INS WA JAAN PART 1

                    


 रात के तीन बज रहे थे। वह इशा की नमाज के बाद से ही जानमाज़ पर बैठी थी। सिर झुकाए, कभी शून्य में घूरती, वह तसबीह के दाने गिराती जा रही थी। अब तो उसकी आँखें भी सूख चुकी थीं, ऐसा लग रहा था जैसे वह अपना सारा पानी बहा चुकी हो।

अब वे डरावनी हद तक खाली लग रही थीं। यह तीसरी रात थी जब वह इसी तरह बैठी हुई थी। उसे उसी पल का इंतज़ार था जब उसके इस विर्द (प्रार्थना) का मकसद पूरा होना था। आज इस घर का हर शख्स उसके साथ जाग रहा था। कुछ दिन पहले इस घर पर एक छोटी कयामत टूट पड़ी थी, और वह, जिसे इसका जिम्मेदार ठहराया जा रहा था, खुद को लगातार तकलीफ में डाले हुए थी।
हर कोई खामोशी से बीतते हुए हर पल को गिन रहा था। हर घड़ी इतनी भारी लग रही थी कि सब उसका बोझ उठाते-उठाते थक चुके थे।
एक वही थी, जो अब वक्त के हिसाब-किताब से बेपरवाह हो गई थी।

उसका दिल धड़क-धड़क कर रुक सा जाता। सब किसी अनहोनी के इंतजार में थे। एक अनहोनी तो पहले ही हो चुकी थी। अब भी सब कुछ इतना अजीब लग रहा था कि अगर कोई बाहर का व्यक्ति सुन लेता, तो कहता कि इब्राहीम विला का हर शख्स पागल हो गया है, बेतुकी बातें कर रहा है। लेकिन, उन पर जो बीत चुकी थी, उसे कोई कैसे समझता?

घड़ी की सुई धीरे-धीरे ढाई से साढ़े तीन बजाने के लिए बढ़ रही थी। लिविंग रूम में बैठे सभी लोग अपनी जगह स्थिर थे। जैसे ही सुई छह पर पहुँची, लॉन से ज़ोरदार धमाके की आवाज़ आई—जैसे किसी ने कोई भारी पत्थर दे मारा हो। पूरे विला की दीवारें और फर्श हिल गए थे।
उसके मुँह से निकला—
"हाय, मेरी बच्ची!"
वह उठकर दौड़ पड़ी। ऐसा लग रहा था कि जो इतने समय से गुमसुम बैठी थी, अब होश में आ गई थी।
"रुक जाओ शमा! अपनी जगह से मत हिलो!"
सफ़िया बीबी ने चीखकर कहा।
इब्राहीम ने तेज़ी से दौड़कर उसे पकड़ा।
"मत जाओ! क्यों अपनी और हमारी जान की दुश्मन बनी हो?"
उसने ज़बरदस्ती उसे पकड़कर वापस जानमाज़ पर बैठा दिया।
"देखो, सारा किया-धरा बर्बाद हो जाएगा, तुम अपना समय पूरा करो!"
वह फिर से तेज़ी से तसबीह के दाने गिराने लगी।

अब बाहर अजीबो-गरीब आवाज़ें उठ रही थीं, जैसे वहाँ कोई भयंकर लड़ाई छिड़ी हो। फिर कोड़े बरसाने की आवाज़ें आने लगीं—साथ ही शिज़ा की दिल दहला देने वाली चीखें, जो रात की खामोशी को चीरती और भी भयानक बन रही थीं।
"मम्मा! बचाओ! मम्मा! प्लीज़!"
उसकी गिड़गिड़ाती हुई आवाज़ ने शमा को फिर से विचलित कर दिया।
वह पूरी ताकत से उठकर भागी।
इब्राहीम ने उसे पकड़ लिया, लेकिन वह उसकी पकड़ से छूट गई।
"जिब्राईल! पकड़ो उसे!"
तीनों आदमी दौड़कर आए और माँ को पकड़ लिया। बाहर की चीखों में और भीषणता आ गई थी।

"मुझे जाने दो! वह… वह मर जाएगी!"
वह चार लोगों की पकड़ में भी नहीं आ रही थी। जाने उसमें इतनी ताकत कहाँ से आ गई थी!
"नहीं मरेगी! होश में आओ!"
इब्राहीम ने उसे ज़ोर से खींचा।
"मम्मा! मम्मा! मैं मर जाऊँगी! मुझे बचा लो!"
बाहर से आती हुई चीखों में और भी तीव्रता आ गई थी।

शमा ने इब्राहीम को ज़ोर से धक्का दिया, जिससे फ़ाइज़ और फ़ाइक भी गिर पड़े।
जिब्राईल के बाज़ू पर उसने ज़ोर से काटा और फिर लिविंग रूम का दरवाजा खोलकर बाहर भाग गई।
आगे जो होने वाला था, उसे सोचकर सबकी रूह कांप गई।

उसके लंबे काले बाल बिखरे हुए थे। आँखें सुर्ख अंगारे जैसी जल रही थीं। लाल रंग का अजीब सा लिबास उसके पैरों तक लहरा रहा था।
वह खड़ी होकर उसे घूर रही थी।
"शिज़ा! तुम ठीक हो?"
वह लड़खड़ाते क़दमों से उसकी ओर बढ़ी। शिज़ा ने कोई हरकत नहीं की।
"क्यों बुलाया मुझे?"
उसकी भारी, डरावनी आवाज़ सुनकर शमा का दिल दहल गया।
"इधर आओ मेरे पास, मेरी बच्ची!"
वह, जो अब तक पत्थर बनी खड़ी थी, अचानक बिजली की गति से आगे बढ़ी और शमा के बाल पकड़ लिए।
"छोड़ो! यह क्या कर रही हो, शिज़ा?"
शमा ने भागने की कोशिश की, लेकिन उसने एक झटके में उसे ज़मीन पर पटक दिया और बालों से पकड़कर घसीटने लगी।
शमा की चीखें सबकी रूह निकालने के लिए काफ़ी थीं।

लिविंग रूम के दरवाज़े पर खड़े लोग यह भयानक मंजर देख रहे थे।
"अम्मा! अम्मा! वह मार डालेगी उसे!"
इब्राहीम ने सुन्न खड़ी सफ़िया को झंझोड़ा।
"सब पढ़ो! वही जो वह पढ़ रही थी!"
सफ़िया ज़ोर से चिल्लाई।
सब ऊँची आवाज़ में आयतुल कुर्सी पढ़ने लगे।


"अब्दुल्लाह! आज तुम इतनी देर से आए हो, मैं तुमसे बात नहीं करूँगी!"
"मेरी प्यारी परी! अब तो मेरी खातिर आ ही गई हो, फिर ये गुस्सा क्यों?"
वह बाइक पेड़ के पास खड़ी करके उसके पास एक बड़े पत्थर पर बैठ गया।
"बस, आज प्रैक्टिकल बहुत मुश्किल था, इसलिए देर हो गई।"
"तुम हमेशा बहाने बनाते हो!"
वह गुस्से में मुँह फुलाए बैठी थी।
"परी! कभी-कभी मुझे लगता है कि तुम सच में कोई परी हो।"
"तुम हर रूप में इतनी खूबसूरत लगती हो कि मैं शब्दों में बयां नहीं कर सकता! या फिर शायद तुम जन्नत की कोई हूर हो!"
"तुम लड़के इतनी मीठी-मीठी बातें कैसे बना लेते हो?"
वह खिलखिला कर हँस पड़ी। उसके सफेद मोती जैसे दाँत उसके चेहरे पर बहुत प्यारे लग रहे थे।
"जैसे तुम लड़कियाँ उन पर यक़ीन कर लेती हो!"
वह उसे टकटकी लगाए देख रहा था।
"मुझे बाकी लड़कियों से मत मिलाना, मैं उनसे अलग हूँ!"
"ऐसा क्या देख रहे हो? पहली बार देखा है क्या?"
वह शरारत से मुस्कुराई।

जिब्राईल ने दिल पर हाथ रखा

"हाय! तुम्हारी अदाएँ कितनी कातिल हैं... तुम इतनी खूबसूरत क्यों हो, परी? आज बता ही दो..." उसने जुनून भरे अंदाज़ में उसके चेहरे पर गिरी काली लट हटाई। उसने अपनी नीली आँखें झुका लीं। सफेद दुपट्टे में छिपा गुलाबी चेहरा और उस पर वो गहरी नीली आँखें... ऐसा लग रहा था जैसे सफेद बादलों के पीछे से झाँकता नीला आसमान।

वो दोनों इस छोटी-सी घाटी में आमने-सामने बैठे थे। आस-पास दूर-दूर तक कोई इंसान नहीं था। दो पहाड़ियों के बीच यह हरी-भरी घाटी थी, जहाँ स्ट्रॉबेरी की बेलें फैली हुई थीं और कुछ पेड़ खड़े थे। पहाड़ियाँ फूलों और बेलों से ढकी थीं, और उनके पार बस्ती थी।

अज़ान की आवाज़ गूँजी। वह उठ खड़ी हुई।
"मैं चलती हूँ।"
"मैं छोड़ आऊँ तुम्हें?"
"नहीं, मैं चली जाऊँगी, कोई देख लेगा।"
"रोज़ जो चोरी-छिपे घर से निकल आती हो, तब कोई नहीं देखता?"

वह अपने मुँह पर हाथ रखकर हँस दी। उसकी सफेद कलाई में खनकती लाल चूड़ियाँ बज उठीं, और वह उसी लम्हे में कैद होकर रह गया।

उसके साथ बिताया हर पल जिब्राईल के लिए एक हसीन ख़्वाब था। सफेद दुपट्टे से उसके घुटनों तक आते घने काले बाल झलक रहे थे। वह जाते हुए एक ठहराव और रफ्तार के साथ पहाड़ी पर चढ़ रही थी।

जिब्राईल ने अपनी बाइक स्टार्ट की और घर की राह ली। अभी उसे लंबा सफर तय करना था।

"बहू, फाइज़ और फ़ाइक अभी तक घर नहीं आए?"

"खाला, आ जाएँगे, बाहर ही खेल रहे होंगे।"

उसने ग्राहक की भौंहों पर थ्रेड चलाते हुए लापरवाही से जवाब दिया।

"तुमसे कितनी बार कहा है कि बच्चों को मगरिब (सूर्यास्त) से पहले घर बुला लिया करो। पर तुम्हें तो इस पार्लर से फुर्सत ही नहीं मिलती!"

"खाला, आप ऐसे ही वहम करती रहती हैं, कुछ नहीं होता!"

"अरे, वहम नहीं करती, सच्ची कह रही हूँ। तुम मुझसे ज्यादा पढ़ी-लिखी हो, लेकिन तुमने किताबों में यह नहीं पढ़ा? हमारे सच्चे नबी (ﷺ) ने फरमाया है कि मगरिब के वक़्त बच्चों को गलियों में मत छोड़ो, उस समय जिन्नात वहाँ से गुजरते हैं और नुकसान पहुँचा सकते हैं!"

"गली में खेलना बच्चों के लिए ठीक नहीं। यही वजह है कि आजकल के बच्चे ज़िद्दी और बदतमीज़ होते जा रहे हैं।"

"हाय अल्लाह, मैं ही जाकर देखती हूँ!"

शमा चुप रही और सफ़िया बेगम बाहर चल दीं।

लाउंज से गुजरते हुए सफ़िया ने छह साल की पोती शज़ा को देखा, जो पूरी तल्लीनता से इंडियन ड्रामा देख रही थी।

गेट तक पहुँची ही थीं कि फाइज़ और फ़ाइक मिट्टी में सने घर में दाखिल हुए। उनके गंदे हाथों में कुरकुरे, पापड़ और न जाने क्या-क्या भरा था।

"कहाँ थे तुम दोनों?"

"दादो, खेलने गए थे!"

फ़ाइक ने हँसते हुए जवाब दिया। दूध के दाँत टॉफी खाकर गिर चुके थे, अब बस नाम मात्र के बचे थे।

"तुम लोगों को स्कूल में नहीं सिखाया कि खाना खाने से पहले हाथ धोते हैं?"

"दादो, बार-बार हाथ नहीं धोते, पानी ज़ाया होता है!"

"टीचर कहती हैं, पानी ज़ाया करना गुनाह होता है!"

"और साबुन भी!" फ़ाइज़ ने मुँह में पापड़ ठूंसते हुए कहा।

दादी ने अपना माथा पीट लिया।

"चलो अंदर जाकर कपड़े बदलो!" उन्होंने दोनों के कान मरोड़े।

"अरे-अरे, जा तो रहे हैं! कान टूट गया तो हम बाली कहाँ पहनेंगे?"

"हाय तौबा! कैसी बातें कर रहे हो?"

"दादो, आजकल फैशन है, लड़के भी बाली पहनते हैं!"

वे कान छुड़ाकर भाग गए। दोनों जुड़वाँ थे, शक्ल से लेकर हरकतें तक एक जैसी।

"ये तो हाथ से निकलते जा रहे हैं। या अल्लाह, इन्हें हिदायत दे!"

दादी ने दुआ की और अंदर चली गईं।

शज़ा अभी भी ड्रामे में डूबी थी। तभी दोनों लड़कों ने रिमोट छीनकर अपना पसंदीदा कार्टून लगा दिया। तीनों के बीच जबरदस्त लड़ाई छिड़ गई।

"क्यों जंगली जानवरों की तरह लड़ रहे हो? छोड़ दो एक-दूसरे को!"

दादी ने उन्हें अलग करने की कोशिश की।

शोर सुनकर शमा बाहर आई और सबको दो-दो घूंसे जड़ दिए।

"कमबख्तों, और कोई काम नहीं आता? चलो कमरे में जाकर होमवर्क करो!"

उसने दोनों को घसीटते हुए उठाया, लेकिन वे बेफिक्री से हँस रहे थे।

"शज़ा, तुम्हारी तो मैं हड्डियाँ तोड़ दूँगी! बंद करो ये तमाशा! पूरा दिन टीवी में घुसी रहती हो!"

"आदत भी तो तुमने ही लगाई है, अब उसे दोष दे रही हो? क्या यह पैदा होते ही टीवी देखने लगी थी?"

पीछे से दादी ने टोक दिया।

यह तो इस घर का रोज़ का किस्सा था।

बच्चों की पिटाई, जिससे वे और भी ज़िद्दी होते जा रहे थे। पर माँ को कोई और तरीका नहीं आता था।


"जिब्राईल, बेटे, सो जाओ, बहुत पढ़ाई कर ली।"

दादी ने प्यार से अपने बड़े पोते से कहा, जो शाम से अपने कमरे में बैठा पढ़ रहा था।

"दादो, कल मेरा ग्रैंड टेस्ट है और मुझे सबसे अच्छे नंबर लाने हैं!"

"इंशा अल्लाह।"

उन्होंने उसके घने बालों पर प्यार से हाथ फेरा।

चारों भाई-बहनों में नौ साल का जिब्राईल सबसे बड़ा था और सबसे आज्ञाकारी। वह फजर के वक्त दादी और पिता के साथ उठ जाता था और मस्जिद में नमाज़ पढ़ता था।

बाकी भाई-बहन और माँ स्कूल जाने के वक़्त ही उठते थे। तब घर में अफरा-तफरी मच जाती थी। दादी पहले ही नाश्ता बना देती थीं। फिर किसी की किताब गुम हो जाती, कोई होमवर्क भूल जाता, और किसी का लंच किसी और के बैग में चला जाता।

फाइज़ और फ़ाइक नर्सरी में थे और टीचर से बदतमीज़ी करना उनका शौक था। शज़ा पहली कक्षा में थी और पहले से ही उसकी ज़ुबान तेज़ थी।

दादी कोशिश करती थीं कि बच्चों को सुधारें, पर वे छोटे-छोटे शैतान थे।

जिब्राईल की परवरिश उनके प्यार और अनुशासन की वजह से अच्छी हुई थी। वह हमेशा अपनी चीज़ें सँभालकर रखता था।

उसके दादा गाँव में ही रहते थे और लोग उन्हें "मास्टर अयूब" कहते थे। सब उनकी बहुत इज्जत करते थे।

पर अब दादी छोटे बेटे इब्राहीम के साथ शहर आ गई थीं ताकि बच्चों को उनकी देखभाल मिले। शमा भी यही चाहती थी कि सास बच्चों की परवरिश करे।

लेकिन बच्चे किसी की सुनते ही नहीं थे...