fatah kabul (islami tarikhi novel) part 25




 सुलह से इंकार  ...... 



         इस्लामी  लश्कर कोच व  क़याम करता  ईरान को तय करके सीतान  की तरफ बढ़ा। अगरचे सिर्फ आठ हज़ार मुस्लमान थे और एक ऐसे मुल्क की तरफ बढ़ रहे थे जो ऐसे  बर्रे आज़म से मिला हुआ था जिसकी आबादी करोड़ो की तादाद में थी। पहले तो खुद काबुल ही बे शुमार फौजे उनके मुक़ाबला में ला सकता था। फिर हिंदुस्तान  और उसके राजा महाराजा तो टिड्डी विल लश्कर भेज सकते थे। 

  •        लेकिन मुस्लमान डरा नहीं करता और  फिर  मुजाहिद उसके पेश नज़्ज़ार तो सिर्फ जिहाद रहता है वह इस बात को देखता भी नहीं की उसके मुक़ाबले में  कौन है और कितने है उसकी सिर्फ एक ही तमन्ना  शहादत होती है। मुस्लमान का यह अक़ीदा है की मौत अपने वक़्त पर आएगी और ज़रूर आएगी। मौत से  छुटकारा पाना नामुमकिन है। उसका यह भी  ईमान है की मरने के बाद वह किसी और कालिब में मुन्तक़िल हो कर यानी  जोन बदल कर फिर दुनिया में नहीं आएगा इसलिए वह मौत से नहीं डरता। बल्कि उसका इस्तेकबाल करने के लिए हर वक़्त तैयार रहता है और उसका यह एतेक़ाद भी है। की शहीद हो कर उसके तमाम गुनाह माफ़ हो जाते है और वह सीधा जन्नत में पहुंच जाता है। इसलिए हर मुस्लमान जिहाद को बड़ा मरगूब रखता है। चाहता है की वह  लड़ कर मज़हब के ऊपर शहीद हो जाये ताकि बे रोक टोक जन्नत में पहुंच जाये मुस्लमान जिहाद से रगबत ही नहीं रखता बल्कि खुश भी होता है। हक़ीक़त यह है की किसकी क़िस्मत जो जिहाद करे और शहीद हो जाये। 
  •               गरज़ मुजाहिदीन इस्लाम बड़ी शान के साथ सफर कर रहे है। उनके साथ रसद भी थी और औरते भी है। रसद और औरते लश्कर के दरमियान में रहती  थी। जो सवार औरतो की हिफाज़त में मामूर थे उनमे इलियास भी थे। बड़ी बूढी औरते और नौजवान लड़किया उन्हें देख कर अपने चेहरों पर नक़ाब खींच लिया करती थी। वह खुद भी   बड़े शर्मीले थे। लड़कियों से तो इस लिए बचते थे की कही वह कोई आवाज़ न कस  दे क्युकी अरब लड़किया शोख शरीर होती थी  और बड़ी बुढ़ियो के पास जाते उन्हें हिजाब आता था। जब लश्कर फर्द काश हो जाता और औरते और लड़किया अपने अपने खेमो में चली जाती तब वह भी अपनी माँ के पास खेमा  में चले जाते और जब कोच होता तो वह मुहाफ़िज़ दस्तो को लेकर एक तरफ हट जाते। जब औरते सवारियों  में बैठ जाते तब वह आजाते और उनके पीछे चल पड़ते। 
  •               मुसलमानो को आम तौर पर यह मालूम हो गया था की काबुल की कोई काफिर औरत एक मुस्लमान लड़की को अगवा करके ले गयी है। वह लड़की इलियास की मंगेतर थी इससे मुसलमानो  में और जोश पैदा  हो गया था की जल्द से जल्द काफिरो के मुल्क में  पहुंच जाये और लड़ाई शुरू करदे। अब्दुर रहमान  सालार  अस्कर इस्लामिया को यह बात मालूम हो गयी की मुसलमानो में एक मुस्लमान लड़की के अगवा  की खबर सुन कर बड़ा जोश पैदा हो गया है उन्होंने एक रोज़ सुबह की नमाज़ पढ़ कर मुस्लमान से कहा  ."ठहर जाओ मै कुछ कहूंगा। "
  •              मुस्लमान में यह क़ायदा था की सीपा सालार उन्ही को मुक़र्रर किया जाता था जो आला दर्जा के जंगजू और बहादुर होने अलावा नमाज़ी  परहेज़गार  मज़हबी मालूमात ज़्यदा से ज़्यादा रखते थे। जिन्हे क़ुरआन  शरीफ और उसकी तफ़्सीर पर अबूर होता फीका और हदीस से वाक़फ़ियत होती। जो अहम में फतवा  दे सकते। वही इमामत करते थे। यानी  सारे लश्कर को जमाअत के साथ नमाज़ पढाते थे। 
  •                  अगर अब्दुर  रहमान बिन समरा जवान थे लेकिन उनमे ये सब तमाम खुसूसियत मौजूद थी। इसी वजह से तमाम मुस्लमान  उनकी इज़्ज़त करते और उनसे मुहब्बत करते थे सब लोग रुक गए और अपनी अपनी जगह  बैठ गए। 
  •               अब्दुर रहमान ने कहा "मुसलमानो !मुझे मालूम हुआ है की तुम्हे इस बात पर जोश आज्ञा है की एक काफिर औरत एक मुस्लमान लड़की को अगवा  करके ले गयी है लेकिन वह भी  क़तल की मुस्तहिक़ नहीं।  क्युकी औरत को क़तल करना बुरा है। तुम यह जोश अपने दिल से  निकाल दो। खालिस अल्लाह के लिए  जिहाद करो। अगर इसमें तुम्हारी यह गरज़ शामिल  हो गयी है तो खौफ है कही तुम सवाब से महरूम न हो जाये  .गरज़ का जिहाद नहीं कहलाता। इस बात का भी ख्याल रखना की अगर तुम्हे कोई काफिर  या उस मुल्क का कोई  बाशिंदा मिल जाये तो उसे क़तल न कर डालना बल्कि मेरे पास ले आना। मुमकिन है उससे कुछ मुफीद बाटे मालूम हो जाये। अब तुम दुश्मनो  के मुल्क में दाखिल हो गए हो हर क़िस्म की एहतियात  रखना। बस मुझे इसी क़द्र कहना था."
  •             लोग उठ उठकर चले गए अब्दुर रहमान भी चले आये  और थोड़ी देर के बाद लश्कर  रवाना हो गया।  
  •             कई  दिन सफर करने के बाद मुस्लमान शहर ज़रंज के क़रीब पहुंचे। यह वही शहर था जिसके अंदर सलेही और उनके साथियो को नहीं ठहरने दिया गया था। अब्दुर रहमान ने शहर के एक तरफ कुछ फैसले पर क़याम किया। वहा के मर्जबान ने क़िला के फ़सील पर चढ़  कर देखा उसे मुसलमानो की तादाद  ज़यादा  ज़्यादा मालूम हुई। उसने अपने जासूस इस्लामी लश्कर की तादाद का पता  लाने के लिए  रवाना किये। वह रात को क़िला के बाहर ही रहे लेकिन मुसलमानो के लश्कर के पास जाने की जुर्रत नहीं हुई। दूर दुर  फिरते रहे मुसलमानो ने तमाम कम्प में जगह जगह अलाव रोशन कर लिए थे। आग कसरत से जल रही  थी। उस आग की रौशनी में मुसलमान चलते फिरते नज़र आरहे थे। जासूस उनका सही अंदाज़ा न  कर सके। 
  •                  जब सुबह हुई तो फिर वह झाड़ियों और दरख्तों की आड़ में खड़े हो गए उनकी तादाद  का अंदाज़ा  करने लगे। बहुत कुछ देखने भालने पर भी वह सही  तादाद मालूम न कर सके। उन्होंने सोलह हज़ार  की फ़र्ज़ी तादाद क़ायम कर ली और क़िला में घुस कर वही मर्ज़बान से बयान करदी। 
  •                   मर्ज़बान के पास दस हज़ार लश्कर था वह यह समझा की जासूसों ने मुसलमानो की तादाद बहुत  कम बताई है। सोलह हज़ार  सवार लेकर वह काबुल की तस्खीर के लिए न आते। उसपर मुसलमानो पर रोअब छा गया। 
  •                  दूसरे रोज़ अब्दुर रहमान ने सलेही को मर्ज़बान के पास बतौर क़ासिद के रवाना किया। सलेही बे धड़क क़िला के पास जाकर ललकारा  "अये अहले शहर मै क़ासिद हु। "
  •               ऊपर फ़सील से मर्ज़बान ने झांक कर देखा। उसने पुकार कर कहा "ठहरो हम आते है "थोड़ी देर में उस फाटक का दरवाज़ा  की खिड़की खुली जिसके सामने सलेही खड़े थे। खिड़की तो खुल गयी लेकिन सलाखे लगी रही  .मर्ज़बान ने सलाखों के पीछे से झांक कर उन्हें देखा। वह उन्हें पहचान गया। उसने कहा "मै तुम्हे पहचान गया  तुम वही हो जो सौदागर के भेंस में आये थे। वह लड़का तो तुम्हारे साथ तो नहीं है। "सलेही : इस वक़्त तो मै तनहा हु। 
  • मर्ज़बान : मै पहले ही समझता था तुम जासूस हो कहो तुम क्या पैगाम लेकर आये हो। 
  • सलेही : हमारे सरदार कहते है की हम तुम  से लड़ना नहीं चाहते आगे जाना चाहते है। अगर तुम सुलह करलो  तो तुम्हारे लिए बेहतर है। 
  •             मर्ज़बान को तैश  आगया उसने  कहा  "सुलह हमारे लिए बेहतर है और तुम्हारे लिए ?"
        सलेही : हमारे लिए भी जंग से सुलह ही अच्छी है। 
  • मर्ज़बान : अगर तुम जंग से  सुलह अच्छी समझते  थे तो हमला अवरी ही क्यू हुए। 
  • सलेही  :हमने सुना था की तुम कुछ इस्लामी इलाक़ा अपनी कलमरो में शामिल करने का ख्वाब देख रहे हो  .हम यही बात मालूम करने  तुम्हारे पास आये थे तुमने हमारे साथ यह सुलूक किया की हमें अपने शहर में ठहरने  भी नहीं दिया। 
  • मर्ज़बान :जो अल्फ़ाज़ मैंने तुमसे उस वक़्त कहे थे वही अब भी कहता हु मै तुम लोगो को बिलकुल पसंद नहीं करता। सुलह से तुम्हारी मुराद यह है की  तुम्हारा महकूम बन जाऊ। हरगिज़ यह नहीं हो सकता। 
  • सलेही : अगर तुम चाहो तो सुलह के शरायित पेश कर सकते ह। 
  • मर्ज़बान : यह और किसी को  बहकाना। मै तुम्हारी  बाते खूब समझता हु। 
  • सलेही : अच्छी तरह सोच लीजिये  मै एक मौक़ा और देता हु। 
  •                मर्ज़बान ने गुस्सा में आकर कहा "मुझे मौक़ा नहीं चाहिए मैंने खूब समझ लिया है। मै तुमसे बिलकुल नहीं डरता  .कल मैदान में निकल कर तुम पर हमला करके तुम्हे भगा दूंगा। जाओ मेरा यही जवाब है। "
  •              ममर्ज़बान ने गुस्सा में आकर बाड़े ज़ोर से खिड़की बंद कर्ली। सलेही वहा से वापस लौट आये और सीधे अपने सालार  अब्दुर रहमान के पास पहचे। उन्होंने उनसे तमाम गुफ्तुगू बयान करदी जो मर्ज़बान से हुई थी। अब्दुर रहमान ने कहा "खुदा करे वह अपने क़ौल पर अमल करे और मैदान में  निकल आये। "
  • सलेही : कही ऐसा न हो की उसने धोका दिया हो और रात को शब् खून मरे। 
  • अब्दुर रहमान : यही हो सकता है इंशा अल्लाह रात को लश्कर की हिफाज़त का मक़ूल इंतेज़ाम कर दिया जायेगा  .        
  •             उन्होंने उसी वक़्त तमाम लश्कर में अयलान कर दिया की लोग होशियार रहे और जब रात हुई तो पांच सौ सवार  हिफाज़त पर मामूर करके उन्हें लश्कर से बाहर घूमने का हुक्म दे दिया। 

                                                          अगला भाग ( खून रेज़ जंग )
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