QARA QARAM KA TAJ MAHAL ( PART 6 )
(भाग 3)
वह जो कुछ कहने वाला था, अचानक रुक गया। उसकी आँखों में पहले हैरानी आई, फिर उलझन, और आखिरकार साफ़-साफ़ अनिश्चितता झलकने लगी।
एक पल के लिए माहोढ़ंड के किनारे फैले इस हरे-भरे मैदान में एक अजीब-सा सन्नाटा छा गया। ऊँची जलती हुई आग से चिनगारियाँ निकलकर हवा में गुम हो रही थीं।
"आप... इंगेज्ड हैं?"
वॉटर वर्क्स को भूलकर अर्सा अविश्वास से उसे देख रही थी।
"हाँ, तीन साल से।"
उसके दिल से कोई अनदेखा बोझ उतर गया था, लेकिन फिर अफ़क के पीले चेहरे को देखकर उसे अपने दिल के डूबने का एहसास हुआ।
"ओह अच्छा।"
वह सँभल गया और फिर अपनी नज़रें हाथ में पकड़ी डिब्बी पर टिकाते हुए जबरदस्ती मुस्कुराने की कोशिश करने लगा। फीकी रंगत, फीकी मुस्कान।
"मुबारक हो, तुमने... तुमने कभी बताया नहीं... तो... तुम्हारी शादी हो रही है... हूँ... गुड... तो वह क्या करता है?"
वह रुका, "वह... सैफ?"
अपने लहज़े में टूटन की कसक को छुपा नहीं पाया था।
"बिज़नेस।"
"आहाँ! वेरी नाइस!"
अफ़क ने डिब्बी रख दी, शायद वह भूल चुका था कि उसकी बारी थी। आग के उस पार निशा सिर झुकाए बैठी थी। वह उदास थी, प्रिशे समझ सकती थी, लेकिन उसे हर हाल में किसी भी तरह की गलतफहमी, अगर थी, तो दूर करनी थी।
लकड़ियों में से बार-बार चटकने की आवाज़ आ रही थी।
"चलो, गेम दोबारा शुरू करें।"
अर्सा का लहजा बुझा-बुझा सा था।
"कल खेल लेंगे, अब सोते हैं।"
निशा ने अफ़क की मुश्किल आसान कर दी। वह शायद वहाँ से हटना चाहता था।
निशा के कहने पर कार्ड रखकर वह उठ खड़ा हुआ। वॉटर वर्क्स का कार्ड सबके सामने था, लेकिन किसी ने कुछ नहीं कहा। उसने घास पर रखी अपनी "हेल टू तैय्यप एर्दोगान" वाली कैप उठाई और सबसे दूर झील की ओर चला गया।
"सुबह झरने पर मैंने... आई एम सॉरी, प्री आपी... वह मेरे मुँह से यूँ ही गलती से निकल गया था। मैंने सिर्फ़ मज़ाक किया था, मुझे नहीं पता था कि आप इंगेज्ड हैं। वरना... आई एम सो सॉरी, प्री आपी।"
झिझक और शर्मिंदगी उसके लहजे से टपक रही थी।
"इट्स ओके, अर्सा! मैंने बुरा नहीं माना। तुम ये गेम समेट लो।"
"थैंक्स।"
बेज़ारी से गेम समेटकर अर्सा अपने टेंट की तरफ़ चली गई।
प्रीशे ने गर्दन घुमाकर अफ़क को देखा। वह झील के किनारे, सिर झुकाए, हाथ जेबों में डाले चुपचाप धीरे-धीरे चल रहा था।
सुबह वह कितना खुश था और अब... उसके साथ मिलकर बेईमानी करते हुए कितना हंसमुख लग रहा था। फिर एक शब्द "मंगेतर" सुनकर उसके चेहरे की मुस्कान क्यों ग़ायब हो गई थी?
प्रीशे ने गहरी सांस ली और गर्दन सीधी कर ली। निशा उसे ही देख रही थी। वह नज़रें चुराते हुए उठ खड़ी हुई।
रात कतरा-कतरा भीग रही थी और कश्मीर से आने वाली तेज़ ठंडी हवाएँ उनके टेंट के कपड़े को फड़फड़ा रही थीं।
वह अपने स्लीपिंग बैग में सीधा लेटी टेंट की छत को घूर रही थी।
"प्री।"
बाहर से किसी ने उसे पुकारा था। वह एकदम उठ बैठी, पुकारने वाला अफ़क था।
उसने स्लीपिंग बैग खोला, पास पड़ा हैट उठाकर सिर पर रखा और टेंट की ज़िप खोलकर बाहर आ गई।
"मुझे नींद नहीं आ रही थी। सोचा, कुछ देर साथ टहलते हैं।"
बिना कुछ कहे वह अफ़क के साथ घास पर चलने लगी। दोनों एक ही अंदाज़ में सिर झुकाए घूम रहे थे।
प्रीशे ने अपने हाथ सीने पर बाँध रखे थे, जबकि उसके हाथ जेबों में थे।
"कैसा है वह? तुम्हारा मंगेतर?"
चलते-चलते बिना किसी भूमिका के अफ़क ने सवाल किया। उसके लहजे में अजीब-सी बेबसी और हार थी।
"अच्छा है?"
"सैफ?"
प्रीशे पल भर को सोचती रही।
"अमीर है, हैंडसम है, अच्छी तहज़ीब वाला है, मुझसे बहुत मोहब्बत करता है।"
वे चलते-चलते झील के किनारे तक पहुँच गए थे। रात के इस पहर वहाँ पसरी हुई ख़ामोशी को पहाड़ों में मौजूद जंगली जानवरों की आवाज़ें चीर रही थीं।
"मगर तुमने मेरे सवाल का जवाब नहीं दिया। मैंने पूछा था, वह अच्छा है?"
"अच्छा?"
"बहुत अजीब होता है, अफ़क! एक ज़ालिम और जाबिर बादशाह अपनी प्रजा के लिए जितना बुरा होता है, अपनी औलाद के लिए उतना ही अच्छा होता है।"
"फिर हम उसे क्या कहें? बुरा या अच्छा?"
"यह शब्द मेरी समझ में नहीं आता। शायद इसलिए मैं तुम्हें यह नहीं बता सकती कि वह अच्छा है या नहीं। अलबत्ता पसंद-नापसंद की बात अलग होती है।"
वह झील के किनारे घास पर बैठ गया था।
प्रीशे भी उसके बाईं तरफ़, उससे थोड़ा पीछे घास पर घुटनों के इर्द-गिर्द बाँहों का घेरा बनाकर उन पर ठोड़ी टिकाए बैठ गई।
बर्फ़ीली, तेज़ हवा उसका हैट उड़ाने की कोशिश कर रही थी।
"तुम उसे पसंद करती हो?"
वह चाँदनी में नहाई झील को देख रहा था।
"वह मेरी फूफू का बेटा है, पापा को बहुत पसंद है। उन्होंने सगाई से पहले मुझसे मेरी रज़ामंदी नहीं पूछी थी। फूफू ने रिश्ता माँगा, उन्होंने फ़ौरन हाँ कर दी।"
"तुम हमारे यहाँ की 'रिश्तों की ब्लैकमेलिंग' को नहीं जानते, अफ़क। पाकिस्तान में रीत-रिवाज तुर्की से बहुत अलग हैं।"
"तुम्हें कभी नहीं लगा कि तुम्हारी ज़िंदगी में कभी ना कभी कोई ऐसा आएगा जो तुमसे मोहब्बत करेगा? जिसे देखकर तुम्हें लगेगा कि यही वह इंसान है जिसके साथ तुम्हें पूरी ज़िंदगी बितानी चाहिए?"
प्रीशे ने उदास मुस्कान के साथ उसकी चौड़ी पीठ और झुके हुए सिर को देखा।
"कुछ लोग ज़िंदगी में बहुत देर से मिलते हैं, अफ़क अरसलान! इतनी देर से कि चाहकर भी हम उन्हें अपनी ज़िंदगी का हिस्सा नहीं बना सकते।"
"तो जो लोग ज़िंदगी में बहुत देर से मिलते हैं, उन्हें आप अपनी प्राथमिकताओं में किस मुकाम पर रखती हैं, डॉक्टर प्रीशे जहांज़ैब?"
प्रीशे ने चौंककर उसे देखा।
गर्दन उसकी ओर मोड़े, होठों को ज़ोर से भींचे वह उसे घूर रहा था।
शिकायत करती, नाराज़ आँखें... तंज़ भरा लहज़ा...
वह गहरी सांस लेकर रह गई।
"मेरे लिए हर इंसान की अहमियत—"
तभी एक तेज़ हवा का झोंका आया और उसका हैट उड़ गया।
वह बात अधूरी छोड़कर उठ खड़ी हुई।
"मेरा हैट!"
چند قدم دور جا کر उसने घास पर पड़ा हैट उठा लिया। वह भी उठकर उसके क़रीब आ गया।
"चलो खैर, जाने दो। तुम मंगनीशुदा हो तो क्या हुआ, हमारे दरमियान एक और ताल्लुक़ तो है ही।"
वह चौंकी, "वह क्या?" उसका दिल ज़ोर से धड़का।
"हम अच्छे दोस्त तो हैं ना?" वह एकदम फिर से पुराना अफ़क़ अर्सलान लगने लगा था। वही पुराना हंसमुख और अपना-अपना सा।
"हाँ, वह तो हैं।" वह खुलकर मुस्करा दी।
"तो फिर तुम इस अच्छे दोस्त के साथ राकापोशी आ रही हो ना?" वह फिर से पुराने मूड में आ गया था।
वे दोनों माहोड़ंड की चमकती झील के किनारे टहलने लगे।
"यह मेरे लिए नामुमकिन है। मुझे पापा कभी इजाज़त नहीं देंगे।"
"वह बहुत कंज़र्वेटिव हैं क्या?"
"नहीं, यह बात नहीं है। इस लिहाज़ से तो वह बहुत लिबरल हैं।"
"अच्छा… फिर?"
"चार साल पहले मैं 'स्पांतक' की एक्सपीडिशन पर गई थी। बुनियादी तौर पर यह एक मिलिट्री एक्सपीडिशन थी, पाकिस्तान नेवी की। मैं एक्सपीडिशन डॉक्टर के तौर पर यूं ही साथ फिट हो गई थी।" वह बताकर हंसी, "बहुत मिन्नतें की थीं नज़ीर साबिर की, उन्होंने ही एडजस्ट कराया था मुझे पाक नेवी के साथ। हम बहुत कम वक़्त में स्पांतक को फ़तह भी कर चुके थे मगर वापसी पर, चोटी से कुछ ही फ़ुट दूर से गिर गई। मेरा बायां कंधा बुरी तरह ज़ख्मी हो गया। उसके बाद पापा ने मेरी कोह پیمाई पर पाबंदी लगा दी। यह मेरा स्कर्दू से आगे, काराकोरम का पहला तजुर्बा था। मैं और करना चाहती थी, पर पापा इजाज़त नहीं देते। उन्हें डर है कि मैं फिर गिर न पड़ूं।"
"मैं तुम्हारे साथ रहूंगा तो तुम क्यों गिरोगी?" बहुत अपनाइयत से अफ़क़ ने कहा।
"यह बात तुम मेरे पापा को नहीं समझा सकते।"
"कोशिश तो कर सकता हूँ।"
"न-नहीं… नहीं… इसकी कोई ज़रूरत नहीं है।" वह घबराकर तेज़ी से बोली, फिर फौरन अपनी कैफ़ियत को छुपाते हुए सफाई देती हुई बोली, "वह नहीं मानेंगे, इस क़िस्से को छोड़ दो।"
"अच्छा, ठीक। और अगर ज़्यादा पर्सनल नहीं हो रहा तो एक बात पूछूं?"
"पूछो।"
"तुमने कभी बताया नहीं, तुम कहां रहती हो मरी में?"
"हमने शायद अपने-अपने बारे में एक-दूसरे को कुछ भी नहीं बताया, अफ़क़!" वह मुस्कराकर बोली।
"शायद… मगर तुम कहां रहती हो?"
यह वह सवाल था जिसका वह जवाब नहीं देना चाहती थी। परसों शाम वह अपनी तमाम कश्तियां जला कर वापस जाना चाहती थी, ताकि जली हुई कश्तियों पर सवारी करके अफ़क़ अर्सलान उस तक न पहुंच सके।
"मैं इस मुल्क और इन्हीं पहाड़ों में रहती हूं। काराकोरम के पहाड़ ही मेरा घर हैं।" वह समझ गया कि वह नहीं बताना चाहती, सो मुस्कराकर बोला,
"हाँ, मैंने सुन रखा था कि काराकोरम के पहाड़ों पर परियां उतरती हैं।"
"और तुमने उस रोज़ यह बात जेनेटिक यक़ीन से भी कही थी, ना?"
"मैं इस बात से बेख़बर था कि तुम पीछे बैठी हो।"
"मगर मैं परी नहीं हूँ।" उसने उदासी से हाथ में पकड़े हैट पर खिले लाल गुलाब को देखा।
"तुम परी हो!"
"नहीं।" उसने नफ़ी में गर्दन हिलाई, "नाम से कोई परी नहीं बन जाता। मेरा सिर्फ़ नाम 'परी' है।"
"जानती हो, परी! जब मैंने तुम्हें पहली बार देखा था, तो मुझे क्या लगा था? यूं जैसे काराकोरम के बर्फ़ीले परबतों से रास्ता भटक कर, मरगल्ला की इस पहाड़ी पर बरसती बारिश में पनाह लेने वाली कोई मासूम और ख़ौफ़ज़दा परी हो..."
"मैंने अरसा हुआ, ख्वाबों की दुनिया में रहना छोड़ दिया है। टूटे ख्वाब बहुत अज़ीयत देते हैं, अफ़क़!"
वह खामोश रहा, फिर कुछ सेकंड बाद आसमान की तरफ़ देखकर बोला, "रात बहुत गहरी हो चुकी है, अब सोना चाहिए।"
"तुम जाओ, मैं अभी झील के किनारे बैठना चाहती हूँ।" वह उससे दूर झील के किनारे बैठ गई, जूते उतारकर एक तरफ़ रखे और माहोड़ंड की काली दिखने वाली झील, जिस पर चांदनी की तह चढ़ी थी, उसमें पांव लटका दिए।
वह अपने ख़ेमे की तरफ़ बढ़ गया। अलबत्ता, ख़ेमे की ज़िप खोलने से पहले, एक लम्हे के लिए उसने पीछे मुड़कर ज़रूर देखा था, जहां वह पानी में पांव लटकाए, चांद की मीठी चांदनी के खामोश गीत सुन रही थी।