INS WA JAAN PART 12



 हां—तो मेरे बच्चो—आज मैं एक अहम ऐलान करने वाला हूं, बल्कि एक खुशखबरी सुनाने वाला हूं।

उन्होंने खंखारते हुए सबको अपनी तरफ़ मुतवज्जा किया।

"भई, अल्लाह का लाख-लाख शुक्र है कि उसने मुझे औलाद जैसी नेमत से नवाज़ा और उसे फ़रमाबरदार बनाया। पता ही नहीं चला—कब मेरी शादी हुई थी—फिर मेरे बच्चों की—और अब उनके बच्चों की शादी का वक्त आ गया है।
अच्छा है कि रिश्ते खानदान में ही हो जाएं, ताकि हम लोग भी बेफिक्र रहें।"

वो ठहर-ठहर के बोल रहे थे।

"मैंने अपने एक पोते का रिश्ता अपनी एक नवासी से तय कर दिया है। मेरा ख्याल है कि बच्चे एक-दूसरे को पसंद भी करते हैं।"

दबी-दबी हंसी फिज़ा में घुलने लगी।

"और दोनों के मां-बाप भी इस रिश्ते से बहुत खुश हैं।"

अब्दुल्ला के हलक में निवाला जैसे अटक गया। वो दम साधे सुन रहा था—जैसे रोज़े-महशर हो और कोई अपनी तक़दीर के फ़ैसले का इंतज़ार कर रहा हो।

"सब बच्चे यहां जमा हैं—कल एक छोटी-सी रस्म कर लेंगे।"

"दादा जी, किसकी बात हो रही है?"
हारून से अब और बर्दाश्त नहीं हुआ तो वो बोल उठा।

"ओहो, यह तो मैं बताना भूल ही गया!" उन्होंने अपने सिर पर हाथ मारा।

"भई, अपने अब्दुल्ला और साल्विया बच्ची की बात हो रही है—कल दोपहर दोनों की मंगनी है।"

अब्दुल्ला जो पानी का गिलास उठाने वाला था, उसका बढ़ता हाथ वहीं रुक गया—और उसके चारों तरफ़ जैसे बम फटने लगे।

हर तरफ़ से मुबारकबाद की आवाज़ें उठ रही थीं, पर वो जैसे बहरा हो गया था। उसका दिमाग सुन्न हो चुका था और उसमें सारी बातें गड्ड-मड्ड हो रही थीं।

परी की बातें—बाबा जी की नसीहतें—साल्विया के मायनेख़ेज़ जुमले—और उसकी मां के फ़रज़ी ख्यालात…

जो किचन के बाहर सब कुछ सुन चुकी थी और ये समझ बैठी थी कि अब्दुल्ला साल्विया को पसंद करता है।

माओं को अपनी औलाद के बारे में कितना यक़ीन होता है!

उन्होंने अब्दुल्ला की कोई बात सुनी ही नहीं थी—ना उससे दोबारा पूछा था—ना कोई मशवरा लिया था।

क्योंकि उन्हें यक़ीन था कि अपनी कोख में पलने वाले बेटे को वो अच्छी तरह जानती हैं और उसे कभी ग़लत नहीं समझ सकतीं।

पर कभी-कभी मांएं औलाद को समझने में ग़लती कर देती हैं…

क्योंकि वो सारी ज़िंदगी उसे वही मासूम बच्चा समझती हैं जो हर वक्त उनके आंचल से लिपटा रहता था।

पर यह ज़माना—यह रंग-बिरंगी दुनिया बड़ी ज़ालिम है!

यह मां से उसका मासूम बच्चा छीन लेती है, उसकी सिखाई हुई रवायतों को मिट्टी में मिला देती है—और उसे वो कुछ सिखा देती है कि फिर मां अपनी ही औलाद को समझने में ग़लती कर बैठती है।

मां ग़लत नहीं होती—शायद औलाद इतनी बड़ी हो जाती है कि मां की समझ छोटी पड़ जाती है।

ज़ीनत ने यही समझा था कि अब्दुल्ला साल्विया से शादी करना चाहता है।

और अब्दुल्ला के मुंह में ज़बरदस्ती किसी ने मिठाई ठूंसी।

और उसने सन्नाटे में देखा कि साल्विया शरम से लाल होते हुए वहां से भाग गई।

उसके चेहरे पर मनचाहे को पाने की ऐसी खुशी थी कि जितने रंग इंद्रधनुष में भी ना समा सकें।

एक की खुशी—दूसरे का ग़म थी…
एक का पाना—दूसरे का खोना था…
एक का नसीब—दूसरे की बदनसीबी थी…

तक़दीर लिखने वाला अपने फ़ैसलों में आज़ाद है—
उसका कोई हमसर है, ना कोई मुशीर।


न गरमी थी—ना दिन उमस से भरे थे—ना ही सूरज आग बरसा रहा था—पर दिल था कि घुटा जा रहा था।

जैसे किसी परिंदे को उसके कुदरती बसेरे से निकालकर पिंजरे में क़ैद कर दिया जाए—और वो वहां से बाहर की खुली फिज़ाओं को दिलगिरफ़्तगी से ताके।

वो उड़ सकता है—पर उड़ नहीं सकता।

इंसान भी बेमज़बूरियों में क़ैद होते हैं—बिल्कुल उसी बेज़ुबान परिंदे की तरह…

और अब्दुल्ला क़ैद हो गया था।

उसका दम घुटा जा रहा था।

दिल बग़ावत कर रहा था।

ज़िंदगी एकदम से मुश्किल लगने लगी थी…

वो बांध दिया गया था क़िस्मत की ज़ंजीरों से।


अब्दुल्ला अपने कमरे में बैठा बे-मक़सद दीवारों को घूर रहा था।

छुट्टियां खत्म हो रही थीं—एक-एक कर मेहमान वापसी की तैयारी कर रहे थे।

साल्विया उसी शाम वापस चली गई थी।

"अब्दुल्ला..."

किसी जानी-पहचानी आवाज़ ने उसे पुकारा।

एक धुंधला सा अक्स साफ़ होने लगा…

वो उसके सामने खड़ी थी।

"तुम इंसान भी ऐसे ही होते हो? जला देने वाले?"

"तुम तो आग से नहीं बने—गोश्त-पोस्त और मिट्टी के बने हो।
मिट्टी तो किसी भी सांचे में ढल जाती है—पर आग सिर्फ़ जलाना जानती है।"

"तुमने ऐसा क्यों किया?"

वो आंखों में आंसू लिए उसके सामने सवाल बनकर खड़ी थी।

"तुम रो रही हो, परी?"

वो बिस्तर से उठकर उसके क़रीब आया।

"हां—अगर मैं इंसानों में से नहीं तो इसका मतलब ये तो नहीं कि मुझमें एहसास नहीं!"

"मेरी मोहब्बत नाटक थी? सिर्फ़ दिखावा?"

वो कुर्सी पर ढह गया।

"मैं खुद मजबूर हूं, परी। मैं क्या करता?"

"तुम ही बताओ। मैंने तुमसे कोई धोखा नहीं किया और ना ही इस मसले में शामिल था!"

वो उसके सामने बैठी सिर झुकाए आंसू बहा रही थी।

उसकी सिसकियां कमरे की ख़ामोशी में दरारें डाल रही थीं।

कभी-कभी कितना मुश्किल होता है किसी रोते हुए इंसान को चुप कराना—और जब उसकी तकलीफ़ की वजह भी आप ही हों।

अब्दुल्ला उसे चुपचाप देख रहा था।

उसके दिमाग में कई ख्याल आ रहे थे।

"परी, अभी चलो मेरे साथ। हम अभी निकाह करेंगे!"

काफ़ी देर बाद वो किसी नतीजे पर पहुंचा।

"क्या कह रहे हो?"

वो आंसू पोंछते हुए बोली।

"हां, मैंने फैसला कर लिया है!"

और तुम्हारे घरवाले-? उन्हें क्या मुँह दिखाओगे-?
इस बात को छोड़ो परी- तुम उनके सामने मत आना - उन्हें कभी भी पता नहीं चलेगा।
यानी तुम मुझे उनसे छुपाकर रखना चाहते हो-?
फिलहाल यही बेहतर है।
तुम चलो बस-- मैं यहाँ से निकलता हूँ, तुम मुझे बाहर मिलना।
वह दुविधा में नजर आ रही थी।
कुछ नहीं होता -- मैं हूँ ना--
नीली आँखें मुस्कान में ढल गईं और अगले ही पल, अब्दुल्लाह वहाँ अकेला था।


मलिका-ए-कैसार (पहाड़ों की रानी) पर सर्दियों का मौसम बीत चुका था। सारे संस्थान फिर से खुल गए थे। जमी हुई ज़िंदगी, सूरज की तपिश से कतरा-कतरा पिघल रही थी।
मास्टर अयूब का मेहमानों से भरा घर अब सिर्फ अपने स्थायी निवासियों को समेटे, पूरी शान से सिर उठाए पहाड़ों को निहार रहा था। उसके सफेद दीवार-दरवाजे, सूरज की किरणों से टकराकर और भी सफेद नज़र आने लगे थे।
मास्टर अयूब अपनी बरसों पुरानी परंपरा निभाते हुए, अब भी अपने स्कूल के अहाते में बच्चों को सामने बिठाकर कहानियाँ सुनाते थे। उनके सिर पर चमकता सूरज उतने ही ध्यान से उनकी बातें सुनता था, जितने ध्यान से सामने बैठे उत्सुक चेहरे।
और स्कूल की सभी खिड़कियाँ, पेड़ और बेल-बूटे बिल्कुल वैसे ही चुपचाप हँसते लगते थे, जैसे मास्टर साहब किसी बच्चे की मासूम बात पर हल्की मुस्कान बिखेरते थे।
बर्फ के बोझ तले दबे पेड़ों ने सर्दियों के खत्म होने पर सुकून की सांस ली थी और उन पर बैठे परिंदे अपनी-अपनी बोली में रब ताअला की तस्बीह पढ़ रहे थे। पहाड़ हालांकि अभी भी अपने सिर पर बर्फ की चादर जमाए आराम फरमाते लग रहे थे।
इब्राहीम हाउस का लेडीज़ पार्लर फिर से आबाद हो गया था और शमा उसमें आते-जाते ग्राहकों के साथ व्यस्त नज़र आती थी।

बच्चों के स्कूल जाने के बाद, दादो धूप सेंकने के लिए लॉन में आ बैठतीं और हमेशा की तरह तेजी से सिलाई करते हुए कोई न कोई नया स्वेटर बुनती रहतीं।
चूं-चूं करती चिड़ियाँ लॉन में रखे बाजरे के कटोरों पर आकर पूरे अधिकार से अपना खाना खातीं और कभी-कभी जगह न मिलने पर एक-दूसरे को चोंच मारकर भगा देतीं।
और कभी-कभी जाने ऐसा क्या होता कि गर्दन के बाल फुलाए, गुस्से से चिल्लाती कुछ चिड़ियों का झुंड, अपने ही किसी साथी पर टूट पड़ता और लगातार उस पर हमले करता।

"हाय हाय! देखो कैसे बेचारी को मार-मार कर अधमरा कर दिया है। अरे तुम्हारी कौन-सी ज़मीन-जायदाद है, जिसके लिए लड़ती हो? झल्ली कहीं की!"
दादो उन्हें लड़ता देख कर यूँ कहतीं, जैसे वे उनकी भाषा समझती हों।

अक्सर ऐसा होता कि वे अपना काम अधूरा छोड़कर चिड़ियों की हरकतें देखने लगतीं—
जब वे एक डाल से दूसरी पर फुदकतीं, या आराम से किसी ऊँची शाख पर बैठकर अपने पंख संवारतीं, या अपनी नन्हीं आँखें बंद करके सोने की कोशिश करतीं और फिर ज़रा-सी आहट पर चौकन्नी होकर इधर-उधर देखने लगतीं।
उनके छोटे से जिस्म में मौजूद नाज़ुक सा दिल दूर से ही तेज़ धड़कता नज़र आता।
दादो को उन्हें देखना बहुत अच्छा लगता था।
कभी-कभी कोई अनोखा पहाड़ी परिंदा अपने रंग-बिरंगे पंखों की झलक दिखाते हुए ऊपर से उड़ता गुजरता तो वे अनायास ही "सुब्हान अल्लाह!" कह उठतीं और उसे दूर तक देखती रहतीं।
फितरत के हुस्न को देखने और सराहने के लिए उनके पास वक्त ही वक्त था। वे दूसरी बुजुर्ग महिलाओं की तरह गली-मोहल्ले की बातों में ज्यादा दिलचस्पी नहीं लेती थीं।

बच्चे स्कूल से आकर खाना खा रहे थे और उसके बाद उन्होंने जमकर धमाचौकड़ी मचानी थी। अक्सर पड़ोस के बच्चे भी इस "कार-ए-खैर" में हिस्सा लेने आ जाते या इस घर के बच्चे वहाँ जाकर हंगामा मचा आते।
धूप धीरे-धीरे दीवार से लगती जा रही थी। दादो वहीं कुर्सी डाले बैठी थीं और बच्चे "टीचर-टीचर" खेल रहे थे। जबराईल मास्टर बना सबको पढ़ा रहा था और बाकी सब सामने पालथी मारकर बैठे थे।
शज़ा सात साल की होने को थी और अब सेकंड क्लास में आ गई थी। उसे काफी हद तक पढ़ना-लिखना आ गया था।
उसके साथ पड़ोस की दो और बच्चियाँ खेलने आती थीं। अब तीनों किसी बात पर झगड़ रही थीं।

"हाय! शज़ा तुम्हें शर्म नहीं आती? मैं तुम्हारी मम्मा को बताऊँगी!"
"जाओ बता दो, मुझे कौन-सा डर लगता है!"
"हा! तुम अपनी मम्मा से नहीं डरती?" दूसरी बच्ची ने बड़ी बीवी की तरह नाक पर उंगली रखकर कहा।
"तुम कितनी बदतमीज़ हो... वेरी बैड!"

"क्या बात हो गई, बच्चों?"
दादो पास आकर बोलीं।
"दादो, यह देखिए शज़ा ने क्या लिखा है!"
बच्ची ने उनके हाथ में एक कागज़ थमा दिया।
दादो को उर्दू पढ़नी आती थी। उन्होंने चश्मा ठीक किया और पढ़ने लगीं।

जैसे-जैसे वे पढ़ती जा रही थीं, उनका चेहरा लाल होता जा रहा था।
"यह तूने लिखा है, शज़ा?"
"जी दादो, इसी ने मुझे लिखकर दिया है," बच्ची ने तस्दीक की।
दादो ने दो-तीन थप्पड़ चटाख से शज़ा को रसीद किए।
उसने जवाब में पास खड़े फ़ाइक को एक तमाचा मारा और धक्का देकर नीचे गिरा दिया।

दादो ने उसके दोनों हाथ पकड़ लिए।
"यह सब कहाँ से सीखा तूने? किसने सिखाई हैं तुझे इतनी बड़ी-बड़ी बातें?"
दादो लाल-भभूका चेहरा लिए उसे झकझोर रही थीं। उनका दिमाग चकराने लगा था—
एक सात साल की बच्ची इतनी बड़ी-बड़ी बातें कैसे लिख सकती थी?

फ़ाइक ज़ोर-ज़ोर से रोने लगा।
शोर-शराबा सुनकर शमा भी बाहर आ गई।

"क्या हो गया, ख़ाला?"
"यह देख--- यह इसके करतूत!" उन्होंने बिना किसी लिहाज़ के कहा।
"बहुत अच्छी परवरिश कर रहा है यह मनहूस टीवी तुम्हारी औलाद की! मैं तो कहती हूँ घर बिठाओ ऐसी औलाद को और दिन-रात टीवी के सामने चिपका दो! बहुत नाम रौशन करेगी माँ-बाप का!"
दादो ने कागज़ शमा के हाथ में थमा दिया।

शमा ने उसे पढ़कर बेइख्तियार मुँह पर हाथ रख लिया।
उसमें ऐसे अल्फ़ाज़ लिखे थे, जो कोई यकीन नहीं कर सकता था कि सेकंड क्लास की बच्ची लिख सकती है!
उसे कार्टून दिखाने के बहाने, वह असल में वे फिल्में देख रही थी जिन्हें कोई भी शर्मदार इंसान देखे तो खुद से भी शर्म आ जाए।
उसने जो कुछ देखा था, उसे हूबहू अल्फ़ाज़ में उतार दिया था।

"तुझे तो मैं कार्टून लगाकर देती थी! तू फिल्में देखती रही?"
"तुझे शर्म नहीं आती?"
अब शमा ने भी उसे एक थप्पड़ जड़ दिया।

"इसे क्यों शर्म आएगी? तू इसकी माँ है या यह तेरी माँ है?"
दादो ने बहू को लताड़ा।
"यह तो वही बात हो गई--- खुद बन-ठन कर बाहर निकलो और हर घूरने वाले की आँखें फोड़ते फिरो!"
दादो ऊँची आवाज़ में बड़बड़ाते हुए अपना सामान समेटने लगीं।
धूप अब दीवार पर चढ़ चुकी थी।

शमा ने दो-चार धमकियाँ देकर तफ्तीश की, तो पता चला कि वह माँ के जाने के बाद चैनल बदल लेती थी और कार्टून की जगह फ़िल्में देखती रहती थी।
माँ को दोबारा आकर देखने की फुर्सत ही नहीं थी।
नन्हा ज़हन था और हर चीज़ जानने की जिज्ञासा...



टीवी जो दुनिया भर के अच्छे और बुरे दृश्य दिखाता है—माता-पिता अपनी संतान को इसके हवाले कर देते हैं क्योंकि उनके पास परवरिश के लिए समय नहीं होता। असल में, उन्हें तो सिर्फ अपने बच्चों को बेहतरीन से बेहतरीन कपड़े, रहन-सहन, भोजन, शिक्षा और दुनिया की तमाम सुख-सुविधाएँ देना है। परवरिश और संस्कार देने का क्या है? वह तो खुद-ब-खुद हो ही जाता है...

जैसे कोयल अपने बच्चे को कौए के घोंसले में छोड़कर निश्चिंत हो जाती है—यह सोचकर कि जब तक कौए को उनकी असली पहचान पता चलेगी, तब तक वे उड़ान भर चुके होंगे। ठीक वैसे ही माता-पिता भी अपनी संतानों को टीवी, मोबाइल और लैपटॉप के सामने छोड़कर बेफिक्र हो जाते हैं।

हर आने वाली पीढ़ी, पिछली पीढ़ी से अधिक होशियार, चालाक और आदतों में भिन्न होगी, क्योंकि उन्हें संस्कार देने वाले उनके माता-पिता नहीं, बल्कि स्क्रीन पर कूदते-फाँदते, गाते-बजाते, हँसते-रोते, अच्छा-बुरा बोलते किरदार हैं—फिर चाहे वे इंसान हों या कार्टून।

ये किरदार बच्चों के अवचेतन मन पर गहरा प्रभाव डालते हैं, और बच्चे उनके जैसे बनने की कोशिश करते हैं। यही अवचेतन मन धीरे-धीरे उनके बड़े होने तक उनके व्यक्तित्व का हिस्सा बन जाता है।

मनुष्य को बचपन में मिलने वाला माहौल ही उसके चरित्र का निर्धारण करता है। हम बच्चे को नासमझ समझकर उसके सामने कुछ भी बोलते हैं, कुछ भी करते हैं, लेकिन...

वह बिल्कुल टिशू पेपर या स्याही चूसने वाले कागज़ की तरह होता है, जो अपने आस-पास हो रही हर चीज़ को सोखता रहता है। और जब उसे पानी में डाला जाता है, तो वही रंग छोड़ता है, जो उसने अवशोषित किया होता है।

फिर माता-पिता को यह हक़ नहीं कि वे उसकी अनुचित हरकतों के लिए समाज या स्वयं उसके व्यक्तित्व को दोष दें।

पाँच से सात साल का समय किसी भी सामान्य बच्चे की परवरिश के लिए काफ़ी होता है। इसके बाद उसी आधार पर उसकी पूरी शख़्सियत बनती चली जाती है।


रात का अंधेरा पूरी तरह फैल चुका था, लेकिन अभी उसमें गहरी स्याही शामिल नहीं हुई थी।

अब्दुल्ला बाइक को तेज़ी से खींचता हुआ सड़क तक आया। पहाड़ी के पास परी लाल कपड़ों में खड़ी थी और कुछ खुश नज़र आ रही थी। थोड़ी देर पहले उसने बादामी रंग का लिबास पहना हुआ था।

जैसे ही वह बाइक पर सवार हुई, अब्दुल्ला ने ज़ोर से बाइक भगानी शुरू कर दी।

"हम कहाँ जा रहे हैं?"

"मौलवी के पास।" उसने छोटा-सा जवाब दिया।

"और गवाह?"

"वे भी हैं।"

इसके बाद पूरा सफर ख़ामोशी में बीत गया। अली से वह पहले ही बात कर चुका था।

यह गाँव की एक छोटी-सी मस्जिद थी। वे दोनों जूते बाहर उतारकर अंदर दाखिल हुए। अब्दुल्ला ने जान-बूझकर इस दूर-दराज़ गाँव की मस्जिद को चुना था, क्योंकि मास्टर अयूब के जान-पहचान वाले कहीं भी निकल सकते थे।

अली पहले से वहाँ मौजूद था। उसके साथ तीन और लोग भी थे, जो गवाह के तौर पर बुलाए गए थे।

"भाभी, अस्सलामु अलैकुम!"

अली ने डरते-डरते सलाम किया—आख़िर चुडैल का क्या भरोसा, कहीं खून ही न पी जाए!

"वअलैकुम अस्सलाम! भैया, आप हमसे डरिए मत।"

परी ने उसका डर भाँपते हुए कहा।

"तुमने इमाम साहब से बात कर ली?" अब्दुल्ला ने अली से पूछा।

"अभी करते हैं।"

"और हाँ, यहाँ किसी को मत बताना कि भाभी... चुडैल—मेरा मतलब इंसान नहीं हैं!"

अली ने उसके कान में धीरे से कहा।

अब्दुल्ला के घूरने पर वह अपनी हँसी दबा गया।

अली ने गवाहों में से एक को इशारा किया और वह जाकर इमाम साहब से बात करने लगा। वे उम्रदराज़ और गंभीर स्वभाव के लग रहे थे।

कुछ देर बातचीत के बाद उस गवाह ने इशारे से उन्हें बुलाया...