INS WA JAAN PART 7
शज़ा बेटा, उठ जाओ, शाम हो गई है।
शमा ने प्यार से उसके बालों को समेटते हुए उसे जगाया।
"अब तबीयत कैसी है? सर दर्द ठीक है?"
काफी देर तक वह खाली-खाली निगाहों से अपनी माँ को देखती रही, फिर धीरे से बोली—
"पानी..."
इस कड़ाके की सर्दी में भी उसे प्यास लग रही थी। शमा ने अपने हाथों से उसे पानी पिलाया।
"सर दर्द ठीक है ना?" उसने उसका बुखार चेक किया। अब बुखार उतर चुका था।
शज़ा ने हल्के से सिर हिला दिया।
"शुक्र है..."
वह देखने में तो ठीक लग रही थी, लेकिन अब भी गुमसुम थी।
"अच्छा, मैं तुम्हारे लिए सूप लाती हूँ।"
कुछ देर बाद शमा उसके लिए सूप ले आई और चम्मच से उसे पिलाने लगी।
शज़ा एक स्वस्थ, गोरी-गुलाबी गालों वाली, शहद जैसी आँखों वाली और कमर तक लंबे, घने काले बालों वाली प्यारी-सी बच्ची थी, जो पहली ही नजर में लोगों को अपनी ओर आकर्षित कर लेती थी। ऊपर से उसकी शरारतें और अपनी उम्र से बड़ी बातें करना तो सोने पर सुहागा था।
उसकी दादी, सफ़िया, तो अक्सर उसकी नज़र उतारा करती थीं। सफ़ोरा भी ऐसी ही खूबसूरत बच्ची थी, बस उसके बाल भूरे रंग के थे। दोनों देखने में काफी हद तक एक जैसी थीं, लेकिन आदतें थोड़ी अलग थीं।
सफ़ोरा अभी सात साल की थी और उसे दुपट्टा ओढ़ने की आदत थी। वह हमेशा सिर ढककर रखती थी, जैसा कि इस घर की परंपरा थी। लेकिन शज़ा तो इंडियन हीरोइनों की नकल करने की कोशिश में अपनी जुल्फें खुली रखती थी। कुछ उसे शमा की ओर से भी छूट मिली हुई थी।
दादी बार-बार कहती थीं, लेकिन बहू पर कोई असर नहीं होता था—
"हमारे ज़माने में औरतें सिर ढककर रखती थीं, तभी घर में बरकत होती थी। औरत की बेपर्दगी से समाज में बहुत-सी बुराइयों को बढ़ावा मिलता है। जो लड़कियाँ खुले बाल रखती हैं, उन पर जिन-भूत आशिक हो जाते हैं।"
बड़ी-बूढ़ियों का कहना था कि जब औरतें सिर खुला रखेंगी, तो घर और समाज से बरकत उठ जाएगी, और बेइज़्ज़ती व बेहयाई बढ़ जाएगी। क्योंकि एक क़ौम की परवरिश की ज़िम्मेदारी माँओं पर होती है।
लेकिन शमा जवाब देती—
"ख़ाला, ये सब पुरानी बातें और अंधविश्वास हैं। इनका सच्चाई से कोई लेना-देना नहीं है।"
"अरे, तुम्हें कौन समझाए? जब तक ठोकर नहीं लगती, तब तक किसी को अक्ल नहीं आती। नहीं तो सारी नसीहतें बेकार लगती हैं।"
और बात वहीं खत्म हो जाती। शमा तो फैशन और मॉडर्निज़्म की दीवानी थी। उसे इन दकियानूसी बातों से क्या लेना-देना था।
शज़ा अब भी पूरी तरह होश में नहीं आई थी। उसे सिर पर भारीपन सा महसूस हो रहा था। कुछ देर तक वह ठीक रही, लेकिन रात को फिर से उसका सिर दर्द शुरू हो गया। और इस बार इतना तेज़ था कि वह रोने के साथ-साथ चीखने भी लगी।
एक छह साल की बच्ची के लिए ऐसा दर्द सहना नामुमकिन था। अब मास्टर अय्यूब के घर में शज़ा की चीखें गूंज रही थीं। शमा उसका सिर दबा रही थी और चुप करवाने की कोशिश कर रही थी। पूरा घर वहां जमा था। सबके चेहरों पर चिंता साफ़ झलक रही थी।
"मुझे हवेली जाना है!"
उसने रोते हुए और चीखों के बीच ज़िद पकड़ ली।
शमा के लिए उसे संभालना मुश्किल हो गया। वह उसकी गोद से मछली की तरह फड़फड़ा रही थी।
"मुझे हवेली... जाना है... मुझे वहाँ खेलना है... भैया... मुझे घर नहीं जाना..."
वह बेतरतीब बातें कर रही थी।
वे सब अब्दुल्ला की ओर बढ़ते चले आ रहे थे। उसका दिल दहलने लगा। वह पेड़ के सामने खड़ा हो गया और परी उसके पीछे थी।
उनके घर के सामने ऊबड़-खाबड़ ज़मीन वाला एक मैदान था, जिसमें थोड़ी-थोड़ी दूरी पर अलग-अलग तरह के पेड़ लगे हुए थे। और इस वक्त तो सब कुछ बर्फ़ से ढका हुआ था।
अब्दुल्ला ने मन ही मन अल्लाह से मदद मांगी।
"भैया, किससे बातें कर रहे थे?"
"किसी... किसी से भी नहीं।"
वह पेड़ के और करीब चला गया।
हातिम पेड़ के पीछे घूमकर गया।
"यहाँ तो कुछ भी नहीं है, भाइयो!"
अब्दुल्ला ने पलटकर देखा— परी वहां नहीं थी!
उसे ज़ोरदार झटका लगा।
"सिर्फ़ दो मिनट में वह कहाँ जा सकती है?"
बाक़ी पेड़ तो यहाँ से बहुत दूर थे। उसकी छठी इंद्रिय ने किसी अनहोनी का एहसास दिलाया।
"अच्छा चलो, बहुत खेल लिया। अब घर चलते हैं, इससे पहले कि दादाजी हमें ढूँढने आ जाएं।"
उसने उनका ध्यान हटाने के लिए बहाना बनाया।
"ओके भैया, चलो! अब तो बहुत भूख भी लग रही है।"
वे सब सड़क पार करके घर के अंदर चले गए।
अब्दुल्ला सबसे पीछे था। उसे ऐसा लगा कि परी उसे पुकार रही है।
उसने मुड़कर देखा— वह वही थी, उसी पेड़ के पास!
बाकी सब घर के अंदर जा चुके थे। अब्दुल्ला ने गेट बंद किया और भागता हुआ उसके पास पहुँचा।
वह सफ़ेद कपड़ों में इस सफ़ेद नज़ारे के बीच खड़ी थी, मुस्कुरा रही थी। और इसी दृश्य का एक हिस्सा लग रही थी, जैसे किसी महान चित्रकार ने इसे बड़ी खूबसूरती से बनाया हो।
"तुम अभी यहाँ नहीं थी... अब...?"
उसने ध्यान से उसे देखा।
"मैं छुप गई थी! तुम्हारे भाइयों के इरादे मुझे कुछ ख़तरनाक लग रहे थे।"
वह हंस पड़ी।
"परी, तुम क्या हो? आज सच-सच बता दो। मुझे अंधेरे में मत रखो।"
वह मानसिक तनाव में लग रहा था।
"लड़की हूँ और क्या हूँ?"
"नहीं, तुम आम लड़कियों जैसी नहीं हो। तुम्हारे अंदर कुछ असामान्य और अजीब बात है।"
वह उसके हाथ पकड़ने ही वाला था कि रुक गया।
"असामान्य तो मैं बिल्कुल नहीं हूँ। मैं बहुत खास हूँ!"
वह मुस्कराई।
"देखो, मज़ाक मत करो! सच-सच बताओ। वरना मैं खुद से सोच-सोचकर पागल हो जाऊंगा। तुम दो मिनट में यहाँ से कैसे गायब हो सकती हो? और इस मैदान में ऐसी कोई जगह भी नहीं जहाँ तुम इतनी जल्दी छुप सको। और तुम इतनी दूर अकेली कैसे आ जाती हो?"
वह चुपचाप उसे देख रही थी।
"मुझे देर हो रही है, मैं जा रही हूँ।"
"तुम ऐसे नहीं जा सकती।"
"कल मिलते हैं। शायद तब तुम्हारे सारे सवालों के जवाब भी मिल जाएं।"
वह संजीदगी से बोली और तेज़ी से चलती हुई दूर चली गई।
वह वहीं खड़ा उसे देखता रहा, जब तक कि वह उसकी आँखों से ओझल नहीं हो गई।
फिर वह छोटे-छोटे क़दमों से घर की ओर चल पड़ा।
यह सब तो उससे पहले ही अंदर चले गए थे और दादा जी ने उन्हें आते देख भी लिया था। उन्होंने बता दिया था कि वे बाहर खेलने गए थे। उनका मूड अच्छा था, इसलिए उन्होंने किसी को डांटा नहीं।
वह सीधे अपने कमरे में चला गया, कम्बल ओढ़े बस उसी के बारे में सोच रहा था।
"कहीं वह सच में कोई परी तो नहीं? मुझे तो वह इंसानों जैसी नहीं लगती!"
उसके मन में हज़ारों खयाल उमड़ रहे थे।
"पर यह कैसे हो सकता है? ऐसा तो सिर्फ कहानियों और फिल्मों में होता है! असल ज़िंदगी में कोई इंसान परियों से कैसे मिल सकता है? हाँ, सुना था कि लड़कियों पर जिन आ जाते हैं, लेकिन यह सब क्या है?"
उसने अपना सिर पकड़ लिया।
वह बहुत देर तक जाने क्या-क्या सोचता रहा और इन्हीं उलझनों में डूबते-डूबते उसे नींद आ गई।
शज़ा के मुँह से हवेली का नाम सुनकर दादा जी चौंक गए।
अब्दुल्ला की आँख किसी शोर से खुली। वह कुछ देर तक समझने की कोशिश करता रहा कि वह कहाँ है और यह शोर कैसा है।
फिर उसे शज़ा के जोर-जोर से रोने की आवाज़ सुनाई दी। रात के सात बज रहे थे, ठंडी सर्दियों की रात थी और चारों ओर सन्नाटा था। वह फौरन बिस्तर से निकला और वहाँ पहुँच गया।
दादा जी शज़ा के सिर पर हाथ रखकर दुआ पढ़ रहे थे। उसकी चीखें और रोना धीरे-धीरे कम होता जा रहा था।
"क्या हुआ शज़ा को?"
उसने घबराकर पूछा।
दादा जी ने उसे एक गहरी नज़र से देखा और फिर दुआ पढ़ते रहे। अब शज़ा धीरे-धीरे शांत हो रही थी। पूरा घर वहाँ इकट्ठा था, लेकिन सब चुपचाप खड़े थे।
दुआ के असर से वह पूरी तरह शांत होकर सो गई। सबने अल्लाह का शुक्र अदा किया।
"शमा, तुम इसके पास ही रहना और इसे अकेले कहीं मत जाने देना," उन्होंने बहू को हिदायत दी।
"जी अच्छा," शमा ने सिर हिलाया।
"अब्दुल्ला, मेरे साथ आओ।"
दादा जी की आवाज़ में गहरी गंभीरता थी।
वह चुपचाप उनके पीछे चल पड़ा।
"क्या तुम शज़ा को हवेली लेकर गए थे?"
दादा जी की एक खास आदत थी कि वे किसी भी बच्चे को दूसरों के सामने डांटने के बजाय उसे अकेले में बुलाकर समझाते थे। इससे बच्चों की इज्जत बनी रहती थी और उन्हें अपनी गलती का अहसास भी हो जाता था।
"नहीं दादा जी, मैं उसे लेकर नहीं गया। वह खुद चली गई थी।"
अब्दुल्ला ने उन्हें सब कुछ सच-सच बता दिया।
"दादा जी, इसमें मेरा कोई कसूर नहीं। मैंने पूरी कोशिश की थी कि वह हवेली में जाने से पहले ही उसे रोक लूँ, लेकिन मैं कामयाब नहीं हो सका।"
उसने अफसोस के साथ सिर झुका लिया।
"तुम्हें मुझे बताना चाहिए था!"
दादा जी ने गहरी सांस ली।
"वह हवेली इतने सालों से वीरान पड़ी है। पता नहीं वहाँ कैसी-कैसी बलाएँ और मुसीबतें बसी होंगी! अब इस बच्ची पर किसी बुरी ताकत का असर हो गया है। हवेली की नकारात्मक ऊर्जा ने उसे जकड़ लिया है।"
उन्होंने चिंतित स्वर में कहा।
"लेकिन दादा जी, क्या ये सब सच में होता है?"
अब्दुल्ला को यकीन नहीं हो रहा था। "मैंने तो सिर्फ कहानियों में सुना था!"
"हाँ, बेटे, यह दुनिया सिर्फ इंसानों की नहीं है। हमारे साथ और भी बहुत-सी मखलूक़ात रहती हैं। जिन्नात भी इंसानों की तरह अलग-अलग होते हैं—कुछ अच्छे और कुछ बुरे।"
"कुछ जिन्न मुसलमान होते हैं और कुछ काफिर। और जो शरारती जिन्न होते हैं, उनका मकसद सिर्फ इंसानों को तकलीफ देना होता है। वे हमसे जलते हैं, हमें गुमराह करते हैं और हमारी ज़िंदगी में परेशानियाँ खड़ी करते हैं।"
"तो क्या कुछ जिन्न अच्छे भी होते हैं?"
"हाँ, होते हैं, लेकिन बेटा, उनकी न दोस्ती अच्छी होती है और न ही दुश्मनी।"
अब्दुल्ला मंत्रमुग्ध होकर उनकी बातें सुन रहा था।
"जिन्नात भी हमारी तरह ज़िंदगी जीते हैं—वे खाते-पीते हैं, काम करते हैं, और यहाँ तक कि इंसानों के रूप में कारोबार भी चला सकते हैं। लेकिन उनकी खुराक हमसे अलग होती है।"
"कैसे?" अब्दुल्ला की आँखें आश्चर्य से फैल गईं।
"कुछ जिन्न सिर्फ खुशबू और धुएँ से अपना पेट भरते हैं, तो कुछ इंसानों के साथ खानों में शरीक होते हैं।"
"क्या यह सच है?"
"हाँ, और एक राज़ की बात बताऊँ?"
दादा जी की आँखों में एक चमक थी।
"क्या?"
"इंसान की बहुत-सी परेशानियों और बीमारियों की जड़ उसकी خورाक होती है।"
"वो कैसे?"
"आजकल के लोग बाहर का खाना खाना फैशन समझते हैं। होटल्स और रेस्टोरेंट्स में जाने को शान मानते हैं। लेकिन वे यह नहीं सोचते कि वहाँ जो खाना बनता है, वह साफ-सुथरा भी है या नहीं। रोज़ टीवी पर दिखाया जाता है कि होटलों में कितनी गंदगी होती है, फिर भी लोग ललचाकर वहाँ जाते हैं।"
अब्दुल्ला गौर से सुन रहा था।
"जो लोग होटल में खाना पकाते हैं, वे सिर्फ अपने पैसे बनाने की नीयत से पकाते हैं, उनमें बरकत नहीं होती। और बेटा, नीयत का बहुत असर होता है।"
"कैसे?"
"एक हदीस में कहा गया है कि हर अमल का दारोमदार नीयत पर होता है। और किसी समझदार का भी कहना है कि 'कौमों का फैसला उनके दस्तरख़ान पर होता है।' यानी इंसान जो खाता है, उसका सीधा असर उसकी सोच और उसके स्वभाव पर पड़ता है।"
"जितनी मोहब्बत और ख़याल से तुम्हारी माँ तुम्हारे लिए खाना बनाती होगी—साफ़-सफ़ाई, तुम्हारी पसंद और सेहत का ध्यान रखते हुए—उतना तो कोई पेशेवर शेफ भी नहीं बना सकता। और दूसरी बात, बाहर के खाने में सिर्फ़ तात्कालिक स्वाद और ज़बान का चटखारा होता है, उनमें असली पोषण नहीं होता। ऐसे खाने से कोई ताकत नहीं मिलती।"
"जितना अधिक मसालेदार और चिकना खाना, कोल्ड ड्रिंक्स वगैरह इंसान खाता है, उतना ही उसका मिजाज बिगड़ता जाता है। आजकल के बच्चों से इसलिए ही तहज़ीब, शराफ़त और हया खत्म होती जा रही है। वे उम्र से पहले ही मानसिक और शारीरिक रूप से बड़े हो जाते हैं।"
"हमने अपने बच्चों के हाथों में पापड़, टॉफ़ी, नमकीन और इस तरह की बेकार चीज़ें पकड़ा दी हैं। कभी माता-पिता इन चीज़ों के नुकसान के बारे में सोचते भी नहीं।"
"कभी उन विकसित देशों पर रिसर्च करो, जो वैज्ञानिक और बड़े-बड़े स्कॉलर्स को जन्म देते हैं। देखो कि वे क्या खाते हैं और अपने बच्चों को क्या खिलाते हैं। हम प्राकृतिक और सेहतमंद खाने से बहुत दूर हो गए हैं। और फिर शिकायत करते हैं कि बच्चे पढ़ते नहीं, दिमाग़ी तौर पर कमजोर हैं, बदतमीज़ी करते हैं, बड़ों की बात नहीं मानते, हर वक्त शरारतें करते हैं। फिर हम उन्हें सुधारने के लिए मारपीट करने लगते हैं, लेकिन असली वजह नहीं ढूंढते।"
"हम खुद भी तरह-तरह की बीमारियों का शिकार हो चुके हैं। जो कमाया, वह डॉक्टरों की जेब में डाल दिया, लेकिन अपनी दिनचर्या नहीं बदली। हाय! पता नहीं कब हमें अक़्ल आएगी!"
"एक फ़िलॉस्फ़र का मशहूर क़ौल है—'अगर स्वस्थ जीवन चाहते हो, तो अपनी खुराक को ही अपनी दवा बना लो।'"
"अब तुम खुद ही फ़र्क़ देख लो अपने भाइयों और अपने चाचा इब्राहीम के बच्चों के मिज़ाज में। मैंने कभी तुम्हें इन बेकार चीज़ों का आदी नहीं बनाया और आज लोग तुम्हारी शरीफ़ी और फ़रमाबरदारी की मिसाल देते हैं।"
अब्दुल्ला यह सब सुनकर अंदर ही अंदर शर्मिंदा हो गया।
"हाँ, तो मैं क्या कह रहा था?"
"आप जिन्नात की बात कर रहे थे।"
"हाँ... कुछ बदजिन्नात गंदगी और बदबू से अपनी खुराक हासिल करते हैं और शौचालय जैसी गंदी जगहें उनका ठिकाना होती हैं।"
अब्दुल्ला हैरानी से यह सब सुन रहा था।
"हम अगर नमाज़, क़ुरआन की तिलावत और सुन्नत की दुआओं का एहतमाम करें, तो इनकी शरारतों से बच सकते हैं।"
"ये आपस में बहुत जलन रखते हैं, एक-दूसरे पर जादू करते हैं और इंसानों से भी ज्यादा लड़ाई-झगड़ा करते हैं। क्योंकि ये आग और धुएं से बने होते हैं और आग का काम जलाना होता है।"
"और वे भी हम इंसानों से उतना ही डरते हैं, जितना हम उनसे डरते हैं। अगर इंसान उनसे डर जाए, तो वे उस पर हावी हो जाते हैं। लेकिन अगर इंसान न डरे, तो वे खुद ही डरकर भाग जाते हैं।"
"दादा जी, आपको ये सब जानकारी कहाँ से मिली?"
"बेटा, बहुत कुछ तो हमारी पाक किताब से, और बाकी एक बहुत ही प्रामाणिक स्रोत से, जिसमें कोई शक नहीं।"
अब्दुल्ला हैरानी से उन्हें देख रहा था।
"बात कहाँ से कहाँ चली गई! दुआ पढ़ने से शज़ा तो ठीक हो गई है, मगर वह शरारती जिन उसे बार-बार तंग करेगा। कुछ करना पड़ेगा। और जब तक बच्चे यहाँ हैं, तुम्हें ध्यान रखना है कि कोई दोबारा उस ओर न जाए।"
"ठीक है, दादा जी," उसने फ़रमाबरदारी से सिर हिलाया।
"इसका मतलब है कि परी भी..."
दादा जी की बातों से अंदाजा यही हो रहा था।
"कल तो उससे पूछकर ही रहूंगा!"
उसने ठान लिया और सो गया। अगली सुबह का उसे बेसब्री से इंतजार था।
रात की सियाही को सुबह की रोशनी ने छीन लिया था। अगला दिन अपनी पूरी रौनक़ के साथ उगा था। कहीं सूरज अपनी तमाम चमक के साथ दमक रहा था, लेकिन इस इलाके से जैसे नाराज़ था। कहीं चाँद अभी भी आसमान में दिखाई दे रहा था, और धरती पर बहते पानी में उसका अक्स हल्के-हल्के तैर रहा था। और कहीं दोपहर की धूप चटख थी।
यह भी कुदरत का ही निज़ाम है, जो इख़्तिलाफ़ (अंतर) पर क़ायम है। और यही कायनात की ख़ूबसूरती भी है। इंसानों के मिज़ाज और आदतों का अंतर भी कुदरत की ही देन है, वरना एकरूपता (एक जैसी चीज़ें) तो बोरियत पैदा कर देती है। एक ही ढंग से तो सिर्फ़ जानवर ही जी सकते हैं।
शज़ा आज पहले से काफ़ी बेहतर थी और दिनभर खेल-कूद में मशगूल रही।
अब्दुल्ला चार बजे से पहले ही सेब के बाग में जाकर बैठ गया था। उसे आज परी का शिद्दत से इंतजार था।
वह तय वक़्त पर बाग़ के अंदर दाखिल हुई। वह काफ़ी गंभीर और उदास लग रही थी। भूरा रंग का लिबास उसकी उदासी को और बढ़ा रहा था।
वह उसके करीब एक पत्थर पर बैठ गई।
"परी..."
"हूँ..."
"क्या सोच रही हो?"
"कुछ नहीं।"
"तुम पूछो, क्या पूछना है। तुम्हें हर सवाल का जवाब मिलेगा। उसके बाद तुम्हारी मर्ज़ी, चाहे तो छोड़ दो या अपना लो। लेकिन पहले बर्दाश्त करने की हिम्मत तो पैदा कर लो।"
अब्दुल्ला का दिल ज़ोरों से धड़कने लगा।
"तुम्हारा असली नाम क्या है?"
"ज़ैनब शाहसवार।"
"कहाँ रहती हो?"
"इसी पहाड़ी के पीछे। वैसे तो कहीं भी रह सकती हूँ।"
अगला सवाल पूछने के लिए उसने हिम्मत जुटाई...
"तुम इंसानों के क़बीले से नहीं हो, ना?"
"नहीं... मैं जिन्नात के क़बीले से हूँ। मैं इंसान नहीं हूँ।"
अब्दुल्ला का शक़ सही निकला। उसका दिमाग़ सुन्न हो गया।
"और कुछ...?"
वह कह रही थी, लेकिन अब्दुल्ला के कानों में सन्नाटा गूंज रहा था।
वह एक जिन्नी से इश्क कर बैठा था!
"कहा था ना... बर्दाश्त नहीं कर पाओगे।"
वह पागलों की तरह उसे देख रहा था। अचानक उस पर डर की एक लहर दौड़ गई।
उसके सामने एक जिन्नी खड़ी थी!
वह वहीँ खड़े-खड़े उसकी आँखों के सामने ग़ायब हो गई। और वह चक्कर खाकर बेहोश हो गया...