LAGAN IN HINDI PART 1

                 

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  आफ़ाक़ आज सोची समझी स्कीम  के तहत दफ्तर देर से  था बल्कि पिछले एक हफ्ते से उसने आने के वक़्त में हैरत  अंगेज़ तब्दीलिया कर ली थी। कभी बहुत जल्दी ,और कभी बहुत देर से अचानक दफ्तर में ऐसे दाखिल होता जैसे छापा मारने की गरज़ से आया हो। 

 सारे दफ्तर के लोग इस बेहवियर से  हैरान थे क्युकि सब जानते थे कि आफ़ाक़ वक़्त की पाबन्दी का सख्ती से क़ाएल था। दुसरो को इस उसूल पर लाने के लिए वह हमेशा दफ्तर खुलने से १५,२० मिंट पहले आजाता था। कभी सड़क पर टहलता रहता और कभी मोटर में बैठ कर ज़रूरी कागज़ात देखता रहता था। कभी कभी तो दफतर की सफाई भी खत्म न होती थी की वह आजाता था। झाड़ पोंछ करता हुआ चपरासी थर थर कांपते। घडी की सुई गलत हो  सकती है पर साहब  के आने के वक़्त में तब्दीली नहीं आ सकती। जल्दी आने से इसका मक़सद भी होता की देख ले की कौन  लोग वक़्त पर आते है और कौन देर से। आजतक उसके दफ्तर का कोई भी आये चपरासी के सिवा की दफ्तर खोलना होता था कभी उसके पहले न आ सका था इसलिए इस दफ्तर की सबसे बड़ी खूबी वक़्त पर हर काम करता था। 

"अर्शी मेंशन " के दूसरे फ्लोर पर उसका दफ्तर था जिसे पांच साल पहले  उसने आकर संभाला था। उसके वालिद बदरुद्दीन हार्ट अटैक से मर गए थे उस वक़्त आफ़ाक़ अमेरिका में अस्सिटेंट के तौर पर काम करता था। उसके वालिद और चमड़ा साफ़ करने और रंगने के कारखाने थे और दो अलग अलग मुल्को को चमड़ा और चमड़े से बनने  वाली चीज़े एक्सपोर्ट था। आफ़ाक़ का एक छोटा भाई इस्हाक़ और बहन सोबिया वही अमेरिका में पढ़ते थे ,इसलिए   उनका वहा रहना ज़रूरी हो गया था। आफ़ाक़ ने फ़ौरन यहाँ आकर सारा कारोबार संभाल लिया। वह ज़िम्मेदारी  के साथ इंतिक काम करने का मिज़ाज लाया था और जानता था इस कामिल क़ौम का वाहिद इलाज उनसे  काम लेता है। सो उसने उसूल बना लिया था की वह खुद मेहनत करेगा ,दयानत दारी से अपना वक़्त देगा और  स्टाफ भी वह रखेगा जो उसके उसूल को अपनाते हुए दियानतदारी से अपने फ़राइज़ अंजाम देगा। 

हां एक बात और बराबर हो रही थी। वह ख़्वाह देर से आये या जल्दी अचानक कमरे में दाखिल हो या घंटी बजा कर। फलक नाज़ को सिर्फ एक  ही काम था। फ़ौरन रिसीवर उठा कर कुछ कहती और फिर ज़ेर लब मुस्कुराती साथ में रिसीवर रख देती। 

फलक नाज़  को इस दफ्तर में आये सिर्फ दो महीने हुए थे लेकिन उसने दफ्तर में  एक तूफ़ान मचा रखा था।  स्टाफ उसके  सामने बेबस था जिसको जो दिल में आया कह देती। जब जी चाहता काम में गड़बड़ कर देती। एक तो वह  इतनी बड़ी कार में दफ्तर आती थी की बेवजह सब पर उसका रोअब पड़ गया था। दूसरे वह हर रोज़ नए फैशन  के कपड़े पहन कर आती जबकि दूसरी लड़किया उसकी नौकरानियाँ मालूम होती। 

 वह बेचारिया भी क्या करती। उन्होंने पुरे महीने की तंगवाह में सारा महीना चलाना होता था और फलक नाज़ एक अमीर बाप  की बेटी थी। एक हज़ार रूपये में एक जोड़ा बना लेती उसके कौन सी बड़ी बात थी। फिर अल्लाह ने उसे  सूरत भी अच्छी।  उसने बिसनेस मैनजमेंट में एमए  किया हुआ था। फर फर अंग्रेजी बोलती थी। हंसी हंसी में बड़ी  बात कह जाती थी और सब लोग जानते थे की वह बहुत बड़ी सिफारिश पर इस दफ्तर में आयी थी। 

हलाकि आफ़ाक़ बहुत सख्त मिज़ाज का था। सिफारिश और रिश्वत यह दो लफ्ज़ उसकी डिशनरी में नहीं थे। महंती था मेहनती लगो को पसंद करता था गपशप ,हंसी मज़ाक़ ,या इश्क़ बाज़ी उसे पसंद नहीं थे इसीलिए वह इंटरव्यू के  वक़्त चुन चुन के ऐसी लड़किया और लड़के रखता था जो बहुत ज़रूरत मंद होते थे और पेट की इस ज़रूरत   के  आगे हर 'ज़रूरत' को बीच समझते थे इसलिए उसके दफ्तर का माहौल साफ़ सुथरा था। 

इससे पहले दफ्तर में तीन लड़किया थी तीसरी फलक नाज़ जो मैनेजमेंट ऑफिसर थी। अभी तक यह मालूम न हो सका था की उसके ज़िम्मे  कौन सा खुसूसी काम लगाया जायेगा मगर फ़िलहाल तीन महीने की एंटर शिप पर काम कर रही थी  और अभी उसकी ड्यूटी यह थी की हर महीने दफ्तर के एक आदमी के साथ मिल कर काम करे ताकि  दफ्तरी का के मक़सद का अंदाज़ा हो सके। दफ्तर में कुछ लोगो का ख्याल था शायद उसे कंप्यूटर दिया जाये या  मुमकिन है अफाक उसे अपनी प्राइवेट सेक्रेटरी के तौर पर रख ले जिसका वह क़ाएल था। वह कहता था सेक्रेटरी सिर्फ नखरा  होती है इसलिए उसके कमरे में कोई नहीं बैठता था। जब लड़कियों को काम समझाना होता था  तो वह अपने कमरे से बाहर निकल आता था। उसका ख्याल था औरत कारोबार के पेंज व खम को समझने   के  क़ाबिल नहीं होती न इस ज़मन में उसकी अक़्ल पर भरोसा किया जा  सकता है और अगर ज़रूरत से मजबूर हो कर औरत  नौकरी के लिए निकलती है तो उससे  इतना ही काम लिया जाना चाहिए जितने की वह अहल है। 

मगर जिस तरह उसने फलक नाज़ को बगैर ज़रूरत के रख लिया था और उसके लिए मेज़ कुर्सी और फ़ोन का बंदोबस्त  कर दिया था और खुद फलक नाज़ के जो अंदाज़ थे उससे सब को यही शक  होता  था की एक दिन वह बॉस के कमरे  में बैठी नज़र आएगी। 

"फलक नाज़ क्या चाहती है ?"

उसके समझ में अभी तक किसी को नहीं आयी थी। वह हर हफ्ते एक नए आदमी की मेज़ पर बैठती मगर काम में दिलचस्पी  लेने के अलावा हर बात में दिलचस्पी लेती थी। ऐसे लगता था जैसे उसे इस दफ्तर से कोई मतलब नहीं है। तो फिर यहाँ क्या लेने आगयी थी ?

यहाँ तो  वह लोग आते थे जिन्हे ज़िन्दगी की गाडी खींचना होती थी।   

यह बात एक दिन आफ़ाक़ ने सुन ली थी। फलक नाज़ का ख्याल था की आफ़ाक़ दफ्तर से जा चूका  है मगर वह अपने कमरे में था। उसने फ़ोन उठाया तो सुना। फलक नाज़ अपनी किसी सहेली से बात  कर रही थी "अरे फलकी  ! उस उल्लू को फसाया है या नहीं ?"उसकी सहेली कह रही थी। 

"अभी तो कोई सूरत नज़र नहीं आयी "

"क्यू "

"बहुत मगरूर है कम्बख्त और मुझे अपने कमरे में बुलाता ही नहीं। "

"क्या वह तुम्हारी तरफ देखता भी नहीं ?"

" है बस ऐसे ही कभी कभी सरसरी नज़र से देखता है। "

"वाह कोई तुम्हे भी नज़र अंदाज़ कर सकता है। "

"अरे यह ज़ुल्म हो रहा है और दिन दहाड़े हो रहा है "

ओह डोंट वोर्री ,डोंट बे डिस्गस्ट। एक न एक दिन तो तुम्हारे जाल में फँस जायेगा ,आज तक कौन बचा है तुमसे। 

फलक नाज़ ने दाद देने के नदाज़ में ज़ोर से हंसी। 

"अच्छा बाक़ी कल "

"ओके भूलना नहीं। रिंग करना और हर रोज़ की ताज़ा रिपोर्ट दिया करो। "

फ़ोन बंद हो गया 

"ओह्ह तो  यह इरादे है। " आफ़ाक़ ने रिसीवर निचे रख दिया 

उसके इरादों का आफ़ाक़ को क्या इल्म होता। आफ़ाक़ तो उसके बाप के दबाओ में  आगया था। शेख सदरुद्दीन मोटरो का कारोबार करते थे। शहर में उनका बोल बाला था। पश्तो के रईस थे और फलक नाज़ उनकी एकलौती बच्ची  थी। 

बेगम उन्हें इतनी मोड्रन मिली थी जो अब भी अपनी बेटी को बड़ी बहन लगती थी। छुट्टिया सविरजलैंड में गुज़रती थी और सर्दियों  की शॉपिंग करने के लिए पेरिस और अमेरिका में हर साल जाती  जैस गाँव के लोग लाहौर खरीद फरोख्त  के लिए आते हो। 

बेटी ज़रूरत से ज़्यादा आज़ाद ख्याल थी और माँ बेटी की आज़ादी को जवानी का हुस्न कहती थी इसलिए शेख सदरुद्दीन  की घर में एक  न चलती थी। 

आफ़ाक़ को शेख सदरुद्दीन से कोई ज़रूरी काम था और उस रोज़ वह उन्हें मिलने उनके घर गया था इसलिए भी  की शेख सदरुद्दीन उसके बाप के अच्छे दोस्तों में से थे।  वह उनका अहतराम करता था। पन्द्रह मिनट की बात चीत  के बाद जब वह बाहर आया तो शेख भी उनके साथ  बाहर आगये। मोटर के पास खड़े हो कर उन्होंने चंद बाते की  .उसी वक़्त फलक नाज़ तैयार  हो कर क्लब जा रही थी। बाहर निकलने से पहले उसकी नज़र आफ़ाक़ पर पड़ी  .

कितना शानदार मर्द था। इससे पहले इतना अच्छा आदमी उसने नहीं देखा था। फिर उसने फलक नाज़ के डैडी से हाथ  मिलाया। अपनी गाडी का दरवाज़ा खोला बड़े स्टाइल से स्ट्रिंग घुमाया और तेज़ी से बाहर निकल गया। फलक नाज़  मोटर की चाभियाँ घुमाती हुई बाहर आगयी। आज उसकी सज धज गज़ब की थी। काश ! वह पहले बाहर निकल  आयी होती और वह उस पर एक नज़र डाल ही लेता। 

मगर अफ़सोस अब तो वह बाहर निकल गया था। 

हंसती हुई डैडी के पास आयी और बोली ' यह कौन थे डैडी ?"

"यह आफ़ाक़ था मेरे दोस्त का बेटा। "

" क्या करता है ?यहाँ क्यू आया था ?"उसने बड़ी दिलचस्पी से  उन सवालात के जवाब हासिल किये। 

यहाँ  तक की उस रात डाइरेक्टरी में से आफ़ाक़ के घर और दफ्तर का फ़ोन नंबर भी तलाश कर लिया मगर फिर उसने सोचा की इस तरह फ़ोन करना ठीक नहीं है। वह तो घायल   करने के फन से वाक़िफ़ थी और जानती थी की  मर्द को किस तरह अपना दीवाना बनाते है। खुद  फ़ोन करके पहल न करना चाहती थी। कोई तरकीब  सोचने लग गयी। और तरकीब फ़ौरन उसके ज़हन में आगयी। 

बस डैडी को मनाने में इतने दिन लग गए। डैडी इसकी बात को लतीफे की तरह सुनते और कह कर टाल देते। आखिर उसे  मम्मी को हम ख्याल करना पड़ा। 

मम्मी ने कहा 'क्या हर्ज है अगर वह कुछ अरसा नौकरी करले तो। घर में पड़ी पड़ी बोर होती है। अच्छा है किसी काम  तो लगेगी। "

"मगर उसको नौकरी की ज़रूरत ही क्या है ?' डैडी बार बार पूछते। 

मगर डैडी की आज तक मम्मी के आगे एक न चली थी। अब कैसे मुमकिन था की मम्मी हार जाती। न सिर्फ यह की  डैडी को इजाज़त देना पड़ी बल्कि उन्हें वादा भी करना पड़ा की वह आफ़ाक़ के पास सिफारिश के लिए खुद जायेंगे  और उसे हर क़ीमत पर फलक नाज़ को अपने दफ्तर में रखना पड़ेगा। 

मगर  वह जानते थे उनकी लड़की किसी काम की अहल नहीं है बल्कि मुमकिन था वह अफाक के लिए एक सर दर्द  साबित हो। 

और यह बात उन्होंने आफ़ाक़ से साफ़ साफ़ कह दी थी और उसके अलावा भी बहुत कुछ कहा था जिसे सुन कर आफ़ाक़  बहुत मुतास्सिर हुआ था।  एक बाप  के मुंह से इतनी साफ़ गोई की उसे उम्मीद  नहीं थी। आफ़ाक़ ने उनसे  वादा किया था कि फलक नाज़ को कोई गड़बड़ न करने देगा। 

और शेख सदररुद्दीन उसका शुक्रिया अदा करके चले गए थे। 

दूसरे रोज़ क़ायदे  मुताबिक़ फलक नाज़ ने अपनी अर्ज़ी टाइप करा के दफ्तर में भेज दी थी और हफ्ते के बाद उसे इंटरवीव के लिए बुलाया गया था। 

इंटरव्यू के दिन वह पहली बार आफ़ाक़ के सामने जा रही थी इसलिए एक खास अंदाज़ से जाना चाहती थी। उसने अपनी वार्ड रॉब खोली और कपड़ो का इंतेखाब करने लगी उसने सोचा वह झालरों वाली मैक्सी पहन कर जाये जो पिछले  साल मम्मी पेरिस से लायी थी। फिर उसने सोचा नहीं, दफ्तर मैक्सी नहीं चलेगी। मैक्सी तो बाद में कई मर्तबा पहनी जा सकेगी। 

फ्लिपर सूट ठीक रहेगा। मगर जींस और ब्लाउज में वह शानदार नज़र आएगी लेकिन कोई साड़ी क्यू न पहन ले। उसके साथ  जुड़ा भी लगाना पड़ेगा और लोग कहते थे साड़ी और जूड़े में वह बड़ी बड़ी लगती है और वह तो अभी सिर्फ  तेईस बरस की है। सो इंटरव्यू के रोज़ बहुत मासूम और भोली भाली नज़र आना चाहिए। उसने आखिर कार एक नफीस  सा प्रिंटेड सूट चुना। उसका हमरंग दुपट्टा। बहुत क़रीने से एक चुटिया बनाई और उसमे मस्नूई बाल बना लिए  और हल्का हल्का मेकअप इस तरह किया की चेहरे के पुर कशिश हिस्से और नुमाया हो गए। सर को दुपट्टे  से ढके हुए और इंटरव्यू के लिए दाखिल हुई। उसके आने से पहले आफ़ाक़ ने उसके लिए हिदायत जारी  थी और अपने  मैनेजर को बुला कर कहा था इस लड़की के लिए मेज़ कुर्सी का बंदोबस्त कर दिया जाये और उसे अपार्टमेंट  लीडर भी इशू कर दिया जाये। सारा दिन वह मेज़ कुर्सी पर बैठी अंदर से बुलावा आने का इंतज़ार करती रही  मगर उसे अंदर नहीं बुलाया गया। 

तब उसने देखा ,एक बजे के क़रीब आफ़ाक़ दफ्तर से निकल कर जा रहा है। वह उसके पीछे लपकी और बोली "सर मैं  इंटरव्यू के लिए आयी थी। 

आफ़ाक़ ने उसे मुड़ कर देखा और बोला "आपको अपॉइनमेंट लेटर मिल गया है ?"

" जी सर। 

" तो बस ,आपका इंतेखाब हो चूका है। इंटरव्यू की क्या ज़रूरत है। कल से दफ्तर आ जाईये। 

किस क़द्र बोर आदमी है। उसने दिल में सोचा ,अच्छा हुआ वह ज़्यादा बन ठन कर नहीं आयी थी वरना सब जाया  हो जाता  . 

लड़की खासी माक़ूल नज़र आती है ,आफ़ाक़ ने दिल में सोचता जा रहा था ,बहरहाल देखंगे। 

 उसने ज़िन्दगी की सख्तिया देखी थी। उसका बाप बहुत ज़हीन और बा उसूल था। एक मामूली आदमी से गैर मामूली  बना था और उसने अपने बेटे को भी ऐसी ही तरबियत दी थी। उसको बताया था की इंसान खुद ज़िन्दगी की क़द्रे  बनाता है वह अपनी ज़िन्दगी को बनाने और बिगाड़ने का ज़िम्मेदार होता है। लेकिन जब वह जवानी के मुंह ज़ोर घोड़े सवार हो तो बांगे इस इस मज़बूती से पकडे कि कभी यह घोड़ा नफ़्स के इशारो बिदक सके। यही से ज़िन्दगी का मतलब  समझना आता है और आदमी अपने जाने के दुनिया में न खत्म होने वाली कहानिया छोड़ जाता  है। बाप दादा की दौलत पर अपने नफ़्स का गुलाम हो जाना कमतरी की निशानिया है। जो कुछ तुम्हारे बाप दादा ने  मेहनत से तुम्हारे लिए बनाया हो उसमे अपनी मेहनत का भी हिस्सा डालो ताकि साथ साथ तुम्हारी औलाद को मेहनत  और दियानत में से भी मिले और तुम्हारी आने वाली नस्ले तबाही व बर्बादी से बच जाये वरना तारिख  तो यही कहती है की  या तीसरी नस्ल की  कम सिनी की वजह से हमेशा बाप दादा का असासा और नेक खत्म हो गयी। 

आफ़ाक़ को बाप ने बहुत सख्ती में रखा था। बिगड़ा हुआ रईस ज़ादा नहीं था। इसलिए वह बड़ा खूब सूरत इंसान बन  गया था और खूब जानता था कि बिगड़ी नस्ल को  किस तरह थी ठीक किया जाता है। कई लोग  अपने नौजवान  लड़को  को काम से रगबत दिलाने  के लिए उसका मदद  कर चुके थे बल्कि वह उन्हें अपने दफ्तर में रख  कर उनकी मदद करता था। 

  अब एक लड़की उसके हवाले कर दी गयी थी। बहरहाल उसको देखना था कि वह कहा तक बिगड़ी हुई है।उसने  फलक  के हाथ कोई खास काम नहीं लगाया था। वह देखना   चाहता था की यह रईस ज़ादी क्या कर सकती  है ?इसलिए उसने तीन महीने के लिए उसे ट्रेनिंग पर रख छोड़ा था ताकि वह दफ्तर में होने वाले  हर काम  से शनासाई  पैदा करले फिर कोई एक काम उसके हवाले किया जाना था। दफ्तर में हर एक की मेज़ पर टेलीफोन मौजूद था  .जिसका ब्राहे रास्त कनेक्शन आफ़ाक़ के फ़ोन से था। 

इसलिए उसे फौरन  मालूम हो जाता था कि कोनसा फ़ोन जाती इस्तेमाल में से और कितना वक़्त पर जाया किया जा रहा  है। 

फलक नाज़ लगभग इन बातो से बेखबर थी  .इसलिए वह अक्सर फ़ोन पर जाती क़िस्म के राब्ते पैदा करती और कई कई  मिनट बातो में जाया करती थी। ऐसे भी दिन में उसके कई फ़ोन आते थे। 

वैसे तो आफ़ाक़ को दुसरो की प्राइवेट बाते सुनने का शौक़ नहीं था ,न उसके पास वक़्त होता था। मगर जब पहले दिन फलक नाज़  की बाते उसके कान पड़ी तो उसे इंट्रेस्ट हुआ की मालूम करे यह लड़की यहाँ क्यू आयी है और इसके  इरादे क्या है। 

फिर जब उसे मौक़ा मिलता वह  फलक नाज़ की बाते सुनने की कोशिश करता ,वह दिन में कई बार लड़को और लड़कियों  से क्या बाते करती ,शाम गुज़ारने और पिक्चर देखने के लिए प्रोग्राम बनाती। लड़के बड़े जज़्बाती अंदाज़ में  बाते करते थे और उनके प्रोग्रामो में शामिल न होने पर सख्त सुस्त बाते करते थे ,मगर हमेशा हंस कर यह कहती  की वह खास मिशन पर आयी है ,इसलिए उसके गैर मौजूदगी को बर्दाश्त किया जाये। 

मगर उसकी एक ख़ास सहेली थी पिंकी ,जिसके साथ वह हर क़िस्म की बात कर लिया करती थी। वह वह रोज़ाना लगभग  दो बार फ़ोन किया करती थी।  उसको दफ्तर के बारे में वह रोज़ाना का हाल बताया करती थी। 

एक दिन अफाक ने सुना , वह  अपनी सहेली से कह रही थी : "अभी तक मेरा कोई टेक्निक काम नहीं हुआ पिंकी ,सख्त बोर हो गयी हु। "

"तो फिर छुट्टी करो यार ,"उसकी सहेली ने कहा "तीन हर्फ़ भेजो उस पर ,और आजाओ कोई और शिकार तलाश करो। "

"आ जाऊं ? वाह ! आज तक मैंने  कभी हार मानी है ?फलकी इंकार का लफ्ज़ सुनने की आदत नहीं है ,बस मौक़ा  मिलने की देर है। बच के न जाने दूंगी। मैंने तो उसको फसाने की क़सम खा रखी है। "

"क्या पता शादी शुदा हो ?"

"जी नहीं ,मैंने सब मालूमात कर ली है गलबुर्ग में अकेला रहता है। "

"तो फिर घर पर छापा मारो। "

"नहीं ,इस तरह मेरा मिशन खराब हो जायेगा। "

"तो फिर क्या करोगी /"

"यार मैं शादी को फ़ुज़ूल  चीज़ समझती हु ,लेकिन अगर इससे शादी करनी पड़ी तो कर लुंगी और शादी के बाद  इतने  जूते लगाउंगी कि हाथ जोड़ता फिरेगा। "

wish you a great success 

उसकी सहेली ने हंस कर कहा। 

" मैं उसे अपने इश्क़ में गिरफ्तार करके छोडूंगी। यह मेरा आखरी फैसला है। "

"अच्छा "

"मुझे बताती रहना "

"ज़रूर बताउंगी "

फ़ोन बंद हो गया। 

दूसरे दिन आफ़ाक़ ने फलक नाज़ को अपने कमरे में बुला भेजा। 

क्या क्या उमीदे लेकर वह मटकती लचकती वहा पहुंची। 

उसने बड़े गौर से उसका सरापा देखा और फिर उसे कुर्सी पर बैठ जाने को कहा। 

वह मुस्कुराती हुई अदा से कुर्सी पर बैठ गयी।

उसने बड़े शाहिस्ता लहजे में उसका हाल पूछा और फिर बोला :

"मेरे दफ्तर में आपका दिल लग गया होगा ?'

जी जी " उसने ज़रा हँसते हुए जवाब दिया। 

" अगर कभी कोई प्रॉब्लम  हो तो मुझे बताईये। "

"जी.... अच्छा अच्छा " ख़ुशी  के मारे उसका दिल धड़कने लगा "सर ! अभी तो कोई ऐसी बात नहीं। यह इतना अच्छा दफ्तर  है और काम करने का तरीक़ा इतना प्रैक्टिकल है की मेरा तो वैसे भी दिल लग गया है। "

"हूँ  " अफाक संजीदा हो गया। 

" अब आप जा सकती है। "

वह घबरा कर खड़ी हो गयी। आफ़ाक़ की तरफ देखा। वह ज़रा देर पहले वाली नरमी उसके चेहरे पर न थी। खुरदरे  चेहरे के साथ वह कागज़ात देख रहा था। 

फलक नाज़ को उसका यह अंदाज़ बहुत बुरा लगा। 

बहरहाल उसे कमरे से बाहर आना था। 

बाहर आयी तो हर नज़र सवाल बानी हुई थी। तब उसे ख़याल आया। आज कोई बहुत अनहोनी बात हो गयी है। 

कुर्सी पर बैठते ही वह हवाओ में उड़ने लगी। जब उसकी सांस मुतवाज़ींन हुई तो  उसने पिंकी का नंबर मिलाया। 

" पिंकी ,बर्फ पिघलनी शुरू हो गयी है। "

"अच्छा ,मुबारक हो। मगर यह हुआ  कैसे ?"

"बस ! समझ लो तुम्हारी फलकी की हिद्दत कोई नज़र अंदाज़ नहीं कर सकता। "

"मैं मानती हु। "

"तो अब पत्थर अपनी जगह से हिलना शुरू हुआ है। "

"जल्दी से सब कुछ बताओ ,क्या बाते हुई ,वगैरा वगैरा। "

'वगैरा वगैरा की बच्ची ,यह सब दफ्तर में फ़ोन पर नहीं बताया जा सकता। शाम को घर आकर बताउंगी। "

आफ़ाक़ ने फ़ोन पर सारी बात सुनी। 

फिर उसके बाद वह हफ्ते में एक बार उसे दफ्तर में बुलाता और यूँही सरसरी सी बात करके बाहर भेज देता ,यह देखने  के लिए की वह फ़ोन पर क्या कहती है। 

बाहर आते  ही वह अपनी सहेली को मुबालगा अमेज़ बाते बताया करती। 

इतनी बाते मालूम करने के बाउजूद  अभी तक आफ़ाक़ को यह इल्म नहीं हो सका था की जब वह कमरे में दाखिल  होता है तो वह रिसीवर  उठा कर अपनी सहेली से क्या कहती है ?वह  एक बार सुन्ना चाहता था। 

उस काम के लिए उसने अपने एक दोस्त फ़ारूक़ को बुलाया। दूसरे रोज़ फ़ारूक़ को लेकर दफ्तर पंहुचा। जब चपरासी  सफाई करके जा चूका तो आफ़ाक़ फ़ारूक़ को लेकर अपने  कमरे में गया। उसे ज़रूरी हिदायत दी और  टेप रेकॉर्डर के बारे में समझा दिया जो अक्सर  उसकी मेज़ की दराज़ में पड़ा रहता था की सुबह से शाम तक जितनी कॉल्स   दफ्तर से बाहर जाएँ ,उन्हें टेप किया जाये खास फलक नाज़ की हर बात रिकॉर्ड की गयी। 

फ़ारूक़ को अपने कमरे में बिठा कर न मालूम  आफ़ाक़ किस वक़्त बाहर निकल गया था कि चपरासी को मालूम नहीं हुआ  .वैसे उसकी मौजूदगी में कोई उसके कमरे में जाता ही नहीं था। इसलिए फ़ारूक़ मज़े से फ़ोन कान से लगाए बैठा रहा। 

 इस रोज़ आफ़ाक़ तक़रीबन एक बजे दफ्तर में दाखिल  हुआ जब कि लंच टाइम हुआ चाहता था ,फलक नाज़ ने हस्बे  आदत रिसीवर उठा लिया ,कुछ कहा और मुस्कुरा कर रख दिया। 

आफ़ाक़ उसके क़रीब से इस तरह गुज़र गया जैसे उसने कुछ न देखा और न महसूस किया। 

आफ़ाक़ जैसे अपने कमरे में दाखिल हुआ ,फ़ारूक़ खड़ा हो गया। 

"  बड़ी सख्त ड्यूटी लगा गए थे यार !  आज तो इस  कुर्सी पर बैठे बैठे अकड़ गया हो। "

" मज़बूरी थी ,आफ़ाक़ अपनी कुर्सी पर बैठते हुए बोला। 

" चाय पिओगे ?" साथ ही उसने घंटी बजा कर चपरासी को बुलाया और चाय का कह दिया। 

"काम किया या नहीं ?'

"कर लिया " फ़ारूक़ बोला। 

"टेप सुनाओ '

" यार बड़ी तेज़ लड़की है ,सुबह से लेकर अब तक उसने बीसियों लड़को को फ़ोन किया है और सैकड़ो फ़ोन उसके नाम  आ चुके है। हर लड़के से उसने बड़ी बे हिजाबाना बाते की है। अपने हुस्न पर उसे बड़ा नाज़ है और नए  नए लोगो को  फंसाना उसका महबूब मशगला ,मैं तो यही समझ सका हु "

"समझा तो मैं बहुत कुछ हु ,मगर अभी समझाने का वक़्त नहीं आया। "

चपरासी चाय लेकर आगया। प्यालिया मेज़ पर लगा कर चाय बनाने लगा। 

आफ़ाक़ ने हाथ के इशारे से उसे जाने के लिए कहा और खुद चाय बनाने लगा। 

फ़ारूक़ ने उठ कर टेप लगा दी। 

मुख्तलिफ आवाज़े गूजने लगी। 

और फिर सबसे आखिर में एक अजीब फुकरा सुनाई दिया। 

" here comes the snob

 फुकरे को सुन कर दोनों खिलखिला कर हसने लगे। 

" अच्छा जब मैं कमरे में दाखिल होता हु तो मोहतरमा इस तरह मेरा सवागत करती है। "

जी हां ! जैसे तुम अंदर दाखिल होते हो ,वह अपनी सहेली को खबरदार करती हैं और सिर्फ इतना कहती है और फ़ोन  बंद कर देती है। "

" वैसे अच्छा नाम रखा है उसने तुम्हारा " फ़ारूक़ ने कहा। 

" जी हां " आफ़ाक़ गहरी सोच में था। 

" क्या सोच  रहे हो "

" शेख सदरुद्दीन को जानते हो ?"

" हां ,बड़ा भला आदमी है "

" मैं भी उन्ही के बारे में सोच रहा था। एक बाप की इल्तिजा मेरे कानो में अक्सर गूंजा करती है। "

" हां ,औलाद उम्मीद के खिलाफ हो तो पेरेंट्स शर्मिंदा नज़र आते है। "

"बहरहाल ,कुछ न कुछ करना ही होगा। "

" क्या करोगे "

" तुम देखते जाओ " 


                                                  (जारी है )

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