fatah kabul ( islami tareekhi novel) part 38
मुस्लमान असर के टाइम लौट कर अपने कैंप पर पहुंच गए। सबसे पहले उन्होंने असर की नमाज़ पढ़ी और कुछ देर आराम किया। मगरिब की अज़ान होने पर जमात के साथ नमाज़ पढ़ी और अलाव जला कर खाने का इंतेज़ाम करने लगे।
इस इस्लामी लश्कर के साथ कुछ गुलाम भी थे। वह लकड़िया काट लाये जो रात भर जलाई जाते। शुरू रात से जो अलाव रोशन होते तो सुबह तक रोशन रहते।
खाना खा कर मुसलमानो ने ईशा की नमाज़ पढ़ी और सो रहे। एक दस्ता दो सौ सवारों का हमाद की सरकिर्दगी में लश्कर की हिफाज़त पर खड़ी हुई जिसने गश्त शुरू किया। जो की यह खौफ था की कही दुश्मन शब् खून न मारे इसलिए पहरा का ज़्यादा इंतेज़ाम क़िला की तरफ था।
जब एक तिहाई रात गुज़र गयी तो हम्माद ने देखा की क़िला की तरफ से एक साया लश्कर की तरफ बढ़ा चला आ रहा है। वह हैरान रह गए और उन्होंने गौर से देखना शुरू किया। कई अलाव की रौशनी उस पर पड़ रही थी लेकिन वह साया इतनी दूर था की ठीक तौर पर मालूम न हो सका की क्या है। साया भी रुक गया। हम्माद खुद अँधेरे में घोड़े से उतर कर खड़े हो गए और अपने साथियो को आगे बढ़ने का हुक्म दिया। वह लोग बढे चले गए।
हम्माद ने साया की तरफ टिकटिकी लगा। दी उन्होंने देखा की साया ने फिरसे हरकत की और क़दम क़दम आगे बढ़ना शुरू किया। जब वह ज़्यादा क़रीब आगया तो उन्होंने पहचान लिया वह आदमी था जो आहट से भड़कता चौकता आहिस्ता आहिस्ता चला आ रहा था। उन्होंने उसकी कपड़े से पहचान लिया की वह क़िला वालो में से है। हम्माद और अँधेरे में हो गए ताकि उसकी नज़र न पड़े और वह निगाहो से ओझल भी न हो।
आने वाला कैंप के किनारा पर आ खड़ा हुआ। वह उनसे कई क़दम के फासला पर था। उसकी नज़रे कैंप का जायज़ा ले रही थी। वह गालिबन यह देख रहा था की लोग सोते है या जाग रहे है। कुछ जगह अभी तक अलाव रोशन थे लेकिन कुछ के अलाव के शोले बुझ गए थे अलबत्ता अंगारे पड़े दहक रहे थे। मुस्लमान खेमो के अंदर घुसे आराम व इत्मीनान से सो रहे थे।
वह शख्स अपना कुछ इत्मीनान करके कैंप के अंदर दाखिल हुआ। हम्माद ने यह समझा की वह सुराग लगाने नहीं आया क्यू की अगर यह देखने आता की मुस्लमान जाग रहे है या सो रहे है तो वापस चला जाता। उनका ख्याल हुआ की वह शायद अमीर को क़तल करने में आया है वह उसके पीछे लग गए।
मुस्लमान के खेमे क़तार दर क़तार थे जब वह दो सेंटर आबूर कर गया तो हम्माद ने दबे क़दमों जाकर उसकी गर्दन जा दबोची। उनका ख्याल था की वह चीख उठेगा और घबरा कर भागने की कोशिश करेगा लेकिन न चीखा न घबराया न भागने पर आमादा हुआ बल्कि निहायत नरमी से हम्माद का हाथ अपनी गर्दन के ऊपर से हटाने लगा हम्माद की गिरिफ्त सख्त तर होती गयी। उन्होंने कहा " बोलो तुम कौन हो ?"
उस शख्स ने आहिस्ता से कहा " मैं तुम्हारा दोस्त हु दुश्मन नहीं। मेरी गर्दन से हाथ उठा लो मैं कही नहीं भाग रहा।
हम्माद : मगर दुश्मन का क्या एतबार।
वही शख्स : मैं समझता था की मुस्लमान बहादुर होते है मगर तजर्बा कुछ और बता रहा है पहले मैं कह चूका हु की मैं दुश्मन नहीं हु। दोस्त हु और अगर तूम दुश्मन भी कहते हो तो इस वक़्त मैं निहत्ता हु। मुझसे डरना क्या।
उसकी इस बातो से हम्माद को शर्मिंदा हुए। उन्होंने उसकी गर्दन छोड़ दी और कहा " मुस्लमान और डर और खौफ के नाम से भी आशना नहीं होता। मैंने गर्दन इसलिए नहीं पकड़ी थी की तुम मुझ पर हमला करोगे बल्कि मस्लेहत और दूर अंदेशी थी।
अच्छा बताओ तुम कौन हो।
वही शख्स : मेरा ख्याल है की अगर तुम मुझे रौशनी में देखोगे तो पहचान लोगे।
हम्माद : आओ रौशनी में चलो।
वह उसे रौशनी में ले गए जब उन्होंने देखा तो हैरान हो गए। वह पेशवा था। हम्माद ने कहा "तुम..... "
पेशवा ने उनके मुँह पर हाथ रख कर कहा " खामोश रहो "
हम्माद : तुम किस लिए आये हो ?
पेशवा : इल्यास से मिलने। वक़्त बातो में जाया न करो मुझे फ़ौरन उसके खेमे में लेकर चलो।
हम्माद : जब तुम इल्यास से बाते कर रहे थे मैं तुम्हारी नज़रे देख रहा था मैं समझ गया था की तुम उनसे मिलने ज़रूर आओगे। आओ मेरे साथ चलो।
वह उन्हें लेकर खेमे पर पहुंचे। उन्होंने बाहर ही से इल्यास को आवाज़ दी क्यू की उन्हें मालूम था की उनके खेमा में उनकी माँ भी मौजूद है। इल्यास ने जवाब दिया। " अभी आ रहा हु "
पेशवा ने हम्माद से कहा " मैं इल्यास से बाते कर लूंगा तुम्हे बताता हु की राजा शब् खून मारने के लिए आ रहा है। आधी रात का वक़्त शब् खून के लिए तय हुआ था। तुम अपने लश्कर को होशियार करके ऐसी तदबीर करलो की दुश्मन नरगा में आजाये।
हम्माद को बड़ी हैरत हुई की पेशवा क़िला से निकल कर इल्यास से मिलने और मुसलमानो के शब खून सा आगाह करने आया है। उन्हें खौफ हुआ की कही वह इल्यास को क़त्ल करने न आया हो और उसके पास कोई हथियार छिपा हुआ न हो। उन्होंने कहा " मैं तुम्हे तन्हाई में इल्यास से मिलने की इजाज़त नहीं दे सकता।
पेशवा : वक़्त को जाया न करो। मैं क़सम खाता हु की इल्यास को नुकसान पहुंचाने नहीं आया।
इस अरसा में इल्यास भी बाहर आगये उनके खेमा के सामने अभी तक अलाव रोशन था और एक गुलाम अलाव के पास पड़ा सो रहा था। इल्यास ने आग की रौशनी में पहले हम्माद को फिर पेशवा को देखा। वह पेशवा को देख कर हैरान रह गए। उन्होंने कहा " तुम... और इस वक़्त यहाँ "
पेशवा : तुम इस वक़्त हैरान हो हो रहे हो इससे ज़्यादा उस वक़्त करोगे जब मैं तुम पर एक राज़ ज़ाहिर कर दूंगा।
हम्माद से मुखातिब हो कर उसने कहा " तुम जाओ और लश्कर को होशियार कर दो। वरना पछताओगे।
हम्माद ने इल्यास से कहा " यह कहते है दुश्मन शब् खून मारने का इरादा से आ रहे है। मैं लश्कर को होशियार कर दू।
इल्यास ने जल्दी से कहा " तो खुदा के लिए जाईये। जल्दी कीजिये अगर दुश्मन सर पर आ गया तो क्या होगा। लीडर को भी खबर दे दीजिये। मैं भी उनसे बाते करके आरहा हु। "
हम्माद वहा से चले गए। इल्यास ने कहा " अब राज़ ज़ाहिर कीजिये "
पेशवा : बेटा मैंने तुम्हे उसी वक़्त पहचान लिया था जब तुम पहली मर्तबा धार में मिले थे। मैंने सबके सामने तुम्हारे साथ जो कुछ किया मुझे वही करना चाहिए था। लेकिन बाद में मैंने तुम्हारा इम्तेहान लिया सुगमित्रा को इसलिए पास भेजा की तुम्हे आज़माऊ। आज दुनिया में शायद ही कोई ऐसा शख्स हो उसका कहना न माने। बड़े बड़े महाराजा और राजकुमार उसके अदना इशारे पर जाने तक देने को तैयार हो जाते है लेकिन तुम इम्तेहान में पुरे उतरे मेरे इशारा पर तुम्हे जेलखाने से निकाल दिया गया मैंने जब मालूम कर लिया की तुम सही सलामत निकल गए तो मुझे इत्मीनान हुआ। मेरा ख्याल था तुम फिर वापस न आओगे मगर तुम आये और लश्कर के साथ आये जब तूम दिन में क़िला में गए थे मैं तुम्हे देख कर हैरान रह गया था।
इल्यास : लेकिन तुमने अभी तक राज़ ज़ाहिर न किया।
पेशवा : मैं उस राज़ पर आ रहा हु। बेटा ! मैं कोई गैर नहीं हु। तुम्हारा चाचा हु।
इल्यास सख्त हैरान हुए उसी वक़्त खेमा के अंदर से आवाज़ आयी " बेटा राफे "
राफे : क्या अम्मी जान।
अम्मी खेमा से बाहर निकल कर आयी। राफे ने उन्हें सलाम किया। उन्होंने उन्हें अपने सीने से लगा लिया और कहा " बेटा ! तम्हे जुदा हुए पंद्रह साल हो चुके है लेकिन तुम्हारी आवाज़ मैंने पहचान ली थी। खुदा का हज़ार हज़ार शुक्र व अहसान है तुमसे मिलने की बड़ी आरज़ू थी पूरी हो गयी। राबिआ से मिलने की आरज़ू रह गयी है।
राफे ; इंशाअल्लाह वह भी पूरी होगी।
इल्यास अभी तक हैरान थे जब उनकी हैरत कुछ कम हुई तो वह राफे से लिपट गए।
उन्होंने कहा " अच्छे चाचा जान ! तुमने पहले ही मुझे क्यू आगाह न किया।
राफे : वह मौक़ा मुनासिब न था।
अम्मी : राफे ! क्या यह सच है की राबिआ ही का नाम सुगमित्रा है।
राफे : यह बिलकुल सच है। बड़ी मुश्किल से मैंने उसका खोज निकाला है उसे यहाँ से निकाल ले जाने की कोशिश में इतना ज़माना गुज़र गया। महाराजा काबुल उसकी बड़ी हिफाज़त करते है इसलिए अभी तक कामयाबी नहीं हुई।
अम्मी ने इल्यास से मुखातिब हो कर कहा " तुमने सुना बेटा क्या तुमसे मैंने यही बात कही थी न "?
इल्यास : हां तुमने यही कहा था।
अम्मी : मैं तुमसे और अपनी राबिआ से मिलने के लिए सफर की सहूलते उठा कर यहाँ तक आयी हु।
राफे उसका जवाब देते की शोर बुलंद हुआ। राफे ने कहा " शायद मुक़ाबला शुरू हो गया।
इल्यास : चाचा जान तुम अम्मी जान के पास ठहरो मैं जिहाद में शरीक होने के लिए जाता हु।
राफे : जाओ खुदा तुम्हारी मदद करे।
इल्यास जल्दी जल्दी मुसलाह ( हथियार लेकर ) घोड़े पर सवार हुए और नेज़ा हिलाते हुए चले।
अगला भाग ( दादर की फतह )
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