थी और अब तो वह घेरने वाले अंदाज में उसके सामने खड़ा था।
उसामा उसके चेहरे के उतार-चढ़ाव को आराम से देख रहा था।
"आइए, आपको अस्पताल छोड़ दूं..." उसने सख्त खड़ी फातिमा को संबोधित करते हुए कहा और बड़े-बड़े कदम उठाता अपनी जीप की ओर बढ़ा और फ्रंट डोर खोलकर खड़ा हो गया।
फातिमा मरे-मरे कदमों से चलती हुई पास आई और उसामा को नजरअंदाज करते हुए पीछे के दरवाजे पर हाथ रखने ही वाली थी कि उसका हाथ उसामा ने अपनी पकड़ में ले लिया।
"महात्मा मंगेतर साहिबा! मैं आपका ड्राइवर नहीं हूँ, आगे बैठिए!"
उसने फातिमा को आगे बैठने का इशारा किया।
वह चुपचाप फ्रंट सीट पर बैठ गई।

"वैसे तो मेरा हक बनता है कि मैं तुमसे बीते चार सालों का कड़ा हिसाब लूँ, लेकिन..."
उसने इग्निशन में चाबी लगाई और अपनी सनग्लासेस आंखों पर चढ़ा कर ड्राइविंग शुरू की।
फातिमा घबराई हुई चुपचाप उसकी नाराजगी और खफा होने के बारे में सोच रही थी। वह हरगिज़ इस तरह से उससे नहीं मिलना चाहती थी। उसने चुपके से उसामा की तरफ देखा।
मौसम के मिजाज भी बदलने लगे थे, बारिश शुरू हो गई थी। वह दांत भींचते हुए जीप चला रहा था। काफी देर बाद जीप एक मशहूर होटल के सामने रुक गई।
वह उसे उतरने का इशारा करते हुए अंदर की तरफ बढ़ गया।
वह कुछ देर होश में रही, फिर उसे देखते हुए आगे बढ़ी। यह इलाका उसके लिए नया था। उसने अपनी तरफ का दरवाजा खोला और मरे-मरे कदम उठाती आगे बढ़ी। बारिश की बूंदों ने उसे भिगो दिया था। वहीं रिसेप्शन से उसामा कमरे की चाबी ले रहा था।

चाबी लेकर वह पलटकर आया और फातिमा का हाथ पकड़ कर कमरे की ओर बढ़ा।
कमरे में प्रवेश करते हुए उसने एक झटके से फातिमा का हाथ छोड़ दिया। वह सर्दी से हल्के-हल्के कांप रही थी। उसने एक नजर देखी और फिर अपनी गीली जैकेट उतारकर टेबल पर रख दी और चिमनी की ओर बढ़ गया।
कमरे में हीटर ऑन करके उसने इंटरकॉम उठाया और कॉफी का ऑर्डर दिया। फातिमा को उसने बिल्कुल नजरअंदाज किया।
थोड़ी देर बाद, वेटर कॉफी सर्व कर के चला गया। अब वह बड़े आराम से कॉफी की चुस्कियाँ ले रहा था। कॉफी खत्म करके उसने कप मेज़ पर रखा और चलकर खिड़की के पास खड़ी फातिमा के पास आया।
"क्या आप मुझे बता सकती हैं कि आपने ऐसा क्यों किया?" वह ठंडे लहजे में बोला।
"मैं कुछ पूछ रहा हूँ, मेरे ख्याल से आप मेरे निकाह में हैं, तो मुझे जवाब देने की जिम्मेदारी है..."
वह पूरा हिसाब चुकता करने पर तला था। उसकी अजनबी तरीके ने फातिमा को हिला दिया था।
"जवाब दो?" वह गरजा।
"मुझे डर लग रहा है..."
वह हाथ मसलते हुए बोली।
यह पहला वाक्य था जो इतने समय में उसके मुँह से निकला था। उसामा को इतने समय बाद उसकी आवाज़ सुनकर एक शांत सा एहसास हुआ।
फातिमा ने झुकी हुई नज़रें उठाई और उसकी नम आँखों को देख कर उसके दिल ने एक धड़कन मिस की।
"क्या हुआ है? रो क्यों रही हो?"
वह धीमे लहजे में बोला।
"आप फिर से मुझे डरा रहे हैं... मुझे पता है, मैंने आपको थप्पड़ मारा था, अब आप मुझे मार देंगे, बदला लेंगे..."
वह हिचकिचाते हुए बोली।
उसामा अचंभे से उसे देख रहा था। इस पूरे मामले में बस एक डर छिपा हुआ था। एक गलतफहमी और डर के चलते, इस लड़की ने उसे हर मोर्चे पर शिकस्त दी थी। वह अचानक पीछे हुआ।
"चलो!! तुमको असफंद भाई के पास छोड़ दूं..." वह गंभीर लहजे में अपनी जैकेट पहनते हुए चाबी उठाते हुए बोला।
फातिमा ने पहली बार हैरानी से उसे देखा। वह पहले भी अच्छा दिखता था, लेकिन अब उसमें एक ग्रेस दिखने लगी थी। उसकी शख्सियत में कुछ ऐसा था जो उसे आकर्षित कर रहा था। फातिमा का दिल तेज़ी से धड़कने लगा था। वह धीरे-धीरे उसके साथ बाहर निकल गई।


एक साल बाद…
अस्पताल का ठंडा माहौल था। फाइनल ईयर खत्म हो चुका था और अब हाउस जॉइनिंग चल रही थी। आज उसकी और मलिहा दोनों की आखिरी नाइट शिफ्ट थी, उसके बाद एक महीने की छुट्टियाँ थीं। रात अब अपने अंत की ओर बढ़ रही थी, और सुबह का उजाला फैल चुका था, जब वार्ड बॉय स्टाफ रूम में आया।

"डॉक्टर मलिहा, आपकी मुलाकात आई है।" वह दांत निकालते हुए बोला।
उसके पीछे ही जींस की जेबों में हाथ डाले, खूबसूरत सा हमज़ा अली खड़ा था।
"हमज़ा भाई, आप!" फातिमा ने मुस्कुराते हुए उसे सलाम किया।
"जी भाभी! कल मोहन अंकल ने बताया कि आप दोनों की एक महीने की छुट्टियाँ मंजूर हो गई हैं, तो मैं अपनी पटाखा मंगेतर को लेने आया हूं, सोचा अब क्या अंकल को तकलीफ दूं?" वह मलिहा के गुस्से से लाल चेहरे को देखता हुआ बोला।
मलिहा ने अपना बैग उठाकर उसे मारने के लिए फेंका, जिसे उसने बड़ी आसानी से कैच कर लिया। वह उसे खूनखार नजरों से घूरती हुई फातिमा को गले मिलकर "खुदा हाफिज़" कहती बाहर निकल गई।

फातिमा ने सोफे की बैक से सिर टिकाया और आराम से बैठकर पुराने समय को याद करने लगी, जब…
उसने आखिरी बार असफंद भाई के पास अस्पताल छोड़ा था, कुछ दिन वह असफंद भाई के पास रही, फिर नोशाबा और मोहन ताया उसे लेने आए थे। वह सख्त खड़े खड़े, अपनी वर्दी में मلبूस उनसे मिलने आया था। लंबा, खूबसूरत, बिल्कुल अपने बाबा जैसा, वह उसे देख रही थी, लेकिन उसने अपनी आँखें उठाकर उसे नहीं देखा। कुछ दिन कराची रहकर मोहन ताया उसे पिंडी कैंपस में छोड़ गए थे। वह ब्रेक के दौरान कराची का चक्कर लगा लेती थी, लेकिन असफंद उसकी मौजूदगी में कभी वहाँ नहीं आया। फिर जब हमज़ा अली ने बड़े धूमधाम से मलिहा से सगाई की, तो वह आया भी तो उससे बेखबर रहा। वह यादों में खोई हुई थी, जब उसे मोहन नक़वी साहब के आने की सूचना मिली। उसने अपना बैग उठाया और उनके साथ कराची चली आई।

नोशाबा ने बहुत गर्मजोशी से उसका स्वागत किया!
"मेरी रौनक, मेरी बेटी वापस आ गई है। अब मिलकर शादी की तैयारियाँ करेंगे!" वह खुशी से बोलीं।
"किसकी शादी?" वह हैरान हुई।
"लो, तुम्हारी और असफंद की, और भला किसकी?" उन्होंने कहा।
"वो मान गए! यह कैसे हुआ?" वह बड़बड़ाती हुई अपने कमरे की ओर बढ़ी।


असफंद ने मोहन साहब को एक महीने की छुट्टियों पर घर बुलाया था और अब रुखसती की खबर सुनकर वह राजी नहीं हो रहा था।
"असफंद! बस अब बहुत हो चुका। अगर तुम्हें इस रिश्ते को नहीं निभाना है तो अभी और इसी वक्त फातिमा का फैसला कर दो…" उन्होंने सख्त आवाज़ में कहा।
फातिमा को छोड़ने का तो वह सोच भी नहीं सकता था, लेकिन वह अपने दिल का क्या करता, जिस पर फातिमा ने चोट पहुंचाई थी। वह बेमन से हां करता हुआ, बड़े कदमों से अपने कमरे में चला गया।

शाम ढलने को थी जब अली असफंद से मिलने आया था। मोहन साहब ने उसे सारी जानकारी दे दी थी। वह असफंद के कमरे का दरवाज़ा खटखटाकर अंदर गया तो सिगरेट के धुएं ने उसका स्वागत किया।
सामने असफंद आराम कुर्सी पर बैठा हुआ था, उसकी आँखें लाल थीं और चेहरे पर उदासी छाई हुई थी। पास में पड़ी ऐशट्रे में सिगरेट के टुकड़े भरे पड़े थे।

"अली, तू! कब आया यार…" वह सीधे होते हुए बोला।
"मुझे छोड़, ये बता तू ने अपना ये क्या हाल बना रखा है? एक हफ्ते बाद तेरी शादी है और तू مجنون बना बैठा है, जबकि अब तो तेरी लैला भी मिल गई है…" वह खिड़की से पर्दे हटाते हुए बोला।
"नहीं, बस ऐसे ही!" असफंद ने बात टालने की कोशिश की।
"असफंद, मान ले! तुझे फातिमा भाभी से इश्क है, और उनकी उपेक्षा और बेपरवाही ने तेरा दिल दुखाया है।"
"बस, दिल दुखाया है ये कहना कितना आसान है न!" वह बिफर पड़ा।
"देखो भाई, वह उस वक्त बहुत छोटी और नादान थीं, और तू उतना ही कमीना था, मान ले कि तूने उन्हें डराने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। अब इतना रिएक्शन दिखाएगा तो फिर इस बार तू उन्हें हमेशा के लिए खो देगा…" अली ने धीरज से समझाया।
"वह मेरी शादीशुदा है, उसे मुझसे कोई भी अलग नहीं कर सकता! समझे?" असफंद ने गरजते हुए कहा।
"तो फिर ये सब क्या है? बोल, क्या तुम इस रुखसती से खुश नहीं हो? जबकि भाभी अब शर्मिंदा भी हैं, अब क्या जान लोगे उनकी?" अली ने उसकी अच्छी क्लास ली।
अच्छे दोस्त वाकई में ईश्वर की एक नेमत होते हैं, अली की बातों से उसकी निराशा कम होने लगी थी।


शादी के दिन नज़दीक आ रहे थे। असफंद अपनी जगह बहुत व्यस्त था, सभी दोस्तों ने अलग महफिल जमाई हुई थी, मलिहा भी शादी में हिस्सा लेने के लिए तीन दिन पहले ही पहुँच गई थी।
फातिमा अपनी शादी की तैयारियों को पूरी तरह से एंजॉय नहीं कर पा रही थी। असफंद उसे पूरी तरह से इग्नोर कर रहा था।
वह उससे मिलकर माफी मांगना चाहती थी, लेकिन वह उसे ऐसा कोई मौका नहीं दे रहा था।
इन दिनों रुखसती का दिन आ गया था, लाल जोड़े में उसकी अद्भुत खूबसूरती दुनिया को हैरान कर रही थी, लेकिन उसका दिल असफंद से मिलने का सोचकर बैठा जा रहा था।


सारी रस्मों से फ्री होकर उसे असफंद के सादगी से सजे कमरे में बैठा दिया गया था। गुलाब के फूलों की महक ने पूरे माहौल को ख्वाबों सा बना दिया था।
वह अपने धड़कते हुए दिल को संभालते हुए असफंद का इंतजार कर रही थी। वह जानती थी कि असफंद उससे बेहद निराश है। कई घंटों के इंतजार के बाद जब उसकी उम्मीदें खत्म हो रही थीं, दरवाजे के खुलने की आवाज़ सुनाई दी।
दरवाजा खुला और असफंद अंदर आया।
उसने एक नजर बीड पर बैठे फातिमा पर डाली, जो पूरी सादगी से सिर झुके बैठे थी।
जिंदगी में पहली बार वह इस तरह अपने नाम पर सजे इस खूबसूरत रूप में महसूस हो रही थी कि उसका दिल धड़कने लगा था। उसने बड़ी त्वरित गति से अपने दिल की लगामें खींचीं और ड्रेसिंग रूम की ओर बढ़ गया।
शावर लेकर आरामदायक कपड़े बदलकर वह बाहर निकला, तो फातिमा बड़ी शांतिपूर्वक बैठी थी, उसकी राह देख रही थी। वह धीरे से चलता हुआ बिस्तर के पास आया और उसके सामने ढलकर बैठ गया।
"कोई भी आदमी, चाहे वह जैसा भी हो, जब शादी के लिए किसी लड़की को पसंद करता है, तो उसके दिमाग में सिर्फ एक ही ख्याल होता है कि उसे एक मजबूत और संस्कारी लड़की चाहिए, जिस पर किसी और आदमी का साया तक न पड़े।" वह कहता कहते रुका।
"जब मैं पहली बार तुमसे मिला, तो मैं एक बिगड़ा हुआ लड़का था, लेकिन जब मैंने तुम्हें जानने की सोची, तो एहसास हुआ कि तुम मेरे जान-पहचान की लड़कियों से बहुत अलग हो!"
"तुम मुझे और जानना चाहती थी, लेकिन तुम!!! तुम मुझे जिद दिलाती चली गई, और वह दिन जब तुम भागकर असफंद के गले लगी, सोचकर आज भी मेरे खून में उबाल आता है..."
वह मुट्ठियाँ भींचते हुए बोला।
फातिमा ने बड़ी मुश्किल से दुपट्टे की आड़ से उसका तीव्र गुस्से से लाल चेहरा देखा। वह उसकी बातें सुनकर हैरान थी, उसे यकीन नहीं हो रहा था कि यह शांत और समझदार आदमी वही असफंद है।
"असफंद, मेरे भाई हैं..." वह कठिनाई से बोल पाई।
"अब मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता, जब से चाचू से प्रभावित होकर मैंने फोर्स जॉइन की है, अब मेरी जिंदगी का एकमात्र मकसद इस देश की रक्षा करना और शहादत का रुतबा पाना है। और मैं बस तुम्हारी गलतफहमियाँ दूर करना चाहता हूँ, ताकि तुम आगे मेरे बारे में गलत न सोचो और मेरी वजह से दर-ब-दर न भटको। यह घर तुम्हारा है, तुम आराम से रहो, अब मैं तुम्हारी राह में कभी नहीं आऊँगा..."
वह उठकर खड़ा हो गया।
फातिमा ने सारी शर्म और हया को नजरअंदाज करते हुए अपना घूंघट उठाया, तो देखा असफंद मुंह मोड़े खड़ा था।
वह तेज़ी से उठकर उसके सामने आई, और कपड़े की सरसराहट, खनकती चूड़ियों और पायल की आवाज़ ने असफंद का ध्यान आकर्षित किया।
फातिमा का चमकता हुआ चेहरा उसके सामने था, वह दुल्हन के रूप में उसके होश उड़ाने को थी। बड़ी मुश्किल से उसने खुद पर काबू पाते हुए अपनी नजरें उसके शानदार चेहरे से हटा दी।
"आप मुझसे खफा हैं?"
फातिमा ने नम लहजे में पूछा।
"नहीं, मुझे नहीं लगता कि मुझे तुमसे खफा होने का कोई हक है..."
वह कड़वे लहजे में बोला, दिल में कितने वादे किए थे कि उसे नजरअंदाज करूंगा, लेकिन अब दिल बगावत कर रहा था।
"क्या आप मुझे माफ नहीं कर सकते?"
वह बड़ी उम्मीद से उसे देख रही थी।
वह धीरे से उसकी ओर बढ़ा, जो उसके संयम का इमتحान बनी खड़ी थी, और अपने हाथ उसके कंधों पर रखकर उसकी सुंदर, रंगीन आँखों में झांकते हुए बोला,
"मेरी आँखों में हमारे लिए बहुत से ख्वाब हैं, मैं जागती आँखों से इनकी ताबीर पाना चाहता हूँ, लेकिन पहले तुम मुझे यकीन दिलाओ कि इस प्यार के सफर में तुम मेरे साथ हो! मुझे यकीन दिलाओ कि तुम मजबूरी में यह नहीं कर रही हो..."
फातिमा की पलकों में कंपन आया, उसने शर्म और हया से भरी आँखें बंद कीं और अपना सिर उसके सीने पर रख दिया।
असफंद ने एक नजर अपने सीने से लगी फातिमा को शांति से देखा, जो आज अपनी मरज़ी से उसकी पनाहों में आई थी, और उसे अपनी मजबूत बाहों में समेट कर शांति से अपनी आँखें बंद कर ली।
जिंदगी का एक नया सफर अपनी शुरुआत पर था, एक चमकदार सुबह उनका इंतजार कर रही थी...