FATAH KABUL (Islami Tarikhi Novel) Part 1
काबुल पर लश्कर कशी
हमारा नॉवेल उस ज़माने से शुरू होता है जबकि सय्य्दना हज़रात उस्मान गनी रज़ी अल्लाह सरीर आरए खिलाफत थे। दुनियाए इस्लाम में अमन व सुकून था। मुमालिक मिस्र व शाम,इराक ,ईरान उन सब पर परचम लहराने लगा था। उन मुल्को से कुफ्र व आल्हाद की घोर घटाए दूर हो गयी थी। और नेज़ इस्लाम जिया पॉश हो गया था।
- उस ज़माने में इराक के गौरनेर अब्दुल्ला बिन आमिर थे। निहायत नेक और बड़े खुद्दार थे। बहादुर और नज़ीर भी थे.। उनके तहत में ईरान भी था।ईरान की सरहद अफगानिस्तान से मिलती थी।
- चुके इस्लामी फतूहात का सैलाब बढ़ता जाता था इसलिए हमसया मुमालिक खौफ व शक की निगाहो से मुसलमानो और इस्लामी सल्तनत को देख रहे थे। यह कुदरती बात थी के अफगानिस्तान की निगाहे भी मुसलमानो की तरफ लगी हुई थी। और वह निहायत गौर से उनकी नक़ल व हरकत को देख रहा था।
- उस ज़माने में अफगानिस्तान को सिर्फ काबुल कहते थे। जैसे इस ज़माने में भी है। और काबुल भी हिंदुस्तान में शामिल था फ़र्क़ सिर्फ इतना था के हिंदुस्तान में वेदक धर्म था। मतलब सनातन धर्मी। कुछ हिस्सा में जैन मज़हब ही था लेकिन काबुल में बोध मज़हब था।
- एक ज़माने में काबुल का राजा ऐसा ताक़तवर था के हिंदुस्तान का कोई राजा उसका मुक़ाबला नहीं कर सकता था। जिस ज़माने का हाल हम कलमबंद कर रहे है उस ज़माने में भी काबुल का राजा की अज़मत व ताक़त को हिंदुस्तान के तमाम राजा मानते और उसकी इज़्ज़त करते थे। अगरचे उनमे मज़हबी इख्तिलाफ था। वेदक धर्म वाले वेदो को मानते थे और बोध मज़हब वाले वेदो को अल्हामी किताब नहीं मानते थे। उनकी मज़हबी किताबो का नाम "त्रिपिटक "है उन्ही को मानते थे।
- लेकिन उस मज़हबी इख्तिलाफ के बावजूद भी उनमे इत्तेफ़ाक़ था। या काबुल के तवाना और क़द अवर इंसानो से हिन्दू इसी तरह डरते और ख़ाइफ़ रहते थे जिस तरह उस ज़माने में भी कबिलियो और अफगानियों से हिंदी घबराते और और डरते है। और इस खौफ की वजह से वह काबुल के राजा से इत्तेफ़ाक़ रखने पर मजबूर थे। ताके काबुल का राजा पहाड़ी इलाक़ा से काबुल से निकल कर उनके सरसब्ज़ व शादाब मुल्क पर क़ब्ज़ा करले।
- अब्दुल्ला बीन आमिर इराक के गौरनेर जनरल को यह बात किसी तरह मालूम हो गयी के काबुल का राजा ईरान पर हमला करने की तैयारी कर रहा है। उन्होंने फ़ौरन इस अमर की इत्तेला दरबार खिलाफत में रवाना की। और काबुल की सरहद पर फौजे तयिनात करके उसे मज़बूत कर दिया।
- चंद ही रोज़ के बाद खलीफा का फरमान सादिर हुआ के पहला काबुल के हालात मालूम करने के लिए वहा जासूस भेजे जाए । अगर यह खबर सही साबित हुई तो दरबार खिलाफत को तफ्सीली रिपोर्ट भेजी जाए। और अगर गलत हो तो कोई तरुज न किया जाए।
- अब्दुल्ला बिन आमिर की ख्वाहिश यह थी के काबुल पर लश्कर कशी कर दी जाए वह बसरा में रहते थे और बसरा इराक का सदर मुक़ाम था। उनके तहत में सिर्फ ईरान और इराक ही न थे बल्कि आमान और बहरीन के सूबे भी थे। वह नौजवान थे उस वक़्त उनकी उम्र २५ साल की थी। तबियत में जोश और दिल में उमंग थी। उस उम्र में जिहाद और फतूहात का शौक़ होता ही है वह भी यह चाहते थे के जिस आदिलो ने फतूहात हासिल करके नमोरी और इज़्ज़त हासिल की है वह भी हासिल करले।
- उन्होंने देखा के हज़रात उमर बिन अल आस ने इस्कन्द्रिया फतह किया था। और अब्दुल्ला बिन साद ने अफ्रीका पर क़ब्ज़ा कर लिया था उस ज़माने में बार्रे आज़म अफ्रीका में एक रियासत अफ्रीका नाम की थी जिसका सदर मुक़ाम तरबिलस में था। उस रियासत को अब्दुल्ला बीन साद ने फतह किया था। अब्दुल्ला बिन आमिर ने काबुल को देखा।
- शायद अब्दुल्ला बिन आमिर की निगाह काबुल पर न पड़ती अगर खुद उन्हें यह खबर न मिलती के काबुल का राजा इस्लामिक मुमालिक पर चढ़हायी का इरादा कर रहा है। इस खबर ने उनकी तवज्जा काबुल की तरफ फेर दी। चुनांचा उन्होंने फिर दरबार खिलाफत को लिखा के बाज़ ईरानी सय्याह जो काबुल से वापस आये है वह बयां करते है के काबुल का राजा बड़े ज़ोर व शोर से जंगी तैयारियां कर रहा है। अगर यहाँ से जासूस भेजे गए तो उनके वहा जाने और वापस आने में बड़ी ताख़ीर होगी। इसी अरसा में राजा पूरी तयारिया कर लेगा और मुमकिन है के हमला भी कर दे। इसी लिए अगर हुक्म हो तो मुजाहिदीन इस तरफ भेजे जाए।
- चंद रोज़ के बाद हज़रात उस्मान गनी रज़ि अल्लाह खलीफा सोम का मुफ़स्सल फरमान सादिर हुआ। उसमे लिखा था :
- "तुम नौजवान हो इस लिए तुम्हारे दिल में जंग का जज़्बा बढ़ा हुआ है लेकिन तम इस बात को नहीं समझते के इस्लाम लड़ने की इजाज़त मज़बूरी की हालत में देता है। झुड़ा फसाद और खून रेज़ी को पसंद नहीं करता है। मुसलमानो ने उसी मुल्क पर हमला किया है जिस मुल्क ने इस्लाम और मुसलमानो को मिटाने की कोशिश की है। हमने सुना है के काबुल पहाड़ी मुल्क है वहा सर्दी मुल्क शाम से भी ज़्यादा होती है। उस मुल्क पर चढ़हायी करने से मुसलमानो को तकलीफ होगी। तुम पेश क़दमी न करो। अलबत्ता अगर तहक़ीक़ करने से यह बात पाया सबूत को पहुंच जाये के काबुल का राजा इस्लामिक मुमालिक पर हमला की तैयारी कर रहा है तो इस पर लश्कर कशी ज़रूरी हो जाती है पहला जासूसों के ज़रिये से तुम तहक़ीक़ करो और जो हालात मालूम हो उनसे हमें इत्तेला दो। हम तम्हारी रिपोर्ट पर हुक्म देंगे। "
- इस फरमान के सादिर होने पर अब्दुल्ला बिन आमिर मजबूर हो गए के वह पहला अपने जासूसों को काबुल भेजे। चुनांचा उन्होंने ईरानी लोगो को वहा भेजना चाहा। कूके ईरानी लोग अक्सर सेर व सय्याहैत और तिजारत के सिलसिला से वहा आते जाते रहते थे लेकिन बाज़ पुर जोश अरबो ने अपनी खिदमात खुद पेश कर दे और यह दरख्वास्त की के उन्हें काबुल भेजा जाए।
- यह अरब वह लोग थे जिन्होंने कभी काबुल नहीं देखा था। वह अच्छी तरह जानते थे के काबुल में काफिर लोग आबाद है। बड़े तनु मंद और वहशी क़िस्म के है और उनके मुल्क में जाना अपनी जानो को खतरा में डालना है लेकिन हक़ीक़त यह है के करून पहला के मुस्लमान किसी खतरा को खातिर में नहीं लाते थे। वह मौत से नहीं डरते थे बल्कि मौत उनसे भगति थी।
- अब्दुल्ला बिन आमिर ने दो आदमियों को भेजने का क़सद किया। अभी वो किसी को नामजद नहीं करने पाए थे के एक कमसिन और नो उम्र अरबी उनकी खिदमत में हाज़िर हुए और उनसे अर्ज़ किया :"मुझे काबुल की इजाज़त दीजिये। "
- अब्दुल्ला बिन आमिर ने हैरत से उन्हें देखा और कहा :'तुम जाना चाहते हो किस लिए।
- नौजवान:मेरी अम्मी जान मुझे हुक्म दिया है।
- अब्दुल्लाह :क्या तुम्हारी अम्मी जान को मालूम नहीं के काबुल के रास्ते किस क़दर दुशवार गुज़ार और तकलीफ दह है।
- नौजवान:मई समझता हु उन्हें मालूम है।
- अब्दुल्लाह :हैरत है फिर भी वह तुम्हे वहा जाने का हुक्म दे रही है।
- नौजवान :इसमें हैरत की कोई बात नहीं है। वो मेरी तबियत से अच्छी तरह वाक़िफ़ है के मई किसी दुशवारी को खातिर में नहीं लाता और किसी तकलीफ की परवाह नहीं करता।
- अब्दुल्लाह :लेकिन वह तुम्हे वहा भेजती क्यू है। ?
- नौजवान :मैंने दरयाफ्त किया था। उन्होंने फ़रमाया जब अमीर तुम्हे इजाज़त दे दे तब बतायेँगी की क्यू भेजना चाहती हु।
- अब्दुल्लाह :अजीब बात है !तुम्हारा नाम क्या है ?
- नौजवान :इल्यास।
- अब्दुल्लाह :अज़ीज़ इल्यास !तुम अभी बिलकुल नो उम्र हो। मई नहीं चाहता के तुम काबुल जाओ। अगर खुदा ने मेरी आरज़ू पूरी की और एकबुल पर चढ़ाई की नौबत आगयी तो मई तुम्हे ज़रूर अपने साथ ले चलूँगा।
- इल्यास :मगर उससे मेरी अम्मी को बड़ी तकलीफ पहुंचेगी इसलिए मेरी दरख्वास्त क़ुबूल फरमा लीजिये।
- इल्यास ने अपनी दरख्वास्त कुछ अजीज़ाना लहजा में की के अब्दुल्लाह को मंज़ूर ही करते बानी। उन्होंने कहा "अच्छा तुम्हारी दरख्वास्त मंज़ूर की जाती। "
- इल्यास बहुत खुश हुए। उन्होंने अमीर अब्दुल्लाह का शुक्र अदा किया। मुस्लमान अपने गौरनेर जनरल को अमीर कहा करते थे। और खलीफा को अमीरुल मूमिनीन।
- अब्दुल्लाह ने इल्यास से कहा "जाओ और तेरी करो।
- इल्यास ने उठ कर सलाम किया और वहा से चले आये।
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