INS WA JAAN PART 19

 


आसमान पर चाँद पूरा था। काली घटाओं में से छिप-छिप के वह उसे देख रहा था। जो उदास सा बाग में बादाम के घने पेड़ के नीचे खड़ा था। ऐसा लगता था कि शौक से बादाम खाते-खाते... कोई बादाम तीव्र कड़वा निकल आया हो। ज़िंदगी में भी कभी-कभी ऐसा होता है, बादामों से भरे थाल में कोई एक कड़वा निकल आए तो सारी मिठास को भूल जाता है।

पूरा घर जगमगा रहा था। मेहमान दिनभर के थके हुए सो चुके थे। वह हालांकि पेड़ से टेक लगाए आसमान में तैरती घटाओं को देख रहा था। पाँच साल बीत चुके थे। रेगिस्तान के सफर ने उसे एकदम बदल दिया था, अब वह पहले सा अब्दुल्लाह नहीं रहा था। क़नाअत और सब्र की उसे पहचान हो चुकी थी। वह मैरिफ़त के पहले सीढ़ी पर खड़ा था। दिल के किसी कोने में परी का नाम दफन कर दिया था। वह उसकी ज़िंदगी से ऐसे गायब हो गई थी जैसे कभी थी ही नहीं।

मगर यादें... तो कभी पीछा नहीं छोड़तीं। पता नहीं क्यों इंसान की याददाश्त इतनी तेज़ होती है कि कुछ चीज़ें उसे अपने हर हिस्से के साथ याद रहती हैं। और वह इतना भुलक्कड़ होता है कि अपने पैदा करने वाले को ही भूल जाता है। अपने स्थान और दर्जे को भी। अजीब मخلوق है यह इंसान!

ख़ालिक फरमाता है... “وَخَلَقَ الإِنسَانَ مِن صَلصَالٍ كَالْفَخَّارِ” "और हमने इंसान को मिट्टी के उस ठिकरे की तरह बनाया जो बजते हुए सिरे से निकली हो।" हर साँचे में ढल जाती है। मिट्टी रंग बदलती है। रूप बदलता है। और खुशबू भी। हर देश की मिट्टी की खुशबू दूसरी से अलग होती है।

परी इन पाँच सालों में उसकी ज़िंदगी में नहीं आई थी। जाने वह कहाँ थी? क्यों थी? पर आज उसकी महँदी वाले दिन वह अचानक कहीं से आ गई थी। हाँ, वह आ गई थी... मगर... उसके ख्यालों में। दिल घुट रहा था। चाँदनी उसे भिगो रही थी। हवा शाखाओं को झला रही थी। पर दिल के अंदर कोई कसक सी थी, कोई अधूरापन। वह राज़ी भी था और अंदर से कहीं कोई "नहीं नहीं" भी कर रहा था।

साल्विया और वह शादी के बंधन में बंधने जा रहे थे। उसने एक नज़र अंधेरों में छिपे चाँद को देखा और अपने कमरे की ओर बढ़ गया।


साल्विया ने तबरेज़ के बारे में सारी जानकारी हासिल कर ली थी। वह एक मशहूर और प्रसिद्ध बाप का बेटा था। उसके बाप को काले और सख्त तंत्र विद्या में माहिर के रूप में जाना जाता था। उसकी काले तंत्र की तबाही के चर्चे दूर-दूर तक थे। उसने अपनी औलाद को भी यही काम सिखाया था।

ऐसे आदमी को छेड़ना अपनी मौत को पुकारने के बराबर था। अब साल्विया के पास एक ही रास्ता था कि किसी तरह शज़ा को बदनामी से बचा ले। लेकिन कौन अपनी मुंह पर वह कालिख लगाता?

उसने हातिम से बात की थी। इससे पहले वह कई बार दबे शब्दों में शज़ा के लिए पसंदगी जाहिर कर चुका था। यह बात सभी के ज्ञान में थी।

लेकिन अब उसने साफ़ मना कर दिया था कि वह लाख उसकी पसंद सही हो, वह उस दागदार लड़की को नहीं अपना सकता।

"हातिम बेटा... हम ने फैसला किया है कि इस रविवार को तुम्हारा और शज़ा का निकाह कर दिया जाए।" दादा जी ने उसके सिर पर बम फोड़ा।

"यह आप क्या कह रहे हैं? मैं ऐसी लड़की को नहीं अपना सकता।" वह एकदम बोल पड़ा।

"क्या मतलब बेटा, ऐसी लड़की? तुम ने ही तो बताया था कि तुम्हें वह पसंद है।"

"तब बात और थी, अब और है।"

"क्या फर्क हो गया अब?" "बरखुरदार, कोई और पसंद आ गई है।" उन्होंने हंसते हुए उससे मजाक किया।

"दादा जी, सब कुछ जानकर भी आप यह क्यों कर रहे हैं? बेहतर है उसका निकाह उसी लड़के से करवा दिया जाए।"

"किस लड़के से? क्या कहना चाह रहे हो तुम?" वह उलझे।

"दादा जी को इस मामले की खबर नहीं थी, साल्विया ने उन्हें अपने तरीके से दोनों का निकाह करवाने के लिए उकसाया था। वह इस बात को दबाने की पूरी कोशिश कर रही थी, लेकिन गुनाह छिपाया नहीं जा सकता।"



"नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। मेरी बेटी ऐसा नहीं कर सकती। यह झूठ है!"
दादा जी का चेहरा सफ़ेद पड़ गया था।

"माफ़ कीजिए दादा जी, लेकिन यह सच है। अगर कोई और कहता तो शायद झूठ होता, लेकिन यह भाभी साल्विया ने मुझे बताया है," हातिम ने गंभीर स्वर में कहा।

"तुम गाड़ी निकालो," दादा जी ने आदेश दिया। वह अपने दिल पर हाथ रखकर खड़े हो गए, जैसे उनका दम घुट रहा हो। सालों की इज्जत और नाम मिट्टी में मिलती नज़र आ रही थी।

"अपनी भाभी को भी रास्ते से लेते आना," उन्होंने थके हुए स्वर में कहा।

पूरे रास्ते वह चुपचाप बैठे रहे, आंखें बंद किए और दिल पर हाथ रखे हुए। हातिम के चेहरे पर भी तनाव था, और साल्विया चिंता में डूबी हुई थी। किसी ने एक शब्द भी नहीं कहा।

घर पहुंचते ही सबको लॉन्ज में इकट्ठा किया गया। दादा जी ने अपनी पत्नी से कहा,
"शज़ा से कहो कि उस लड़के को यहाँ बुलाए।"

"किस लड़के को?" सबने चौंककर एक-दूसरे को देखा।

शज़ा साल्विया के साथ चुपचाप बैठी थी, आँसू उसकी आँखों से लगातार गिर रहे थे।

"क्यों मूर्ख बना रहे हो तुम सब मुझे?" दादा जी की आवाज़ में गहरा दर्द था।

"अब्बा जी, हुआ क्या है?" इब्राहिम ने चिंतित होकर पूछा।

"बकवास बंद करो, तुम बेगैरत बाप!"
दादा जी का गुस्सा अब फूट पड़ा था।
"इसे कहो कि उस लड़के को बुलाए, जिसके साथ इसने अपना मुँह काला किया है!"

इतना कहते ही वह सिर को हाथों में थामकर रो पड़े।

लॉन्ज में एक गहरी खामोशी छा गई। सब स्तब्ध होकर शज़ा को देख रहे थे। इब्राहिम तो जैसे खड़े होने की भी ताकत खो चुका था।

दादी ने आगे बढ़कर शज़ा का बाजू पकड़ा और एक ज़ोरदार तमाचा उसके गाल पर जड़ दिया।
"बोल... बोलती क्यों नहीं तू?"
उन्होंने उसे झंझोड़ डाला।

"नानी जान... वह लड़का एक बहुत ख़तरनाक जादूगर का बेटा है। हम उससे नहीं जीत सकते। हमें इस बात को यहीं दफना देना चाहिए," साल्विया ने हिम्मत करके कहा।

"तुझे कैसे पता उस लड़के के बारे में?"
शमा जैसे किसी गहरे ख़्वाब से जाग गई थी।

"आपको याद होगा, मैं शज़ा को टेस्ट के लिए अपने क्लीनिक ले गई थी, क्योंकि उसकी हालत देखकर मुझे शक हुआ था। वहीं उसने मुझे सब कुछ बता दिया था।"

इसके बाद साल्विया ने एक-एक करके सारी बातें बता दीं।

दादा जी बुरी तरह टूट चुके थे।

"मेरी औलाद इतनी बेहया क्यों निकली? मैं यह दिन देखने से पहले मर क्यों नहीं गया?"
वह अपने माथे पर हाथ मारकर रोने लगे।

वह मज़बूत इरादों वाले इंसान थे, लेकिन आज अपनी ही औलाद के सामने बेबस होकर रो रहे थे।


"मैं खुद तुम्हें कॉलेज छोड़ने और लाने जाता था... फिर यह सब कब हुआ?"
जिब्राईल ने शज़ा के खूबसूरत लंबे बालों को अपनी मुट्ठी में कसकर पकड़ लिया।

हमेशा शांत और सुलझा हुआ रहने वाला, हल्के मिज़ाज का जिब्राईल इस वक्त कहीं खो चुका था। यह मसला इज्ज़त का था। साल्विया ने उसे छुड़ाने की कोशिश की, लेकिन वह उग्र हो चुका था।

"तू कैसी माँ है?"
उसने गुस्से से शमा की तरफ देखा।
"अपनी बेटी को संभाल कर नहीं रख सकी? कभी अपनी सास की नसीहतों पर ध्यान नहीं दिया तूने? बेगैरत औरत! क्या तू अंधी थी?"

इब्राहिम ने अपनी पत्नी शमा को ज़ोरदार थप्पड़ मार दिया।

"तेरी नाक के नीचे तेरी बेटी ये सब कर रही थी और तुझे कुछ पता भी नहीं चला?"

शमा चीखने लगी, लेकिन तभी दादी ने इब्राहिम का कॉलर पकड़ लिया।
"हट, बुज़दिल आदमी!"
"तेरी बेटी बेगैरत है, लेकिन तू भी बुज़दिल आदमी है। एक औरत पर हाथ उठाकर खुद को मर्द समझता है?"

दादी ने उसे झिड़कते हुए कहा,
"चल, भाग यहाँ से! और तू भी, मेरी नज़रों से दूर हो जा!"
उन्होंने शज़ा को घृणा से देखा।

शज़ा एक कोने में बैठकर अपने इज्ज़त के जनाज़े पर मातम करने लगी।

बहुत देर तक सब अपनी-अपनी जगह जड़वत बैठे रहे। किसी में भी एक-दूसरे से नज़रें मिलाने की हिम्मत नहीं थी।

लॉन्ज में सिर्फ दादा जी के बहते आँसू और शज़ा के रोने की आवाज़ गूंज रही थी। लेकिन सबके दिल चीख-चीखकर एक ही सवाल पूछ रहे थे...

"क्यों? आख़िर क्यों?"

जवाब सबके सामने था...

"गंवा दी हमने अपने पूर्वजों से जो विरासत पाई थी,
आसमान ने हमें सरेआम ज़मीन पर गिरा दिया।"

हम मॉडर्न बनने के चक्कर में अपनी तहज़ीब और संस्कृति को भूल चुके थे।
हमारे घरों की नींवें हिल चुकी थीं।
बच्चे अब आँखों में धूल झोंककर अपनी मनमानी कर रहे थे।
यूरोपियन संस्कृति को अपनाना अब हमारा शौक़ बन चुका था।


काफ़ी देर बाद दादा जी उठे।
उन्होंने हातिम की ओर देखा और करुण स्वर में कहा,
"बेटा, खुदा के लिए हमारी इज्ज़त बचा ले। तेरा दादा तुझसे भीख माँग रहा है। मैं अपनी बाकी ज़िंदगी शर्म और जिल्लत में सिर झुकाकर नहीं बिताना चाहता।"

उन्होंने हातिम के सामने हाथ जोड़ दिए।

"दादा जी..."
हातिम ने उनके कांपते हाथ पकड़ लिए।
वह इस वक़्त बहुत दयनीय स्थिति में थे।

"ठीक है, मैं इससे निकाह कर लूंगा..."
लेकिन उसके बाद उसने जो कहा, वह तीर की तरह चुभ गया।

"लेकिन मेरे दिल में और मेरे घर में इसकी कोई जगह नहीं होगी। इसे कह दीजिएगा कि कभी अपनी शक्ल भी मत दिखाए!"

वह यह कहकर लॉन्ज से बाहर चला गया।

दादा जी ने गहरी सांस ली और कहा,
"मौलवी बुलाओ, इब्राहिम!"

उनकी आवाज़ अब भीग चुकी थी।


साल्विया ने शज़ा को उठाकर उसके कमरे में पहुंचाया।
"मुंह-हाथ धोकर आ जाना,"
उसने ठंडे स्वर में कहा।

शज़ा ने आईने में खुद को देखा।

उसके लंबे बाल ज़हरीले साँपों की तरह उसकी कमर से लिपटे थे।
उसका गोरा-सुर्ख रंग अब मुरझाया हुआ लग रहा था।
उसकी आँखें बुझ चुकी थीं।
और उसका दिल... स्याह हो चुका था।


तबरीज़, खुदा के लिए मेरे साथ ऐसा मत करो। तुम तो मुझसे मोहब्बत करते हो ना? मुझे अपना लो, मेरे घरवालों के सामने आकर मुझे ले जाओ। मेरा बहुत तमाशा बन चुका है। मैं किसी और के साथ नहीं जी सकती। प्लीज़..."
वह सिसकियों के बीच उससे मिन्नत कर रही थी।

"तुम क्या चाहती हो? तुम्हें अपने पास रखूं? ठीक है।"
उसने ज़ोर से हंसते हुए फोन काट दिया।

वह बहुत देर तक आईने के सामने बैठी रोती रही।

सालविया उसे लेने आई थी। सिर्फ वही थी जिसका उससे थोड़ा-बहुत रिश्ता बचा था, वरना कोई भी उसकी शक्ल देखना नहीं चाहता था।

वह उसी हाल में थी। उसने काले और सफेद रंग के कपड़े पहने हुए थे।

सालविया ने उसका दुपट्टा घूंघट की तरह ओढ़ाया और उसका हाथ पकड़कर लॉन्ज में ले आई।

मौलवी साहब के सामने सभी खुद को सामान्य बनाए रखने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन किसी ने भी उसकी तरफ नज़र उठाकर नहीं देखा।

हातिम गंभीर चेहरा बनाए बैठा था।

"मौलवी साहब, शुरू करें।"
दादा जी ने टूटे हुए लहजे में कहा।

अभी वह निकाह की शर्तें ही पढ़ रहे थे कि लॉन्ज के दरवाजे से एक तूफानी झोंका धूल उड़ाता हुआ अंदर दाखिल हुआ। हवा इतनी तेज और चुभने वाली थी कि सभी ने बेइख्तियार आंखें बंद कर लीं।

एक डरावनी शक्ल वाला ताकतवर आदमी शज़ा को अपनी बाहों में उठाए खड़ा था। वह चिल्ला रही थी, लेकिन किसी को उसकी आवाज़ सुनाई नहीं दे रही थी। सब चुपचाप उसे देख रहे थे।

मौलवी साहब तुरंत ही भांप गए। अभी उन्होंने आयतुल कुर्सी की पहली आयत ही पढ़ी थी कि वह जिन्न शज़ा को लेकर गायब हो गया।

"हाय, यह क्या हो गया? मेरी बेटी... मौलवी साहब, यह क्या हो गया?"
शमा चिल्लाते हुए बेहोश हो गई थी। अभी तक किसी को अपनी आंखों पर यकीन नहीं आ रहा था।

"यह किसी बहुत बड़े जादूगर का काम है। आप फिक्र न करें, अल्लाह पर भरोसा रखें।"
मौलवी साहब ने उन्हें दिलासा दिया।
"मैं अपने उस्ताद, बड़े मौलवी साहब से बात करता हूं।"
यह कहकर वह चले गए।

शमा को होश आ गया था...

"यह सब मेरी वजह से हुआ है। मेरी बेटी बर्बाद हो गई।"
वह अपना सिर पीट रही थी। किसी ने भी उसे चुप कराने की कोशिश नहीं की।

दादा जी सभी मर्दों को लेकर मस्जिद चले गए। दादी गुमसुम बैठी थीं और शमा रो-रोकर पागल हो रही थी।

बड़े मौलवी साहब काफी बुजुर्ग और नूरानी चेहरे वाले व्यक्ति थे। उन्हें बाबा साहब कहा जाता था।

"बेटा, यह जादू और जिन्नात हक़ हैं। यह भी अल्लाह की मख़लूक हैं और सिर्फ अल्लाह के कलाम से ही डरते हैं।"
उन्होंने आंखें बंद करके तस्बीह से कोई इस्तिखारा किया।

अल्लाह वाले साहिब-ए-कश्फ़ होते हैं, यानी कायनात के कुछ राज़ उन पर खुल जाते हैं और वे अपनी रूहानी ताकत से दुखी लोगों की मदद करते हैं।

अल्लाह अज़्ज़वजल उनकी मदद के लिए नेक जिन्नात और फरिश्तों को नियुक्त कर देता है, जो उन्हें भूतकाल और वर्तमान के हालात से आगाह करते हैं। लेकिन भविष्य बताने वाला झूठा होता है, क्योंकि यह सिर्फ अल्लाह का काम है।

"यह काले जादूगरों के सरदार का काम है। ऐसा लगता है कि तुम्हारी उससे कोई दुश्मनी है। उसके पास बहुत से जिन्न और दैत्य हैं और वह उनसे नाजायज़ काम करवाता है। लेकिन बेटा... अल्लाह का नाम सबसे ताकतवर है। यह कलाम उसे जला कर राख कर देगा। तुम चिंता मत करो।"

"जिन्नात कभी मारपीट से, बकरे का गोश्त चढ़ाने से या आग जलाने से नहीं भागते। वे सिर्फ और सिर्फ अल्लाह के कलाम से भागते हैं।"

उन्होंने एक पर्ची पर आयतुल कुर्सी, चारों कुल और कुछ अन्य कुरआनी आयतें लिखकर दीं।

"यह रात के दूसरे पहर पढ़ना है, फजर की अज़ान तक। पूरा वक्त देना है, कोई कोताही मत करना। वे खुद तुम्हारी बेटी को छोड़ देंगे। वे डराने-धमकाने की कोशिश करेंगे, लेकिन हिम्मत नहीं हारनी। वे जलकर राख हो जाएंगे। अगर बच्ची की मां यह अमल करे तो बेहतर होगा। मैं भी उसी समय यह अमल करूंगा। कोई भी परेशानी हो तो मेरे खास खिदमतगार को फोन कर लेना, वह मुझसे बात करवा देगा। लेकिन जो भी हो, समय और दिन की पाबंदी करनी है, वरना सब उलट जाएगा।"

"कायनात में समय की बहुत अहमियत है, हर-हर लम्हे की... इस बात को याद रखना!"

उन्होंने और भी कुछ हिदायतें दीं।


🌟 दूसरा मंज़र

आज वह उसी रास्ते से गुजर रहा था, जहां उसे परी पहली बार मिली थी। उसके कदम बेइख्तियार उस वादी में उतर गए थे।

"तुम?"

अभी वह पहाड़ी पर आधा ही चढ़ा था कि उसे परी नजर आई।

उसे लगा कि उसकी आंखें धोखा खा रही हैं। वह गहरे स्लेटी (ग्रे) रंग के लिबास में उदास-सी खड़ी उसे देख रही थी।

वह यकीन नहीं कर पा रहा था। वह धीरे-धीरे उसके करीब गया... डरते-डरते हाथ बढ़ाया कि कहीं वह उसका वहम न हो और... हवा में घुल न जाए।

"हां, मैं परी..."

"परी... त... तुम?"

वह अब भी यकीन नहीं कर पा रहा था।

"तुम तो मुझे छोड़कर चली गई थी?"

"मजबूर थी, अब्दुल्लाह... तुम्हारी तरह मैं भी क़ैद थी। तुम तो निकल गए, लेकिन मैं नहीं निकल पाई। ये आठ साल मैंने क़ैद और तकलीफ में बिताए हैं। मेरे परिवारवालों ने एक इंसान से मोहब्बत करने की सज़ा के तौर पर मुझे क़ैद कर दिया था। मैं उनका सामना नहीं कर सकी।

अब, जिसने मुझे क़ैद किया था, वह मर चुका है और मैं आज़ाद हूँ। अब्दुल्लाह... मैं तुम्हारे साथ रहना चाहती हूँ।"

वह बिल्कुल वैसी ही थी जैसी आठ साल पहले थी, लेकिन अब्दुल्लाह एक किशोर लड़के से एक परिपक्व पुरुष बन चुका था।

"नहीं... परी, अब नहीं..."

वह मुड़कर खड़ा हो गया। अचानक पुरानी मोहब्बत फिर से सिर उठाने लगी थी। वक़्त की गर्द मोहब्बत को ढक तो सकती है, मगर उसे मार नहीं सकती। उसे लगता था कि वह उसकी मोहब्बत के असर से बाहर आ चुका है, लेकिन यह सिर्फ उसका भ्रम था।

"अब्दुल्लाह... तुम ऐसा नहीं कर सकते!"

"परी, मैं शादीशुदा हूँ। वह औरत जो तीन साल से मेरी पत्नी है, जो मेरी बच्ची की माँ है, क्या मैं उसे धोखा दूँ? परी, सब कुछ भूल जाओ।"

"ये इतना आसान नहीं है... मैंने इन आठ सालों में कभी भी तुम्हें नहीं भुलाया। अब कैसे...?"
वह सिसकने लगी।

"बस करो, खुदा के लिए... अब सब ख़त्म हो चुका है। क़िस्मत को हमारा मिलना मंज़ूर नहीं था।"

वह तेज़ी से क़दम उठाता वहाँ से निकल आया।

"मैं कोशिश करूँगी तुम्हें पाने की... आख़िरी कोशिश..."

उसकी आवाज़ अब्दुल्लाह का पीछा कर रही थी, मगर वह बिना मुड़े चला गया।

🌿 घर का मंजर

हज़ारों ख्यालों के साथ वह घर पहुँचा। ख़िलाफ़-ए-मामूल घर में बहुत ख़ामोशी थी।

रसोई से जुड़े बड़े कमरे में सब लोग बैठे थे। बाहर से किसी लड़की के रोने की आवाज़ आ रही थी।

जब उसने झाँककर देखा तो वहाँ पूरा घर इकट्ठा था, और परी उनके बीच बैठकर ज़ार-ओ-क़तार रो रही थी।

अब्दुल्लाह को अंदर आता देख उसने अपना नक़ाब उलट दिया।

सब दंग रह गए। ऐसा हुस्न... इतनी ख़ूबसूरती... उन्होंने पहले कभी नहीं देखी थी। सब टकटकी लगाए उसे देख रहे थे। शायद उसने सब कुछ बता दिया था।

"ख़ुदा के लिए सालविया बहन... तुमने भी तो अब्दुल्लाह को चाहा था। अगर वह तुम्हें न मिलता तो सोचो, तुम्हारी क्या हालत होती?"

सालविया अचानक चौंक गई। यह बात उसे कैसे पता चली?

"मैं आपके घर में नहीं रहूँगी, न आपकी ज़िंदगी में कोई दखल दूँगी, न ही कुछ छीनूँगी। आपको मेरे होने का एहसास भी नहीं होगा।"

वह रोते हुए दादा जी से बोली,
"दादा जी, आप ही कुछ कहिए... मैं आपकी बेटी जैसी हूँ।"

अब्दुल्लाह चुपचाप तमाशा देख रहा था।

"अब्दुल्लाह, तुमने इतने सालों तक यह बात छिपाई?"
दादा जी ने शिकायती नज़रों से उसे देखा।

वह सिर झुका गया।

"हम तुम्हारी सच्चाई पर कैसे यक़ीन करें?"
बहुत देर बाद सालविया की ख़ामोशी टूटी।

"मैं तुम्हें गुज़रा हुआ वक़्त दिखा सकती हूँ।"

उसने कुछ पढ़कर कमरे में लगे आईने पर फूँक मारी और उसमें अतीत के तमाम मंज़र किसी फ़िल्म की तरह चलने लगे।

उनकी पहली मुलाकात से लेकर... परी की क़ैद तक... और कुछ देर पहले तक की हर बात आईने में दिखने लगी।

वह उम्मीद भरी नज़रों से सबको देखने लगी।

💔 फैसला

सालविया उठकर बाहर आई।

"अब्दुल्लाह, तुम इसका निकाह कर लो।"

"तुम यह क्या कह रही हो?"
वह हक्का-बक्का रह गया।

"सालविया, यह सब पुरानी बातें हैं, अब नहीं..."

"नहीं, अब्दुल्लाह... मुझे पता है, तुम उसे नहीं भुला पाए।"

"तुम सोते हुए अक्सर परी का नाम लेते थे। कई बार तुम्हारी खुद से की गई बातें सुनते हुए मैंने बहुत कुछ जान लिया था।"

"तुमने हमारी बेटी का नाम ज़ैनब रखा, लेकिन हमेशा उसे परी कहकर बुलाते रहे। तुम्हारी मोहब्बत आज भी ज़िंदा है, अब्दुल्लाह..."

"लेकिन तुमने कभी मुझे इस बात का एहसास नहीं होने दिया कि तुम्हारी मोहब्बत कोई और थी।"

"आज मैं तुम्हें इजाज़त देती हूँ... जाओ अब्दुल्लाह, उसे अपना लो।"

उसने अपने आँसू पी लिए और मुस्कुराने लगी।

"तुम अपनी मर्ज़ी से कह रही हो या नाराज़ हो?"

उसने सालविया के कंधों को पकड़कर पूछा...