LAGAN IN HINDI ( PART 8) SHADI OR MUJBOORI
फलक़ी सिर से पाँव तक कांप गई। पता नहीं उसके लहजे में ऐसा क्या था, मगर वह बाहरी तौर पर यूँ बैठी रही जैसे उसे कोई फर्क न पड़ा हो। वह भी तनकर पाइप पीता रहा।
थोड़ी देर बाद वह खड़ा हो गया।
"मुझे देर हो रही है और रात को एक दावत में जाना है।"
बैठे-बैठे फलक़ी का सिर चकराने लगा।
यह उसकी शादी की तीसरी रात थी और तीसरा दिल दहला देने वाला वाकया था।
उसे रोना आ गया।
पता नहीं अब क्या हो गया था, हर छोटी-छोटी बात पर आँसू निकल आते थे। सूखते आँसुओं को छिपाने की उसने कोई कोशिश नहीं की।
आफ़ाक कमरे में टहल रहा था। झुककर बोला—
"औरत का पुराना हथियार मत आज़माओ। मैं आँसुओं को बहुत करीब से जानता हूँ। यह औरत का आखिरी दाँव होता है। तमाशा मत बनो। मैं डैडी और मम्मी से रुख़्सत लेकर आता हूँ।"
वह बाहर निकल गया।
"मैं क्या करूँ... ख़ुदावंदा, मैं क्या करूँ?"
फलक़ी फूट-फूटकर रोने लगी। "आख़िर इस आदमी के सामने मैं इतनी मजबूर क्यों हो गई हूँ? मैं तो एक आज़ाद पंछी थी, इस खुले आसमान में यहाँ से वहाँ उड़ती फिरती थी। फिर आख़िर मैंने इस पिंजरे में क़ैद होना क्यों क़बूल किया, जबकि मेरा मानना था कि मेरे लिए न कोई पिंजरा है, न कोई ज़ंजीर। सिर्फ़ निकाह के दो बोल औरत को इस कदर मजबूर कर देते हैं और आदमी इतना बड़ा हाकिम-ए-आला बन जाता है कि उसकी मर्ज़ी और आरज़ू की कोई क़दर नहीं करता!
अगर इसे शादी कहते हैं, तो धिक्कार है इस पर... धिक्कार तो मैं पहले भी भेजती थी। फिर भी ख़ुद ही इस धिक्कार को गले का हार बना लिया। अब यह हार फंदा बन रहा है और इस फंदे से निकल जाना चाहती हूँ... वरना...?"
डर नहीं लग रहा होगा?
आफ़ाक़ बाहर निकला, तो सामने डैडी दिखे। वह उसकी तरफ़ आ रहे थे। उनके साथ मम्मी भी थीं।
"हूँ... तैयार हो गए बेटा?" मम्मी ने प्यार से पूछा।
"जी। प्लीज़, आप ज़रा बैठ जाएँ। मैं आपसे एक ज़रूरी बात करना चाहता हूँ।"
"ज़रूर कहो।"
जैसे ही मम्मी बैठीं, डैडी भी उनके साथ बैठ गए।
"मम्मी, आप जैसी ज़हीन और अक़्लमंद ख़ातून से कुछ कहना सूरज को चराग़ दिखाने के बराबर है। आपने एक ज़माना देखा है, फिर भी चूँकि आप एक माँ हैं, इसलिए मैं कुछ अर्ज़ करना चाहता हूँ।"
"अरे, जल्दी से कहो!" मम्मी हँसकर बोलीं, "मैं तुम्हारी किसी बात का बुरा नहीं मानूँगी। तुम मुझे फलक़ी से ज़्यादा अज़ीज़ हो।"
"शुक्रिया, मम्मी।" आफ़ाक़ के चेहरे पर संजीदगी और गहरी हो गई।
"मम्मी, आप तो जानती हैं कि फलक़ी आपकी इकलौती औलाद है और आपने अपनी ज़िंदगी का सारा प्यार उसी को दिया है। आपकी मोहब्बत के आगे उसे हर चाहत छोटी लगती है। आप मेरा मतलब समझ रही होंगी...
वह ज़रा ज़िद्दी और ख़ुदसर भी है, इसके बावजूद मैं उसे पसंद करता हूँ। उसका दिल अभी मेरे घर में नहीं लग रहा। वह बार-बार यहाँ आना चाहती है। वैसे तो मुझे कोई ऐतराज़ नहीं, आप भी तो मेरे वालिदैन जैसी ही हैं। लेकिन अगर उसने इसी तरह आना-जाना जारी रखा, तो मेरा घर कभी नहीं बस पाएगा। इतना बड़ा घर वीरान हो जाएगा। और आप जानती हैं, मेरी अम्मी अमेरिका में हैं और घर बसाने के लिए ही मैंने शादी की है।"
"हाँ, हाँ, मैं समझ रही हूँ।" मम्मी बोलीं। "मैं उसे समझा दूँगी।"
"नहीं!" आफ़ाक़ जल्दी से बोला।
"यह समझाने वाली ग़लती मत कीजिएगा। बस इतनी मेहरबानी कीजिए कि खुद ही उससे थोड़ा दूर हो जाएँ... मेरा मतलब है, कुछ समय के लिए मोहब्बत में थोड़ी कमी कर दें या फिर बनावटी बेरुख़ी इख़्तियार करें, जिससे उसे यह एहसास हो कि अब वह पराए घर की हो चुकी है।"
मम्मी ने कुछ नहीं कहा, तो आफ़ाक़ जल्दी से बोला—
"बस थोड़े दिनों के लिए, मम्मी। मैं साल-छह महीने की बात नहीं कर रहा। इसके बाद तो उसका दिल वहीं लग जाएगा और आपको भी इत्मिनान हो जाएगा।"
"आफ़ाक़ का मतलब है कि अब फलक़ी से ज़्यादा लाड़-प्यार न करो और उसके..."नाज़ भी कम उठाओ, ताकि वह अपनी ज़िम्मेदारियाँ ख़ुद महसूस कर सके।" डैडी ने पहली बार दख़ल दिया।
"मम्मी, प्लीज़..." आफ़ाक़ खड़ा हो गया।
"मैं समझ रही हूँ।" मम्मी उदासी से बोलीं। "ठीक है।"
मम्मी और डैडी भी खड़े हो गए।
आफ़ाक़ ने आगे बढ़कर मम्मी के दोनों हाथ थाम लिए और बड़ी लाचारी से बोला—
"मम्मी, मैं आपका बेहद शुक्रगुज़ार हूँ और हमेशा रहूँगा। आपके तआवुन के बिना मेरी शादीशुदा ज़िंदगी कभी ख़ुशगवार नहीं हो सकती। और मैं आपके सर की क़सम खाता हूँ, फलक़ी को एक आइडियल औरत बनाकर रखूँगा।"
मम्मी मुस्करा दीं।
उन्होंने आफ़ाक़ के हाथ को चूमा और बोलीं—
"मुझे तुम पर भरोसा है, क्योंकि तुम ख़ुद एक आइडियल मर्द हो।"
"शुक्रिया, मम्मी।"
आफ़ाक़ ने मुस्कुराकर उनका शुक्रिया अदा किया और फिर डैडी के साथ बाहर निकल गया।
बाहर, मोड़ के पास खड़े होकर वे पंद्रह-बीस मिनट तक धीमी आवाज़ में बातें करते रहे।
मम्मी अपना मेकअप ठीक करने ड्रेसिंग रूम में चली गईं।
फलक़ी उठकर बाथरूम में चली गई।
उसने मुँह हाथ धोया, चेहरा ठीक किया और फिर क़द-आदम आईने के सामने खड़ी हो गई...
वह अपना मेकअप संवारने लगी।
जब मोटर में बैठकर आफ़ाक़ ने हॉर्न बजाया, तो मम्मी दरवाज़े पर आकर नमूदार हुईं और बोलीं—
"फलक़ी चंदा, जल्दी से बाहर आ जाओ। आफ़ाक़ मोटर में बैठा तुम्हारा इंतज़ार कर रहा है, और मुझे भी देर हो रही है। मुझे अभी क्लब में एक पार्टी में जाना है।"
यह कहकर मम्मी दरवाज़े से बाहर निकल गईं।
एक नौकर आया और उसका सामान उठाकर ले गया।
उसने बेदिल होकर अपना पर्स उठाया और बाहर निकल आई। आफ़ाक़ मोटर में बैठ चुका था और डैडी मोटर के पास खड़े मुस्कुरा रहे थे। मम्मी दूसरी तरफ़ दरवाज़ा खोले खड़ी थीं।
जैसे सब यही चाहते थे कि वह जल्दी से मोटर में बैठकर चली जाए।
एकदम से उसे ग़ुस्सा आ गया।
मम्मी ने आगे बढ़कर उसकी पेशानी चूमी। वह ग़ुस्सा पीती हुई मोटर में बैठ गई।
डैडी ने हाथ हिलाया। मम्मी ने दुआ दी।
उसने किसी तरफ़ नहीं देखा। आँखों के कटोरे आँसुओं से भर गए थे, जिन्हें वह छलकाना नहीं चाहती थी।
मोटर चल पड़ी।
न मम्मी ने उसे सीने से लगाया।
न डैडी ने स्नेह से सिर पर हाथ फेरा।
"वाह! कितने अजीब हैं मेरे मम्मी और डैडी...?"
ख़ैर, डैडी तो हमेशा से ही बुज़दिल रहे हैं...
"ये कैसी माँ हैं...?
उन्हें यह नहीं दिखता कि उनकी बेटी का दिल रो रहा है।
ये कैसी माँ हैं, जो यह नहीं पहचानतीं कि बेटी के चेहरे पर रौनक़ नहीं, उदासी है?
ये कैसी माँ हैं, जो अपनी बेटी के तड़पते दिल की धड़कन तक नहीं सुन सकतीं...?
मम्मी, तुमने मुझे जन्म ही क्यों दिया, जब तुम्हें क्लब और पार्टियाँ मुझसे ज़्यादा अज़ीज़ थीं?"
जब मम्मी और डैडी नज़रों से ओझल हो गए, तो उसके सारे आँसू छलक पड़े—जैसे गुलाब की पंखुड़ियों से बारिश के बाद शबनम टपकती है।
आफ़ाक़ कनखियों से उसे देख रहा था।
उसने अपने आँसू रोकने की कोई कोशिश नहीं की। छुपाने का क्या फ़ायदा था?
कम से कम दिल का ग़ुस्सा और ग़म तो बाहर निकल जाता।
कभी-कभी वह रूमाल से अपना चेहरा साफ़ कर लेती।
मोटर बाज़ारों और सड़कों से गुज़रती चली जा रही थी।
आफ़ाक़ ख़ामोश और सख़्त लहजे में बैठा था, जैसे फलक़ी कोई गुनहगार हो और वह उसे सज़ा-ए-मौत के लिए लेकर जा रहा हो।
अचानक, उसके दिल में आफ़ाक़ के लिए गहरी नफ़रत का तूफ़ान उठा—
ऐसी नफ़रत, जो अपने चारों तरफ़ सुलगते हुए इरादों और ज़हरीली आँधियों को लिए हुए थी...
वह आफ़ाक़ से कितना प्यार किया करती थी!
उसकी नफ़रत को उसने प्यार क्यों समझा?
क्या आफ़ाक़ प्यार के क़ाबिल था भी..? हरगिज़ नहीं!
उसके रोम-रोम ने पुकारा—
"नहीं, नहीं...!"
"इस शख़्स के चेहरे पर थूक दो।
इसके ज़ाहिर और बातिन में फ़र्क़ है।
इसके क़ौल और फ़ेल में تضाद है।
यह मकार आदमी है।
इसका दिल स्याह है।
इसकी निगाह मुतअस्सिब है।
यह एहसास-ए-कमतरी का मारा हुआ है।"
"आह...
मैंने इससे मोहब्बत क्यों की?
मनहूस था वह लम्हा, जब मैंने यह सोचा कि मैं इसे चाहती हूँ।
क्या कोई सही-दमाग़ और ख़ूबसूरत लड़की ऐसे शख़्स को चाह सकती है?"
हरगिज़ नहीं...!
"फिर यह भूल मुझसे कैसे हो गई...?"
"क्या मैं नातजुर्बाकार थी?
या बेवक़ूफ़ थी?"
"दोनों बातें नहीं थीं।
शायद, क़ुदरत ने मेरे किसी ग़ुरूर का बदला मुझसे लिया।
ठीक है...
अपनी जल्दबाज़ी की सज़ा मुझे मिलनी थी, मिल गई।
अब मैं अपनी अजलत और जज़्बातियत की तिलाफ़ी करूँगी।"
"मैं ज़्यादा दिनों तक यह बेहूदगी बर्दाश्त नहीं कर सकूँगी।
मुझे जल्द ही कोई फ़ैसला करना होगा।
यह ज़रूर है कि निकाह की मजबूरी है, जिसकी वजह से यह मुझे अपनी उंगलियों पर नचा रहा है।
मगर कैसे...?
लेकिन एक वक़्त ऐसा आएगा, जब मैं इसे अपनी उंगलियों पर नचाऊँगी।"
वह ख़ुद ही अपने दिल से पूछती— "यह सब कैसे होगा?"
वह अपनी बेहद नफ़रत का इज़हार करना चाहती थी।
वह आफ़ाक़ को दिखाना चाहती थी कि उसकी नज़रों में आफ़ाक़ की कोई क़ीमत नहीं।
वह आफ़ाक़ से दामन छुड़ाकर उसे बताना चाहती थी कि वह इस क़ाबिल नहीं कि फलक़ी उसे क़बूल कर ले।
वह अपनी नफ़रत का भरपूर जूता उसके मुँह पर मारना चाहती थी।
मगर कैसे...?
जैसे ही उसे ग़ुस्सा आता, उसकी अक़्ल काम करना बंद कर देती।
बहरहाल, शहर में उसके बेहिसाब दोस्त थे।
असंख्य आशिक थे।
सहेलियाँ थीं।
आख़िर, वह किसी न किसी से मदद तो ले ही सकती थी।
इसके साथ ही, उसे उन लड़कों का ख़्याल आ गया जो उस पर मरते थे और उसके साथ शादी करना चाहते थे।
दो-चार लड़के तो बहुत अमीर माँ-बाप के बेटे थे और उसकी हर शर्त मानने को तैयार थे। मगर उसने उनके साथ सिर्फ़ दोस्ती रखी—
घूमना-फिरना,
तफ़रीह करना,
फिल्में देखना।
शादी को तो वह एक फ़ुज़ूल सी चीज़ समझती थी।
बॉबी तो उसे ख़ास तौर पर याद आया।
वह उसका सच्चा आशिक था।
"जो भी कहती, वह उसे तुरंत पूरा करना अपना ईमान समझता था।
उसका असली नाम महबूब अहमद था, मगर सब दोस्त उसे 'बॉबी' कहते थे।
अमीर वालिदैन का इकलौता बेटा था।
दो बार उसके पिता ने उसे अमेरिका भेजा था, मगर वह हर छह महीने बाद वापस आ जाता और फलक़ी के क़दमों पर सिर रखकर रोने लगता।
कहता—
'फलक़ी, तेरे बिना तो मैं जन्नत में भी नहीं रह सकूँगा!'
और वह ज़ोर से क़हक़हा लगाती।
वह बहुत ही ख़ूबसूरत, लंबा-चौड़ा और प्यारा सा लड़का था।
मगर फलक़ी को वह शौहर के रूप में अच्छा नहीं लगता था।
वह कहती थी—
'दोस्ती रखूँगी,
प्यार भी करूँगी,
मगर तुमसे शादी नहीं करूँगी।'
इस बात पर वह चिल्ला-चिल्लाकर रोता था, और उनका सारा गैंग ख़ूब उसका मज़ाक उड़ाता था।
सबने उसका नाम 'मजनूँ' रख दिया था।
एक बार, फलक़ी ने मज़ाक में उससे कह दिया था—
'अपनी गर्दन की रग काटकर, अपने ख़ून से मेरा नाम लिखो!'
तो उस कमबख़्त ने सच में ब्लेड से अपनी गर्दन की रग काट दी थी!
शुक्र था कि जिस रेस्टोरेंट में वे बैठे थे, वहाँ से डॉक्टर की दुकान क़रीब थी।
जल्दी से सब उसे वहाँ ले गए, वरना जिस तरह उसका ख़ून बह रहा था, उसके बचने की उम्मीद नहीं थी।
फलक़ी ने जब सुना, तो उल्टा उसे डाँट दिया—
'मुझे बदनाम करते हो?'
सब दोस्तों ने मिलकर मामला रफ़ा-दफ़ा किया।
बहुतों ने उसे मशविरा दिया कि वह बॉबी से शादी कर ले।
मगर ऐसे कमज़ोर दिल वाले आशिक़ से उसे घिन आती थी।
आज मोटर में बैठी, वह यही सोच रही थी..."..."
"वाक़ई, बॉबी अच्छा लड़का था। काश उसने उसे न ठुकराया होता।
उसे किसी की बुरी दुआ लग गई थी, क्योंकि वह उसकी शादी में शामिल नहीं हुआ था। सुना था कि तीन दिन से उसने भूख हड़ताल की हुई थी। दाढ़ी बढ़ा रखी थी और व्हिस्की पीकर रोता था। जो भी उसे बॉबी के बारे में बताता, वह उसे डाँट देती।
अब उसे बॉबी बहुत याद आ रहा था।
वाक़ई, किसी का दिल तोड़ना बुरी बात है। फिर बॉबी जैसे मासूम और प्यारे आदमी का। काश वह बॉबी से मिलकर उससे माफ़ी माँग सकती। काश वह बॉबी को अपना सकती।
काश, आफ़ाक़ से उसका पीछा छूट सकता।
उसने बैठते-बैठे दिल में फ़ैसला कर लिया कि वह आफ़ाक़ से तलाक़ लेकर बॉबी से शादी कर लेगी।
अब बॉबी से बेहतर कोई आदमी नहीं लग रहा था। बॉबी, जो उसके खूबसूरत पैरों पर सिर रखकर रोया करता था। उसका हाथ पकड़कर चूम लिया करता था। उसकी एक तस्वीर अपनी अंदर वाली जेब में रखा करता था, और एक अपने बटुए में लगाता था। उसके बिना फिल्म नहीं देखा करता था। हमेशा उसे "मेरी जान" कहकर संबोधित करता था।
उसके मुकाबले में आफ़ाक़ क्या था?
एक सख़्त और खुरदरा आदमी?
दुनिया देख रखी थी, अपनी वज़ाहत और दौलत पर इतराता था। अपने आपको अक़्ल-कल समझता था। किसी की भी नफ्स (स्वार्थ) उसकी नज़र में कुछ भी नहीं थी...
ज़लील आदमी..."
उसने ग़ुस्से से बल खाते हुए दिल ही दिल में उसे गाली दी।
"अगर तलाक़ नहीं ली, तो मेरा नाम फलक़ी नहीं!"
मुमकिन है कि वह तलाक़ देने पर राज़ी न हो।
मगर कैसे राज़ी नहीं होगा? जब वह अदालत का दरवाज़ा खटखटाएगी, तो फिर उसे राज़ी होना ही पड़ेगा।
मुमकिन है कि डैडी-मम्मी उसे रोकें।
मगर क्यों रोकें? वह साफ़-साफ़ बता देगी, एक-एक बात कह देगी। पहली रात से लेकर अब तक... और ऐसे आदमी की बीवी बनकर कोई औरत नहीं रह सकती, जो जो... जिस ने... हाँ, जो उसे बीवी बनाकर नहीं रख सकता हो। बीवी तो बीवी होती है न? तो उसे अपने हक़ मिलने चाहिए।
वह शरीयत और इस्लाम के बारे में ज्यादा नहीं जानती थी, मगर उसने अंग्रेज़ी के उपन्यास पढ़ रखे थे। फिर भी जानती थी कि बीवी को अपने हक़ मनवाने का हक़ है, और इस एक आधार पर वह अलगाव ले सकती है।
यह सोचकर उसने चैन की साँस ली।
इसके साथ ही उसने यह भी फ़ैसला कर लिया कि वह सुबह बॉबी को फ़ोन करेगी और बताएगी कि जल्दी ही वह उसकी हो जाएगी। बल्कि इस घर से निकलकर बॉबी के पास ही चली जाएगी। एक बार निकल गई तो फिर उसे कोई लाएगा भी नहीं। बिल्कुल ऐसा ही करना होगा।
और यही इस शख्स से बदला होगा।
ऐसा सोचते-सोचते उसके आँसू ख़ुद-ब-ख़ुद रुक गए। उसके चेहरे का तनाव कम हो गया।
जैसे ही उसने चैन की लंबी साँस ली, उसके होश और हवास़ वापस आ गए। उसने चारों ओर देखा। मोटर अब आफ़ाक़ के घर, "राज़ दां", में दाखिल हो रही थी। दरबान गेट खोल रहा था।
गेट खोलने के बाद उसने सलाम करने के लिए हाथ उठाया। ज़ोर से मोटर पोर्च में रुक गई।
"ऐसा मालूम होता है कि आप किसी مناسب फैसले पर पहुँच गई हैं, आखिर?" आफ़ाक़ ने गाड़ी रोकते हुए कहा।
उसने कोई जवाब नहीं दिया था, कि आफ़ाक़ फिर बोला—
"पति-पत्नी का रिश्ता जोड़ना तो आसान है, मगर तोड़ना बहुत मुश्किल है। इसीलिए मेरा ख्याल है, सारा ज़ोर निभाने पर लगाइए। ऐसा न हो कि लोग आपका तमाशा देखें।"
"यह क्यों नहीं कहते कि तुम्हें खुद तमाशा बनने से डर लगता है?" फलक़ी ने नफ़रत और ग़ुस्से से जवाब दिया।
इतने में दरबान करीब आ चुका था। उसने फलक़ी का दरवाज़ा खोल दिया। फलक़ी और आफ़ाक़ साथ में गाड़ी से बाहर निकले।
आफ़ाक़ ने आगे बढ़कर ड्राइंग रूम का दरवाज़ा खोला। वे अभी अंदर कदम रखते ही थे कि एक और मोटर के हॉर्न की आवाज़ आई। पीछे मुड़कर देखा तो आफ़ाक़ का एक करीबी दोस्त और उसके परिवार वाले आ रहे थे।
"आइए, आप आए!" आफ़ाक़ ने बाजू फैलाकर कहा।
"या हज़रत, कहाँ थे इतने दिनों?"
"कल ही यूरोप से आया हूँ। पता चला कि तुम्हारी शादी हो गई है, सोचा...!"
"मुबारकबाद दे आऊँ क्योंकि एक हफ्ते बाद मैं अरब जा रहा हूँ। ये कैसी हैं आप भाई?"
आफ़ाक़ ने उसकी बीवी से खुशी से कहा।
"अल्लाह का एहसान है। आप सुनाइए, कैसी जा रही है? शादी मुबारक हो, या भाभी से हमारा ताअरुफ़ तो कराइए!"
"यह बैठिए तो। यह मेरी दुल्हन है। और अपना ताअरुफ़ आप करें। देख तो रहे हैं आप!"
सभी लोग क़हक़हा लगाकर हँस पड़े।
"वाक़ई, बहुत खूबसूरत हैं। कहाँ से मिल गईं?" भाई ने बैठकर हँसते हुए कहा।
"बेस खुद ही आ गईं। इनकी शमात इनको ले आई। वरना आप जानती हैं, मैं कितना मासूम और सीधा-सादा हूँ।"
इस पर फिर सभी ने क़हक़हा लगाया। फलक़ी सिर्फ़ बनावटी अंदाज़ में मुस्कराती रही। वह जानती थी कि यह कमबख़्त अपनी ज़बान से चुभता है और शॉबिज़नेस खूब जानता है।
"वोन्की, उठो भाई, चाय-वाय मिलवाओ। ये तुम्हारे मेहमान हैं और तुम्हारे घर आए हैं, आस्तीन न हो!"
आफ़ाक़ ने इतनी मोहब्बत से कहा जैसे उसकी ज़बान में कड़वाहट बिल्कुल न हो।
फलक़ी उठकर बाहर गई, चाय का ऑर्डर देकर फिर वापस आकर बैठ गई। मेहमान महिला उससे बातें करने लगी। जाहिर है, उसे भी खुशी का "मज़ाहिरा करना चाहिए था।" चाय आ गई तो वह उठकर सभी को चाय देने लगी। जब उसने आफ़ाक़ को प्याली पकड़ाई, तो बड़े ही ज़ोरदार अंदाज़ में मुस्कराकर बोला—
"शेरीनी तो मैं सिर्फ़ तुम्हारे होंठों से पीता हूँ। उम्मीद है, तुमने चीनी नहीं डाली होगी।"
फलक़ी ने न में सिर हिलाया।
"शाबाश! यही अच्छी बीवियों की निशानी है!" आफ़ाक़ ने कहा।
"तुम ज़रा भी नहीं बदले। वैसे के वैसे हो, जैसा दो साल पहले थे।"
"मैं क्यों बदलता?" आफ़ाक़ ने जवाब दिया। "क्या मेरी जबरदस्ती की शादी हुई थी? भाई, यह तो मोहब्बत की शादी है, और फिर शादी के बाद लड़कियों को बदलना पड़ता है। जिनको यह बात समझ में नहीं आती, उन्हें ज़माना सिखाता है।"
"हां, यह तो ठीक है!" भाई ने हामी में सिर हिलाया।
फिर सभी लोग दांपत्य जीवन के उतार-चढ़ाव के बारे में बातचीत करने लगे।
फलक़ी बेरुख़ी से बैठी रही। उसे इस विषय से कोई दिलचस्पी नहीं थी, और फिर उसे आफ़ाक़ की हर हरकत नकली लग रही थी। अंदर से वह कितना बुरा, बदतमीज़ और रुग्ण था, मगर अपने आपको सुथरा और सजीला दिखाने के लिए ढ़का-छिपा कर पेश कर रहा था। फलक़ी को उसके मेहमानों से भी घिन आ रही थी। अब वह ऐसे महफ़िलों से डरने लगी थी।
वह चाहती थी कि ये लोग फौरन उठकर चले जाएं।