fatah kabul (islami tarikhi novel)part 28
मसालेहत ..........

मुसलमानो ने वापस आते हुए सबसे पहले शहीदों को एक जगह जमा किया। जनाज़ा की नमाज़ पढ़ी और गढ़े खोद कर दफन कर दिया। उसके बाद वह तमाम मैदान में फैल गए और कुछ आदमी मक़तूलाइन के घोड़ो को पकड़ने और मरने वालो के हथियार जमा करने लगे। जो काफिर चांदी का कोई ज़ेवर पहने हुए थे वह भी उतर लिए शुमार करने पर मालूम हुआ की सवा दो सौ मुस्लमान शहीद हुए और साढ़े सात हज़ार काफिर मारे गए .उनके ज़ख़्मियो की तादाद तो मालूम न हो सकी अलबत्ता मुस्लमान दो सौ के क़रीब ज़ख़्मी हुए .उनमे से डेढ़ सौ के मामूली ज़ख्म थे अलबत्ता पचास कुछ शदीद ज़ख़्मी हुए थे।
मुसलमानो ने कैंप में वापस आकर ज़ख़्मियो की मरहम पट्टी की। जिनको तीमारदारों की ज़रूरत थी उन्हें औरतो के क़रीब खेमो में ठहरा दिया और औरतो ने उनकी देख भाल शुरू कर दी।
दूसरे रोज़ मुसलमानो ने आगे बढ़ आकर क़िला का मुहासिरा कर लिया। मर्जबान पर खौफ तारी हो गया। वह क़िला के ब्रिज में आकर देखने लगा उसने देखा उस तरफ के मुस्लमान निहायत इत्मीनान से इस तरह लेटे या बैठे है जैसे वह अपने घर पर हो। वह वहा से दूसरी तरफ गया। उधर भी देखा। वह समझ गया की मुसलमानो को किसी क़िस्म का फ़िक्र नहीं है। वह तो घर की तरह मुत्मइन है। उसने अपने शहर के मुअज़्ज़िन और सल्तनत के अराकीन को बुलाया। उनसे मशवरा लिया। उनमे से एक ने दरयाफ्त किया "आप किसी बात में मशवरा लेना चाहते है ?
मर्जबान :मुसलमानो के मामले में तुमने देख लिया की मै अपनी पूरी ताक़त के साथ उनपर हमला आवर हुआ। ख्याल था की उन्हें हाज़िमत दे कर भगा दूंगा लेकिन उल्टा उन्होंने हमें शिकस्त दी और अब यह जिसारत की के हमारा मुहासिरा भी कर लिया।
एक मुअज़ज़ शख्स ने कहा "अब अगर मै सच बात कहु तो आपकी खफ़गी का अंदेशा गलत कहूं तो मशवरा दुरुस्त न होगा इसलिए कुछ कहना ही मुनासिब मालूम होता है। "
मर्जबान ;बात सही और दुरुस्त केहनी चाहिए। खफ़गी का बिलकुल खौफ न करो।
वही शख्स : तब सुनिए आपने देखा था की मुसलमानो ने ईरान जैसी अज़ीम सल्तनत पर हमला करके उसे पारा पारा कर दिया। यज़ीद गर्द शाह ईरान भागता फिरा और आखिर कार गरीब उल वतन में मर गया। आपको मुसलमानो के मुक़ाबले की तैयारी नहीं करनी चाहिए थी। जब बीज ही कड़वा बोया है तो फल भी कड़वा ही मिलेगा .
दूसरा : ये उन्होंने मेरे दिल की बात कही है। मुसलमानो के खिलाफ जब तैयारी शुरू की गयी थी। मेरा माथा उसी वक़्त तिनका था .क्यू की मुझे मालूम था की मुसलमानो के खिलाफ कही भी कोई बात की जाये उन्हें ज़रूर मालूम हो जाती है अब खुदा जाने वो इल्म नुजूम में माहिर है या गैब दान है। या जिन्न के ताबे है देख लो यहाँ तैय्यरी हुई और उन्हें खबर भी हो गयी .खैर ये तो हुआ ही था। अभी कुछ अरसा हुआ चन्द अरब ताजिर यहाँ आये थे। मै समझता हु की वह सौदागर नहीं थे बल्कि जासूस थे वह शहर क़याम करना चाहते थे नहीं ठहरने दिया बल्कि नाराज़ हो कर बाहर अगर वह जासूस होते तो क्या मालूम कर लेते हमें चाहिए था की उन्हें ठहराते की उनके साथ अच्छी तरह पेश आते। वह हमारे मश्कूर होते। उनके खिलाफ वह हमसे नाराज़ हो गए और हम पर मुसलमानो को चढ़ा लाये। उनके मुक़ाबले की हम में ताक़त नहीं है।
मर्जबान :मगर मैं दूसरे फार्मा रवावो से मदद तलब कर सकता हु अरजनज और दादर के हुक्मरान और काबुल के महाराजा हमारी मदद कार सकते है।
तीसरा : आप मदद तलब कर सकते है लेकिन यह बात मुसलमानो से छिपी न रहेगी। वह पुर ज़ोर है,ला करके क़िला फतह कर लेंगे .मर्दो को क़तल कर डालेंगे और हमारी औरतो को अपनी कनीज़े बना लेंगे।
मर्जबान :तब हमें क्या करना चाहिए ?
कई आवाज़े आयी "जिस तरह भी हो मसालेहत कर लेनी चाहिए "
जब मर्जबान ने देखा की सब सुलह के ख्वाहिशमंद है तो उसने कहा "खुद मेरी राये भी सुलह की थी। लेकिन तुमसे मशवरा लेना ज़रूरी था। अब भी अगर कोई साहेब सुलह की मुखालिफत करना चाही तो मै सुनने को तैयार हु। "
सबने कहा "सुलह का कोई मुखालिफ नहीं है अगर जंग की गयी तो हम तबाह हो जायँगे "
मर्जबान :अच्छा क़ासिद किसे बनाया जाए ?
सबने कहा "जिसे आप मुनासिब समझे "
मर्जबान ने कहा 'कोई बूढ़ा मुदब्बिर होना चाहिए। "
बूढ़े ने अर्ज़ किया "मै ये खिदमत बजा लाने के लिए तैयार हु। "लेकिन उस वक़्त जब मुझे पुरे पुरे इख़्तियारात देते है। जिस कीमत पर हो मसालेहत कर लेना।
बूढ़ा :अब मै बड़े ख़ुशी से इस खिदमत को अंजाम दूंगा। लेकिन यह और बता दीजिये की वह तावान और खराज तलब करंगे किस क़द्र तावान और किस क़द्र खराज कर लिया जाये ?
मर्जबान :अगर चार लाख दिरहैम तावान और दो लाख दिरहम सालाना खराज पर भी मामला हो जाये ?कर लिया जाये।
बूढ़ा : बेहतर है।
वह अपना मख़सूस लिबास पहन कर क़िला से बाहर आया और मुसलमानो के क़रीब आकर पुकारा। "मुसलमानो !मैं क़ासिद हु तुम्हारे सरदार के पास जाना चाहता हु। "
कई मुस्लमान आये और उसे अब्दुर्रहमान की खिदमत में ले गए। बूढ़े का ख्याल था की मुसलमानो का सरदार बड़ी शान से होगा। उसके खेमा में आला दर्जा का फर्नीचर होगा। दरवाज़ा पर कई पहरा दार होंगे आला क़िस्म का लिबास होगा। लेकिन जब उसने उन्हें देखा तो हैरान वह गया। न उनके खेमा पर पहरा था। न खेमा के अंदर फर्नीचर था। न उम्दा क़िस्म के कपड़े पहने थे। बल्कि और मुसलमानो की तरह मामूली लिबास पहने कम्बल के फर्श पर बैठे थे वह उन्हें सरदार समझा भी नहीं। जो लोग उसे अपने साथ लाये थे जब उन्होंने बताया ा तब वह पहचाना .उसने उन्हें सलाम कहा। अब्दुर्रहमान ने सलाम का जवाब दिया और बड़े अख़लाक़ से पेश आये। उसे अपने क़रीब बिठाया और पूछा "कैसे आये हो ?"
बूढ़े ने कहा "मै क़ासिद हु सुलह की दरख्वास्त लेकर आया हु।
अब्दुर्रहमान :हमने खुद सुलह की पेशकश की थी लेकिन तुम्हारे मर्जबान ने नहीं माना।
क़ासिद : उसका उन्हें अफ़सोस है।
अब्दुर्रहमान : हमें अफ़सोस के साथ कहना पड़ता है की अब हम सुलह के लिए तैयार नहीं।
बढ़े ने हर चंद अर्ज़ मरूज़ की मगर अब्दुर्रहमान तैयार न हुए जब उसने ज़्यदा असरार किया तो ुनओने कहा "हम उस वक़्त सुलह की दरख्वास्त पर गौर कर सकते है जब तुम्हारा मर्जबान खुद आकर पेश करे।
बूढ़ा : क्या आप उस बात का आकर अक़रार करते है की अगर मर्जबान यहाँ आये और मसालेहत न हो तो आप उनसे कोई तरुज न करेंगे वापस जाने देंगे ?
अब्दुर्रहमान : है हम इक़रार करते है और यह भी वादा करते है की जब तक वह अपने कालमृद में वापस न चले जाएंगे हम क़िला पर हमला न करेंगे।
बूढ़ा चला गया उसने मर्जबान से तमाम गुफ्तगू बयान की। लोगो ने मर्जबान को मजबूर किया की वह जाए। चुनांचा वह अपने साथ दस फौजी अफसरों को लेकर रवाना हुआ। उसे भी मुसलमानो ने अब्दुर्रहमान बैठे। मर्जबान ने कहा "मुझे अपनी गलती का इक़रार है। आपकी खिदमत में सुलह की दरख्वास्त लेकर हाज़िर हुआ हूँ।
अब्दुर्रहमान :अफ़सोस यह है की अपने हमारे आदमियों के साथ निहायत बदसलूकी और बद इख़लाक़ी की आप यह न समझे की हर मुस्लमान सल्तनत इस्लामिया का एक रुक्न है। उसकी तौहीन सल्तनत की तौहीन है। खलीफा की तौहीन है और खुद इस्लाम की तौहीन है।
मर्जबान :मैंने न समझी से ऐसा क्या नादिम व शर्मसार हूँ।।
अब्दुर्रहमान :अगर तुम सुलह की अजीज़ाना दरख्वास्त पेश न करते तो मै हरगिज़ मसालेहत न करता। अच्छा बताओ तुम किस खराज पर मसालेहत करते हो।
मर्जबान :जो आप मुक़र्रर करे।
अब्दुर्रहमान : तुम बताओ की आसानी के साथ किस क़द्र खराज अदा कर सकोगे।
मर्जबान :दो लाख दिरहम सालाना अदा कर सकूंगा। एक साल का खराज आपको अभी अदा कर दूंगा।
अब्दुर्रहमान :हमें माज़ूर है। लेकिन तुम्हे यह इक़रार करना होगा की हमारे दुश्मनो से कोई साज़ बाज़ न करोगे। हमारे मुक़ाबले में उन्हें कोई मदद न डोज। न किसी दुश्मन को पनाह दोगे।
मर्जबान : मैं इन बातो का इक़रार करता हूँ।
अब्दुर्रहमान :अगर तुम हमारे खिलाफ कोई कार्रवाई करोगे तो सुलह फ़स्ख़ हो जाएगी।
मर्जबान :ऐसी सूरत में हमें आपसे कोई शिकायत न होगी।
गरज़ दो लाख दिरहम पर सुलह हो गयी और शहर अरजनज भी इस्लामी कालमर्ड में शुमार होने लगा।
अगला भाग ( वाई अर्ज़ खज आगोश इस्लाम में )
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