INS WA JAAN PART 9

                                                


दादा जी ने जाते हुए शमा को खास हिदायत दी थी कि शजा का खास ख्याल रखे। उसे किसी भी वीरान जगह पर न जाने दे और उन्होंने उसे दम करने का तरीका और क्रम भी बता दिया था कि इसमें नाहा न हो। वह कुरान की सूरतें पढ़ कर दम करते थे। और अक्सर लोग उनसे अपने बच्चों को दम करवाने आते थे।

उस दिन के बाद से वह लगातार खुद शजा पर दम कर रहे थे। और वह बिलकुल ठीक हो गई थी।

मेकें जाकर शमा थोड़ी लापरवाह हो गई थी और शजा के सिर में फिर से दर्द होने लगा था। सारी बात पता करके उसकी मां ने भी शमा को बहुत डांटा था। और बिलकुल दादी जी की तरह उसे नसीहतें दी थीं कि बच्ची का ख्याल रखा करो। ऐसे कपड़े न पहनाया करो आदि। उन्होंने खुद उसे दम करने की जिम्मेदारी ले ली थी। बल्कि वह उसकी आदत बनाने की कोशिश कर रही थीं कि वह खुद यह आयतें और सूरतें पढ़ने की आदत डाल ले। ताकि वह शैतानी चीजों और बुराइयों से सुरक्षित रह सके। धीरे-धीरे उसकी हालत बेहतर हो गई थी।

दादा और दादी बेटियों से मिलकर वापस आ गए थे। वह उनके घर नहीं ठहरते थे बस कुछ घंटे बिताकर वापस चले आते थे। और रिश्तेदारों से मिलने में दो तीन दिन लग गए थे। उनके साथ बड़ी नानी भी रहने के लिए आई थी। वह सेकेंड ईयर की स्टूडेंट थी और हर साल छुट्टियों में रहने के लिए नाना नानी के घर आती थी। उसकी मां सलमा यानी अब्दुल्ला की फूफी कुछ दिनों के लिए आती थीं लेकिन सालविया हफ्तों रहकर जाती थीं। इस बार फूफी ससुराल में व्यस्तता की वजह से नहीं आई थीं। मगर सालविया लगभग दो तीन हफ्ते का सामान बांध कर आई थी।

कैसे हैं डॉक्टर साहब? उसने खुशगवार मुस्कान से पूछा। वह हमेशा अब्दुल्ला को डॉक्टर साहब ही कहकर चिढ़ाती थी। "ठीक ठाक हूँ गड़िया"। अब्दुल्ला ने कहा। ओह हो! अब मैं बड़ी हो गई हूँ, अब गड़िया न कहा करो मुझे, ..... सालविया कहा करो। "अच्छा गड़िया! ओह सॉरी! ...... सालविया। पढ़ाई ठीक जा रही है? अब्दुल्ला ने पूछा। "जी डॉक्टर साहब"। उसने फिर मुस्कुराते हुए जवाब दिया। वह दुबली पतली लंबी कद, ग्रे आंखों, गोरी रंगत वाली दिलकश सी लड़की थी। अब्दुल्ला ने कभी उसमें कोई खास दिलचस्पी नहीं ली थी। क्योंकि उस वक्त तक उसकी कोई बहन नहीं थी। और वह उससे सिर्फ दो तीन साल ही छोटी थी। इसलिये वह अब तक उसे अपनी छोटी बहन ही समझता था। और बड़े लोगों ने भी उसे यही सिखाया था।

"कहीं जा रहे हैं आप? उसने उसे बाहर जाते हुए देखा और पूछा। नहीं, बस यह साथ दुकान तक जा रहा हूँ"। उसने बताया। "अच्छा चलें, आप आ जाएं फिर साथ बैठकर गप्पें मारेंगे"। उसने कहा। अब्दुल्ला ने उसे संदिग्ध नजरों से देखा। उस वक्त वह नीले रंग की गर्म ऊनी फ्रॉक और ट्राउज़र में मلبूस थी। और सिर पर सलीके से गर्म स्कार्फ लिपटा हुआ था। समंदर से नीले रंग के स्कार्फ में लिपटे उसके चेहरे पर ग्रे आंखें बहुत प्रमुख हो रही थीं। दो साल पहले तक वह उसे अब्दुल्ला भैया कहती नहीं थकती थी और अब डॉक्टर साहब के अलावा किसी और उपनाम से संबोधित नहीं करती थी। उसने कभी यह बदलाव महसूस नहीं किया था। पर अब उसके व्यवहार में आई बदलाव ने अब्दुल्ला को चौंका दिया था। वह अपने ख्याल को नकारते हुए गेट खोलकर बाहर निकल गया। और वह उसे जाते हुए देखती रही।

डॉक्टर साहब --- मुझे तीन दिन हो गए हैं आपके घर आए हुए कहीं लेकर ही नहीं गए आप -- मेहमानों के साथ यह सलूक करते हैं मैं तो घर बैठे बैठे बोर हो गई हूँ। वह किताबों में सिर दिए बैठे था कि सालविया अचानक से उसके कमरे में आकर मौजूद हो गई और अब सामने सोफे पर बैठी उससे शिकवा कर रही थी। हां तो जाओ न गड़िया घूमने फिरने -- मैं तो बहुत बिजी हूँ -- ऐसा करो तुम बच्चों के साथ चली जाओ हातिम है -- और इमाद अफ़ान हैं उन्हें तो वैसे ही घूमने फिरने का बड़ा शौक है। उसने किताबों से सिर उठाकर एक सरसरी नजर उस पर डाली।

आप नहीं चलेंगे साथ बच्चों को क्या पता -- वे तो अपने ही खेल खेलेंगे -- मेरी कोई सहेली भी नहीं है यहाँ -- उसका मुँह लटक गया। तो तुम अपनी किसी सहेली को साथ ले आती -- उसने हंसते हुए मजाक किया। आप नहीं बन सकते मेरी सहेली -- वह अपनी बात पर खुद ही हंस पड़ी। अब्दुल्ला ने उसे ऐसे देखा जैसे उसका दिमाग चल गया हो। क्या हुआ? इतने हैरान क्यों हो रहे हैं आप --? मैंने कुछ गलत कह दिया क्या --? नहीं -- पर मैं तो लड़का हूँ -- और सहेलियाँ तो लड़कियाँ होती हैं। ओह -- कंपनी देने के लिए तो बंदा बन ही सकता है दोस्त। तो फिर कहाँ ले जा रहे हो आप --? उसने उत्सुकता से पूछा। दादा जी डांटेंगे -- उसने उसे टालना चाहा। क्यों डांटेंगे भाई मैं अभी उनसे पूछ आती हूँ। वह कहती हुई उनके कमरे की ओर चल दी। वह लगभग सत्रह वर्ष की एक शोक और चंचल सी लड़की थी। वैसे तो सालभर में वह कई बार फैमिली के साथ मिलने आती थी और पिछली सर्दियों की छुट्टियों में भी वह अपने नाना नानी के घर रहकर गई थी लेकिन वह अब्दुल्ला से इतनी फ्रैंक नहीं होती थी। लेकिन इस बार वह उसके व्यवहार में उल्लेखनीय बदलाव महसूस कर रहा था। वह बहाने बहाने से उससे बात करने की कोशिश करती रहती थी।

ग्रे आँखों में --- हल्की भूरी आँखों और लाली मائل भूरे बालों वाले अब्दुल्ला को देख कर एक खास चमक आ जाती थी- और अब्दुल्ला की नजरों से यह चीज छिपी नहीं रहती थी। लेकिन वह परी के अलावा किसी और का सोच भी नहीं सकता था -- और वह ग्रे आँखों और काले बालों वाली लड़की इस बात से पूरी तरह अन्जान थी।

"इस्माइल की माँ ---मैं सोच रही थी कि एक दावत रख लेते हैं घर पर--कितना समय हो गया अपने सभी बच्चों को एक साथ नहीं देखा--अब तो छुट्टियाँ भी खत्म होने वाली हैं--अच्छा है सभी भाई-बहन एक साथ मिलें एक-दूसरे से मिल लें--

सोचा तो आपने बहुत अच्छा है--तो देर किस बात की--आप कह दें सभी को --और इंतजाम करा लें--वैसे तो सभी मिलते रहते हैं पर कोई साल के किसी महीने आता है, कोई किसी महीने--कितना अच्छा लगेगा कि मेरे सारे बच्चे और ...उनके बच्चे एक साथ हों तो घर में रौनक लग जाएगी--अब तो खाली-खाली सा घर लगता है--सभी अपने-अपने घरों में बस गए हैं--एक बस यूसुफ है और उसके बच्चे--उन्होंने एक ठंडी आह भरी।
अरे चिंता क्यों करती हो नेक बख्त --तुम्हारे यूसुफ को अल्लाह ने पांच बेटे दिए हैं बहुएं आएंगी तो देखना कैसी रौनक लगेगी फिर तो शांति को तरसोगी तुम--वो हंसते हुए अपनी बीवी को तसल्ली दे रहे थे--
यह तो शुक्र है रब तआला का कि हमारे सारे बच्चे नेक फरमाबरदार और अच्छे स्थान पर हैं।कोई शकी नहीं निकला कि हम दुनिया के सामने शर्म से सिर झुकाएं... नेक औलाद भी बड़ी नेमत है इस्माइल की माँ...वो आज भी अपनी बीवी को अपने शहीद बेटे की तुलना से बुलाते थे।
मेरा तो दिल करता है अब्दुल्ला के सिर पर आज ही सेहरा सजाऊं माशाल्लाह बीस साल का हो गया है--
अरी भोली ---इतनी भी क्या जल्दी है अभी तो उसके डॉक्टर बनने में भी तीन-चार साल बाकी हैं--और लड़की देखी है क्या तुमने--?
देखने की क्या जरूरत है--घर में ही मौजूद हैं लड़कियां---
हैं---?
अरे मेरी बेटियों की बेटियां हैं ना--स्लिमा की बेटी सलविया भी कॉलेज में पढ़ रही है और नज्म की बड़ी वाली इस साल मेट्रिक कर लेगी--बाकी तो थोड़ा छोटी हैं अभी--मैं तो कहती हूं कि बच्चों के आपस में ही रिश्ते करा दूं ताकि मेरे बच्चे एक-दूसरे से दूर न हों--
इस्माइल की माँ---अब ज़माना बदल गया है अब बच्चों की अपनी पसंद भी होती है--अब वो हमारे वाला दौर नहीं है कि चेहरा देखा नहीं नाम का पता नहीं और शादी हो गई--हमें तो कोई पूछता ही कहां था बस बताते थे बेटा दुल्हा बन जाओ فلां दिन तुम्हारी शादी है--
अब तो बच्चे हंगामा खड़ा कर देते हैं--
ऐसे नहीं हैं मेरे बच्चे--आप रहने दें बस--
हा हा--तुम तो अपने ही दौर में जी रही हो अब तक--इतनी उम्र गुजार के भी उतनी ही भोली हो जितनी पहले दिन थी--
वो पुरानी बातें याद करके हंसने लगे--
नाना अबू---दो दिन हो गए हैं मुझे यहाँ आए हुए घर बैठ-बैठ के बोर हो गई हूँ--
कहीं बाहर ले चलें ना--दोनों मियां-बीवी बैठ के बातें कर रहे थे कि सलविया ने आकर फरमाइश की--
अरे मेरी बच्ची बोर हो रही है---मेरी गुड़िया --मुझे पहले ही बताया होता--नाना अबू ने प्यार से उसे अपने पास बैठाया--
बेटा मैं कहां तुम्हें ले कर जाऊं--? तुम बच्चे चले जाओ --बल्कि मैं अब्दुल्ला से कहता हूं वो ले जाएगा तुम सभी को घुमाने-फिराने--
धन्यवाद नाना अबू--उसकी तो दिल की मुराद पूरी हो गई थी--
वो खुशी-खुशी वहां से बाहर आ गई थी--
बिल्कुल अपनी माँ की तस्वीर बनती जा रही है--वैसी ही आँखें हैं कद-काठी रंगत सब कुछ--सफीया बीगम उसके जाने के बाद बोलीं--और इस पल में वहां बैठे-बैठे जाने वो क्या-क्या सोच रही थीं और दिल ही दिल में कुछ फैसले भी कर बैठी थीं--

बेटा ध्यान से गाड़ी चलाना--और बच्चों तुम भी ज्यादा शरारतें मत करना--सलविया तुम बड़ी बहन की तरह इन सभी का ख्याल रखना--
दादा जी उन्हें जाते हुए हिदायतें दे रहे थे--
वे सभी गाड़ी में ठंसे हुए थे और अब्दुल्ला ड्राइविंग सीट संभाले तैयार था- दादा दादी के कहने पर वह उन्हें पिकनिक पर ले जा रहा था-हालाँकि उसका मूड बिल्कुल नहीं था पर यह सब सलविया की करतूत थी--
वे सभी खुश दिखाई दे रहे थे सिवाय अब्दुल्ला के--
वो प्री की वजह से पहले ही परेशान था और ऊपर से सलविया का बदलता रवैया उसे खटक रहा था--वो नहीं चाहता था कि वो मासूम सी लड़की उससे कोई उम्मीद बांध ले और फिर उसके टूटने पर खुद को तबाह कर डाले--इसलिए उसके साथ उसका व्यवहार थोड़ा दूर-दूर सा था--
मौसम काफी बेहतर था--कई दिन से बर्फबारी थम चुकी थी--पर कभी-कभी बादल अपना गुबार निकालने आ जाते थे--आज तो हल्की हल्की धूप भी निकली थी सुबह के दस बजे वे घर से रवाना हो गए थे--
मरी का सबसे खूबसूरत इलाका भोरबिन यहां से नजदीक ही था--वही उनकी मंजिल थी--अब्दुल्ला खामोशी से ड्राइव कर रहा था-पीछे की सीट पर सलविया, इमाद, अफ़ान और हतिम बراجमां थे और उनकी खुशगप्पियां और ठहाके चरम पर थे--आगे की सीट पर सफ़ोरा अकेली ही फैली हुई थी--
भैया--वो देखो बंदर का बच्चा--कितना प्यारा है ना--वे उस इलाके से गुजर रहे थे जहां बंदरों की आबादी मक्खियों से भी ज्यादा थी--
सफा--मुझे ड्राइव करने दो--चुप करके बैठो--
अब्दुल्ला ने अपने उथल-पुथल में उस बेचारे को डांट दिया था--वो मुँह बनाकर खिड़की से बाहर देखने लगी--और पूरा रास्ता चुप रही--पीछे वालों पर हालांकि कोई असर नहीं हुआ था--उनकी हंसी-ठहाके वैसे ही जारी थे--
करीब आधे घंटे के सफर के बाद वे भोरबिन हिल स्टेशन पहुंच गए थे--यहां सैलानी अक्सर आते-जाते रहते थे इसलिए मनोरंजन के काफी साधन थे--सबसे बड़ा पीसी होटल भी अपनी तमाम सुविधाओं के साथ यहां मौजूद था।
और प्राकृतिक सुंदरता बिना रोक-टोक चारों ओर फैली हुई थी--आंखें उसका आहाता करते-करते थक जाती थीं--लगता था यहां की ज़मीन सारी काइनात का हरा-भरा हिस्सा ले आई है और ...पहाड़ों की ढलानें और चोटियां अपनी सजावट के लिए दुनियाभर के पेड़ ले आई हैं--यहां इतने रंग थे कि इंद्रधनुष भी हैरान रह जाए--हर दृश्य दूसरे से कहीं अधिक दिलकश था--देखने वाले उस शिल्पकार के हुनर पर दांतों तले उंगली दबा लेते जिन्होंने "कُن" कहा और इस धरती का यह हिस्सा ...अलौकिक सुंदरता से सुसज्जित हो गया---जाने वह शिल्पकार खुद कैसा होगा--?
इंसान सोचने से अक्षम था और इस तरह के अरबों दृश्य मिलकर भी उसकी तारीफ और प्रशंसा का हक अदा करने से मुअज्ज़र थे--
~अक्ल है महव तमाशाए लब बाम अभी"

वह सब उस दिन को खूब आनंद ले रहे थे। अब्दुल्लाह का दिल बुझा-बुझा सा था। सामने अनगिनत सुंदरता अपनी छटा बिखेर रही थी, लेकिन उसे कोई चीज़ भी पसंद नहीं आ रही थी। वह ज़्यादा वक्त उन्हें हंसते-खेलते देख कर बिता रहा था।

वे नाव में सवार थे और वह... झील में खिले कमल के फूलों के बीच से तैरती हुई आगे बढ़ रही थी। नाविक बड़ी दक्षता से चप्पू चला रहा था। बच्चे हाथ बढ़ा कर कभी फूल तोड़ लेते और कभी झील के ठंडे पानी से खेलते हुए हंसी में डूब जाते। साल्विया उन सबके साथ घुल-मिल कर बिल्कुल बच्ची जैसी लग रही थी। वे हर दृश्य को अपने फोन में कैद कर रहे थे। साल्विया का तो अपना फोन था, लेकिन बाकी लड़के अब्दुल्लाह का फोन ही इस्तेमाल कर रहे थे और तस्वीरें बना-बना कर उसकी मानसिक शांति छीन चुके थे।

"भैया, आपका फोन," इमाद ने उसे मोबाइल थमाया।

अब्दुल्लाह ने देखा तो अली का कॉल था।

"हां यार, कैसे हो?" वह खुशी के साथ पूछा।

"ठीक...ठीक..." दूसरी तरफ से वह कुछ बता रहा था और अब्दुल्लाह पूरी तन्मयता से सुन रहा था। साल्विया ने उसके व्यवहार में बदलाव महसूस किया था। अब तक वह बिल्कुल चुप और उलझा हुआ सा था, जबकि साल्विया उसे कई बार बहाने-बहाने से हंसाने की कोशिश कर चुकी थी, लेकिन वह बस फीकी सी मुस्कान दे देता। अब उसके चेहरे पर चमक सी आ गई थी।

उसने फोन बंद करके वापस उन्हें थमाया और दूर कहीं अव्यक्त दृश्य को देखने लगा।

नाव झील का भ्रमण करके वापस किनारे की ओर लौट रही थी।

"हां भाई बच्चों, वापस चलें?"

"नहीं...नहीं..." सबने एक साथ कहा, "अभी से क्यों? अभी तो चेयर लिफ्ट झूले भी बाकी हैं और अभी तो हमने कुछ खाया भी नहीं ठीक से।"

उनका वापसी का कोई इरादा नहीं था।

"अच्छा, फोन दो जरा," वे सब गोलगप्पे खाने जा रहे थे। अब्दुल्लाह ने फोन लेकर थोड़ा दूर बैठ गया।

"हां यार, अब बताओ, उस समय ठीक से बात नहीं कर सका," उसने अली को कॉल किया।

"वो बाबा जी क्या कर सकते हैं?"

"कोई ठग तो नहीं हैं?"

"बहुत पहुँचे हुए हैं, कोई ऐसे वैसे नहीं हैं, न लूटों-पैर हैं। उनके पास तुम्हारे मसले का कोई न कोई हल जरूर होगा," अली ने बताया।

"ऐसा करते हैं, कल सुबह चलते हैं।"

"चल ठीक है," उसने सहमति दे दी।

वे घर लौटे तो शाम के चार बज चुके थे। शमा और बच्चे वापस आ चुके थे और वे घर में शोर मचाते फिर रहे थे।

सारा दिन घूम-घूम कर सब इतना थक गए थे कि आते ही सो गए, सिवाय अब्दुल्लाह के।

सब बड़े किचन में बैठ कर शाम की चाय पीते हुए किसी महत्वपूर्ण मुद्दे पर विचार कर रहे थे।

"मैं अंदर आ जाऊं?" अब्दुल्लाह ने अंदर झांकते हुए पूछा।

"हां हां, अच्छा हुआ तुम आ गए। हम सब दावत के योजना पर विचार कर रहे थे," उसके पिता यूसुफ ने कहा।

"क्या दावत?"

"तुम्हारी सारी फूफियाँ, ताई और चाचा की दावत, ताकि सभी भाई-बहन एक जगह जमा हों और घर में रौनक हो," दादा जी ने बताया।

"तो कौन सा दिन रखा जाए जो उचित रहे?"

"मेरा ख्याल है शनिवार का दिन ठीक रहेगा," इब्राहीम ने राय दी।

"जी चाचू, बिल्कुल उचित रहेगा," अब्दुल्लाह ने भी हां में हां मिलाई।

"तो आज बुधवार है, हमारे पास दो दिन हैं इंतजामात के लिए," दादा जी ने उसके हिस्से का काम बताने लगे। वह सिर हिलाते हुए उनकी बातें सुन रहा था। इसके बाद उन्होंने महिलाओं से बात कर उनकी जिम्मेदारियां उन्हें सौंप दीं।

अब्दुल्लाह वहां से उठकर कमरे में आ गया। बड़े लोग मीटिंग में लगे थे, जो देर तक जारी रही, जिसमें कुछ महत्वपूर्ण निर्णय भी लिए गए थे।

अगले दिन सुबह ही अब्दुल्लाह को दावत के सिलसिले में कुछ सामान लेने के लिए बाजार जाना था और उसे आराम से मौका मिल गया था कि बाबा जी से भी मिल आए।

उसने अली को उसके घर से पकड़ा और उसके बताए रास्ते पर चल पड़ा।

लगभग एक घंटे की यात्रा के बाद वे उस जगह पहुंच गए थे, यह एक दूर-दराज़ गांव का क्षेत्र था। एक पहाड़ी श्रृंखला के नीचे यह एक घाटी थी। यहां आबादी बहुत कम थी। पहाड़ों की चोटियां सपाट नहीं, बल्कि नुकीली थीं और उनमें कोई आबादी नहीं थी।

"आगे का रास्ता हम पैदल तय करेंगे," अली ने उसे सूचित किया।

इस गांव से एक तरफ हटकर एक अकेला सा पहाड़ पूरी शान से सिर उठाए खड़ा था, उसकी चोटी पर दूर से एक कुटिया दिखाई दे रही थी। वे चढ़ाई चढ़कर वहां तक पहुंचे। अली ने चुपके से लकड़ी के दरवाजे पर दस्तक दी।

"आ जाओ... दरवाजा खुला है," अंदर से मुस्कराती हुई आवाज आई।