LAGAN NOVEL IN HINDI ( PART 5) WO PAHLI SUBAH
कुछ देर के लिए फ़लक़ी का ज़हन और जिस्म सुन्न हो गया…
ना वह सोच पा रही थी, ना कुछ सुन पा रही थी… और ना ही हिल-डुल पा रही थी!
जहाँ बैठी थी, वहीं जैसे बर्फ़ बन गई!
उसके सारे अंग इस क़दर जकड़ गए कि उसे एहसास ही न रहा कि वह गोश्त-पोस्त की एक इंसान है!
आफ़ाक़ ने एक तकिया उठाया और बाहर निकल गया…
कभी-कभी ऐसा होता है न, जब किसी इंसान पर हैरतों के पहाड़ टूटते हैं…
तो वह कुछ देर के लिए अंधा, बहरा और गूंगा हो जाता है!
कभी-कभी इंसान अपनी ही हैरत पर मर जाना चाहता है!
कभी-कभी शर्मिंदगी इतनी गहरी होती है कि लगता है—
"चुल्लू भर पानी ही काफ़ी है!"
कभी-कभी इज़्ज़त-ए-नफ़्स (स्वाभिमान) इस कदर रौंदा जाता है कि आदमी सोचता रह जाता है—
"क्या इससे पहले मेरी कोई इज़्ज़त थी भी या नहीं?"
"या फिर मैं हमेशा से ही इसी तरह रुसवा की जाती रही हूँ?"
आज की रात फ़लक़ी के लिए ‘हैरतों’ और ‘इम्तेहानों’ की रात थी…
हर क़दम पर उसे हैरानी हो रही थी,
मगर यह आख़िरी वाक़िआ उसकी ज़िंदगी का सबसे दर्दनाक और दिल तोड़ने वाला हादसा था!
"वह जो आसमानों पर उड़ रही थी…"
"जिसकी ज़िंदगी फूलों और इंद्रधनुषों में बसी थी…"
जिसने जो चाहा, वही पाया…
जिसकी मनमानी ही उसकी पहचान थी…
"कभी 'डैडी'…
"ने आँखें दिखाई न थी, न ही घूरा । सोने चांदी के पालने में झूलती, भूलती वह, और फिर जवानी भी कैसी शानदार थी... जिसने देखा, दिल पेश किया। दिलों को ठुकराना उसका शगल था। जज़्बों का मज़ाक उड़ाना उसकी आदत थी। कमज़ोरियों से खेलना उसकी सरच थी और सबसे बड़ी बात ये थी कि वह पुरुषों को एक बेवकूफ मखलूक समझती थी। वह यही जानती थी कि औरत और रहिम पुरुष की कमजोरी होते हैं और इस कमजोरी का सहारा लेकर उन्हें जिस हद तक चाहो मोड़ दो, तोड़ दो और मचलाओ, भला पुरुष की जिंदगी का उसके सिवा मकसद ही क्या है कि वह हमेशा सुंदरता के तले के तले चाटता रहे। वह भी खूबसूरत औरत के... खूबसूरत औरत तो सिर्फ चाहिए जाने के लिए, पूजा करवाने के लिए होती है। उसने चांद-चंदन की और उन औरतों की कहानियाँ पढ़ी थीं, जिन्होंने अपने हुस्न की आग से एक और नहर तबाह कर दी थी। 'क्लो पीड़ा' फिर उसने कई बार देखी थी। आखिरकार तो सहेलियाँ उसे 'क्लो पीड़ा' कहने लगी थीं। और वह सोचा करती थी कि अगर औरत आर्थिक रूप से मजबूत हो तो उसे कभी पुरुष की गुलामी नहीं करनी पड़ती। पुरुष को यही ज़ख़्म है, ताकि वह औरत का काफ़िल है, तो उसके डैडी की सारी जायदाद उसके नाम थी। वह एक मुनासिब माहवारी आमदनी की मालिक थी। ज़ेवर, कपड़े का कोई हिसाब नहीं था। उसके दिल में कोई हसरत नहीं थी। मचलने से पहले उसे हर चीज़ मिल जाया करती थी।"
हां, ग़ुस्सा उसकी फ़ितरत में बहुत था।
अगर कोई चीज़ न मिलती तो जी भर के ग़ुस्सा करती। तोड़-फोड़ करती और कभी-कभी इतना ग़ुस्सा आता कि कोई चीज़ हासिल करके उसे तबाह कर देती।
जब हर इच्छा पूरी हो रही हो तो बेवजह ग़ुस्सा करने को जी चाहता है। हां, अगर आफ़ाक़ उसकी तरफ़ माइल न होता तो वह जाने क्या कर बैठती। ग़ुस्से का वह तूफ़ान किस-किस को ले डूबता।
बनाया था।
मगर आफ़ाक़ ने तो बाक़ायदा उसे पसंद करने का ढोंग रचाकर उसे बेवकूफ़ बना लिया था।
ख़ुद अपने ही निशाने से वह घायल हो गई थी। ख़ुद अपने तरकश का तीर उसकी कनपटी में लग गया था। ख़ुद अपने अंदाज़ों ने उसे रसवा कर दिया था। ज़िंदगी में पहली बार सब कुछ ग़लत हो गया था। ऐसे में वह जितना भी ग़ुस्सा करती, कम था।
आज तो उसे इस पूरे घर को तहस-नहस कर देना चाहिए था। छत को धमाके से उड़ा देती। ड्रेसिंग टेबल का आईना चूर-चूर कर देती। सर से ज़ेवरों को मुठ्ठी में ले कर रेज़ा-रेज़ा कर देती। शादी के जोड़े को तार-तार कर देती।
महरी के फूल नोच लेती।
चिल्ला-चिल्ला कर सारा घर सिर पर उठा लेती।
हर बात की उससे उम्मीद थी। हर अनपेक्षित हरकत वो कर सकती थी, मगर... जब वह हैरत के इर्द-गिर्द के जबड़े से बाहर की तो रंज और दुख के मालिक
महिब बादलों ने उसे घेर लिया।
अफ़सोस! यह क्या हो गया!
और उसके साथ।"
"इस कदर फूट-फूट के वह रोई कि आलमाँ, शायद आफ़ाक़ भी उसे इस हाल में देख लेता तो उसे उस पर तरस आ जाता।
आख़िरकार एक कमजोर औरत ही तो थी न?
बिस्तर के ऊपर उंढे मुँह गिर कर वह तबाह क़िस्म की नमाज़ में रोई है। बिस्तर की हर शिकन से लिपट-लिपट कर उसने अपनी सिसकियाँ और दहाई में क़ाबुल भर के आँसू सफेद चादर पर काले होते लगते रहे। अधखुली और की कलियाँ उसके चेहरे से लिपट-लिपट गईं। कभी क्यों मैं मुँह छिपाकर कभी कमियों को बता देना,
वह जितना रो सकती थी, रोई। कभी-कभी रोने के सिवा कोई चारा नहीं दिखाई देता और फिर जब दिल में विभिन्न प्रकार के जज़्बात एकत्र हो जाएं तो समझ नहीं आता कि अब क्या करना चाहिए, कष्ट सहना चाहिए या ग़िला। अच्छा हुआ या बुरा। तक़दीर का लिखा था या अपना क्या।
अपने आमालों की सज़ा थी या इम्तिहान। क्या हम इस सज़ा के हक़दार थे या नहीं?
फरियाद करनी चाहिए या सब्र रखना चाहिए।
जब इन बातों की समझ नहीं आती तो इंसान रो पड़ता है। आँसू इंसान की बेबसी की आख़िरी निशानी होते हैं।
जब इंसान हथियार डाल देता है और कुदरत के आगे दम मारने की हिम्मत नहीं रखता,
अपने जज़्बातों की आह और फ़ग़ां नहीं सुन सकता,
तो फिर जी भर के रोता है। लोग कहते हैं रोना बزدली है। तो फिर बहादुरी क्या है?"
"ठाठे मारते हुए बाग़ी जज़्बातों के तेज़ और तंड तूफ़ान को कैसे रोका जा सकता है?
जब आदमी दूसरे को खत्म नहीं कर सकता,
अपने सीने में छुरा नहीं घोंप सकता,
तो क्या करे...
फिर रोना ही अच्छा होता है।
ऐसे में रोने से बड़ी तस्सली होती है।
पूरी ज़िंदगी व्यक्तिगत इच्छाओं पर मचलने वाली और छोटे-मोटे आँसुओं से रोने वाली फ़लक को आज ये पता चला कि आँसू क्या होते हैं। दिल की तकलीफ़ क्या होती है। चोट कैसे लगती है।
दर्द कैसे उठता है। अकेलेपन का क़र्ब क्या है।
बिना ज़बान के कौन से परिंदे का नाम है।
और हालात के आगे दौलत, रुतबा, इक्तदार, हुस्न सब गुलाम बन जाते हैं।
हथियार डाल देते हैं। सबसे सख़्त जान चीज़ इंसान है, जो हर तरह के हालात से गुजरता है।
पता नहीं इतने आँसू कहां से आ गए थे, खत्म होने का नाम नहीं ले रहे थे।
ज़ेवरों का क्या हुआ...?
सारी दुपहर श्रृंगार पर खर्च कर दी थी।"
"जोड़े का क्या हश्र हुआ?
वह जिस पुल सिरात पर थी, वहाँ सिर्फ आँसू थे। पछतावे के थे। यार-नज़दीकी के। आँसू एक विशाल असीम सागर बनते जा रहे थे। और वह उन में डूबती जा रही थी।
फिर इंसान आँसुओं से भी थक जाता है। खुद से थक जाता है।
पता नहीं कब उसकी सिसकियाँ धीमी होती गईं। पता नहीं कब नींद उसे थपकियाँ देने लगी। उसे झूला झलाने लगी। इंसान पागल है।
फरेब माँगता है।
और फिर नींद का क्या है? जितनी मासूम है, उतनी ही क्रूर भी है। सज़ा पर भी आ जाती है। काँटों पर भी आ जाती है।
हर जगह अपनी ज़बरदस्त हक़ीकत को मनवाती है।
सुबह के चार बजे होंगे,
जब वह उल्टी पड़ी, वैसे ही सिसकती हुई नींद में डूब गई। कितनी अच्छी है नींद।
थोड़ी देर के लिए हर चीज़ पर पर्दे डाल देती है। ज़ख्म छिपा देती है। दर्द से बेगाना कर देती है।
एक नए जहान में ले जाती है जहाँ शोर-शराबा नहीं होता।
रुसवाइयाँ और अज़ाब नहीं होते।"
आदमी खो जाता है। गुम हो जाता है। अपने आप से बेगाना हो जाता है।
सुबह जब उसकी नींद खुली तो पहली नज़र घड़ी पर पड़ी। दिन के दस बज रहे थे। अफ़ोह! वह इतनी देर तक सोती रही। फिर उसकी नज़र अपने बिस्तर पर गई, अपने गहनों पर गई, जो चारों ओर बिखरे पड़े थे। फिर उसने हैरानी से अपनी बनारसी साड़ी को देखा, जिसे उसने अब तक पहना हुआ था। और उसे अचानक याद आ गया कि रात उसकी सुहागरात थी। और वह बीत गई... किस तरह बीती!
एक-एक बात उसे याद आने लगी। उसने करवट लेनी चाही, पर ले नहीं पाई। जैसे वह सोते-सोते अकड़ गई थी। उसका बाजू चेहरे के नीचे था और गाल दुख रहा था। हाँ, वह तकिया सारी रात उसके गाल को दबाता रहा और उसे इसका एहसास तक नहीं हुआ। अब सारे एहसास एक-एक कर जाग रहे थे।
अपना चेहरा शीशे में देखने का मन किया। देखे तो उसके चेहरे पर क्या बीती? वह धीरे-धीरे उठी... पैर बिस्तर के नीचे लटकाए, तो ठिठक कर रह गई। उसने फिर से आंखें मलकर देखा।
वाकई, सामने सोफ़े पर आफ़ाक़ बैठा था।
बिल्कुल साफ़-सुथरा, नहा-धोकर ताज़ा। उसने अभी तक ड्रेसिंग गाउन पहना हुआ था। शेव भी कर ली थी। उसके मुँह में पाइप था और सामने रखी अंग्रेज़ी अख़बार को गहराई से पढ़ रहा था।
उसे देखते ही फ़लकी का ख़ून खौलने लगा। रात उसने कितनी बदतमीज़ी दिखाई थी और अब कितना सभ्य बनकर बैठा था! उसका दिल किया कि उसके चेहरे पर थूक दे और अपने घर चली जाए। अब क्या मजबूरी थी? जो होना था, हो चुका था।
वह अचानक ग़ुस्से से खड़ी हो गई। आफ़ाक़ ने सिर उठाकर उसकी ओर देखा—यादों की राह जैसे बस सरसरी नज़र से देखी जाती है।
फिर उसने पाइप मुँह से निकालकर कहा:
"सुप्रभात, महोदया!"
फ़लकी ने जवाब देने की ज़रूरत नहीं समझी। उसने फिर पाइप मुँह में डाल लिया और अख़बार पढ़ने लगा।
फ़लकी जब भारी क़दमों से चलने लगी, तो कोई ज़ेवर लटककर उसके पाँव पर गिर पड़ा। कहीं से कोई फूल गिर गया। कहीं दुपट्टा उलझ गया। कहीं ग़रारा फँस गया...
"या अल्लाह...!"
आज कुछ भी उसके बस में नहीं था। उसने दिल में सोचा।
सब कुछ झटककर...
वह जल्दी से ड्रेसिंग रूम में चली गई।
इन कपड़ों से उसे घबराहट हो रही थी।
ड्रेसिंग रूम में आई तो वहाँ उसकी गुलाबी रंग की ख़ूबसूरत और काफ़ी महँगी नाइटी टंगी हुई थी।
"हाय क़िस्मत!"
उसे पहनना तो नसीब ही न हुआ।
कैसे-कैसे ख़याल इस नाइटी से जोड़े थे उसने। उसका दिल किया कि इसे आग लगा दे।
मगर उसने ऐसा नहीं किया।
भारी जोड़ा उतारकर नाइटी पहन ली। कितनी हल्की-फुल्की और मुलायम लगी!
फिर वह बाथरूम में चली गई।
आईने में अपना चेहरा देखा। आँखें रो-रोकर बेतहाशा सूज गई थीं। जहाँ कंगन चुभा था, वहाँ एक अजीब-सा भद्दा निशान बन गया था—जैसे किसी ने नाखून गड़ा दिए हों।
वह हाथों से रगड़-रगड़कर उस निशान को मिटाने लगी, मगर जिस्म के निशान इतनी जल्दी मिटते हैं क्या?
ठंडे-ठंडे पानी के छींटे आँखों पर मारे तो कुछ सुकून मिला।
बाथरूम से बाहर निकलने का मन नहीं कर रहा था।
उसने सोचा—"नहा लेती हूँ। नहाने से तबीयत भी हल्की हो जाएगी। यह जो सिर में भारीपन है, निकल जाएगा। और कुछ वक़्त भी यहीं कट जाएगा।"
"हाँ, यह ठीक रहेगा।"
जल्दी से उसने शावर खोला। ठंडे और गरम पानी को मिलाया और फिर उसकी बौछारों के नीचे बैठ गई। नर्म-नर्म छींटे कितने अच्छे लग रहे थे। पानी जब उसके गालों को छूता, तो उसे और भी ज़्यादा रोना आता।
उसका दिल चाहा कि जल्दी से अम्मी के पास जाए, उनके सीने से लगकर खूब रोए और उन्हें बताए कि उसके साथ क्या ज़ुल्म हुआ है। फिर दिल किया कि अपनी सहेलियों के पास जाए, चीख-चीखकर रोए और कहे—
"आज तुम्हारी फ़लकी कट गई। आसमान से ज़मीन पर आ गिरी।"
एक काइयाँ इंसान ने उसे पैरों तले रौंद डाला।
"तौबा! कितना दिल कर रहा है घर जाने का!"
यह घर और इसकी हर चीज़ उसे ज़हर लग रही थी।
बाहर वह मनहूस बैठा हुआ था। उसकी तरफ़ देखने का भी दिल नहीं कर रहा था। औरत की इससे बड़ी और क्या तौहीन हो सकती है? अब तो वह एक पल भी उसके साथ नहीं रहेगी।
काफ़ी देर तक वह नहाती रही, अपने दिल की जलन को पानी से मिटाती रही।
बाहर निकलकर उसे समझ नहीं आया कि कौन से कपड़े पहने, क्योंकि कपड़े अभी ट्रंक में बंद थे। इसलिए उसने वही नाइटी पहन ली और ऊपर मोटा ड्रेसिंग गाउन डाल लिया। न जाने क्यों उसे आफ़ाक़ से डर लग रहा था।
अपने बाल तौलिए से सुखाए और फिर बेडरूम में आ गई।
आफ़ाक़ के सामने एक ट्रे रखी थी और साथ में एक वेटर खड़ा था।
चुपचाप ड्रेसिंग टेबल के सामने खड़ी हो गई। थोड़ी सी कोल्ड क्रीम चेहरे पर लगाई और फिर चांदी के हत्थे वाली कंघी उठाकर अपने बाल सुलझाने लगी।
"बेगम साहिबा के लिए नाश्ता लाओ,"
आफ़ाक़ ने वेटर को आदेश दिया, जिसे उसने भी सुना, मगर मुड़कर नहीं देखा।
उसका ज़रा भी चाय पीने का मन नहीं था। बस अम्मी के पास जाने का दिल कर रहा था।
वह बेवजह आफ़ाक़ से बात नहीं करना चाहती थी।
कंघी करने के बाद उसने मुड़कर देखा। आफ़ाक़ चाय पी रहा था और उसके बिस्तर की तरफ़ देख रहा था।
बिस्तर देखकर उसे फिर रोना आ गया।
वहाँ उसके सारे गहने बिखरे हुए थे।
वे कलियाँ, जिन्हें उसके मोहक बदन का दीदार करना था, सहमी हुई थीं।
और बिस्तर की हल्की-सी सिलवटें आफ़ाक़ की बेरुख़ी की पूरी कहानी बयान कर रही थीं।
"मेरा ख़याल है, वेटर के आने से पहले आप अपने क़ीमती ज़ेवर बिस्तर से हटा लें,"
आफ़ाक़ ने सपाट लहजे में कहा।
वह यह हुक्म मानना नहीं चाहती थी। मगर उसे मानना पड़ा।
धीरे-धीरे चलते हुए आई और सारे गहने समेट लिए। साथ ही, बिस्तर पर पड़े सभी फूल नीचे गिरा दिए। रज़ाई को तह लगाया और बिस्तर पर कवर डाल दिया।
बिस्तर ठीक कर दिया।
पता नहीं, उसने ऐसा क्यों किया...? क्या आफ़ाक़ के डर से...? नहीं...
उसके मन में ही कुछ था।
उसे लग रहा था कि यह बिस्तर हर आने-जाने वाले को रात की कहानी सुना देगा।
और उस कहानी में उसकी पूरी बेइज़्ज़ती थी।
इसीलिए उसने बिस्तर को छिपा दिया।
गहने उठाकर ड्रेसिंग टेबल की दराज में रख दिए।
इतने में वेटर एक और ट्रॉली लेकर अंदर आया।
"बेगम साहिबा के लिए चाय बना दो,"
आफ़ाक़ ने फिर आदेश दिया।
वेटर ने यंत्रवत चाय बनाई और बढ़ाकर उसे दी। आफ़ाक़ के सामने ही एक दूसरा सोफ़ा पड़ा था, और उसे मजबूरी में उस पर बैठना पड़ा।
पैर भारी हो रहे थे। उसे पता था कि इस वक़्त इनकार नहीं कर सकती।
इसलिए, न चाहते हुए भी उसने कप उठा लिया और चाय की चुस्कियाँ लेने लगी।
वेटर किसी फ़रिश्ते की तरह सिर पर खड़ा रहा।
चाय ख़त्म होते ही उसने बाक़ी चीज़ें भी आगे बढ़ानी शुरू कर दीं।
दिल तो नहीं चाह रहा था, मगर उसने एक फ्राइड एग लिया और टोस्ट के साथ खाने लगी।
इस हालात पर उसे बेहद ग़ुस्सा आने लगा।
"कितने बनावटी होते हैं ऐसे आदमी!" उसने सोचा।
"जान-बूझकर इस वेटर को यहाँ खड़ा कर दिया है ताकि कोई और बात न करनी पड़े और मैं भी कुछ खा लूँ।"
"ओह नहीं...!"
"आख़िर इनकार क्यों नहीं कर देती, फ़लकी?"
उसके दिल ने उससे सवाल किया।
"पता नहीं, कौन-सी मजबूरी है।" उसने खुद ही जवाब दिया।
समझ नहीं आ रहा था कि इस हालात से कैसे निपटे।
बहरहाल, वह न चाहते हुए भी निवाले ज़हर मारने की तरह निगलती रही।
नज़र उठाकर देखा, तो साढ़े दस बज रहे थे।
"वाह! ये भी कोई नाश्ते का वक़्त है...?"
ख़ैर, अपने घर में भी तो वह हमेशा दस-ग्यारह बजे ही उठती थी। मगर इस घर में भी अब तक किसी के जागने की कोई आवाज़ नहीं आ रही थी।
पता नहीं, आफ़ाक़ किस वक़्त से उठा हुआ था...
जाने वह कहाँ सोया था...?
और फिर उठकर इस कमरे में क्यों आ गया था...?
"कुछ तो गड़बड़ है ये आदमी!"
अब भी अख़बार सामने रखे ऐसे नाश्ता कर रहा था, जैसे इस कमरे में अख़बार के अलावा कोई और अहम चीज़ ही नहीं हो।
"अल्लाह रे बेपरवाही...!"
जी चाह रहा था कि ऐसा थप्पड़ मारूँ कि इसे होश आ जाए!
ग़ुस्से से खून खौल रहा था कि अचानक बाहर शोर उठा। फिर एक झुंड अंदर आ गया।
"ओहो! ये तो उसकी सारी सहेलियाँ थीं!"
और सबसे आख़िर में अम्मी भी आ गईं।
अम्मी को देखकर वह तुरंत खड़ी हो गई। उसका दिल भर आया।
ज़िंदगी में पहली बार उसका दिल किया कि वह अम्मी के गले लगकर जी भरकर रोए।
और फिर उसने वही किया—दौड़कर अम्मी के सीने से लग गई और फूट-फूटकर रोने लगी।
माँ-बेटी का गले लगकर रोना वह हमेशा ड्रामा समझती थी, मगर आज पहली बार अहसास हुआ कि माँ होती ही किसलिए है... क्यों उसके सीने से लगकर रोने को दिल करता है... और इस तरह रोकर कैसी सुकून मिलता है...
वह गले लगी रो रही थी और अम्मी उसके गीले बालों पर हाथ फेर रही थीं।
सारी सहेलियाँ कभी आफ़ाक़ को देखतीं, कभी फ़लकी को, और कभी पूरे कमरे को।
फिर उनकी नज़रें बिस्तर पर जाकर टिक गईं—एक बेहद ख़ूबसूरत और दिलकश सेज थी।
फ़लकी का व्यवहार समझ नहीं आ रहा था।
"बस, अब बंद करो ये रोना-धोना और अम्मी को बिठाओ!"
आफ़ाक़ खड़ा हो गया और उसके बाज़ू से पकड़कर ज़ोर से झटका जैसे वह इस बाज़ू पर पूरा हक़ रखता हो।