LAGAN IN HINDI PART 2
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- फलक नाज़ को दफ्तर में काम करते हुए छह माह हो चुके थे और उसके तौर तरीके वही थे। बल्कि अब तो दफ्तर में काफी बन ठन कर आने लगी थी जैसे आफ़ाक़ को जलाना चाहती हो। कभी कभी ऐसा भी होता की वह दफ्तर देर से आती या दफ्तर खत्म होने से पहले चली जाती थी और अपने दिल में समझती थी शायद आफ़ाक़ को इन बातो का पता नहीं चल रहा। शायद वह चाहती थी की यह बाते आफ़ाक़ के नोटिस में आएं और वह किसी बहाने से उसे बुलाये तो बात करने का मौक़ा मिल जाये।
- एक रोज़ आफ़ाक़ ने उसे अपने कमरे में बुला ही लिया। उस रोज़ वह सुर्ख रंग भड़कीली मैक्सी पहन कर आयी थी खूब मेकअप कर रखा था। हर एक की नज़र उस पर पड़ रही थी। कमरे में खुशबुए फैली हुई थी।
- जब आफ़ाक़ ने फ़ोन पर उसे आने को कहा था।
- तो वह एक शान दिलरुबाई से उठी और मटकती झूलती उसके कमरे की तरफ चली
- "सर आपने मुझे बुलाया था। "
- "जी हां। "
- उसने सर उठाये बगैर कहा। वह फाइल पर कुछ लिख रहा था।
- "सर क्या बात है ?"
- " फलक नाज़ ,आपको मालूम है। यह एक कारोबारी दफ्तर है। "उसने फिर सर उठाये बगैर कहा 'यह क्लब नहीं है। "
- जी..... जी...."फलक बोखला गयी।
- "जब दफ्तर आना हो तो दफ्तरी उसूल व ज़वाबित का अहतराम करना चाहिए। "
- "जी... मैं... आपका मतलब.... "
- "तुम मेरा मतलब अच्छी तरह समझ रही हो। आईन्दा ख्याल रखना। अब जा सकती हो। "
- बोखलायी हुई बाहर आगयी।
- उन्ह.... कमीना.... उसने दिल में गाली दिया। नज़र उठा कर देखना गवारा नहीं समझा। अगर दिलचस्पी से देखता नहीं तो उसे इल्म कैसे हुआ की आज मैं क्या पहन कर आयी हु। समझता क्या है अपने आपको। अगर इस्तीफा न दे दिया तो....
- मुझे क्या ज़रूरत है पत्थर से सर फोड़ने की concient कही का। ऊपर से बनता कितना है।
- सारा वक़्त वह अंदर ही अंदर खोलती रही और सोचती रही ,उसको यह नौकरी छोड़ देनी चाहिए। क्या ग्लेमर है इस नौकरी में। वही लगी बंधी रुटीन ,वही काम ,वही दफ्तर का फीका माहौल। अगर आफ़ाक़ उसके काबू में आजाता तो बात भी थी। जो मिशन लेकर वह यहाँ आयी थी ,वह नाकाम हो गया था और फिर कोई उम्मीद पूरी होती नज़र नहीं आते।
- हां ,सिर्फ उसे डैडी से डर लग रहा था ,क्यूंकि उसने नौकरी करते वक़्त उनसे वादा किया था की उनकी इजाज़त के बगैर छोड़ेगी नहीं ,तो अब छोड़ने के लिए उनकी इजाज़त लेनी पड़ेगी। कोई बहाना करना पड़ेगा ,कोई बहुत बड़ा चक्क्र चलाना पड़ेगा। क्यूंकि उन्होंने कह दिया था। अगर वह उनकी इजाज़त के बगैर काम छोड़ेगी और घर बैठ गयी तो वह समझेंगे की कोई बहुत बड़ा नुकसान करके आयी है और वह नहीं चाहते उसके हाथो उनके हाथो उनके दोस्त के बेटे की फर्म को नुकसान पहुंचे।
- सोच कर वह यह आयी थी की उनके दोस्त के बेटे समेत उस सारी फर्म को वह अपनी मिलकियत बना लेगी मगर अब उसकी अना का सवाल जाग उठा था। आफ़ाक़ उसके ढब का आदमी नहीं था और अपने टैलेंट को जाया करना उसको अच्छा नहीं लग रहा था।
- घर जाकर भी वह सारा वक़्त यही सोचती रही की यहाँ से कैसे निकला जाये। बहरहाल उसे अपने ज़रखेज़ ज़हन से उम्मीद नहीं थी की कोई न कोई हल ज़रूर निकाल लेगी।
- दूसरे दिन वह बड़ी बददिली से तैयार हो कर दफ्तर आयी थी। तोबा ,आज दफ्तर जाना किस क़द्र मुसीबत लग रहा था .पता नहीं किस तरह उसने यह झंझट पाल लिया। गुलामी तो उसने कभी पसंद नहीं की थी। उसे तो हुकूमत करना अच्छा लगता था। हुक्म चलाना ,बात को मनवाना। मगर वह अब किसी की मुलाज़िम थी .दिल चाह रहा था इस्तीफा लेकर जाये और आफ़ाक़ के मुंह पर दे मारे फिर आफ़ाक़ को पता चले की वह कोई ऐसी गिरी पड़ी लड़की न थी।
- दफ्तर में भी उसने किसी से हस्बे आदत हंसी मज़ाक़ नहीं किया। न ही दफ्तर से बाहर फ़ोन करके अपनी गपशप का नशा पूरा किया।
- बार बार घडी देखती कि वक़्त पूरा हो तो वह घर जाये।
- खुदा खुदा करके दफ्तर का वक़्त पूरा हुआ तो अपनी चीज़े समेटने लगी। आफ़ाक़ कुछ देर पहले दफ्तर से उठ कर चला गया। आज महीने की बाईस तारिख थी वह सोचने लगी ,आईन्दा एक हफ्ते में दफ्तर छोड़ने की तरकीब सोच लेनी चाहिए ताकि नया महीना आने से पहले ही इस्तीफा दे सके।
- अभी वह जाने के लिए उठी न थी की दफ्तर का चपरासी उसके क़रीब आया और निहायत अदब से एक बंद लिफाफा उसकी तरफ बढ़ा कर बोला : "यह बड़े साहब ने आपके लिए दिया था। "
- लिफाफा बड़े साहब ने वह कुछ घबरा गयी और घबराहट में लिफाफा उसके हाथ से झपट कर पर्स में रख लिया।
- क्या होगा इस लिफाफे में उसका दिल धड़ धड़ करने लगा। आफ़ाक़ ने अपने रव्वैये की माफ़ी मांगी होगी। कल वह बदतमीज़ी से बोला था। मुमकिन है उसे भी खौफनाक हो की मैं छोड़ कर चली जाउंगी। जाने खत में क्या लिखा होगा ज़ालिम ने।
- वह जल्दी जल्दी सीढिया उतरने लगी। चपरासी ने भी कितनी राज़दारी से लिफाफा उसे लाकर दिया था की कोई देख न ले।
- उसका दिल चाहा ,वह जल्दी से लिफाफा चाक कर ले देख ले मगर जब वह निचे कार के पास आयी तो निचे दफ्तर के बहुत से लोग खड़े थे। इसलिए उसने अपनी इस ख्वाहिश को दबा दिया और कार स्टार्ट कर दी .उसी वक़्त दफ्तर की एक लड़की फ़ाखरा ने उसे आवाज़ दी और कहा। ज़रा इसे रास्ते में ड्राप कर दें। उसे कही ज़रूरी जाना है।
- लोगो को ड्राप करना उसका हसीन मशगला था बल्कि वह खुद ऐसी ऑफर दिया करती थी। मगर आज उसे फ़ाखरा का लिफ्ट मांगना ज़रा भी अच्छा नहीं लग रहा था।
- बहरहाल मरुअत के मारे उसे बिठाना पड़ा। रस्ते भर वह उसकी बात गौर से न सुन सकी। अगर यह कमबख्त उस वक़्त मोटर में न बैठ गयी होती तो वह गाड़ी सुनसान सी सड़क पर रोक कर लिफाफा चाक करके देखती। मगर अब तो घर जाकर ही देखना नसीब होगा। उसके उतर जाने के बाद सिर्फ चंद फासला रह जायेगा।
- सो घर जाते ही वह अपने कमरे की तरफ दौड़ी। जल्दी से पर्स खोला। उसमे से लिफाफा चाक किया। खत निकाला। वह तो टाइप किया हुआ लम्बा लिफाफा था। पढ़ा तो मारे गुस्से के उसका सर चकराने लगा।
- वह तो terminnation letter था।
- आफ़ाक़ ने बड़ी सख्त ज़ुबान में लिखा था क्यूंकि वह कभी वक़्त पर दफ्तर नहीं आयी। दफ्तर के उसूलो का अहतराम नहीं करती अपना काम दिल से नहीं करती। इसलिए उसे दफ्तर में नहीं रखा जा सकता। वह कल से दफ्तर न आये। वैसे पूरे महीने की तनख्वाह उसे घर भेज दी जाएगी।
- " कमीना ,उल्लू का पठा " नफरत और गुस्से से उसने अपने होंठ काट लिए। उसकी यह मजाल की मुझे दफ्तर से निकाल दे। ऐसा मज़ा चखाउंगी।
- मगर ऐसा मज़ा चाखऊंगी। ...... कैसे ?
- कितना अच्छा होता अगर आज ही अपना इस्तीफा पेश कर दिया होता। काश उसने ऐसा ही किया होता। डैडी का ख्याल न किया होता। इसी तरह उसके मुंह पर जूता मारा होता। मगर अफ़सोस ,इन्तेक़ाम लेने का एक अच्छा मौका हाथ से निकल गया। लेकिन मैं उसे बख्शूंगी नहीं। देखना तू ऐसा बदला लुंगी इस बेइज़्ज़ती का की सारी ज़िन्दगी सर पर हाथ रख के रोया करेगा।
- देखना तो सही।
- मारे गुस्से के दीवाना वार कमरे में टहल रही थी।
- उसने खत को दुबारा उठा कर पढ़ा ,तीसरी बार पढ़ा।
- ऐसी बदनामी अमेज़ ज़ुबान ,मैं उसकी ज़रखरीद तो नहीं हु। मुझे उसकी परवाह नहीं है। उसने गुस्से से खत के पुर्ज़े पुर्ज़े कर दिए। और फिर उन पुर्ज़ो को अपने जूते से खूब रौंदा।
- मेरे जूते को तुम्हारी परवाह नहीं। कमीने इंसान ,तुम अपने आपको समझते क्या हो ,देखना तो सही मैं तुम्हारा क्या हश्र करुँगी।
- "मगर कैसे " यहाँ आकर उसका गुस्सा दो चंद हो जाता है। एक तो बीच में डैडी आजाते थे। वरना अपने पुरे गैंग को लेकर वह दफ्तर पर धावा बोल देती। दफ्तर की ईंट से ईंट बजा देती ,तबाह करवा सकती थी। उसका जुलूस निकलवा सकती थी।
- फिर वही डैडी।
- अब तो कोई ऐसा रास्ता अपनाना चाहिए की सांप भी मर जाये और लाठी भी न टूटे ,डैडी को भी खबर न हो और उस उल्लू के पठे को छटी का दूध याद आ जाये ,अच्छा सुबह जाकर पहले नोमी से मशवरा करेगी। नोमी ने उस लड़की को अगवा करवा लिया था जिसने एक बार फलक नाज़ को क्लब में बुरा भला कहा। हां वह जानती थी की लोगो को किस तरह खरीदा जा सकता है।
- तमाम रात वह इसी आग में जलती रही ,खाना भी न खा सकी। और न डरींग रूम में जाकर किसी से आंख मिला सकी। क्या खबर उसके खतरनाक मूड से लोग अजीब व गरीब क़िस्म के अंदाज़े लगाने लगे और खास डैडी को तो बिलकुल मालूम नहीं होना चाहिए की उसे दफ्तर से निकाल दिया गया है। वरना फिर कोई मंसूबा कामयाब नहीं हो सकेगा।
- एक हफ्ते तक वह अपने ज़हन में मनसूबे बांधती रही ,मगर सुबह उठ कर वह हस्बे मामूल घर से निकल जाती और शाम को घर आजाती। घर में भी किसी से कोई खास बात नहीं करती थी ,दिन रात वह एक अजीब सी आग में जल रही थी। वह जितनी शिद्दत से कोई खतरनाक मंसूबा बनाती ,उतनी ही नाकामी से वह फ़ैल हो जाता। और फिर नए सिरे से सोचना शुरू कर देती।
- इतवार के रोज़ डैडी उसके कमरे में आये और बोले।
- "फलकी बेटा ! आज कल तुम नज़र नहीं आती हो ,न ही गपशप लगाती हो। क्या दफ्तर में काम ज़्यादा होता है ?"
- "नहीं तो डैडी "वह अपने दिल का चोर छुपाते हुए बोली "दरअसल मेरी सेहत कुछ ठीक नहीं है और मैं.... "
- "अरे तो मुझे पहले बताना चाहिए ,चलो तुम्हे डॉक्टर सुल्तान के यहाँ ले चलु और चेककप करवा दू। "
"नहीं डैडी ऐसी कोई बात नहीं है। बात यह है की मुसलसल काम करने से मेरे सर में दर्द रहने लगा है। " - "तो कुछ दिन की छुट्टी करलो "
- तोबा है ,उसने दिल में कहा ,बात ही नहीं बन रही।
- "अच्छा सुनो " डैडी बोले " मैं एक ज़रूरी काम से तुम्हारे कमरे में आया था ,वह है न आफ़ाक़ ?"बड़ी सादगी से बोले।
- "जी" फलक नाज़ को ऐसा मालूम हुआ जैसे अभी एक बम धमाके के साथ फटेगा। जाने डैडी क्या कहंगे और उस उल्लू के पट्ठे का क्या होगा।
- "जी" डैडी रुक गए थे और उसे उलझन हो रही थी। कह क्यू नहीं डालते।
- "आफ़ाक़ है न आफ़ाक़ "
- "जी.... जी.... " उसने तल्खी से कहा।
- "बेटी" वह और नरम हो गए। " उसने तुम्हारे लिए परपोसल भेजा है। "
- "डैडी " फलक नाज़ ने इतनी ज़ोर से चीखा की डैडी भी अपनी जगह से उछल पड़े।
- डैडी... डैडी " फलक नाज़ का साँस ऊपर निचे हो गया और घबरा कर बिस्तर पर बैठ गयी।
- " बेटी यह तुम्हारा जाती मामला है। मैं नहीं चाहता की तुम्हारे मश्वरे के बगैर तुम्हरी ज़िन्दगी का फैसला करू .तिम्हे सब इख़्तियार है ,वैसे तो आफ़ाक़ अच्छा लड़का है। लेकिन अगर तुम्हे किसी वजह से पसंद नहीं तो मैं मजबूर नहीं करूँगा। मैं अपनी लाइब्रेरी में जा रहा हु। अगर यह रिश्ता मंज़ूर हो तो वहा अजाना। आफ़ाक़ कल शाम जवाब लेने आएगा। अगर तुम्हे मंज़ूर नहीं है तो आराम करो। घबराओ नहीं। मैं उसे साफ़ साफ़ कह दूंगा।
- यह कह कर डैडी बाहर चले गए।
- "खुदाया " फलक नाज़ को अपनी कानो पर यक़ीन नहीं आरहा था। यह कैसी अजीब व गरीब वाक़ेयात पैदा हो रहे है। कहा तो इतनी आंख उठा कर दफ्तर में नहीं देखा। फिर बगैर किसी बड़ी गलती या नोटिस के दफ्तर से निकाल दिया और अब शादी पर तुला है। क्या अजीब इंसान है ,आदमी है या कोई राज़ ख़्वाह मख्वाह उलझने की कोशिश कर रहा है।
- हां फलक नाज़ ! यह मौक़ा है इन्तेक़ाम लेने का। क़ुदरत ने खुद ही मौक़ा फ़राहम कर दिया है। साफ साफ जवाब देदे। कह दे की तेरे जैसे फ़ुज़ूल और बेहिस इंसान से मैं शादी करने से बेहतर है मैं खुद ज़हर का प्याला अपने मुंह से लगा लू। तेरे जैसे आदमी के साथ रहने से बेहतर है मैं ज़िन्दगी भर कुंआरी रहु। हां हां उसके मुंह पर थूक दे जाकर। खुद ही जवाब दे दे ,फ़ोन कर दे। अगर खुद नहीं जा सकती तो डैडी को बीच में क्यू डालती है।
- ठीक है , वह उठ बैठी , यही मौक़ा है। अपनी बेइज़्ज़ती का बदला लेने का इंतिहाई हितक अमेज़ लहजे में जवाब देना चाहिए।
- ज़रूर ज़रूर... यही मौक़ा.... है।
- वह फिर दीवाना वार कमरे में टहलने लगी।
- हां तो उसने मेरा रिश्ता माँगा है। मुझसे शादी करना चाहता है ,मुझसे शादी।
- क्या क्या.... कही वह सच मच में तो नहीं मुझसे मुहब्बत करने लगा है। उसके दिल से एक आवाज़ आयी। कुछ लोगो की मुहब्बत का अंदाज़ ही ऐसा होता है। ज़ाहिर में बेनियाज़ बने रहते है ,अजनबियों की तरह मिलते है ,अपने आप में रहते है। मगर अंदर ही अंदर पिघल जाते है।
- उसे कई फ़िल्मी कहानिया याद आने लगी।
- भला बगैर ताल्लुक़ के कोई रिश्ता मांग सकता है। उसने मुझे अच्छी तरह देखा है ,मुझे जानता है और संजीदगी के साथ उसने रिश्ता माँगा है। वह भी डैडी से। अगर मुझे ब्राहे रास्त कह देता तो मैं उसे मज़ाक़ समझती .कम अज़ कम लड़की के बाप से कोई मज़ाक़ नहीं कर सकता।
- तो फलक नाज़ ! दोनों तरफ आग बराबर लगी हुई है।
- अंदर से तो वह भी मर मिटा है ऊपर से बन रहा है। शायद दफ्तर की वह अजनबियत ज़्यादा दिन बर्दाश्त करना उसके बस में न थी। इसी खातिर उसने मुझे दफ्तर से निकाल दिया और बड़े ड्रामे अंदाज़ में निकाला है ताकि बाद में मुझे अपना ले।
- और फ़ौरन रिश्ता भी मांग लिया।
- हां... हां अक़्ल मानती है।
- पर वह यह सब बाते मुझसे भी तो कह सकता था।
- बेवक़ूफ़ अगर वह इस क़ाबिल होता तो दफ्तर में यु अजनबी न बना रहता। कुछ मर्द ऊपर से बड़े तुर्रम खान बने रहते है मगर अंदर से बोंडे होते है। ज़रा सी बात कहने का भी उनमे हौसला नहीं होता।
- हां ठीक है।
- मुस्कुरा कर वह खड़ी हो गयी।
- थोड़ी ही देर में उसके ख्यालात पलटा खा गए थे। कुछ देर पहले वह आफ़ाक़ से इन्तेक़ाम लेने का मंसूबा बना रही थी अब उसने उसकी सारी जफ़ा में एकदम फरामोश कर दी थी। उसकी बेगानात और सर्द मुहरी को भूल गयी थी। उसकी नशे की दवा में मुहब्बत की हर अदा नज़र आरही थी। इसलिए उसने उसे दिल से माफ़ कर दिया था।
- बुज़दिल है कम्बख्त ,आशिक़ बुज़दिल होते है। अब उसको क्या तड़पाना।
- हां तड़पाने का वक़्त तो शादी के बाद आएगा। देखना तो सही।
- गिन गिन कर बदला लुंगी। तलवे न चटवाये तो मेरा नाम फलकी नहीं।
- बस अब बाज़ी मेरे हाथ में रहेगी।
- लेकिन उफ़ यह क्या दस बज गए डैडी तो सो भी गए होंगे। अगर उनको आज अपना फैसला न बताया तो वह कल इंकार कर देंगे। गज़ब खुदा का गज़ब हो जायेगा।
- जल्दी जल्दी उसने अपना जूता ढूंढा बाल सँवारे और दौड़ती हुई सीढिया चढ़ने लगी हापती कापति धम से अंदर पहुंची तो देखा डैडी इत्मीनान से बैठे किताब पढ़ रहे थे और पाइप पी रहे थे।
- " क्यू ,क्या हुआ फलकी "
- उन्होंने मुड़ कर हिरासा सी फलकी को देखा और नरमी से पूछा।
- "वह डैडी.... वह। "
- " वह बताने आयी थी। "
- " क्या बताने आयी थी। "
- "वह जो आप पूछ रहे थे। "
- "क्या पूछ रहा था मैं । "
- "उफ्फो ,डैडी ,आपका हाफ़िज़ा कितना कमज़ोर है। "
- "तो बेटी तुम्ही याद दिला दो। "
- 'अभी अभी आप.... वह..... मेरी बात कर रहे थे। "
- "वह डैडी आफ़ाक़ "
- "आफ़ाक़ ?"
- "जी आफ़ाक़ वाली बात। "
- "आफ़ाक़ वाली बात ? अच्छा " डैडी हसे 'अच्छा अच्छा मैं तो भूल ही गया था। अगर तुम्हे आफ़ाक़ पसंद नहीं तो कोई बात नहीं। इतनी ख़ौफ़ज़दा क्यू हो ?'
- " नहीं डैडी ,आप समझते क्यू नहीं ?" और वह सच मुच रोने लगी। ऐसी भी क्या बात है ,खुद ही उन्होंने कहा .अगर तुम्हे मंज़ूर हो तो स्टडी में अजाना। और अब वह लाख नए ज़माने की रोशन ख्याल और साफ़ जो लड़की सही मगर फिर भी कैसे एकदम से कह दे की उसे आफ़ाक़ के साथ शादी हर क़ीमत पर मंज़ूर है।
- वह रोये जा रही थी।
- डैडी उठ कर उसके क़रीब आगये और बोले : साफ़ साफ़ कहो क्या परेशानी है "?
- "परेशानी। ... '? उसे एकदम गुस्सा आगया।
- "परेशानी क्या होनी थी। आपने कहा था आफ़ाक़ ने प्रोप्सल दिया है। तो मैं बताने आयी थी। मुझे मंज़ूर है ,मंज़ूर है। " वह चीखी और फिर रोने लग गयी।
- "उहो तो इसमें रोने की क्या बात है ?मैं तो भूल ही गया था "डैडी उसके सिर पर हाथ फेरने लग गए।
- "अच्छा अच्छा मैं समझा मेरा ख्याल गलत निकला। मैं सोच रहा था शायद तुम्हे यह रिश्ता मंज़ूर नहीं। तो फिर ठीक है। "
- डैडी अपना पाइप सुलगाने लग गए।
- तोबा है जो डैडी पूरी बात कह जाये। हमेशा बात तोड़ मोड़ के करेंगे।
- "तो ठीक है। "
- "अब तुम जाओ आराम करो और सुनो अब दफ्तर जाना बंद कर दो। "
हुंह। उसने कंधे उचकाए और जल्दी से बाहर आगयी। कमरे में आ कर उसने इत्मीनान का सांस लिया। कुछ देर तो हालात की तब्दीली पर हैरतज़दा सी रही और फिर जल्द ही नए ख्वाबो में खो गयी। - सुबह हुई फिर शाम हो गयी।
- और इस तरह एक हफ्ता गुज़र गया।
- एक हफ्ता इस तरह सुकून से गुज़र गया। जैसे घर में कुछ हुआ ही नहीं। हर रोज़ वह इस ख्याल से उठती कि आज कुछ ज़रूर हंगामा होगा। लोग आएंगे ,कुछ तो होगा शाम तक इंतज़ार में बैठी रहती और कुछ भी न होता .एक बात उसके कान में डाल कर जैसे घर वाले भूल गए थे। वह क्यूरियस के नेज़े पर लटकी हुई थी। आखिर क्या फैसला हुआ ?डैडी तो सदा के भुलक्कड़ है। अगर भूल गए हो। पर इतनी बड़ी बाते कोई इस तरह तो नहीं भूला करता। क्या खबर आफ़ाक़ का ख्याल ही बदल गया हो। वह जवाब लेने न आया हो। और अब डैडी मारे शर्म के उसे न बता रहे हो।
- उफ़ अल्लाह। किस क़द्र बेबाक और दिलेर थी वह। और अब कैसी बुज़दिल बनी जा रही थी। इतनी सी बात वह आफ़ाक़ से फ़ोन करके पूछ सकती थी। मगर उसका मिज़ाज पेश नज़र रखते हुए वह डरती थी कि जाने कब उसे कौन सी बात बुरे लगे। यू उसने कभी किसी की परवाह थोड़ी की थी। पर आफ़ाक़ को तो उसने जीतना था और जीते बगैर वह अपना मक़सद हल नहीं कर सकती थी।
- मम्मी भी अपने आप में मग्न रहती थी। सुबह को काफी पार्टिया और शाम को क्लब। मम्मी को तो वैसे भी उससे बात करने की फुर्सत न मिला करती थी मगर अब तो उन्हें इस अहम मामले में ज़रा दिलचस्पी लेनी चाहिए थी। ऐसी भी क्या बे नियाज़ी। .. ?
- एक हफ्ता गुज़र गुज़र गया था।
- और किसी ने उसे नहीं बताया था की बात कहा तक पहुंची है और इस क़द्र ख़ामोशी क्यू तारी है। उस रोज़ वह गुस्से में भरी बैठी थी। जैसे ही मम्मी तैयार हो कर बाहर आयी ,लपक कर उन्हें पकड़ लिया और बोली :
- "मम्मी ,कभी तो घर बैठा करे।
- "ए। आज तुझे क्या हुआ है। और घर बैठ कर मैं क्या करू। तुम्हारे बाप को तो अपने कारोबार से ही फुर्सत कहा है ?
- " और मैं जो हु। कई दिनों से दफ्तर नहीं जा रही। घर बैठी बैठी बोर हो गयी हु। "
- "तेरी बोरियत भी चाँद दिनों में दूर हो जाएगी। "
- "मम्मी प्लीज .. .. कुछ तो बताये न ? मुझे तो कुछ भी पता नहीं। " वह मम्मी की गर्दन में झूल गयी।
- " ले। मुझे और देर करा रही है। तेरी बात उस आफ़ाक़ से तय हो गयी है। "
- "सच मम्मी .... "
- " हां। हफ्ता हुआ और वह तो बड़ी जल्दी शादी की तारिख मांग रहा था। क्या तुम्हारे डैडी ने नहीं बताया ?"
"नहीं " - "बड़े अजीब है। खुद ही तो मुझे बता रहे थे कि आफ़ाक़ पन्द्रह दिन के अंदर अंदर शादी करना चाहता है। "
- "तो मुझे क्यू नहीं बताया। "मारे ख़ुशी के फलक नाज़ थिरकने लगी।
- " अब जो बता दिया है। इस वक़्त तो जाने दे। सुबह मुझे अपनी चीज़ो की लिस्ट बना कर दे देना। "
- "मम्मी ... मम्मी "वह उसके पीछे दौड़ी "यह तो बता दे प्लीज की कौन सी तारिख तय हुई है ?"
- "तेरे डैड को पता होगा। "उन्होंने अपना पल्लू छुड़ाया।
- लेकिन अब उसे डैडी से बात करने की इतनी तमन्ना भी न थी। असल बात उसे मालूम हो गयी थी।
- और इतनी बड़ी बात किसी ने उसे बतानी मुनासिब भी नहीं समझी। वाह उन्हें क्या पता कि उसके लिए इस खबर में क्या है। वह कैसे दुनिया को बताये। बार बार दिल चाह रहा था की फ़ोन उठाये और आफ़ाक़ से बात करे।
- "मगर क्यू। "
- जिस तरह आफ़ाक़ सब कुछ अपने प्रोग्राम के मुताबिक़ करके उसे तंग कर रहा है ,इसी तरह उसे भी तंग करना चाहिए .बेनियाज़ बन जाना चाहिए जैसा की उसे भी कुछ खबर नहीं। कि क्या हो रहा है और कौन कर रहा है। वह यह खबर अपने पुरे गैंग को सुनना चाहती थी। ख़ुसूसन पिंकी को। और किस क़द्र हैरान होंगे वह लोग कि आखिर मैंने मैदान मार ही लिया न ?
- बड़ा बनता था मेरे आगे शहज़ादा गुलफाम। ..
- अभी वह फ़ोन करने जा रही थी कि सामने से डैडी आते नज़र आये।
- "ओह डैडी "वह उनके गले में झूल गयी "बड़े खराब है आप। "
- "क्यू बेटा "
- "बस मुझे कुछ बताते नहीं ,खुद ही सब कुछ किये जाते है। "
- " लो और सुनो। .."
- "देखो ,मैं दावती कागज़ के नमूने लाया हु ,तुमसे पसंद करवाने। "
- "हाय अल्लाह डैडी। "
- उसने झपट कर लिफाफे पकड़े और बारी बारी कार्ड निकाल कर देखने लगी।
- "ज़रा इधर बैठ जाओ और इत्मीनान से मेरी बात सुनो। "
- "आफ़ाक़ बहुत जल्दी शादी की तारिख मांग रहा था। इसलिए मैंने उसे १ जनवरी की तारिख दे दी है ,ठीक है न ?"
- "वंडरफुल डैडी ,फर्स्ट को तो मेरी बर्थडे हुआ करती है। "
- "बस उसी दिन मैं तुम्हे ज़िन्दगी का बड़ा तोहफा देना चाहता हु। "
- फलक नाज़ शर्मा गयी।
- " कार्ड पसंद कर लो। तीन रोज़ में छप जायेंगे। बाक़ी दस दिन में है। जहा जहा भिजवाने हो। मेरे आदमी को बुलवा कर भिजवा देना। और इन दस में जो चीज़े बनवा सकती हो ,बनवा लो। बाक़ी फिर ले जाना। बेटी इस घर में जो कुछ है तुम्हारा है "
- ख़ुशी से फलक नाज़ का अंग नाच उठा।
- फ़ोन उठाया
फ़लक नाज़ शर्मा गई।
"कार्ड पसंद कर लो। तीन दिन में छप जाएंगे। बाकी दस दिन हैं। जहां-जहां भिजवाने हों, मुझे बता देना। मेरे स्टोन को बाहर भिजवा दिया है। और इन दस दिनों में जो चीजें बनवा सकती हो, बनवा लो। बाकी आराम से निपटा लेंगे। बेटी, इस घर में जो कुछ है, वो तुम्हारा ही है।"
खुशी से फ़लक नाज़ का अंग-अंग नाच उठा।उसने फ़ोन उठाया और यह खुशखबरी पूरे ग्रुप को सुना दी। हर तरफ बधाइयों का शोर मच गया। तय हुआ कि सब लोग रात को उसके घर पर धावा बोलेंगे, और उसे अचानक तैयारी करनी पड़ेगी। वह इतनी खुश थी कि दोनों जहां कुर्बान कर सकती थी।
रात को अपनी कुछ सहेलियों के साथ उसने यह भी तय करना था कि कल से जो शॉपिंग की मुहिम शुरू होगी, उसमें कौन-कौन हिस्सा लेगा।रात भर नलकी को नींद नहीं आई।
उसके जज्बात इतने उफान पर थे कि वह सोच भी नहीं सकती थी कि वह इस तरह अचानक शादी के लिए तैयार हो जाएगी। वह तो कहती थी, "औरत को तीस साल की उम्र तक अपनी जिंदगी का मजा लेना चाहिए और फिर किसी बेवकूफ से शादी कर लेनी चाहिए।"
और अब? वह आफ़ाक को दीवाना बनाने गई थी और खुद पागल हो गई। क्या वह सच में आफ़ाक से प्यार करने लगी थी?"हाय," उसने दोनों हाथों से अपना दिल पकड़ लिया। "ये क्या हो गया?"
वह तो हमेशा कहती थी कि वह सिर्फ घायल करने में यकीन रखती है, मारने में नहीं। कितने लड़के और अमीरजादे उसके पीछे दीवाने थे। उसने कितनों के साथ इश्क का खेल खेला था।
"प्यार बेवकूफी के सिवा कुछ नहीं," यह उसका फलसफा था। "मर्द तो बेवकूफ होता है, और उसे अच्छे से बेवकूफ बनाया जा सकता है।"अपना मतलब निकालने के लिए चालाकी करनी चाहिए। पागल होती हैं वे लड़कियां जो किसी पर जान छिड़कती हैं। वे खुद को बर्बाद कर लेती हैं। आखिर उन्हें क्यों न बर्बाद किया जाए।
हमेशा होश में रहना चाहिए। उसे कई लड़के अच्छे लगे थे, लेकिन कुछ दिनों की दोस्ती के बाद उसने उन्हें ठुकरा दिया था। उसमें ठुकराने का हौसला था। उसमें घमंड था। और यह सही था। उसके पास जवानी थी और ऊपर वाले ने उसकी जवानी को हर बेहतरीन गुण से भरपूर किया था। फिर क्यों वह अपनी जवानी को दांव पर लगाती? बल्कि अब तक वह दूसरों को अपनी जवानी पर फिदा करती आई थी।और आज...
उसके दिल में कितने अजीब तूफान उठ रहे थे। एक आग थी। एक गर्माहट थी। दिल एक मछली की तरह पानी के बिना तड़प रहा था। वह दिल का दुश्मन एक पल के लिए भी उसकी सोच से गायब नहीं हो रहा था। उससे मिलने की तड़प बढ़ती जा रही थी। उसका करीब आना, उससे बातें करना, उससे प्यार करना—ये सब करने की बेचैनी उसके दिल में जाग उठी थी।तो क्या इसे प्यार कहते हैं? अगर यह प्यार है, तो सच में प्यार बहुत प्यारी और अनमोल चीज़ है। और वह कितनी बदनसीब थी, जो इस एहसास का मज़ाक उड़ाती रही। अच्छा, तो इसलिए लोग कहते हैं कि प्यार किया नहीं जाता, बल्कि हो जाता है। और प्यार इंसान को पूरी तरह बेबस बना देता है।
वाह, प्यार तो वाकई एक शानदार चीज़ है।
और दुनिया भर की किताबें इसकी तारीफ से भरी पड़ी हैं। तो ये कोई फिजूल चीज़ तो नहीं।
आज प्यार में तड़पना, सिसकना और जलना उसे बहुत अच्छा लग रहा था। बार-बार दिल चाहता था कि वह आफ़ाक को फोन करे, उसके जज्बात जाने। शायद वह भी...सोच रही थी, कितना दिल कर रहा था यह पूछने का कि वह उसकी तेज नज़र का शिकार कब हुआ। पहली बार कब उसका दिल हार गया और उसने अपने आप को कब मान लिया। यह कितना खूबसूरत पल है, जब किसी को अपने प्रेमी से मिलना और उसकी दिल की हालत को जानना नसीब हो।
और वह जल्द से जल्द इस दौर से गुजरना चाहती थी। उसने सोचा कि रात को सोने से पहले वह उसे ज़रूर फोन करेगी। फिर क्या होगा, यही कहेगा न कि कितनी बेबाक लड़की है। तो कहने दो। अपने मंगेतर को फोन करना कोई बुरी बात नहीं है। खाना खाते समय भी वह दिल ही दिल में सोच रही थी कि क्या बात करेगी और कैसे बात करेगी। पहले उसे तंग करेगी। क्या पता वह उसकी आवाज़ पहचान भी पाए या नहीं।
पता नहीं पापा और मां क्या बातें कर रहे थे। उसने ध्यान नहीं दिया। मगर जब "आफ़ाक" का नाम उसके कानों में पड़ा, तो वह चौंक उठी।
"पापा, आप क्या कह रहे थे?" उसने झिझकते हुए पूछा।
"कुछ नहीं।"
"अभी आप शायद आफ़ाक की बात कर रहे थे?"
"हाँ, तुम्हारी मां कह रही थीं कि मेहंदी और बाकी रस्मों की तारीख तय कर लेते हैं। मगर मैं उन्हें बता रहा था कि आफ़ाक इन रस्मों का समर्थक नहीं है। उसने तो सीधी-सादी शादी के बारे में कहा है।"
"मां, आप खुद बात कर लो न!" उसने अपनी मां से कहा।
यह क्या बात करेगी। वह तो यहाँ नहीं है। अमेरिका गया हुआ है।
"अमेरिका ... "
चम्मच फ़लक़ी के हाथ से गिर गया।
"यानी अमेरिका और चार दिन बाद यहाँ।"डैडी ज़ोर से हँसे।
"वहाँ, भाई, मुझे बताकर गया है। उसकी माँ अभी तक वाशिंगटन में है। शादी के बारे में उससे सलाह लेनी थी और शायद उसे साथ ही ले आए। क्योंकि यहाँ उसका कोई अज़ीज़ नहीं है?""खुदावंदा!" फ़लक़ी बोर होकर मेज़ से उठ खड़ी हुई।
"कितने अजीब और ग़रीब वाक़यात पेश आ रहे हैं। एक तरफ शादी की जल्दी, दूसरी तरफ ऐन वक़्त पर अमेरिका चले गए। और अगर वक़्त पर वहाँ से न आ सके? और अगर उसकी माँ ने यह शादी मंज़ूर न की तो ... अफ़ोह! क़यामत ही आ जाएगी।""तौबा, कुछ हद तक उल्लू का पट्ठा है।" उसका खून फिर खौलने लगा।
"हर बात का रौनस ही खत्म कर देता है। आज मैं कितनी बातें उससे करना चाहती थी और वह मुझे एक नई उलझन में डालकर चला गया। खुदा जाने कैसा आदमी है। और मेरा क्या होगा? उसकी कोई बात ढंग की नहीं होती। खुदा करे कि मानसिक रूप से ठीक हो। मैंने भी बिना सोचे-समझे यह जो खेल लिया। अफ़ोह!"उसे नींद नहीं आ रही थी। तरह-तरह के ख्याल आ रहे थे।
"यानी... सोचो अजीब हालात हैं। चार दिन शादी में रह गए और हुज़ूर अमेरिका चले गए! और डैडी को देखो।"डैडी को उसकी कोई बात भी अजीब या बुरी नहीं लगती। पता नहीं डैडी को उसने क्या घोलकर पिला दिया है।
तो अपने दिल से क्यों नहीं पूछती। तुझे तो उसने कुछ भी घोलकर नहीं पिलाया। मगर तू उसके पीछे कैसी दीवानी हो रही है...
दीवानी सी दीवानी... तू ये है...
एक बार मेरे हाथ आए। उसका वो हश्र करूंगी... वो हश्र करूंगी... वो हश्र करूंगी!