LAGAN IN HINDI (PART 3)
घर में शादी की तैयारियाँ शुरू हो गईं। कार्ड बाँटे जा चुके थे। खाने की सूची तैयार हो गई थी। हर रोज़ घर में व्यवस्थापकों की एक टोली आती, जिन्हें डैडी सारी व्यवस्थाओं के बारे में हिदायतें देते। पूरे घर में नया पेंट हो गया था, ऐसा लग रहा था जैसे घर की भी शादी हो और उसे दुल्हन की तरह सजाया जा रहा हो। और तो और, थी भी अपने सारे काम छोड़कर शादी की तैयारियों में लगी रहतीं। ज्यादा से ज्यादा यह होता कि उनकी सारी सहेलियाँ सुबह आ जातीं और घर में एक कॉफी पार्टी जैसा माहौल बन जाता। खैर, यह सब भी अच्छा लग रहा था।
मम्मी को अपने कपड़ों की भी बहुत चिंता थी। ऐसा लग रहा था जैसे वह हर चीज़ खुद के लिए भी बनवाना चाहती थी। उसने बाकायदा गहने भी खरीद लिए थे। लेकिन क्योंकि डैडी ने कभी उनके मामले में दखल नहीं दिया था और टोकने की हिम्मत नहीं थी, इसलिए वे कुछ नहीं कहते थे, बस चुपचाप सुनते रहते थे।
शॉपिंग के लिए फलक नाज़ को दस दिन मिले थे, और इन दस दिनों में ही उसने सैकड़ों चीजें खरीद ली थीं और हज़ारों रुपये उड़ा दिए थे।
यूं तो इस घर में जो कुछ भी था, वह सब फ़लक नाज़ का था। मम्मी ने पहले से ही उसके लिए बेहिसाब कपड़े और गहने बनवाए हुए थे। लेकिन अब वह आधुनिक अंदाज़ की हर चीज़ खरीदना चाहती थी और बेतहाशा पैसे खर्च करके उसने असंख्य खूबसूरत और फैशनेबल परिधान सिलवाए थे। इसके साथ-साथ, उसने नए ज़ेवरात बनवाए थे, जूते और पर्स भी बेहिसाब खरीदे थे। घर की हर एक चीज़ का ऑर्डर पहले ही डैडी ने दे दिया था।
कौन सी नेमत थी जो उसे नहीं मिल रही थी? उसका ज़्यादा समय अपने शाही परिधान की डिज़ाइनिंग में बीतता था। वह पूरी दुनिया से अनोखा और नायाब जोड़ा पहनना चाहती थी। ऐसा न हो और वैसा न हो—यही सोचकर उसने अपनी सभी सहेलियों के साथ घूम-घूमकर बहुत महंगा और खूबसूरत कमख़ाब चुना था। दुपट्टे और क़मीज़ पर हज़ारों का काम करवाया था। जूतियों पर सोने के घुंघरू लगवाए थे और वैसे ही घुंघरू उसके पर्स पर भी लटक रहे थे।
उस दिन उसने जो ज़ेवरों का सेट पहना था, वह असली याकूत से बनवाया गया था। सिर्फ़ सेट की क़ीमत पचास हज़ार रुपये थी। ग़रारा सूट पर लाखों रुपये खर्च हुए थे। उसकी सभी सहेलियाँ कहती थीं कि उसने राजकुमारियों जैसा लिबास बनवाया है। उसे पहनकर वह सच में किसी महारानी जैसी लगेगी…
लेकिन कोई नहीं जानता था कि फ़लक के दिल में क्या है।
उसके भीतर की हालत अजीब और अनोखी थी। वह चाहती थी कि पहली रात वह दुनिया की सबसे ख़ूबसूरत और आकर्षक औरत की तरह उसके सामने आए। इतनी शानदार, इतनी मनमोहक, इतनी ऊँची और इतनी दिल में उतर जाने वाली लगे कि सामने आते ही आफ़ाक़ जल जाए…
भस्म हो जाए…
उसके क़दमों में गिर पड़े…
पहले सजदे के बाद वह उसे उठने की मोहलत नहीं देगी।
उसकी नज़र में औरत की बाहरी ख़ूबसूरती ही दुनिया की सबसे बड़ी हक़ीक़त थी। यह हक़ीक़त वह कई बार सुन भी चुकी थी। वह जानती थी कि ख़ूबसूरत औरत के आगे मर्द बिल्कुल पालतू जानवर की तरह दुम हिलाने लगता है। वह चाहती थी कि आफ़ाक़ के गले में अपने हुस्न की ज़ंजीर डाल दे—इस तरह कि वह उसकी इजाज़त के बिना हिल भी न सके।
वह मर्द को ग़ुलाम बनाने वाली फ़ितरत लेकर आई थी। यही वजह थी कि वह पहले शादी की क़ायल नहीं थी। वह कहती थी कि शादी का फंदा इतनी जल्दी अपनी गर्दन में नहीं डालना चाहिए। लेकिन अगर शादी हो ही जाए, तो मर्द की पूरी दुनिया सिर्फ़ एक औरत के इर्द-गिर्द घूमनी चाहिए... हाँ, और एक बात भी वह कहती थी कि ख़ूबसूरत औरत को इस आज़ाद दुनिया में खुलकर जीने की इजाज़त होनी चाहिए। ख़ूबसूरत चेहरा इसलिए होता है कि उसे पूजा जाए, चाहा जाए, दीवानगी से देखा जाए। ख़ूबसूरत औरत शो-केस में रखी उस हसीन गुड़िया की तरह होती है, जिसे हर राहगीर दिलचस्पी से देखता है, बल्कि उसके लिए ज़रा देर ठहर भी जाता है। यही हुस्न की क़ीमत है, और हुस्न को हमेशा क़ीमत मिलनी चाहिए।
मर्द को इस मामले में तंगदिल नहीं होना चाहिए। वे ख़ुद तो दुनिया भर की आज़ादियाँ मांगते हैं, लेकिन औरत को पिंजरे में क़ैद करके रखते हैं। उसे पिंजरों से नफ़रत थी—चाहे वे रेशम और कमख़ाब के हों या लोहे के।
हाँ, लेकिन मर्द के लिए वह एक ज़ंजीर की क़ायल ज़रूर थी।
इतनी शानदार तैयारी के बावजूद, बेशकीमती कपड़ों और होश उड़ा देने वाले ज़ेवरों के बावजूद, उसका दिल बेचैन सा था। यह कैसी बेचैनी थी, वह खुद भी नहीं समझ पा रही थी! उसे अपने बारे में किसी हीनभावना का एहसास भी नहीं था।
वह वैसे भी मर्दों के बारे में बहुत कुछ जानती थी। उसकी परवरिश में पर्दे या हिजाब का कोई दखल नहीं था। वह हर काम बेझिझक करती थी।
वह बेहद आत्मविश्वासी थी, और डैडी की दौलत उसका दोगुना आत्मविश्वास थी। अगर कोई औरत एक साथ दौलत और हुस्न की मालिक हो, तो उसे घबराने की ज़रूरत नहीं होती। हालात हमेशा उसका साथ देते हैं। लेकिन कभी-कभी वह घबरा जाती। पता नहीं, आफ़ाक़ कैसा होगा? अभी तक तो वह अमेरिका से नहीं आया था।
हर रोज़ वह इस उम्मीद में जागती कि कोई आकर उसे आफ़ाक़ के आने की ख़बर देगा। लेकिन घर के सारे लोग कितने निश्चिंत थे, जैसे उन्हें पूरा यक़ीन हो कि आफ़ाक़ ज़रूर आएगा। उनके इस यक़ीन को देखकर कभी-कभी वह भी निश्चिंत हो जाती—"अगर उन्हें फ़िक्र नहीं है, तो मुझे क्यों हो?" लेकिन फिर उसके दिल को जाने क्या होने लगता। अजीब-सी बेचैनी तारी हो जाती। कुछ समझ नहीं आता।
फिर वह कल्पना करती कि वह दुल्हन बनी बैठी है। इस कल्पना के साथ कई और तस्वीरें ज़िंदा हो जातीं। वह हमेशा अपनी कल्पना में आफ़ाक़ को घुटनों के बल झुका हुआ देखती। "आफ़ाक़ मेरे सामने झुका हुआ कितना अच्छा लगेगा!"
उसे अपने हुस्न पर ग़ुरूर था, और ज़ाहरी ख़ूबसूरती के अलावा उसके पास आफ़ाक़ को देने के लिए कोई और तोहफ़ा नहीं था। यही उसकी पूरी दुनिया थी, और उसी पर उसने दांव खेल रखा था। लेकिन उसे अपनी जीत का पूरा यक़ीन था, क्योंकि वह हार मानने वालों में से नहीं थी।
अब तक उसने जो चाहा, वह पाया था, और जो कहा, वह किया था। ठीक उसी तरह जैसे अहंकारी और ज़िद्दी आफ़ाक़ खुद-ब-खुद उसकी ओर झुका चला आ रहा था और अब तक़दीर के आगे झुकने के लिए और भी क़रीब आ रहा था।
शादी के दिन उनके घर में बहुत भीड़ थी। एक तो डैडी और मती के ढेरों दोस्त और जानने वाले थे, ऊपर से उसकी अपनी सहेलियों का दायरा भी कम नहीं था। फिर…
उसका शौहर देखने का लोगों में जबरदस्त क्रेज था। बड़ी तादाद में भीड़ उमड़ पड़ी थी। लेकिन इतना बेहतरीन इंतज़ाम था कि भीड़ के बावजूद कोई अव्यवस्था नहीं हो रही थी।
पेय पदार्थों की सर्विंग और चहल-पहल जारी थी। गाड़ियाँ भरी हुई आ रही थीं और खाली होकर पार्क हो रही थीं। पुलिस के लोग ट्रैफ़िक को कंट्रोल कर रहे थे। रोशनी की नहरें बह रही थीं। शामियाने जगमगा रहे थे। कपड़ों और गहनों की चमक-दमक से आँखें चुंधिया रही थीं। इतनी सर्दी के बावजूद ठंड का एहसास नहीं हो रहा था।
इसी वक़्त, पिछले दरवाज़े से फ़लक नाज़ घर के अंदर दाख़िल हुई। वह ब्यूटी सैलून से आ रही थी। वह दोपहर दो बजे से वहाँ गई हुई थी, जहाँ उसे पूरी तरह तैयार होना था। और आज, उसने मेकअप आर्टिस्ट से साफ़-साफ़ कह दिया था कि हर पुरानी कहावत उसके आगे फीकी पड़ जानी चाहिए। जिसे कहते हैं कि "हुस्न को चार चाँद लगना"—तो आज चार की बजाय आठ चाँद लगने का दिन था।
उसकी तमाम सहेलियाँ उसके इर्द-गिर्द जमा थीं और साथ-साथ अपनी राय भी दे रही थीं। पूरे चार घंटे में उसका मेकअप मुकम्मल हुआ। जैसे ही वह तैयार हुई, वह ऐसी लग रही थी जैसे जन्नत की कोई हूर हो, कोई अप्सरा हो, या कोई आसमानी मख़लूक। कोई उस पर नज़र तक नहीं टिका पा रहा था।
जब उसने अपना चेहरा शीशे में देखा, तो खुद ही हैरान रह गई। उसने कभी सोचा भी नहीं था कि उसमें इतना रूप छुपा हुआ था। अब उसके तीरों का तरकश पूरी तरह भर चुका था। उसे आफ़ाक़ के दिल पर तरस आने लगा, जिसे आज रात इन तीरों का निशाना बनना था।
अब वह आफ़ाक़ के सहमे हुए चेहरे का तमाशा देखने के लिए पूरी तरह तैयार थी। हल्के-हल्के क़दम बढ़ाती, अपने शानदार लिबास को संभालती, लंबी हील की नोक पर अपना वज़न डालती, संभलती हुई, एक शाही अंदाज़ में अपनी कार में जाकर बैठ गई।
जब वह घर पहुँची, तो घर मेहमानों से खचाखच भरा हुआ था। लेकिन उसने किसी से बात नहीं की और पिछले दरवाज़े से ऊपर सीढ़ियाँ चढ़ गई।
आज उसकी सारी सहेलियों ने ऊपर की मंज़िल पर एक ऐसा कमरा चुना था, जहाँ से नीचे का पूरा नज़ारा देखा जा सकता था। जब वह ऊपर अपने कमरे में पहुँची, तो बाकी बची हुई सहेलियों ने उसे घेर लिया।
"या अल्लाह... या खुदाया!"
हर तरफ़ से यही आवाज़ें गूंजने लगीं। आज उसकी ख़ूबसूरती पर किसी की नज़र नहीं लग सकती थी। हर कोई उसके बेमिसाल हुस्न की तारीफ़ कर रहा था—
"हाय अल्लाह, फ़लकी! तू आज कितनी प्यारी लग रही है! आईने में खुद को देखा है?"
"अरे, आज तो तू उसे मार ही डालेगी!"
"बेचारा... हमें उस पर तरस आ रहा है! आज के बाद कहाँ कभी गर्दन उठा सकेगा?"
"मुझे तो उसकी क़िस्मत पर जलन हो रही है!"
"वाक़ई, जो हमारी फ़लकी का दूल्हा है, वह बहुत ही ख़ुशक़िस्मत है!"
"फ़लकी! आज की रात उसकी सारी ग़लतियाँ माफ़ कर देना!"
किसी ने एक आँख बंद करके शरारती अंदाज़ में कहा, तो पूरा कमरा ठहाकों से गूंज उठा।
बड़े से दीवान पर गद्दे-तकिये के सहारे, अपनी ढेरों सहेलियों के बीच वह किसी शहज़ादी की तरह बैठी थी।
गुलनारी रंग के मखमली झिलमिलाते ग़रारे सूट के साथ याकूत का भारी सेट अजब बहार दे रहा था। ऐसा लग रहा था जैसे अंगारों में कोई शोला लपक रहा हो। खूबसूरत बालों का ऊँचा सा जूड़ा बना कर उसके बीच में उसने एक नन्हा सा ताज सजा रखा था। सफेद-सफेद मोतियों के बीच एक बड़ा सा याकूत चमक रहा था। इसी तरह की एक नाज़ुक सी नथ उसकी नाक में थी। वह सचमुच किसी शहज़ादी की तरह लग रही थी।
"हाय, फलकी! तुझे तो किसी देश की शहज़ादी होना चाहिए था। यकीनन, क्या औरत को सिर्फ दिल की मलिका होना चाहिए? खैर, दिल की मलिका तो यह आज बन ही जाएगी!"
"अच्छे से संभाल कर रखना साहब बहादुर को, समझी!"
लड़कियाँ जाने कैसी-कैसी हिदायतें उसे दे रही थीं। इतने में बैण्ड की पुरसोज़ और दिलकश आवाज़ गूंजी—
"बारात आ गई!"
"बारात आ गई!"
लड़कियाँ बेइख्तियार होकर नीचे और झरोखों की तरफ दौड़ पड़ीं।
"अरे फलकी, तू भी देख ले!" किसी ने कहा।
मगर फलकी से उठा ही नहीं गया।
उसका इरादा तो यही था कि वह बारात के आने से लेकर आख़िर तक सारा हंगामा अपनी आँखों से देखेगी, मगर अब उससे उठा नहीं जा रहा था। दो-तीन बार सहेलियों ने बुलाया, लेकिन वह टस से मस नहीं हुई। फिर वे सब नीचे जाकर झरोखों से देखने में मग्न हो गईं।
ऐसी बात नहीं थी कि उसे शर्म आ रही थी।
न जाने क्या हुआ, बैंड की आवाज़ सुनकर उसका दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा था।
इससे पहले भी उसने कई शादियों में बैंड की धुनें सुनी थीं, मगर उसका यह हाल कभी नहीं हुआ था।
न जाने यह कौन सी संगीत की धुन थी।
कितने ऊँचे सुरों पर बाजा बज रहा था।
उसकी हर आवाज़ और हर धड़क सीधी दिल पर लग रही थी। बैंड या शहनाई का संबंध दिल से होता है, यह बात उसे आज महसूस हुई।
शादी के ये बाजे उसे अलग-अलग एहसासों से भरने लगे—
खुशी भी, जोश भी, जज़्बा भी और सोज़ भी।
जितनी परमानंद और हलचल से भरी यह घड़ी थी, उतना ही यह दिल में मीठा-मीठा दर्द भी जगा रही थी।
यह दर्द किस बात की निशानी थी?
विसाल की नई ज़िंदगी की?
माता-पिता से बिछड़ने की?
या एक नई राह चुनने की?
पहले बैंड की आवाज़ सिर्फ़ रोमांचित कर देती थी।
मगर अब ऐसा लग रहा था जैसे बैंड की ध्वनि दिल के साथ एक लय में आ गई हो।
कभी वह कोई मधुर नग़मा लगती,
कभी कोई पुकार लगती।
हाँ, हर धुन जैसे साफ़ शब्दों में कह रही हो—
"गोरी, तेरा सांवरिया तुझे बुला रहा है… गोरी, आ!"
गोरी अगर उसकी बाहों में समा जाए...
मगर हर पुकार पर जाने क्यों आँसू निकल आते थे।
दिल तार-तार हो रहा था, जैसे बिखर रहा हो।
सांवरिया बाँहें फैलाए खड़ा था, मगर गोरी लगातार रो रही थी।
क्या यह माँ और डैडी से बिछड़ने का दुख था?
नहीं, ऐसा तो नहीं था!
वे तो यहीं कहीं पास ही होंगे।
तो क्या वह अपनी शादी पर उदास थी?
नहीं, यह भी नहीं!
फिर इस बेनाम उदासी की वजह क्या थी?
बैंड की आवाज़ उसके एहसासों को जैसे नोकदार तीर से झकझोर रही थी।
और वह यूँ ही मूर्तिवत दीवान पर बैठी रही।
मन तो कर रहा था कि उठकर देखे, एक नज़र उस सितमगर को भी देखे, जिसके साथ बेशुमार सपने जुड़ते जा रहे थे।
मगर उससे उठा नहीं गया।
फिर अचानक बैंड ने अपनी आखिरी धुन बजाकर ख़ामोशी ओढ़ ली।
"मुबारक! सलामत!" के शोर से माहौल गूंज उठा।
उसकी एक सहेली ने पलटकर देखा और बोली—
"निखत, अगर अब उठकर नहीं आई, तो पछताएगी। खुदा की कसम, देखने वाला…"
"नज़ारा है!"
"अफ्फोह! कितनी खूबसूरत कार है। कितने फ़नकाराना अंदाज़ में सजाई गई है। और देखो तो, आफ़ाक कितना डैशिंग लग रहा है!"
"जल्दी आ, प्लीज़ जल्दी-जल्दी!"
आफ़ाक का नाम सुनते ही जैसे उसके दिल को सुकून मिल गया।
शुक्र है, वो आ गया!
सुबह ही उसके आने की ख़बर मिली थी और तब से उसने इत्मिनान की एक लंबी सांस ली थी।
और अब अचानक उसे देखने की बेचैनी होने लगी।
वह अपनी तेज़ सांसों को काबू में रखते हुए जब झरोखे तक पहुँची, तो आफ़ाक नज़रों से ओझल हो चुका था।
शायद उसे बड़े आदर और सम्मान के साथ अंदर ले जाया गया था।
बाकी मेहमानों का फूलों के हार डालकर स्वागत किया जा रहा था।
"अब आती है, जब आफ़ाक अंदर जा चुका है!" सहेली ने हँसकर कहा।
मगर फिर भी उसने झरोखे में उसके लिए जगह बना दी।
वह मुस्कुराते हुए मेहमानों को देखने लगी। मेहमान भी बहुत ज़्यादा थे।
करीब सौ कारें आई थीं, और सब शान-ओ-शौकत के साथ आए थे।
उसने दिल में एक गर्व की लहर महसूस की।
उसका आफ़ाक कोई मामूली आदमी नहीं था, और रुतबे में डैडी से किसी भी तरह कम नहीं था।
निकाह का शोर उठा, तो वह जल्दी से आकर अपने दीवान पर बैठ गई।
कुछ लोग फ़ार्म और रजिस्टर उठाए ऊपर आए, और फिर सब कुछ पारंपरिक अंदाज़ में होने लगा।
उसने ज़्यादा शरमाने-लजाने की ज़रूरत नहीं समझी, बल्कि दस्तख़त करने के बाद जैसे ही वह हल्की-फुल्की हो गई।
तौबा! इस एक लम्हे के लिए वह कितने कर्ब से गुज़री थी।
- कहीं शादी हो या ना हो...
- कहीं आफ़ाक बदल ना जाए...
- ख़ुदा जाने, वह लौट कर आएगा भी या नहीं...
- पता नहीं, कहीं उसने मज़ाक तो नहीं किया था...
मगर नहीं!
यह मज़ाक नहीं था। यह ज़िंदगी की सबसे बड़ी हक़ीक़त थी।
अब वह मिसेज़ आफ़ाक थी।
आफ़ाक उसका था, उसका हक़ था, और दुनिया की कोई ताकत आफ़ाक को उससे नहीं छीन सकती थी।
निकाह के बाद जब छोहारे बाँटे गए,
तो शादी का हंगामा अपने शबाब पर पहुँच गया।
फलकी की सहेलियाँ बार-बार नीचे जाकर उसके लिए नई-नई चीज़ें ला रही थीं।
अब वह भी छनक रही थी, खूब बोल रही थी।
"अरी, मत बोल! सारा रूप बिखर जाएगा!"
"अब बस, उसी के साथ जाकर बोलना... आज रात उसने तुझे सोने तो नहीं देना!"
इन्हीं हँसी-मज़ाक के बीच खाने का वक़्त हो गया।
आज की दावत इतनी शानदार थी कि हर ज़ुबान पर बस एक ही बात थी—
"वाह! वाह!"
खाने वाले खेमे से "कुछ लुभावनी और तरह-तरह की खुशबुएं आ रही थीं। शेख सदरुद्दीन ने दिल खोलकर अपनी बेटी की शादी पर पैसे लुटा दिए हैं। हर कोई यही कह रहा था।
खाने के बाद लोग समूहों में बिखर गए और अपने-अपने मतलब की बातें करने में व्यस्त हो गए। ऊपर से यह दृश्य बहुत सुंदर लग रहा था। कोई समूह वहां खड़ा हंसी-मज़ाक कर रहा था। कोई यहां बातचीत में तल्लीन है। कहीं महिलाएँ चर्चा का विषय हैं। किसी समूह में महिलाएँ ही केंद्र में हैं। कहीं सिर्फ महिलाएँ पुरुषों की बुराई कर रही हैं। गंगा-जमनी हंसी और मिली-जुली चेहरे एक माहौल बना रहे थे।
आज ऐसा लग रहा था जैसे आकाश से खुशियाँ और रंग धरती पर उतर आए हैं और धरती अपने निवासियों पर इन्हें बिखेर रही है।
फलकी के दिल में एक अजीब हलचल हो रही थी। यह सारा हंगामा उसी की वजह से था।
यह खुशियाँ वह बाँट रही थी।
और इन खुशियों के पीछे कौन था?
आफ़ाक?
आफ़ाक के लिए उसने एक स्थायी कदम उठाया और इतने लोगों में खुशियाँ और खुशबुएँ बाँटी।
अरे, उधर देखो, यह
उधर गुलाब के फूलों वाली सड़क पर कोई सहेली चिल्लाई।
"कहाँ?"
फलकी ने अपनी मधुर आँखें ऊपर उठाईं।
वह सामने, जहाँ रोशनियों का एक नगारा बना हुआ है, बीन क्यों रही है, वहाँ
तेरा चाँद जो खड़ा है।"
"ओह...
आखिरकार फलकी ने ढूंढ ही लिया। वहाँ कुछ लोगों के साथ आफाक खड़ा हुआ था। उसका दिल धड़क उठा, लेकिन वह अपनी नजरें वहां से हटा नहीं पाई।
आज आफाक की सजधज बिल्कुल अलग थी।
वह तो समझ रही थी कि उसने कोई आधुनिक अमेरिकी सूट पहना होगा, सिर पर कोई हेयरकट होगा, कलाई पर चमकती घड़ी होगी और मुँह में कोई इम्पोर्टेड सिगरेट दबाए इधर-उधर देख रहा होगा।
लेकिन वह तो उसकी कल्पना के बिल्कुल विपरीत निकला।
उसने काले रंग की अचकन और सफेद शलवार पहनी हुई थी। अचकन के गले पर थोड़ा बहुत कढ़ाई का काम था। पैरों में सलीम शाहि जोड़ी और सिर पर पगड़ी थी। पगड़ी के ऊपर उसने अपना फूलों वाला सेहरा इस तरह लपेट रखा था जैसे कि सिर पर फूलों का कोई गट्ठर उठा रखा हो। शायद उसने सेहरा पहनना अनुपयुक्त नहीं समझा होगा और इस तरह सिर पर लपेट लिया हो। हाँ, बिल्कुल पारंपरिक दूल्हा बना हुआ था। इतने शिक्षित और फैशन-सेवी आदमी से उसे इस रूप की उम्मीद नहीं थी। उसने दिल में सोचा कि वह आज उससे यह जरूर पूछेगी कि यह कपड़ा उसने अपनी इच्छा से पहना था या अपनी माँ की इच्छा का सम्मान करते हुए पहन लिया था।
खैर, एक बात का उसे स्वीकार करना पड़ा।
इस कपड़े में भी वह बहुत खूबसूरत लग रहा था।
बिलकुल मुग़ल शहजादा लग रहा था। अल्लाह ने उसे शरीर और रूप बहुत अच्छा दिया था।"
"और उसके कपड़े में सलीका और दबदबा था। उसे दिल में थोड़ी सी जलन महसूस हुई।
वह चाहती थी कि आज आफाक ज़रा भी अच्छा न लगे। बस वही पूरी दुनिया की नजरों में छाई रहे।
उसके सामने आफाक का कोई जलवा न चले।
जो आदमी खुद इतना स्मार्ट और खूबसूरत हो, वह भला पत्नी से क्या मुकाबला कर सकता है? खैर, उसने वहीं खड़े-खड़े सोचा।
अच्छा तो लग रहा है, लेकिन उसका अपना क्या मुकाबला? वह खुद आकर्षण का पूर्ण उदाहरण थी।
भला उसके सामने कौन टिक सकता था?
आज मुकाबले की रात थी। और यह जानना था, कौन किसे हराएगा। दोनों अपने-अपने हथियार लिए हुए थे।
कोई बात नहीं, वह बिल्कुल नहीं घबराई। उसका पलड़ा भारी था। आज उसके पास ममता और नज़ाकत का पूरा खज़ाना था। फिर उसे किसी प्रकार का हीनभावना का एहसास भी नहीं था। वह संतुष्ट हो गई। जब कयामत का वक्त आएगा, तब देखा जाएगा।
आफाक काफी दूर खड़ा था। वह उसका चेहरा नहीं देख सकती थी। उसके चेहरे पर क्या प्रतिक्रिया थी, वह आज क्या महसूस कर रहा था, यह जानने की कोशिश नहीं कर सकती थी। वैसे दूर से तो वह काफी खुश नजर आ रहा था। बड़े मजे से अपने दोस्तों के साथ बातें कर रहा था। थोड़ी-थोड़ी देर में मेज़बानों में से कोई उसे खाना, फल या पान पेश करता तो वह मुस्कुराकर धन्यवाद कहता और थोड़ा सा उठा लेता। आज वह सबकी नजरों का केंद्र था। मेहमान-ए-ख़ास था। बारात का दूल्हा था। आकाश का चाँद था।"
"क्या वह इस बात पर इतराकर चल रहा है या नहीं?" फ़लक़ी बड़ी बेचैन थी यह जानने के लिए। "लेस कर, क्या उसे नज़र लगाने का इरादा है?"
पीछे से पिंकी ने एक धप्प मारी, तो वह चौंक उठी।
"देख रही हूँ, काफ़ी देर से मैं बस इसी को आँखों ही आँखों में पी रही हूँ!"
फ़लक़ी कुछ शर्मिंदा होकर मुस्कराई और झरोखे से हट गई।
"आज की रात जी भर के दीदार के जाम पीला और पिलाना!" – पिंकी शरारत से बोली।
"कमसख्त! बकवास बंद कर, मैं तो बस यूँ ही देख रही थी।"
"वहाँ ऐसे ही? ज़रा अपना चेहरा देखो, शौक़ की आग में जल रहा है! बेवकूफ़! यह आलम रहा तो कहीं आज मामला उल्टा न हो जाए।"
फ़लक़ी ने क़द-आदम आईने के आगे खड़े होकर अपना चेहरा देखा। सच में, उस पर एक अजीब रंग चढ़ा हुआ था।
"मामला उलट होने से क्या मतलब?" उसने पलटकर पिंकी से पूछा।
"अरे, वही जो कहते हैं ना – 'इश्क़ पहले महबूब के दिल में पैदा होता है'। कहीं ऐसा न हो कि आज रात वह महबूब बन जाए और तुम आशिक़!"
"हूँ...!"
फ़लक़ी ने घमंड से नाक चढ़ाकर कहा – "ऐसी उम्मीद तो कभी मत रखना! अब इतनी भी गई-गुज़री नहीं हूँ, और तुम जानती हो!"
"कल सुबह पूछेंगे!" पिंकी ने शरारत से कहा।
"अच्छा, अब जल्दी से खाना खा लो, क्योंकि नीचे आरसी मुसहफ़ के लिए बुलाया गया है।"
"जा रहा है, और जाने के लिए तो तुम भी बेकरार होगी!"
"मुझे बिल्कुल भी भूख नहीं है, पिंकी!"
"हाँ, हर लड़की पहली रात यही कहती है – 'मुझे भूख नहीं है'। शौक़-ए-विसाल में भूख उड़ जाती है, मगर पेट खाली हो तो… रात संभालनी मुश्किल हो जाती है!"
"कमिनी!" – उसने पिंकी को गाली दी।
"ज़रा सा कुछ तो खा ले!"
बैरे खाने के थाल उठाए अंदर आ गए थे। उन्होंने फ़लक़ी के आगे सारा खाना सजा दिया।
गर्मागर्म खाने से अच्छी ख़ुशबू और भाप उठ रही थी, मगर फिर भी फ़लक़ी का खाने को मन नहीं कर रहा था।
कोई भी निवाला उसके गले से नीचे नहीं उतर रहा था। पता नहीं क्यों…
"कुछ खा लो, ऐसा न हो कि कमजोरी के मारे गिर पड़ो!"
उसे याद आया कि उसने सुबह से कुछ नहीं खाया था। शाम को भी बस एक प्याली चाय पी थी।
कमज़ोरी तो बिल्कुल महसूस नहीं हो रही थी, लेकिन उत्साह (Excitement) बहुत था।
और शायद इसी वजह से भूख का एहसास नहीं हो रहा था।
पिंकी के ज़ोर देने पर उसने थोड़ा सा रोस्ट ले लिया, मगर पहला ही निवाला गले से नीचे नहीं उतरा।
पानी के घूंट से निगलना पड़ा। फिर उसने सिर्फ़ फ़िरनी पर ही संतोष किया और पूरी एक प्लेट खा ली।
बाकी सारी सहेलियों ने, जो उसके साथ ऊपर बैठी थीं, खूब जी भर कर खाया!
थोड़ी देर बाद आवाज़ आई कि दुल्हन को नीचे बुलाया जा रहा है।
फ़लक़ी का दिल तेज़ी से धड़कने लगा।
हालाँकि उसे लगता था कि वह बिल्कुल नर्वस नहीं होगी…
"अब उस सितमगर का सामना होगा…
न जाने पहला वार किस तरफ़ से होगा और कैसा होगा…?"**
सहेलियाँ उसे अच्छी तरह से सजाकर-संवारकर नीचे ले जाने लगीं।
वह खुद भी गंभीरता और ठहराव के साथ, धीरे-धीरे कदम बढ़ाती हुई उस शमीाने की ओर चली,
जो विशेष रूप से उसके लिए तैयार किया गया था।
"दुल्हन आ गई!"
"दुल्हन आ गई!"
एक शोर मच गया।
हर कोई उसे देखने के लिए ख़ेमे की ओर दौड़ पड़ा।
कुछ देर तक खूब गहमागहमी रही।
हर कोई उसे इस तरह देखने आ रहा था, जैसे उसने अभी-अभी नया जन्म लिया हो।
जिसने भी देखा, बस तारीफ़ ही की।
हर ज़ुबान से एक ही बात निकली –
"माशा अल्लाह! दुल्हन तो चौदहवीं के चाँद जैसी लग रही है!"
फ़लक़ी भी फूली नहीं समा रही थी जब सब यही कहते थे कि –
"फ़लक़ी तो बिल्कुल अपनी अम्मी की जवानी की तस्वीर लग रही है!"
और यही जुमला मिसेज़ सदरुद्दीन हर मर्द और औरत के मुँह से बार-बार सुनना चाहती थीं।
इसीलिए वह सबको खींच-खींचकर लातीं और दुल्हन को दिखातीं!
थोड़ी देर बाद दूल्हे के नाम की घोषणा हुई।
और फिर बड़े शान से झूमता हुआ वह आया और सोफे पर दुल्हन के करीब बैठ गया। एक खूबसूरत सी खुशबू फलक की नाक तक पहुँची।
आज यह खुशबू हर खुशबू पर भारी थी। पता नहीं उसने कौन सा परफ्यूम लगाया था। उसके भारी-भरकम वजूद की नजदीकी से फलक हल्के से कांपने लगी।
पता नहीं, आज की रात कैसे गुज़रेगी।
ऐसा लग रहा था कि उसके हर इरादे के कदम डगमगा रहे हैं, लेकिन उसने यह ज़ाहिर नहीं होने दिया कि वह नर्वस हो रही है।
आरसी मुशफ (दूल्हा-दुल्हन का पहली बार शीशे में एक-दूसरे को देखना) के समय इतनी भीड़ थी कि उसे आफ़ाक़ का चेहरा ठीक से दिख भी नहीं पाया।
फिर किसी शरारती ने कहा:
"बताओ, यह शीशे का झंझट क्यों, ऐसे ही दूल्हा-दुल्हन को एक-दूसरे का चेहरा देख लेने दो!"
फिर फोटोग्राफर आ गए।
और चारों तरफ फ्लैश चमकने लगीं।
"इधर देखिए।"
"प्लीज़, इधर देखिए।"
"ऐसे बैठिए।"
"उन्हें बुलाइए।"
"आप आइए।"
ऐसा लग रहा था कि हर कोई तस्वीर खींचने में ही मग्न है और बाकी सब बस दुल्हन के साथ फोटो खिंचवाने को ही एक सम्मान समझ रहे हैं।
इस तस्वीर खींचने की धूम से वह तंग आ गई थी।
बार-बार इधर-उधर रुख करने से उन्होंने एक-दूसरे को बहुत अच्छे से देख लिया था।
जब भी वह चोरी-चोरी आफ़ाक़ की तरफ़ देखती, वह मुस्कुरा रहा होता। उसके चेहरे की मुस्कान इतनी दिलकश थी कि वह उसमें खो जाती।
क्या आफ़ाक़ आज रात उतना ही खुश है जितना दिख रहा है? वह बार-बार अपने दिल से यही सवाल करती।
फिर विदाई का समय भी आ गया।
"शुक्र है!" उसने अपने दिल में कहा।
लोग बेवजह समय बर्बाद कर रहे हैं। इन्हें इस बात का अहसास ही नहीं कि दूल्हा-दुल्हन के लिए यह रात कितनी अहम होती है।
विदाई का दृश्य उसे हमेशा एक नाटक लगता था।
अगर किसी को रोना न भी आ रहा हो तो भी वे रोते हैं।
लड़कियाँ अंदर से कितनी खुश होती हैं, शादी का शौक़ सबको होता है, वे दिन गिन-गिन कर काटती हैं।
मगर विदाई के समय, जब सारी दुनिया इकठ्ठा होती है, तो ज़रा सा नाटक कर देती हैं।
वह इसी लम्हे से डर रही थी।
हालाँकि, उसे अपनी माँ पर पूरा-पूरा यक़ीन था।
क्योंकि वे खुद रूढ़ियों को नहीं मानती थीं, इसलिए ऐसा कोई भावुक दृश्य बनने ही नहीं देतीं।
उसे आफ़ाक़ की माँ को देखने की बड़ी तमन्ना थी।
संयोगवश, विदाई के समय वे खुद ही करीब आ गईं।
उन्होंने उसका बाजू पकड़कर उठाया और बोलीं, "चलो बेटी! अब अपने घर चलो!"
हज़ार कोशिशों के बावजूद, उसकी नज़र उठ ही गई।